गंगा शुद्धिकरण प्रयासों का लेखा जोखा

गंगा
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गंगा नदी के प्रारंभिक जलमार्ग में अनेक बाँधों के निर्माण के कारण जलग्रहण क्षेत्र से परिवहित मलबा, आर्गनिक कचरा तथा पानी में घुले रसायन बाँधों में जमा होने लगा है जिसके कारण बाँधों के पानी के प्रदूषित होने तथा जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर पर्यावरणीय खतरों के बढ़ने की संभावना बढ़ रही है। बाढ़ के गाद युक्त पानी के साथ बह कर आने वाले कार्बनिक पदार्थों और बाँधों के पानी में पनपने वाली वनस्पतियों के आक्सीजनविहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बन रही है। गंगा, अनादिकाल से स्वच्छ जल का अमूल्य स्रोत और प्राकृतिक जलचक्र का अभिन्न अंग रही है। उसने अपनी उत्पत्ति से लेकर आज तक, अपने जलग्रहण क्षेत्र पर बरसे पानी की सहायता से कछारी मिट्टी को काट कर भूआकृतियों का निर्माण कर रही है तथा मुक्त हुई मिट्टी इत्यादि को बंगाल की खाड़ी में जमा कर रही है। उसने लाखों साल से वर्षाजल, ग्लेशियरों के पिघलने से प्राप्त सतही जल तथा भूमिगत जल के घटकों के बीच संतुलन रख, सभ्यता के विकास को सम्बल प्रदान कर सामाजिक तथा आर्थिक कर्तव्यों का पालन किया है। वह, कछार की जीवंत जैविक विविधता का आधार है।

कहा जा सकता है कि भारत में, मानव सभ्यता के विकास की कहानी, काफी हद तक गंगा के पानी के उपयोग की कहानी है।कलकल कर बहते निर्मल जल ने गंगा के किनारे बसे समाज की निस्तार, आजीविका तथा खेती की आवश्यकताओं को बिना किसी भेद-भाव के पूरा किया है।

गंगा में प्रवाहित जल का मुख्य स्रोत वर्षाजल तथा बरसात के बाद उसमें प्रवाहित जल मुख्यतः उसके कैचमेंट में स्थित हिमनदियोें का पिघला पानी और नदी तंत्र के जुदा-जुदा कछारों से मुक्त हुआ भूजल है। प्रकृति द्वारा नियंत्रित व्यवस्था के अनुसार गंगा नदी में प्रवाहित जल प्रवाह की गति का निर्धारण नदी तंत्र के तल के ढाल द्वारा नियंत्रित होता है। गंगा को भूजल की आपूर्ति, नदी-तंत्र में वाटर टेबिल के नदी तल के ऊपर रहते तक होती है किंतु हिमनदियों का पानी गर्मी बढ़ने के साथ बढ़ता है। गंगा को कुछ मात्रा में पानी की पूर्ति शीतकालीन वर्षा से भी होती है। उसमें प्रवाहित सतही जल का अस्तित्व, नदी के समुद्र में मिलने तक ही रहता है। उसकी मात्रा प्रारंभ में कम तथा बाद में क्रमशः बढ़ती जाती है।

गंगा नदी के तल के नीचे प्रवाहित जल प्रवाह की गति का निर्धारण स्थानीय ढाल एवं नदी-तल के नीचे मौजूद परत की पारगम्यता से तय होता है। परत की पारगम्यता और ढाल के कारण विकसित दाब के संयुक्त प्रभाव से नदी को, सतह के नीचे बहने वाला पानी प्राप्त होता है। अधिक ढाल वाले प्रारंभिक क्षेत्रों में नदी तल के नीचे पारगम्य संस्तर पाया जाता है। इस परत में बहने वाले जल का दाब अधिक होता है इसलिए अधिक ढाल वाले प्रारंभिक क्षेत्रों में नदी को उसकी अधिकांश मात्रा प्राप्त होती है।

जैसे-जैसे गंगा नदी डेल्टा की ओर बढ़ती है, उसके तल का ढाल घटता है तथा नदी तल के नीचे मिलने वाले कणों की साइज कम होती जाती है। छोटे होते हुए कणों की परत की पारगम्यता और दाब समानुपातिक रूप से घटता है। इनके संयुक्त प्रभाव और समुद्र के अधिक घनत्व वाले पानी के कारण, डेल्टा क्षेत्र में नदी तल के नीचे बहने वाला पानी का बड़ा हिस्सा समुद्र तट के निकट की धरती की सतह के नीचे जमा रहता है।

