गोपालपुरा - न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

15 Jan 2017
0 mins read
saaf mathe ka samaj
saaf mathe ka samaj

अभी तालाब बने ही थे कि संस्था के नाम सिंचाई विभाग का एक नोटिस आ गया। नोटिस में कहा गया था कि ये तालाब अवैध हैं, इन्हें तुरन्त ‘हटा’ लिया जाये वरना सिंचाई कानून फलां-फलां के अनुसार कड़ी कार्रवाई की जाएगी। अकाल का इलाका, पानी की बेहद कमी। ऐसे में गाँव की जमीन पर अपनी ही मेहनत से तालाब बना लेने से भला कैसे कानून टूट गया? मजबूत तालाब बन गए थे, नाजुक कानून टूट गया था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि संस्था ने बिना पूछे तालाब बनवा लिये थे? यह किस्सा, पर्यावरण के एक छोटे-से काम की पहली बरसी पर फूल चढ़ाने और उसकी मृत्यु का कारण बने कुछ पत्रकारों, अधिकारियों और समाजसेवकों को लगे हाथ गरिया लेने के लिये लिखा जा सकता था। लेकिन एक तो हिन्दी का गाली-भण्डार भगवान की दया से बहुत समृद्ध नहीं है और फिर अपनी आदत भी गाली-गलौज की नहीं रही है। क्रोध के पात्र दया के पात्र बन जाते हैं।

राजस्थान के अलवर जिले का गोपालपुरा कोई बड़ा गाँव नहीं है। लेकिन पिछले वर्ष इन्हीं दिनों वह बड़ी-बड़ी खबरों में बना रहा। खबरों में पहले उसकी खूब पीठ ठोंकी गई और फिर अचानक न जाने क्या हुआ उसकी कमर तोड़ दी गई।

गाँव के सब लोगों ने वहाँ काम कर रही एक छोटी-सी संस्था ‘तरुण भारत संघ’ की मदद से अपने पानी के संकट से निपटने के लिये कोई चार साल पहले चार तालाब बनाए थे। किस्सा सचमुच पसीने से बने इन तालाबों के पनढाल को सँवारने के लिये लगाए गए गाँव के जंगल का है। पर किस्से से पहले भी एक किस्सा हो चुका था।

अभी तालाब बने ही थे कि संस्था के नाम सिंचाई विभाग का एक नोटिस आ गया। नोटिस में कहा गया था कि ये तालाब अवैध हैं, इन्हें तुरन्त ‘हटा’ लिया जाये वरना सिंचाई कानून फलां-फलां के अनुसार कड़ी कार्रवाई की जाएगी। अकाल का इलाका, पानी की बेहद कमी। ऐसे में गाँव की जमीन पर अपनी ही मेहनत से तालाब बना लेने से भला कैसे कानून टूट गया? मजबूत तालाब बन गए थे, नाजुक कानून टूट गया था। कहीं ऐसा तो नहीं था कि संस्था ने बिना पूछे तालाब बनवा लिये थे? संस्था से पूछताछ की। संस्था थोड़ी स्वाभिमानी निकली। उसने बताया कि तालाब बनाने के लिये हम किसी से इजाजत लेना पसन्द नहीं करते, हाँ विभाग को लिखकर जरूर दे दिया गया था। फिर सिंचाई विभाग से पूछताछ की तो पता चला कि उसकी चिन्ता इन तालाबों की मजबूती को लेकर है। इंजीनियरिंग पढ़े-लिखे सिंचाई विभाग के रहते ‘गँवार और अनपढ़’ लोग अपने आप तालाब बनाने लगें और कहीं वे टूट जाएँ तो नुकसान की जिम्मेदारी किसकी होगी भला? सरकारी बात में सरकारी दम भी था और दम्भ भी। संस्था से फिर पूछा कि सब कुछ सोच समझकर, नाप-तौल कर तो बनाया है? संस्था ने कोई जवाब नहीं दिया। उसकी चुप्पी से इतना जरूर याद आया कि लाखों तालाब तो सैकड़ों बरसों से बनते रहे हैं। सिंचाई विभाग को बने तो 200 बरस भी ठीक से नहीं हो पाये हैं।

