गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति! नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।

25 Aug 2010
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नदी, पहाड़, पर्वत श्रेणी और उसके उत्तुंग शिखरों से तथा इन सबसे ऊपर चमकने वाले तारों से परिचय बढ़ाकर हमें भारत-भक्ति में अपने पूर्वजों के साथ होड़ चलानी चाहिए। हमारे पूर्वजों की साधना के कारण गंगा के समान नदियां, हिमालय के समान पहाड़, जगह-जगह फैले हुए हमारे धर्म क्षेत्र, पीपल या बड़ के समान महावृक्ष, तुलसी के समान पौधे, गाय जैसे जानवर, गरुड़ या मोर के जैसे पक्षी, गोपीचंदन या गेरू के जैसी मिट्टी के प्रकार- सब जिस देश में भक्ति और आदर के विषय बन गये हैं, उस देश में संस्कारों की भावनाओं की समृद्धि को बढ़ाना हमारे जमाने का कर्तव्य है। हम अपने प्रिय-पूज्य देश को साहित्य द्वारा और दूसरे अनेक रचनात्मक कामों से सजाएंगे और नयी पीढ़ी को भारत-भक्ति की दीक्षा देंगे” (काका कालेलकर)

जीवन और मृत्यु दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है। उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। यह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं।

जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहाँ वर्षा के आधार पर ही खेती हुआ करती है, उस भूमि को ‘देव मातृक’ कहते हैं। इसके विपरीत, जो भूमि इस प्रकार वर्षा पर आधार नहीं रखती, बल्कि नदी के पानी से सींची जाती है और निश्चित फ़सल देती है, उसे ‘नदी मातृक’ कहते हैं। भारतवर्ष में जिन लोगों ने भूमि के इस प्रकार दो हिस्से किए, उन्होंने नदी को कितना महत्व दिया था, यह हम आसानी से समझ सकते हैं। पंजाब का नाम ही उन्होंने सप्त-सिंधु रखा। गंगा-यमुना के बीच के प्रदेशों को अंतर्वेदी (दो-आब) नाम दिया। सारे भारतवर्ष के ‘हिन्दुस्तान’ और ‘दक्खन’ जैसे दो हिस्से करने वाले विन्ध्याचल या सतपुड़ा का नाम लेने के बदले हमारे लोग संकल्प बोलते समय ‘गोदावर्यः दक्षिणे तीरे’ या ‘रेवायाः उत्तर तीरे’ ऐसे नदी के द्वारा देश के भाग करते है। कुछ विद्वान ब्राह्मण-कुलों ने तो अपनी जाति का नाम ही एक नदी के नाम पर रखा है- सारस्वत। गंगा के तट पर रहने वाले पुरोहित और पंडे अपने-आपको गंगापुत्र कहने में गर्व अनुभव करते हैं। राजा को राज्यपद देते समय प्रजा जब चार समुद्रों का और सात नदियों का जल लाकर उससे राजा का अभिषेक करती, तभी मानती थी की अब राजा राज्य करने का अधिकारी हो गया। भगवान की नित्य की पूजा करते समय भी भारतवासी भारत की सभी नदियों को अपने छोटे से कलश में आकर बैठने की प्रार्थना अवश्य करेगा।

भारतवासी जब तीर्थयात्रा के लिए जाता है, तब भी अधिकतर वह नदी के ही दर्शन करने के लिए जाता है। तीर्थ का मतलब है नदी का पैछल या घाट। नदी को देखते ही उसे इस बात का होश नहीं रहता कि जिस नदी में स्नान करके वह पवित्र है उसे अभिषेक की क्या आवश्यकता है? गंगा का ही पानी लेकर गंगा को अभिषेक किए बिना उसकी भक्ति को संतोष नहीं मिलता। सीता जी जब रामचंद्र जी के साथ वनवास के लिए निकल पड़ी, तब वे हर नदी को पार करते समय मनौती मानती जाती थीं कि ‘वनवास से सकुशल वापस लौटने पर हम तुम्हारा अभिषेक करेंगे’। मनुष्य जब मर जाता है, तब भी उसे वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है। थोड़े में, जीवन और मृत्यु दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है।

उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। वह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं।

पाप धोकर जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन करना हो, तब भी मनुष्य नदी में ही जाता है। और कमर तक पानी में खड़ा रहकर संकल्प करता है, तभी उसको विश्वास होता है कि अब उसका संकल्प पूरा होने वाला है। वेद काल के ऋषियों से लेकर व्यास, वाल्मीकि, शुक, कालिदास, भवभूति, क्षेमेंद्र, जगन्नाथ तक किसी भी संस्कृत कवि को ले लीजिए, नदी को देखते ही उसकी प्रतिभा पूरे वेग से बहने लगती है। हमारी किसी भी भाषा की कविताएं देख लीजिए, उनमें नदी के स्रोत अवश्य मिलेंगे और हिन्दुस्तान की भोली जनता के लोकगीतों में भी आपको नदी के वर्णन कम नहीं मिलेंगे।

कवि जिस माटी के गुण गाते थकते नहीं थे, आज वह माटी ही थक चली है। सुजला, सुफला, शस्य श्यामला धरती बंजर बनती जा रही है।

गाय, बैल और घोड़े जैसे उपयोगी पशुओं की जातियां तय करते समय भी हमारे लोगों को नदी का ही स्मरण होता है। अच्छे-अच्छे घोड़े सिंधु के तट पर पाले जाते थे, इसलिए घोड़ों का नाम ही सैंधव पड़ गया। महाराष्ट्र के प्रख्यात टट्टू भीमा नदी के किनारे पाले जाते थे, अतः वे भीमथड़ी के टट्टू कहलाए। महाराष्ट्र की अच्छा दूध देने वाली और सुन्दर गायों को अंग्रेज आज भी ‘कृष्णावेली ब्रीड’ कहते हैं।

जिस प्रकार ग्राम्य पशुओं की जाति के नाम नदी पर रखे गये हैं, उसी प्रकार कई नदियों के नाम पशु-पक्षियों के नाम से रखे गये हैं। जैसेः गो-दा, गो-मती, साबर-मती, हाथ-मती, बाघ-मती, सरस्वती, चर्मण्यवती आदि।

महादेव की पूजा के लिए प्रतीक के रूप में जो गोल चिकने पत्थर (बाण) उपयोग में लाए जाते हैं, वे नर्मदा के ही होने चाहिए। नर्मदा का महात्म्य इतना अधिक है कि वहां के जितने कंकर उतने सब शंकर होते हैं। और वैष्णवों के शालिग्राम गंडकी नदी से आते हैं।

तमसा नदी विश्वामित्र की बहन मानी जाती है, तो कालिंदी यमुना प्रत्यक्ष काल भगवान यमराज की बहन है। प्रत्येक नदी का अर्थ है संस्कृति का प्रवाह। प्रत्येक की खूबी अलग है। मगर भारतीय संस्कृति विविधता में एकता उत्पन्न करती है। अतः सभी नदियों को हमने सागर पत्नी कहा है। समुद्र के अनेक नामों में उसका सरित्पति नाम बड़े महत्व का है। समुद्र का जल इस कारण पवित्र माना जाता है कि सब नदियां अपना-अपना पवित्र जल सागर को अर्पण करती हैं। ‘सागरे सर्वतीर्थानि’।

एक समय में समाज अपने से जुड़े कामों को स्वधर्म की तरह निभाता था, आज वे सभी काम विशेषज्ञों की शोध का विषय बन गए हैं।