गंगा नदी, सूखे मौसम में नदी तल में बचे मिट्टी के अत्यंत छोटे कणों तथा घुलित रसायनों को समुद्र की ओर ले जाती है। इसके कारण विशाल मात्रा में बारीक मिट्टी और सिल्ट तथा घुलित रसायनों का परिवहन होता है। गंगा नदी द्वारा उपरोक्त प्राकृतिक दायित्वों का निर्वाह बरसात में सर्वाधिक तथा बरसात बाद जलप्रवाहों की घटती मात्रा के अनुपात में किया जाता है। यही प्राकृतिक व्यवस्था है। यही उसके जीवंत रहने और दायित्व पूरा करने का आधार है।

अब कहानी मानवीय हस्तक्षेप की। मानवीय हस्तक्षेपों के कारण उसकी प्राकृतिक भूमिका में अनेक बदलाव हो रहे हैं। कैचमेंट में भूमि उपयोग बदलने और विकास गतिविधियों के बढ़ने के कारण गंगा के जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद जंगल घट रहे हैं। अतिवृष्टि तथा जंगल घटने के कारण तीखी ढालू भूमि पर कटाव तेजी से बढ़ रहा है।

भूमि कटाव बढ़ने के कारण उसके जलग्रहण क्षेत्र में मौजूद मिट्टी की परत की मोटाई घट रही है जिसके कारण गैर मानसूनी योगदान कम हो रहा है अर्थात जल प्रवाह घट रहा है। जल प्रवाह के घटने के कारण नदी तंत्र की प्राकृतिक भूमिका घट रही है। गैर-मानसूनी दायित्व पूरे नहींं हो रहे हैं। जलवायु बदलाव और जलग्रहण क्षेत्र में बदलते भूमि उपयोग के कारण नदी तंत्र का संपूर्ण जाग्रत इको-सिस्टम प्रतिकूल ढंग से प्रभावित हो रहा है। यह मानवीय हस्तक्षेप का परिणाम है।

गंगा नदी के प्रारंभिक जलमार्ग में अनेक बाँधों के निर्माण के कारण जलग्रहण क्षेत्र से परिवहित मलबा, आर्गनिक कचरा तथा पानी में घुले रसायन बाँधों में जमा होने लगा है जिसके कारण बाँधों के पानी के प्रदूषित होने तथा जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पतियों पर पर्यावरणीय खतरों के बढ़ने की संभावना बढ़ रही है।

बाढ़ के गाद युक्त पानी के साथ बह कर आने वाले कार्बनिक पदार्थों और बाँधों के पानी में पनपने वाली वनस्पतियों के आक्सीजनविहीन वातावरण में सड़ने के कारण मीथेन गैस बन रही है। यह गैस जलाशय की सतह, स्पिल-वे, हाइड्रल बाँधों के टरबाईन और डाउन-स्ट्रीम पर उत्सर्जित हो रही है। प्रदूषण पैदा कर रही है। बाँधों के कारण प्राकृतिक जलचक्र तथा प्राकृतिक भूआकृतियों के विकास में व्यवधान पैदा हो रहा है।

अधोसंरचना निर्माण कार्यों में रेत का उपयोग अपरिहार्य है। गंगा नदी के असंख्य स्थानों से रेत निकालने के कारण हर साल नदी मार्ग में जगह-जगह गड्ढे बनते हैं। हर साल, बाढ़ का पानी गड्ढों को भर देता है। गड्ढों में मूल रूप से जमा कणों की साइज और खनित रेत के कणों की साइज और उनकी जमावट में अंतर होता है। इस कारण, नदी तल के नीचे बहने वाले पानी के प्रवाह का नियमन करने वाली परत की भूमिका भंग हो जाती है। परिणामस्वरूप नदी तली के नीचे का पानी बाहर आने लगता है और नदी के अगले हिस्से को पानी नहींं मिलता। यह स्थिति बरसात में बाढ़ तथा सूखे मौसम में नदी के प्रवाह को कम करती है। इसी कारण नदी तंत्र की भारतीय प्रायद्वीप से निकलने वाली अनेक छोटी नदियों में असमय सूखने की स्थिति पैदा हो रही है।

सन 1986 में जब राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान का ऐलान किया था तब लगा था कि बदलाव की बयार बहेगी, गंगा की दशा सुधरेगी, उसकी पवित्रता लौटेगी और प्राकृतिक भूमिका बहाल होगी पर पिछले 28 बरस से किए जा रहे प्रयासों का किसी प्रकार की उम्मीद नहींं जगाता। प्रयासों का लब्बो-लुआव केवल इतना ही है कि गंगा शुद्धिकरण कार्यक्रमों पर देश का बहुत-सा धन और समय बर्बाद हुआ है। यह स्थिति आत्मावलोकन, तकनीक बदलने तथा दृष्टिबोध परिमार्जित करने की पुरजोर अनुशंसा करती है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गंगा का प्रदूषण, हरिद्वार से लेकर डायमंड हारबर तक मौजूद है। इस जलमार्ग में प्रदूषण की सीमा स्वीकार्य सीमा से अधिक है। गंगा के उद्गम के निकट स्थित रूद्रप्रयाग तथा देवप्रयाग में भी साल दर साल प्रदूषण बढ़ रहा है। हरिद्वार, कन्नौज और कानपुर यदि प्रदूषण के हाट-स्पाट हैं तो वाराणसी की स्थिति बेहद चिंताजनक है।

