गोबर को ‘गोबर’ ही ना समझो

dung flower pot
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कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों का भारी मात्रा में शोषण करते हैं। इसके कारण कुछ समय बाद जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है। जैसे कि नाईट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का तेजी से क्षरण होता है। रासायनिक दवाओं और खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है। गौरतलब है कि अभी तक ऐसी कोई तकनीकी विकसित नहीं हुई है जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके। ध्यान रहे अब धरती पर जल संकट का एक मात्र निदान भूमिगत जल ही बचा है। अपने खेतों में गाय का गोबर डालें। जमीन सुधारने के लिए केंचुओं की सेवा लें, वह भी बगैर कोई मजदूरी चुकाए। थोड़ा सा ग्रह-नक्षत्र की स्थिति पर नजर रखें। पाएंगे कि आपकी थकी-हारी धरती को नया जीवन मिल गया है। आधुनिक खेती के तहत रासायनिक खाद और दवाओं के इस्तेमाल से आहत और बांझ हो रही जमीन को राहत देने के लिए फिर से पलट कर देखना होगा। कुछ विदेशी किसानों ने भारत की सदियों पुरानी पारंपरिक कृषि प्रणाली को अपना कर चमत्कारी नतीजे प्राप्त किए हैं।

कहा जाता था कि भारत सोने की चिड़िया था। हम गलत अनुमान लगाते हैं कि हमारे देश में पीले रंग की धातु सोने का अंबार था। वास्तव में हमारे खेत और हमारे मवेशी हमारे लिए सोने से अधिक कीमती थे । कौन कहता है कि अब भारत सोने की चिड़िया नहीं रहा। सोना अभी भी यहां के चप्पे-चप्पे में बिखरा हुआ है। दुर्भाग्य है कि उसे चूल्हों में जलाया जा रहा है। दूसरी तरफ अन्नपूर्णा जननी धरा तथाकथित नई खेती के प्रयोगों से कराह रही है।

रासायनिक खाद से उपजे विकार अब तेजी से सामने आने लगे हैं। दक्षिणी राज्यों में सैंकड़ों किसानों के खुदकुशी करने के पीछे रासायनिक दवाओं की खलनायकी उजागर हो चुकी है। इस खेती से उपजा अनाज जहर हो रहा है। रासायनिक खाद डालने से एक दो साल तो खूब अच्छी फसल मिलती है। फिर जमीन बंजर होती जाती है।

जमीन हमारी मां है। बेशकीमती मिट्टी की ऊपरी परत (टाप सोईल) का एक इंच तैयार होने में 500 साल लगते हैं। जबकि खेती की आधुनिक प्रक्रिया के चलते एक इंच टाप सोईल मात्र 16 वर्ष में नष्ट हो रही है। रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी सूखी और बेजान हो जाती है। यही भूमि के क्षरण का मुख्य कारण है। वहीं गोबर से बनी कंपोस्ट या प्राकृतिक खाद से उपचारित भूमि की नमी की अवशोषण क्षमता पचास फीसदी बढ़ जाती है। फलस्वरूप मिट्टी ताकतवर, गहरी और नम रहती है। इससे मिट्टी का क्षरण भी रुकता है।

यह बात सभी मानते हैं कि कृत्रिम उर्वरक यानी रासायनिक खादें मिट्टी में मौजूद प्राकृतिक खनिज लवणों का भारी मात्रा में शोषण करते हैं। इसके कारण कुछ समय बाद जमीन में जरूरी खनिज लवणों की कमी आ जाती है। जैसे कि नाईट्रोजन के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम का तेजी से क्षरण होता है।

इसकी कमी पूरी करने के लिए जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसीड (विटामिन सी) और केरोटिन की काफी कमी आ जाती है। इसी प्रकार सुपर फास्फेट के कारण मिट्टी में तांबा और जस्ता चुक जाता है। जस्ते की कमी के कारण शरीर की वृद्धि और लैंगिक विकास में कमी, घावों के भरने में अड़चन आदि रोग लग जाते हैं। नाईट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरकों से संचित भूमि में उगाए गेंहू और मक्का में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है।

रासायनिक दवाओं और खाद के कारण भूमिगत जल के दूषित होने की गंभीर समस्या भी खड़ी हो रही है। गौरतलब है कि अभी तक ऐसी कोई तकनीकी विकसित नहीं हुई है जिससे भूजल को रासायनिक जहर से मुक्त किया जा सके। ध्यान रहे अब धरती पर जल संकट का एक मात्र निदान भूमिगत जल ही बचा है।

न्यूजीलैंड एक विकसित देश है। यहां आबादी के बड़े हिस्से का जीवनयापन पशु पालन से होता है। यहां के लेाग दूध और उससे बनी चीजों का व्यापार करते हैं। इस देश में पीटर प्राक्टर पिछले 30 वर्षों से जैविक खेती के विकास में लगे हैं। पीटर का कहना है कि यदि अब खेतों को रसायनों से मुक्त नहीं किया गया तो मनुष्य का समूचा शरीर ही जहरीला हो जाएगा। वे बताते हैं कि उनके देश में फास्फाईड के अंधाधुंध इस्तेमाल से खेतों की जमीन बीमार हो गई है। साथ ही इन रसायनों के प्रयोग के बाद शेष बचा कचरा धरती के लिए कई अन्य पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है। जैसे एक टन यूरिया बनाने के लिए पांच टन कोयला फूंकना पड़ता है।