जहां दो नदियों का संगम होता है, उस स्थान को प्रयाग कहकर हम पूजते हैं। यह पूजा हम केवल इसलिए करते हैं कि संस्कृतियों का जब मिश्रण या संगम होता है तब उसे भी हम शुभ संगम समझना सीखें। स्त्री-पुरुष के बीच जब विवाह होता है तब वह भिन्न गोत्री ही होना चाहिए, ऐसा आग्रह रखकर हमने यही सूचित किया है कि एक ही अपरिवर्तनशील संस्कृति में सड़ते रहना श्रेयस्कर नहीं है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बीच मेलजोल पैदा करने की कला हमें आनी ही चाहिए। लंका की कन्या घोघा (सौराष्ट्र) के लड़कों के साथ विवाह करती है, तभी उन दोनों में जीवन के सब प्रश्नों के प्रति उदार दृष्टि से देखने की शक्ति आती है। भारतीय संस्कृति पहले से ही संगम-संस्कृति रही है। हमारे राजपुत्र दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते थे। केकय देश की कैकेयी, गांधार की गांधारी, कामरूप की चित्रांगदा, ठेठ दक्षिण की मीनाक्षी मीनल देवी, बिलकुल विदेश से आयी हुई उर्वशी और माहेश्वरी, इस तरह कई मिसालें बताई जा सकती हैं। आज भी राजा-महाराजा यथासंभव दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते हैं। हमने नदियों से ही यह संगम संस्कृति सीखी है।

अपनी-अपनी नदी के प्रति हम सच्चे रहकर चलेंगे, तो अंततः समुद्र में पहुंच ही जाएंगे। वहां कोई भेदभाव नहीं रह सकता। सब कुछ एकाकार, सर्वाकार और निराकार हो जाता है ‘साकाष्ठा सा परा गतिः’।

सप्त सरिता संस्कृति


नदी-भक्ति हम भारतीयों की असाधारण विशेषता है। नदियों को हम ‘माता’ कहते हैं। इन नदियों से ही हमारी संस्कृतियों का उद्गम और विकास हुआ है। नदी देखते ही उसमें स्नान करना, उसके जल का पान करना और हो सके तो उसके किनारे संस्कृति-संवर्धन के लिए दान देना, ये तीनो प्रवृत्तियां नदी दर्शन के अंग हैं। स्नान, पान और दान के द्वारा ही नदी पूजा होती है। कई नदी-भक्त पुरोहितों की मदद लेकर देवी की शास्त्रोक्त पूजा करते हैं। उसमें ‘नदी का ही पानी लेकर अभिषेक करना’ यह क्रिया भी आ जाती है।

ये नदियां या तो किसी पहाड़ से निकलती हैं या किसी सरोवर से निकलती हैं। दूसरे प्रकार कि नदियों को ‘सरोजा’ कहना चाहिए। तब पहले प्रकार की नदियों को ‘गिरिजा’ ही कहना पड़ेगा। छोटी नदियां बड़ी नदियों को अपना जल देकर उनमें समा जाती हैं और बड़ी नदियां वह सारा विशाल जल समुद्र को अर्पण करके कृतार्थ होती हैं। इसीलिए समुद्र को अथवा सागर को ‘नदीपति’ कहने का रिवाज है।

हम जैसे नदी-भक्त हैं, वैसे ही पहाड़ों के पूजक भी हैं। हमारे कई उत्तमोत्तम तीर्थ पहाड़ों के आश्रय में बसे हुए हैं और जब किसी नदी का उद्गम भी किसी पहाड़ में से होता हो तब तो पूछना ही क्या! वह स्थान पवित्रतम गिना जाता है।

ऐसे पहाड़ों के, ऐसी नदियों के, ऐसे सरोवरों के और ऐसे समुद्रों के नाम कण्ठ करना और पूजा के समय उनका पाठ करना, यह भी बड़ा पुण्य माना गया है।

जब ऐसे स्थानों के नाम हम कण्ठ करना चाहते हैं तब उनकी संख्या भी हम केवल भक्ति-भाव से निश्चित कर देते हैं। एक, तीन, पांच, सात, नौ, दस, बारह, बीस, एक सौ आठ, हज़ार, ये सब हमारे अत्यन्त पुण्यात्मक पवित्र आंकड़े हैं।

हमारी सारी पृथ्वी को हम ‘सप्तखण्डा’ कहते हैं। ‘सप्त द्वीपा वसुन्धरा’ ये शब्द धर्म साहित्य में आपको जगह-जगह मिलेंगे।