प्रसंगवश उल्लेख है कि टेम्स या ब्रिसबेन नदी के शुद्धिकरण के उदाहरण हमारे सामने हैं। उन उदाहरणों की फिलासफी अपना कर प्रोग्रामों तथा क्रियान्वयन को बेहतर दृष्टिबोध, इरादे, समर्पण और तकनीक की मदद से वही परिणाम प्राप्त किया जा सकता है जो टेम्स या ब्रिसबेन की नदियों के साफ करने वाले लोगों ने हासिल किया है।

गंगा का घटता प्रवाह शुद्धिकरण कार्यक्रमों पर भारी है इसलिए मलमूत्र, गंदगी, खतरनाक केमिकल्स तथा कारखानों के अनुपचारित कचरे को उपचार उपरांत ही विसर्जित करने को सख्ती से लागू करना होगा। गंगा के पानी को खेती, उद्योग और नगरीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए लिफ्ट करते समय उसकी शुद्धिकरण क्षमता की सीमा को ध्यान में रखना होगा।

कुछ लोगों को लगने लगा है कि गंगा नदी के शुद्धिकरण का मौजूदा तरीका ही हमारी असफलता का असली कारण है। वह तकनीकी और दृष्टिबोध की कसौटी पर विफल सिद्ध हो चुका है इसलिए गंगा के स्थायी शुद्धिकरण के लिए नए रास्ते खोजने होंगे। लीक से हटकर काम करने होंगे। नवाचारों को तरजीह देना होगा। उसके प्राकृतिक प्रवाह और प्राकृतिक भूमिका को बहाल करना होगा। इस क्रम में पहला कदम सूखे मौसम में उसके प्रवाह की मात्रा बढ़ाने के बारे में होगा।

जल प्रवाह बढ़ने से गंदगी घटेगी और नदी की पानी को खुद साफ करने की क्षमता धीरे-धीरे लौटेगी। दूसरे कदम के अंतर्गत मौजूदा व्यवस्था को चाक-चैबन्द करने तथा अनुपचारित गंदगी को कम करने वाले नवाचारी तथा परंपरागत भारतीय तरीकों के बारे में सोचना होगा। फैसले लेने होंगे और उन्हें लागू करना होगा। तीसरे कदम के अंतर्गत, स्वार्थ और हित साधन के स्थान पर पर्यावरणी कानून का राज्य स्थापित करना होगा। अवैध गतिविधियों पर सख्ती से लगाम लगानी होगी।

उपर्युक्त कदमों को अपनाने का अर्थ होगा कि हम स्वीकार करें कि भारत की अर्थव्यवस्था सीवर की बेतहाशा बढ़ती मात्रा के उपचार के व्यय का भार नहींं उठा सकती इसलिए उसे कम करने तथा नदी के प्रवाह को बढ़ाने वाले प्राकृतिक प्रयासों को बढ़ावा देना होगा। पानी लिफ्ट करने पर रोक लगाने या उसे सीमित करने जैसे प्रयासों को अनेक कारणों से अपनाना संभव नहीं है इसलिए नदी के प्रवाह को बढ़ाने वाले प्राकृतिक प्रयासों को बढ़ावा देना ही सही कदम होगा।

दूसरे हमें यह स्वीकारना होगा कि ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे पलायन के पीछे किसी हद तक हरित क्रांति और लगातार घटती जोत का प्रभाव है। इसके असर से नगरों की आबादी बेतहाशा बढ़ रही है और उसके परंपरागत सीवर नेटवर्क बौने सिद्ध हो रहे हैं। गंदी नालियों तथा जल धाराओं और सीवर इत्यादि के कारण भूमिगत जल प्रदूषित हो रहा है। विदित है कि भूमिगत जल के उपचार के लिए तकनीक और व्यवस्था के मामले में हम बहुत पीछे हैं। उसकी अनदेखी का अर्थ अवसर को हाथ से निकल जाने जैसा होगा। इस कारण सीवर उपचार के स्थानीय तथा भारतीय तरीकों को अपनाना होगा।

पिछले 28 साल का अनुभव कह रहा है कि गंगा को दिखाऊ नहीं असरकारी प्रयासों की आवश्यकता है। वह धनाभाव से नहीं तकनीकी दृष्टिबोध के अभाव के कारण प्रदूषित है। यह सोच बदलना होगा। यही कहानी भारत की लगभग सभी नदियों की कहानी है।

ईमेल : kgvyas_jbp@rediffmail.com

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