तरुण भारत संघ की चुप्पी टूटी, बरसात के पहले झले के साथ। तार आया कि लोगों के सब तालाब लबालब भर गए हैं लेकिन सिंचाई विभाग के दो तालाब फूट गए हैं। किसी के लिये सुखद और किसी के लिये दुखद यह सूचना अलवर सिंचाई विभाग को पहुँचाई। तब से आज तक विभाग का मौन और शालीनता से लबालब भरा व्यवहार प्रशंसा योग्य ही माना जाना चाहिए। पाँच बरस पहले इन्हें दो-चार ‘अवैध’ तालाबों से शुरू हुआ काम आज बढ़कर एक सौ तीस तालाबों तक पहुँचने वाला है। पर इस किस्से को अभी यहीं छोड़ दें।

वापस आएँ मुख्य किस्से पर। तालाब के काम में सफलता मिलने के बाद गोपालपुरा के लोगों ने इन तालाबों के जलग्रहण क्षेत्र में पेड़ों का काम उठाया। उजाड़ व बंजर पड़ी गाँव की ही इस जमीन पर पंचायत ने प्रस्ताव पास कर पेड़ लगाने का फैसला किया। पेड़ों की रखवाली के लिये चारों तरफ पत्थर की मजबूत दीवार बनाई। सैकड़ों गड्ढे खोदे, पौधे लगाए और फिर उनकी देखरेख के लिये गाँव की तरफ से ही एक वन रक्षक की भी नियुक्ति की। लोगों के लगाए वन में चोरी करना, कटाई-छँटाई करना अपराध घोषित किया गया।

इस अपराध का दण्ड रखा गया और ऐसे अपराधों को देख कर चुप रह जाने की सजा भी गाँव ने आपस में बैठकर तय की। यह सारी व्यवस्था गाँव की सरकारी पंचायत ने नहीं, बल्कि बरसों से चली आ रही गाँव की अपनी पंचायत ने की थी।

अपनी ही जमीन पर अपने हरे-भरे भविष्य का जंगल खड़ा करने में भी कहीं सरकार ‘अवैध’ तालाब की तरह अवैध जंगल का तर्क न रख दे इस ख्याल से इस काम की भी सूचना जिले के राजस्व विभाग को दी गई और प्रार्थना की गई कि यह जमीन बाकायदा गाँव के वन के नाम कर दी जाये।

गोपालपुरा और जिला मुख्यालय की दूरी कोई बहुत तो नहीं है- बस से दो घंटे, सरकारी जीप से शायद एक ही घंटा पर सरकार की तरफ से कोई कभी गोपालपुरा नहीं आया। व्यस्त रहते हैं सरकारी अधिकारी। फिर एक जिले में कलेक्टर के नीचे न जाने कितने ढेर सारे गाँव आते होंगे। पर कभी जन अधिकारियों ने यह भी सोचा होगा कि इतने सारे गाँवों में ऐसे गाँव कितने होते जाएँगे जो अपना जंगल खुद लगाने की इजाजत माँगते हैं? अलवर प्रशासन के सामने शायद गोपालपुरा के अलावा ऐसी कोई दूसरी अर्जी तो नहीं आई थी।

एक घंटे की दूरी से कोई नहीं आ पाया, गाँव का जंगल देखकर उसकी इजाजत देने। पर इस बीच अकाल आ गया। पौधों को बचाना मुश्किल हो गया। बहुत से पौधे मर भी गए। फिर भी लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। बचे-खुचे पौधों की रखवाली करते रहे। फिर बरसात भी आ गई। अपने और आस-पड़ोस के गाँव के पशुओं से इलाके को बचाए चले जाने के कारण उस हिस्से में कहने लायक जंगल शायद नहीं खड़ा हो पाया पर आस-पास और दूर-दूर की उजाड़ पहाड़ियों के बीच एक छोटा-सा हरा धब्बा जरूर दिखने लगा था।