जल संपदा के मामले में कुछेक संपन्नतम देशों में गिने जाने के बाद भी हमारे यहां जल का संकट बढ़ता जा रहा है। आज गांव की बात तो छोड़िए, बड़े शहर और राज्यों की राजधानियां और देश की राजधानी तक इससे जूझ रही है।

पृथ्वी के खण्ड अगर सात हैं तो उनको घेरने वाले समुद्र भी सात ही होने चाहिए- सप्त सागर। फिर तो भारत की प्रधान नदियां भी सात होनी चाहिए। भारत में नदियां भले ही असंख्य हों, लेकिन हम सात नदियों की ही प्रार्थना करेंगे कि हमारे पूजा के कलश में अपना-अपना पानी लेकर उपस्थित रहो। भारत में तीर्थ-क्षेत्र असंख्य है, किन्तु हम लोग उनमें से कण्ठ करने के लिए सात ही नाम पसन्द करेंगे और फिर कहेंगे, शेष सब तीर्थ-स्थान इन्हीं के पेट में समा जाते हैं।

महीने के दिन निश्चित करने का भार सूर्य और चन्द्र ने ले लिया और दोनों ने मिलकर हमारा द्वादश मासिक वर्ष तैयार किया। हमने एक साल के बारह महीने तुरन्त मान्य किए। द्वादश आंकड़ा है ही पवित्र। फिर महीने के दिन हो गए तीस, लेकिन इसमें दिन का हिसाब थोड़ा-थोड़ा कमोबेश करके अमावस्या और पूर्णिमा के दिन संभालने ही पड़ते हैं। एक साल के बारह महीने और हरेक महीने के दो पक्ष, हमने तय नहीं किए। यह व्यवस्था कुदरत ने ही हमारे लिए तय कर दी। अब पक्ष के दो विभाग करना हमारे हाथ में था। हम लोगों ने सूर्य-चंद्र के साथ पांच ग्रहों को पसन्द करके महीने के चार ‘सप्ताह’ बना दिए।

हम पूजा में खाने-पीने की चीज़ें चाहे जितनी रखते होंगे, लेकिन उसके लिए सात धान्यों के ही नाम पसन्द करेंगे।

हम जानते हैं कि नदियों को जन्म देने वाले बड़े-बड़े आठ पहाड़ हैं। ऐसे पहाड़ों को हम ‘कुलपर्वत’ कहते हैं। अष्टकुल पर्वत को मान्य किए बिना चारा ही नहीं था, तो भी सप्तद्वीप, सप्तसरिता, सप्तसागर (उनको ‘सप्तर्णव’ भी कहते हैं) और सप्तपाताल के साथ पहाड़ों को भी सप्तपर्वत बनना ही पड़ा। सप्तभुवन, सप्तलोक और सप्तपाताल के साथ अपने सूर्य को हमने सात घोड़े भी दिए। हमारी देवियां भी सात। यह तो ठीक, लेकिन गीता, रामायण, भागवत आदि हमारे राष्ट्रीय ग्रंथों का सार भी हमने सात-सात श्लोकों में रख दिया। सप्तश्लोकी गीता, सप्तश्लोकी रामायण और सप्तश्लोकी भागवत कण्ठ करना बड़ा आसान होता है। आसेतु- हिमाचल भारत में तीर्थ की नगरियां असंख्य हैं। ऐसी अनेकानेक नगरियों के महात्म्य भी लिखे गए हैं। तो भी हम कण्ठ करेंगेः

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका।।


(माया याने आज का हरिद्वार, पुरी याने जन्नाथपुरी नहीं, लेकिन द्वारावती ही सातवीं पुरी है।)

भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के प्रति हार्दिक निष्ठा अर्पण करके हमने भारतीय नदियों के अपने इस स्मरण को और उनके उपस्थान को ‘सप्तसरिता’ नाम दिया। बचपन में जब हमने पिता जी के चरणों में बैठकर भगवान की पूजा-विधि के मंत्र सीख लिये, तब सात नदियों की पूजा के कलश में आकर बैठने की प्रार्थना भी सीख ली थीः

गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिंधु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।


तब नदी-भक्ति के हमारे इस नए ढंग के स्तोत्र को ‘सप्तसरिता’ नाम दिये बिना नदियों को संतोष कैसे हो सकता है?

