गंगा : साधु-संतों से कुछ अपेक्षाएं भी हैं

18 Jul 2012
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भारत की सबसे प्रमुख पहचान गंगा है। अगर गंगा को नहीं बचाया गया तो भारत देश का नाम कैसे बचेगा। जिस गंगा का नाम लेने मात्र से पवित्रता का बोध होता है। यह देश की एकता और अखंडता का माध्यम और भारत की जीवन रेखा के अतिरिक्त और बहुत कुछ है। गंगा जीवनदायिनी और मोक्षदायिनी दोनों है। एक समय में हमारी आस्था इतनी प्रबल थी कि फिरंगी सरकार को भी झुकना पड़ा था। अंग्रेजी हुकूमत ने गंगा के साथ आगे और छेड़छाड़ न करने का वचन दिया था। पर अंग्रेजों की सांस्कृतिक संतानें आज गंगा को लुटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं। गंगा पर हो रहे अत्याचार के बारे में बता रहे हैं रामबहादुर राय।

पिछले दो-तीन सालों से जिस तरह की गतिविधियां गंगा के बारे में चलाई जा रही हैं, वे आशा नहीं जगातीं। यह बात अलग है कि उन गतिविधियों को संचालित करने वाले कोई ऐरे-गैरे लोग नहीं हैं। साफ है कि वे बहुत माने-जाने लोग हैं। उनकी प्रतिष्ठा है। कई तो ऐसे हैं जो न केवल प्रतिष्ठित हैं, बल्कि पदस्थापित भी हैं। ऐसे लोगों के प्रयास से गंगा को बचाने का जो भी काम चलेगा, उसे सफल होना चाहिए। यही आशा की जाती है।

इसमें कोई संदेह न पहले था न आज है कि गंगा का हमारे जीवन में कितना गहरा असर है। धार्मिक ग्रंथों में गंगा का जो वर्णन है, वह उसके प्रभाव को बढ़ाता है और बनाए रखता है। न जाने कब से यह परंपरा बनी हुई है। इतना तो साफ है कि गंगोत्री से गंगासागर तक दूरी चाहे जितनी हो और गंगा चाहे जहां की भी हो, उसकी एक-एक बूंद पवित्र मानी जाती है। इसी तरह गंगा के किनारे जो थोड़ा क्षण भी गुजार लेता है, वह इस रूप में स्वयं को धन्य पाता है कि गंगा के प्रवाह में वह न केवल भागीरथ को देखता है बल्कि उन पुरखों को भी देखता है, जो उसके अपने हैं। गंगा का प्रवाह ही ऐसा है। गंगा की पवित्रता उसके प्रवाह में है। वह प्रवाह परंपरा का है और उस क्षण का है, जिस क्षण का व्यक्ति साक्षी बनता है। परंपरा में अनुभूति का अधिक महत्व होता है और साक्षी होने में उस क्षण का महत्व होता है। प्रवाह और परंपरा की यह गंगा साक्षात् माता स्वरूप है। यही वह भावना है जो गंगा से हर जन की जुड़ी हुई है। पहले भी गंगा पर संकट के बादल मंडराए हैं, लेकिन उन्हें हमारे महापुरुषों ने अपने बुद्धि बल से हल कर लिया। एक संकट उस समय पैदा हुआ, जब नहर बनाने के लिए अंग्रेजों ने गंगा के प्रवाह को रोकने और उसका रास्ता बदलने के कुचक्र रचे। तब पंडित मदन मोहन मालवीय ने देश में प्रचंड जनमत जगाया। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत को झुका दिया। उसे अपना इरादा बदलना पड़ा। लेकिन मदन मोहन मालवीय भविष्यद्रष्टा भी थे। उन्होंने भविष्य को भांप लिया था और देख लिया था कि गोरे अंग्रेजों को तो उन्होंने झुका दिया, लेकिन यही काम ‘काले अंग्रेजों’ के साथ साधना बहुत कठिन होगा।