गोपालपुरा के अवैध तालाब और पेड़-पौधों के प्रसंग को कुछ देर यहीं छोड़कर थोड़ी देर के लिये अलवर से बाहर निकल आएँ। जिले के साथ ही लगा है हरियाणा का नूह इलाका। इस प्रसंग के काफी पहले नूह में पत्थर की खदानों में कुछ बंधुआ मजदूर मिले थे। उनको मुक्त कराने का श्रेय बंधुआ मुक्ति मोर्चे को जाता है। मोर्चे ने उन्हें अलवर प्रशासन को सौंप दिया, क्योंकि वे अलवर जिले के ही थे। पिछले कुछ वर्षों में सरकारों ने बंधुआ मुक्ति का खूब ढोल पीटा है। पोल न खुले, इसलिये जिला प्रशासन ने इन छह परिवारों को स्वीकार तो कर लिया पर उन्हें कहाँ कैसे बसाएगी यह सोचते-सोचते कई दिन बीत गए। दो-चार जगह खोजी गईं पर कहीं दमदार आबादी के कारण तो कहीं वन विभाग की जमीन के कानूनों के कारण वह उन्हें ठीक से बसा नहीं पा रही थी। सिर पर अनिश्चित भविष्य का पूरा बोझा उठाए इधर-उधर मारे-मारे फिर रहे इन परिवारों का सम्पर्क एक बार तरुण भारत संघ से भी हुआ। संघ ने तब अपने सीमित साधनों से कुछ बचा कर उनके लिये गल्ले का भी कुछ इन्तजाम किया था पर यह बात न बंधुआ मुक्ति मोर्चा को पता चली, न जिला प्रशासन को। सिर्फ इसलिये कि छोटी-सी ग्रामीण संस्था ने इसे अपना कर्तव्य समझ कर किया था, अपना प्रचार करने के लिये नहीं।

वापस लौटें गोपालपुरा के वन पर। इस बीच शायद संस्था और गाँव ने प्रशासन से वन वाली जमीन पर फैसला लेने का भी अनुरोध एकाधिक बार किया होगा। शायद प्रशासन की कुछ मजबूरी रही होगी कि ऐसी इजाजत कहीं एक बार दे बैठे तो न जाने कितने गाँव वन लगाने के लिये जमीन माँगने लगेंगे। तेजी से घट रहे वन क्षेत्र को फिर से सन्तुलित करने के लिये ऐसी माँग ठीक भी हो सकती थी शायद। बार-बार शायद लिखने की जरूरत नहीं है शायद। पर राज चलाना कोई खेल तो नहीं है। गाँव वाले इसी तरह अपने पेड़ खुद लगाने लग जाएँ तो फिर सरकार इस मोर्चे पर क्या करेगी। लोगों की भागीदारी फाइलों में ही शोभा देती है।

भीतर-भीतर क्या हुआ यह तो कोई खोजी पत्रकार ही निकाल सकता था। इसलिये यह पेचीदा काम उन्हीं पर छोड़ आगे बढ़ें। थानागाजी तहसील के तहसीलदार ने एक दिन सुबह गाँव गोपालपुरा को नोटिस भेजकर देश के वनीकरण के इतिहास में दर्ज होने लायक काम कर दिखाया। नोटिस में कहा गया था कि गाँव ने बिना इजाजत के पेड़ लगाए हैं इसलिये उस पर 4995 रुपए का दंड किया जाता है।

बंधुआ बस नहीं पाये हैं। कोई योजना ही नहीं बनी उनके लिये। पक्के घर बना कर देने की बात थी। उसमें भी कमजोर सामान लगाया गया। एक घर की छत गृहप्रवेश से पहले ही गिर गई। डर के मारे बाकी सारे लोग भी अपने घरों में नहीं गए। अब सामान वगैरह भीतर रख दिया है मगर डर बना रहता है। गाँव का वन और मन उजाड़ कर सरकार ने बंधुआ बसाए थे यह कहकर कि यहाँ वे खेती करके शानदार नए जीवन की शुरुआत करेंगे। एक बरस बीत गया है। उस जमीन को खेत में बदलने की गुंजाइश होती तो बंधुआ खेती कर ही लेते। पर सभी परिवारों के पुरुष रोजगार की तलाश में यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं।संस्था के लोग घबरा कर दिल्ली आये। यहाँ पर्यावरण का काम कर रही एक संस्था से मिले। संस्था ने दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार से बात की और दूसरे दिन उस के पहले पेज पर इस भद्दे नोटिस की खबर छपवाई- ‘जहाँ पेड़ लगाना अपराध है’। इस विचित्र खबर को पढ़ने वाले हजारों पाठकों में उस दिन प्रधानमंत्री सचिवालय के कोई अधिकारी भी थे। उन्होंने अपने प्रभावशाली दफ्तर से राजस्थान के मुख्य सचिव आदि को खटखटाया, पूछा कि यह सब बेवकूफी कैसे हो गई? ऐसे मौकों पर जो खलबली मचती है, वह सब मच गई। कलेक्टर वगैरह सभी सकते में आ गए।