पीटर के मुताबिक जैविक खेती में गाय के सींग की भूमिका बेहद चमत्कारी होती है। वे कहते हैं कि सितंबर महीने में गहरे गड्ढे में गाय का गोबर भरें। साथ में टोटके के तौर पर गाय के सींग का एक टुकड़े को दबा दें। फरवरी या मार्च में इस सींग और कंपोस्ट को निकाल लें। खाद तो अपनी जगह काम करेगी ही, यह सींग का टुकड़ा भी जिस खेत में गाड़ देंगे वहां बेहतरीन व रोग मुक्त फसल होगी। प्राक्टर ने यह प्रयोग नारियल की खोल, प्लास्टिक के सींग आदि के साथ भी किए। परंतु उन्होंने पाया कि गाय के सींग से तैयार मिट्टी सामान्य मिट्टी से 15 गुना और केंचुए द्वारा उगली हुई मिट्टी से दुगनी अधिक उर्वरा व सक्रिय थी।

सींग के साथ तैयार कंपोस्ट को कोई 30 लीटर पानी में घोलें। इसे सूर्योदय के पहले सुबह खेतों में छिड़कें। ऐसी जमीन पर पैदावार अधिक पौष्टिक होती है, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती है और कीटनाशकों के उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती है।

पीटर का सुझाव है कि इस कार्य के लिए बरसाती या कुएं का प्रदूषण रहित पानी हलका सा गर्म हो तो परिणाम बेहतर होते हैं। यही नहीं जिन लोगों को दूध या उसके उत्पादों से एलर्जी हो, वे यदि जैविक खाद से उत्पन्न उत्पादों का भक्षण करने वाले मवेशियों के दूध का इस्तेमाल करें तो उन्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। ऐसे खेतों में पैदा आलू व अन्य कंदमूलों का स्वाद कुछ अलग होता है ।

न्यूजीलेंड सरीखे धुर आधुनिक देश के इस कृषि वैझानिक ने पाया कि अच्छी फसल के लिए गृह-नक्षत्रों की चाल का भी खयाल करना चाहिए। वे टमाटर का बीज लगाने के लिए शनि के प्रभाव और चंद्रमा की पूर्ण कला (पूर्णिमा) का इंतजार करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि ऐसे समय लगाए गए टमाटर में कभी रोग नहीं लगते हैं।

कुछ साल पहले हालैंड की एक कंपनी ने भारत को गोबर निर्यात करने की योजना बनाई थी तो खासा बवाल मचा था। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि इस बेशकीमती कार्बनिक पदार्थ की हमारे देश में कुल उपलब्धता आंकने के आज तक कोई प्रयास नहीं हुए। अनुमान है कि देश में कोई 13 करोड़ मवेशी हैं, जिनसे हर साल 120 करोड़ टन गोबर मिलता है। उसमें से आधा उपलों के रूप में चूल्हों में जल जाता है ।

यह ग्रामीण उर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है । 1976 में राष्ट्रीय कृषि आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि गोबर को चूल्हे में जलाया जाना एक अपराध है। ऐसी और कई रिपोर्टें सरकारी बस्तों में बंधी होंगी। लेकिन इसके व्यावहारिक इस्तेमाल के तरीके ‘‘गोबर गैस प्लांट’’ की दुर्गति यथावत है। राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत निर्धारित लक्ष्य के 10 फीसदी प्लांट भी नहीं लगाए गए हैं और ऐसे प्लांट सरकारी सब्सिडी गटकने से ज्यादा काम में नहीं हैं। उर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिए 2000 मेगावाट ऊर्जा उपजाई जा सकती है।

सनद रहे कि गोबर के उपले जलाने से बहुत कम गर्मी मिलती है। इस पर खाना बनाने में बहुत समय लगता है। यानी गोबर को जलाने से बचना चाहिए। यदि इसका इस्तेमाल खेतों में किया जाए तो अच्छा होगा। इससे एक तो महंगी रासायनिक खादों व दवाओं का खर्चा कम होगा। साथ ही जमीन की ताकत भी बनी रहेगी। पैदा फसल शुद्ध होगी, यह भी बड़ा फायदा होगा।

यदि गांव के कई लोग मिल कर गोबर गैस प्लांट लगा लें तो इसका उपयोग रसोई में अच्छी तरह होगा । गैस प्लांट से निकला कचरा बेहतरीन खाद का काम करेगा। इस तरह गोबर एक बार फिर हमारे देश को सोने की चिड़िया बना सकता है। जरूरत तो बस इस बात की है कि इसका उपयोग ठीक तरीके से किया जाए।

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