“देश का मतलब केवल ज़मीन, पानी और उसके ऊपर का आकाश ही नहीं है, बल्कि देश में बसे हुए मनुष्य भी हैं। यह जिस तरह हमें जानना चाहिए, उसी तरह हमारी देशभक्ति में केवल मानव-प्रेम ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी जैसे हमारे स्वजनों का प्रेम भी शामिल होना चाहिए।

भारत की नदियों में कृष्णा नदी कोई छोटी नदी नहीं है। उसकी लम्बाई, उसके पानी की राशि और उसका सांस्कृतिक इतिहास भारत की किसी भी नदी से कम महत्व का नहीं है। मेरा जन्म इसी नदी के किनारे हुआ। फिर भी ऊपर की सूची में कृष्णा का नाम नहीं है और जिसका रूप और स्थान आजकल कहीं दीख नहीं पड़ता, ऐसी सरस्वती नदी का नाम ऊपर की सूची में मध्य स्थान पर है।

बचपन में और युवावस्था में भी जिसके किनारे खेलता रहा और खेती का परिचय पाने के लिए हल चलाने की मेरी क्रीड़ा भी जिसने देखी थी, ऐसे छोटे जल प्रवाह को भले नदी का नाम न दो। भारत की सौ-दो-सौ नदियों के नामों में भी जिसको स्थान नहीं मिलेगा, ऐसी छोटी मार्कण्डी नदी को याद किए बिना मेरा काम कैसे चलेगा? उसको याद करते, प्रारंभ से ही मैने कहा, “सब नदियों को मैं अपनी माता समझता हूं और उनकी भक्ति भी करता हूं लेकिन मार्कण्डी को माता नहीं, सखी ही कहूंगा। वह चाहे जितनी छोटी हो, नगण्य हो, मेरी ओर से किए हुए मेरे उपस्थान में उसको स्थान होना ही चाहिए। नदियों की फेहरिस्त में नहीं, तो मेरी इस प्रस्तावना में ही, उसे आदर और प्रेम का स्थान दूंगा।”

अपने सब नदी-भक्त पूर्वजों की दलील का उपयोग करके कहूंगा कि देश की सब नदियां इन सातों के भिन्न-भिन्न अवतार ही हैं। सात की संख्या तो रहेगी ही। एक दफ़े तो विचार हुआ था कि संख्या सत्रह करके पुस्तक का नाम रखूं -‘सप्तदशा सरिता’ का नाम छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, सो नहीं ही हुआ।

सप्तसरिता की इस आवृत्ति में मेरी भारत-भक्ति ने एक नये विचार को स्वीकार किया है। ये नदियां जब पहाड़ की लड़कियां हैं तो उनके उपस्थान में उनके पिता को भी श्रद्धांजलि मिलनी ही चाहिए।

हमारे पूर्वजों की नदी-भक्ति आज भी क्षीण नहीं हुई है। आज भी यात्रियों की छोटी-बड़ी मानव-नदियां अपने-अपने स्थान से इन नदियों के उद्गम, संगम और समुद्र-मिलन की ओर बह-बहकर उसी प्राचीन भक्ति के उतने ही ताज़े सजीव और जागृत होने का प्रमाण दे रही हैं।

हम हृदय से चाहते हैं कि हरेक भक्त-हृदय इन भक्ति के उद्गारों को सुनकर प्रसन्न हो और देश के युवकों में अपनी लोकमाताओं का दुग्धपान करके अपनी संस्कृति को, और भी पुष्ट करने की अभिलाषा जाग उठे।

सरिता पूजक काका कालेलकर के भक्तिपूर्ण वंदेमातरम
13 अप्रैल 1873

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