तब न जाने किस स्तर पर किसके दिमाग में एक गलती को सुधार लेने के बदले में और कुछ नई गलतियाँ कर लेने की बात घुस गईं। रातोंरात फैसला ले लिया गया कि गोपालपुरा की इसी विवादास्पद जमीन पर उन छह बंधुआ परिवारों को बसा दिया जाये, जिनके बारे में प्रशासन अभी तक कुछ सोच ही नहीं पाया था। बंधुआ-पुनर्वास की ढाल ढल चुकी थी। सुबह गोपालपुरा के उसी हिस्से में जहाँ लोगों ने दीवारबन्दी करके पौधे लगाए थे, दीवार तोड़कर बंधुआ परिवार बसाए गए।

इस बीच दिल्ली के पाँच-छह बड़े अखबारों ने ‘जहाँ पेड़ लगाना जुर्म है’ खबर पर सम्पादकीय लिख डाले। जब दिल्ली के अखबारों में यह सब लिखा-पढ़ा जा रहा था, तब बंधुआओं के बसाने के लिये उसी गाँव के वन की दीवार तोड़कर भीतर उनके लिये रहने की जगह बनाने, कटाई-छटाई शुरू हो चुकी थी। उस कटाई-छटाई की खबरें भी दिल्ली आ गईं और अखबारों में छप गया कि प्रशासन ने पुलिस संरक्षण में बंधुआ बसाए और गाँव वालों के लगाए गए पेड़ कटवा दिये।

उधर अपने विरुद्ध ऐसा भयंकर प्रचार उठता देखकर अलवर प्रशासन घबरा तो गया फिर जल्दी ही उसने बंधुआ-ढाल से अपने बचाव की तैयारी कर ली और सरकारी सफाई लेकर जीपें दिल्ली के अखबारों की तरफ दौड़ा दीं। लेकिन अलवर से दिल्ली आने वाली सड़क पर दिल्ली से कुछ पत्रकार भी गोपालपुरा के लिये चल पड़े थे।

बस इसके आगे कीचड़-ही-कीचड़ है और उस कीचड़ में ऐसे-ऐसे अखबार वाले फिसलते दिखते हैं जिनके शौर्य से कहते हैं सरकारें थर्राती हैं। बंधुआओं की मुक्ति के लिये पूरे समर्पित भाव से काम कर रहे समाजसेवक भी न जाने किस दुविधा में यहाँ फिसल जाते हैं। परती जमीन को हरा-भरा करने के लिये पूरे देश में काम करने वाली प्रसिद्ध समाजसेवी संस्था भी इसमें टपकती है और प्रशासन के योग्यतम माने गए अधिकारी भी इसमें बिलटते हैं।

अचानक कलेक्टर की कोई जादू की छड़ी चलती है। पूरी घटना को एक नए दृष्टिकोण से देखा जाता है: गाँव वाले, संस्था वाले बदमाश हैं, पेड़ नहीं लगे थे, वहाँ बस केवल कुछ झाड़ियाँ थीं, इधर-उधर दीवारबन्दी थी तो बस जमीन पर नाजायज कब्जा करने के लिये। गाँव ने बंधुआओं को न बसने देने का यह षडयंत्र रचा होगा। गाँव पर प्रशासन के ‘अत्याचार’ से बेहद नाराज इस अखबार का युवा पत्रकार अलवर में कलेक्टर और उनके साथियों पर बरस रहा था कि उसे अचानक भीतर आने का संकेत मिलता है। शायद एकान्त में अधिकारी उसे समझाते हैं- पूरा किस्सा एक बेमतलब की संस्था और बंधुआ विरोधी गाँव का है जिसे पर्यावरण का रंग दिया जा रहा है और आप नाहक इनके चक्कर में पड़ रहे हो।

अगले दिन इस अखबार के पहले पन्ने पर किस्सा छपता है। ‘कहीं हम पर्यावरणवालों के चक्कर में भटक तो नहीं गए।’ पूरे समाचार में गाँव और संस्था की पिटाई करने की कोशिश होती है और बंधुआओं और सरकार का पक्ष लिया जाता है।

