समझ में नहीं आता कि इस सच से वाक़िफ़ होने के बावजूद आज तक भारत की कोई सरकार कोई बांध नीति क्यों नहीं बना सकी? क्यों नहीं बता सकी कि बांध बने या नहीं? बने तो कैसे? कहां? कितने की सीमा तय करने का आधार क्या हो? उनके डिज़ाइन क्या हों? जितना जोर पनबिजली पर है, उतना जोर हमारे निवेशक और सरकार.. दोनों का पवन, सौर और भू-तापीय ऊर्जा पर क्यों नहीं है? तीनों तरह की ऊर्जा पवित्र मानी जाती है। तीनों के नुकसान नहीं है; बावजूद रिपोर्ट इन विकल्पों को लेकर कोई ज़ोरदार सिफारिश नहीं करती।
विकल्प: उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा
रिपोर्ट भले ही न कहे, लेकिन मेरा यह मानना है कि उत्तराखंड को अपनी जरूरत भर की बिजली बनाने के लिए अपने स्रोत खुद तय करने का हक है। वह करे। बस! पंच प्रयाग बनाने वाली गंगा की छह धाराओं को छेड़ना छोड़ दे। गंगा की मूल रिपोर्ट द्वारा तय विद्युत उत्पादन सीमा 6,942 मेगावाट है। कोई दूसरी रिपोर्ट आकर इसे बढ़ा भी सकती है। यह आशंका हमेशा रहेगी। खैर! यह सीमा 20 वर्ष बाद उत्तराखंड में खपत के लिए जितनी बिजली चाहिए होगी, अभी ही उसकी तीन गुना है। रिपोर्ट यह क्यों नहीं कहती कि इसे घटाकर अपनी जरूरत तक सीमित करे। आय और विकास के दूसरे मानदंडों को हासिल करने की योजना उत्तराखंड को नदी, पर्वत और प्रकृति के अनुकूल मॉडल के रूप में रखते हुए बने। अच्छा होता कि रिपोर्ट उत्तराखंड के लिए केन्द्र सरकार से विशेष धनराशि और विशेष राज्य के दर्जा देने की सिफारिश करती।
उत्तराखंड समेत सभी हिमालयी राज्य तथा झारखण्ड और बुंदेलखंड जैसे प्राकृतिक वन क्षेत्र ऐसे टापू हैं, जिनके विकास का मॉडल और इलाकों जैसा नहीं हो सकता। इन्हें प्रकृति,वन, तीर्थ और ज्ञान क्षेत्र के रूप में ही विकसित किया जाना चाहिए। विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए यह जरूरी है। सरकार कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष क्षेत्रों के रूप में बजट में अलग से धनराशि प्रदान करती है; ताकि उनके पास अपनी आय देने वाले बेहतर विकल्पों के लिए लागत संसाधन की कमी न होने पाये। उत्तराखंड के लिए यह क्यों नहीं होना चाहिए? यदि बिहार विशेष दर्जे की मांग कर सकता है, तो उत्तराखंड क्यों नहीं? नदी समग्र चिंतन की मांग करती है और रिपोर्ट का नज़रिया एकतरफ़ा है। यह रवैया दो बूंद अमृतजल की गारंटी नहीं देता। कौन देगा? क्या आप?? गंगा को इंतजार है।