इस दुनिया से जाते-जाते उन्होंने अपने आस-पास के लोगों को चेताया था। वह चेतावनी गंगा महासभा के लोगों को याद है। अफसोस यह है कि मालवीय जी की बनाई हुई गंगा महासभा में न गंगा बची है, न महासभा। वह निष्प्राण है। बताइए, क्या मुर्दा किसी ताकत से लड़ सकता है? गंगा पर संकट कोई अचानक नहीं आया है। इस सृष्टि में कोई भी चीज अचानक नहीं होती। उसके होने में लंबे कारण होते हैं। वह किसी घटना का एक क्रम होता है। गंगा पर भी आया हुआ संकट ऐसा ही है। इसमें व्यक्तियों, संस्थाओं और सरकारों पर निशान लगा देने मात्र से इतना ही संतोष हो सकता है कि दोषी को पहचान लिया गया है। इसका दूसरा पहलू ज्यादा महत्वपूर्ण है कि जो व्यवस्था है, वही इसके मूल में है जो संकट मंडरा रहा है। उस व्यवस्था को जानने और समझने से संकट का स्वरूप सामने आ सकता है। कहना यह है कि जब तक रोग का सही निदान न हो, तब तक औषधि कौन सी काम करेगी, इसका निर्धारण नहीं हो सकता।

पिछले दो-तीन सालों से जिस तरह की गतिविधियां गंगा के बारे में चलाई जा रही हैं, वे आशा नहीं जगातीं। यह बात अलग है कि उन गतिविधियों को संचालित करने वाले कोई ऐरे-गैरे लोग नहीं हैं। साफ है कि वे बहुत माने-जाने लोग हैं। उनकी प्रतिष्ठा है। कई तो ऐसे हैं जो न केवल प्रतिष्ठित हैं, बल्कि पदस्थापित भी हैं। ऐसे लोगों के प्रयास से गंगा को बचाने का जो भी काम चलेगा, उसे सफल होना चाहिए। यही आशा की जाती है। जिन्हें मैं जानता हूं, उन लोगों की ही अगर एक सूची बनाएं तो उनकी संख्या सौ से अधिक हो जाएगी और वे लोग कोई साधारण किस्म के नहीं हैं, अपने क्षेत्र के बड़े व्यक्ति हैं। जब मेरे परिचितों में से इतने लोग गंगा बचाने में लगे हैं तो सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे देश में इनकी संख्या बहुत बड़ी होगी। वह वास्तविक भी है। लेकिन दिखता यह है कि ये सारे प्रयास उसी तरह के हैं, जैसे कोई रेत से सुगंधित तेल निकालने का प्रयास करता हो। क्या कभी रेत से तेल निकल सकता है? अगर तेल ही नहीं निकलेगा तो सुगंधित होना तो बहुत दूर की बात है।

इसका एक अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अब कोई गंगा को बचा नहीं सकता। जल्दबाजी में जो यह अर्थ खोजेगा, उसे ज्यादा दोष नहीं दिया जा सकता, लेकिन यह भी नहीं कह सकते और न मान सकते हैं कि गंगा को बचाया नहीं जा सकता। अगर गंगा को नहीं बचाया जा सकता तो क्या भारत नाम का देश बचेगा? भारत सिर्फ कोई भूगोल नहीं है, यह वह देश है जिसमें भूगोल उसका हिस्सा है, लेकिन वही सब कुछ नहीं है। फिर क्या है? इसे जानने और समझने के बहुत सारे रास्ते हैं। बहुत सारी पहचान हैं। उनमें से एक प्रमुख पहचान गंगा है तो दूसरी गौ है। गौ और गंगा अभिन्न हैं। पहले गौ पर संकट आया और हमने उसको अपनी नियति मान लिया तो उसी का एक परिणाम आया है, गंगा पर संकट के रूप में।

गंगा रक्षा के लिए जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए साधु-संतगंगा रक्षा के लिए जंतर-मंतर पर इकट्ठा हुए साधु-संतगौ पर संकट अंग्रेजों के कारण आया। अंग्रेजों की फौज जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे गौ पर संकट भी बढ़ता गया। आजादी के बाद यह संकट पहले ही दिन से दूर हो सकता था। लेकिन आखिरी हिंदुस्तानी वायसराय ने इस प्रथा को बनाए रखा। आप जानते हैं कि वह कौन था? वे और कोई नहीं, पंडित जवाहर लाल नेहरू थे। अंग्रेजों से गौ रक्षा के सवाल पर इस देश के लोगों ने करीब अस्सी साल लड़ाईयां लड़ीं। आजादी की लड़ाई में यह मुद्दा भी शामिल था। इसीलिए महात्मा गांधी ने जिनको पहला सत्याग्रही बनाया, उस विनोबा भावे ने अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में यह सवाल बड़ी संजीदगी से उठाया। जवाहर लाल नेहरू तो नहीं थे, पर उनकी बेटी से वे उम्मीद करते थे कि वे गौ वंश की रक्षा के लिए न केवल प्रधानमंत्री के रूप में, बल्कि एक मां होने के नाते भी कोई कदम उठाएंगी। उन्हीं के शासन में प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने गौ रक्षा के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी और आमरण अनशन पर बैठ गए। इससे देशभर के साधु और संतों ने बीड़ा उठाया। वे संकल्पबद्ध होकर दिल्ली आए। उन्हें गौ रक्षा का आश्वासन तो नहीं मिला, जो मिला वह गोली-बारूद का प्रसाद था। बहुत से साधु मारे गए और ज्यादा घायल हुए। तब से गौ रक्षा का सवाल पृष्ठभूमि में चला गया है।

अब साधु-संत गौ रक्षा को भूल गए हैं। उन्हें गंगा रक्षा की चिंता है। उनमें से कुछ साधु-संत पिछले दिनों दिल्ली आए। जंतर-मंतर पर धरना दिया। वे अखबारों में छपे और चैनलों पर दिखाए भी गए। लोग उन्हें अखबारों और चैनलों में देख-सुनकर विस्मित हैं कि जो काम जहां राजनीतिक संगठन करते हैं, वहां अब साधु-संतों का डेरा लगा है। विस्मय इस बात पर है कि क्या उन्हीं तौर-तरीकों से गंगा की रक्षा हो पाएगी, जो राजनीतिक दल अपने लिए एक हथकंडे के रूप में अपनाते हैं। इससे यह संदेह स्वभाविक रूप से पैदा होता है कि कहीं यह साधु-संतों का ऐसा हथकंडा तो नहीं है, जिसे उन्हें दस जनपथ ने पकड़ा दिया है? इस संदेह के कई आधार हैं। पहला कि साधु-सतों के मंच पर कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह की उपस्थिति अकारण नहीं हो सकती। दूसरा कि शंकराचार्य की दो-दो पीठों पर जो महामूर्ति विराजमान हैं वे स्वामी स्वरूपानंद हैं। वे जहां बैठ जाते हैं वहां से उठते ही नहीं हैं। यह बात अलग है कि वे जंतर-मंतर पर बैठने के लिए नहीं आए थे, उठने के लिए ही आए थे।

इस रूप में उद्देश्य पूरा हो गया है। वे लोगों की नजरों में उठ गए हैं और माने जा रहे हैं कि गंगा रक्षा की मशाल वे थामे रहेंगे। यह हो जाए तो चमत्कार ही होगा। क्योंकि जो व्यक्ति एक पीठ को छोड़ने का लालच संवरण नहीं कर पा रहा है, क्या वह सत्ता में बैठे लोगों का मामूली प्रस्ताव भी ठुकरा सकेगा? गंगा रक्षा अभियान की इस तरह दो कमजोरियां सामने आ गई हैं। पहली कमजोरी से लोग खिन्न थे। अब दूसरी भी उनकी मनोदशा को गिराने का कारण बन रही है। एक सज्जन, जिनका नाम बड़ा ऊंचा था वे डॉ. जी.डी. अग्रवाल हैं, जो अब स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद हो गए हैं। उन्हें आमरण अनशन का झोंका आता है। जब इच्छा होती है तो आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं और थोड़ी सी गुहार कर देने के बाद सरकार से मामूली आश्वासन पा कर अनशन तोड़ देते हैं। उनकी साख घट रही है। अब उन्हीं जैसे दूसरे महानुभाव स्वामी स्वरूपानंद सामने आ गए हैं। गंगा को बचाना तो है, पर पहले ऐसे महारथियों से ही गंगा को बचाना होगा।

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