बाद का किस्सा लम्बा है। उसे यहीं छोड़ दें। इतना जरूर लिखना होगा कि उसके बाद बंधुआओं को वहाँ ‘बसा’ कर उनके तमाम शुभचिन्तक-पत्रकार, सम्पादक, प्रशासन और बंधुआओं को आजाद करवाने वाले समाजसेवक-कोई इस जगह नहीं आता। ऊबड़-खाबड़ पथरीली और उजाड़ जगह पर वे बंधुआ भगवान भरोसे छोड़ दिये जाते हैं। लेकिन सब तरफ से पिट चुका गाँव और वहाँ की छोटी-सी संस्था इस सब अपमान के बाद भी अपना कर्तव्य नहीं भूलती। अपने वन के उजड़ने का दुख भूलकर वह इन छह परिवारों को गाँव के अतिथि की तरह स्वीकार करती है। गाँव से उनका एका कराती है। बरसात के दिनों में जब उनकी कच्ची झोपड़ियों के आस-पास साँप वगैरह निकलने लगते हैं तो ऊपर सोने के लिये कुछ खाटों का इन्तजाम करती है। बच्चों के बीच कपड़े और परिवारों के लिये एक बार फिर गल्ले का इन्तजाम करती है। जिस गाँव और संस्था को उनका दुश्मन बता दिया था- आज वही गाँव और संस्था उनके दुखों में काम आ रहे हैं।

बंधुआ बस नहीं पाये हैं। कोई योजना ही नहीं बनी उनके लिये। पक्के घर बना कर देने की बात थी। उसमें भी कमजोर सामान लगाया गया। एक घर की छत गृहप्रवेश से पहले ही गिर गई। डर के मारे बाकी सारे लोग भी अपने घरों में नहीं गए। अब सामान वगैरह भीतर रख दिया है मगर डर बना रहता है। गाँव का वन और मन उजाड़ कर सरकार ने बंधुआ बसाए थे यह कहकर कि यहाँ वे खेती करके शानदार नए जीवन की शुरुआत करेंगे। एक बरस बीत गया है। उस जमीन को खेत में बदलने की गुंजाइश होती तो बंधुआ खेती कर ही लेते। पर सभी परिवारों के पुरुष रोजगार की तलाश में यहाँ-वहाँ भटक रहे हैं।

एक बात और। जिस गाँव को बंधुआओं के खिलाफ खड़ा घोषित किया गया था वह गाँव ऊँचे जमींदारों और बड़े किसानों का नहीं, बिल्कुल दीन-हीन वनवासियों का गाँव है। शायद ज्यादातर परिवारों की हालत बंधुआओं जैसी ही होगी।

यह सब कोई गड़े मुर्दे उखाड़ने के लिये नहीं लिखा जा रहा। जिन लोगों की गलती से एक गाँव को जिन्दा दफनाने दिया गया था, उसकी पहली बरसी पर इस सबको याद किया जा रहा है तो सिर्फ इसलिये कि ये सब लोग इस मौके पर दुबारा उस गाँव में जाएँ। एक बरस पहले जिन्होंने बढ़ चढ़कर कहा था, लिखा था वे अब ठंडे दिमाग से अपने किये को देखें। वहाँ घूमें, संस्था से, गाँव से, बंधुआओं से मिलें। उस मलबे को हटाएँ, जिसके नीचे एक ग्रामीण पहल जिन्दा दफन हो गई थी। अभी कुछ दिन बाकी हैं बरसी के। पक्की तारीख बताना जरूरी नहीं। जिन्हें गोपालपुरा जाना चाहिए उन्हें तारीख अच्छी तरह से याद है वे सब अकेले ही जाएँ, पर्यावरण वालों को साथ नहीं लें। फिर उन्हें कोई बहकाएगा नहीं। वहाँ जाकर उन्हें पता चल सकेगा कि न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे।

साफ माथे का समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

भाषा और पर्यावरण

2

अकाल अच्छे विचारों का

3

'बनाजी' का गांव (Heading Change)

4

तैरने वाला समाज डूब रहा है

5

नर्मदा घाटीः सचमुच कुछ घटिया विचार

6

भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया

7

पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और

8

बीजों के सौदागर                                                              

9

बारानी को भी ये दासी बना देंगे

10

सरकारी विभागों में भटक कर ‘पुर गये तालाब’

11

गोपालपुरा: न बंधुआ बसे, न पेड़ बचे

12

गौना ताल: प्रलय का शिलालेख

13

साध्य, साधन और साधना

14

माटी, जल और ताप की तपस्या

15

सन 2000 में तीन शून्य भी हो सकते हैं

16

साफ माथे का समाज

17

थाली का बैंगन

18

भगदड़ में पड़ी सभ्यता

19

राजरोगियों की खतरनाक रजामंदी

20

असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध

21

नए थाने खोलने से अपराध नहीं रुकते : अनुपम मिश्र

22

मन्ना: वे गीत फरोश भी थे

23

श्रद्धा-भाव की जरूरत

 


Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading