ग्रामीण नवाचार: नीतियाँ एवं बाधाएँ

नवाचार से सामान्य तात्पर्य पहले से चली आ रही व्यवस्था, स्थापित कानूनों, नीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों या प्रक्रिया में परिवर्तन, उपकरण या पद्धति में परिवर्तन लाकर ऐसा कुछ नया करना है जो प्रवर्तित की तुलना में अधिक सस्ता, सरल, सहज एवं समस्या-समाधानकारी हो। नवाचार में ‘नया विचार’ केन्द्रबिन्दु है।

घटना लगभग चार-पाँच दशक पुरानी है। सोनीपत (हरियाणा) के पास जी.टी. रोड का चौड़ा करने का कार्य चल रहा था। बीच सड़क एक बड़ी चट्टान बाधा बनी हुई थी। उस चट्टान को हटाए बिना सड़क मार्ग सीधा नहीं रह सकता था। रोजाना दिल्ली से अधिकारी आते, मशीनें आती तथा उस चट्टान को हटाने के नाकाम प्रयास होते। ब्लास्ट इसलिए नहीं कराना चाहते थे कि आसपास घनी फसल को नुकसान होता। अपने खेत पर कार्य करता एक किसान रोजाना यह दृश्य देखता। एक दिन साहस करके वह अधिकारियों तक पहुँचा तथा उनकी समस्या पूछी। जैसा कि भारतीय नौकरशाही में होता है उन अधिकारियों ने उस अनपढ़ ग्रामीण किसान को झिड़क दिया कि तेरी समझ से बाहर की समस्या है। दोबारा जिज्ञासा प्रकट करने पर उन्होंने किसान को बताया कि यह चट्टान सड़क मार्ग से हटाना चाहते हैं। किसान ने तत्काल सुझाया कि इस पत्थर को उठाना या हटाना कठिन है तो इसके बगल में एक बड़ा गड्ढा खोद कर इसे उसमें धकेल दो। ऐसा ही किया गया तथा बड़ी समस्या सहजता से सुलझ गई। नब्बे के दशक में यह गौरवपूर्ण वृतांत सोनीपत के सभी सरकारी कार्यालयों में लिखा-टंगा रहता था। सोनीपत के किसान की यह युक्ति ही नवाचार या नवप्रवर्तन या इनोवेशन है। इसीलिए विक्टर ह्यूगो कहते हैं- ‘‘इस दुनिया में उस विचार से शक्तिशाली कुछ भी नहीं है जिसका समय आ गया है।’’ विचार की प्रासंगिकता देश, काल तथा परिस्थिति से होती है। भारतीय ग्रामीण समुदाय अपनी दैनन्दिन समस्याओं के समाधान के लिए नित्न नए नवाचार करता है किन्तु वे सभी दुनिया के सामने नहीं आ पाते है।

जुगाड़: शुद्ध भारतीय ग्रामीण नवाचार


जुगाड़ ठेठ ग्रामीण एवं भारतीय नवाचार है। यह भारत की देशी शब्दावली है जो उत्तरी भारत में बीसवीं सदी के सत्तर के दशक में डीजल पम्पसैट पर स्टीयरिंग, कमानी, ब्रेक तथा चार पहिए लगाकर मोटर वाहन का रूप देने की देशी तकनीक से लोकप्रिय हुई। कालान्तर में अनेक ऐसे प्रयास हुए जिनसे ‘जुगाड़ प्रोद्योगिकी’ चर्चा में बनी रही, जैसे- साइकिल की रिम से टेलीविजन का एंटीना बनाया गया; बांस से बने नकली दांत (असम के दोधी पाठक द्वारा); न्यूट्रल मोड़ में आते ही वाहन का स्वतः रुक जाना (छत्तीसगढ़ के तुकाराम वर्मा द्वारा); निःशक्तजनों हेतु कार (पैरों से निःशक्त मुजीब खान द्वारा)।

इसके अतिरिक्त पुराने सेल, सोडा, सर्फ, यूरिया तथा गोबर से बिजली उत्पादन तथा आराम एवं व्यायाम दोनों के लिए मारुति झूला जुगाड़ प्रौद्योगिकी के उदाहरण हैं। जयपुर के रामचन्द्र वर्मा एवं डाॅ. पी.के. सेठी द्वारा सन 1968 में रबड़ तथा मेटल शीट से ईजाद किया गया जयपुर फुट (Jaipur Leg) भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। दक्षिण भारत में मछुआरों द्वारा शक्तिशाली मोटरसाईकिल के इंजन से मछली परिवहन हेतु बनी ‘मीन बाडी वण्डी’ भी इसी श्रेणी का उदाहरण है।

ग्रामीण नवाचार से सम्बद्ध नीतियाँ:


भारत वह लोकतांत्रिक एवं कल्याणकारी प्रशासकीय देश है जहाँ प्रत्येक कृत्य केन्द्र या राज्य सरकार के किसी कानून या नियंत्रणकारी मंत्रालय या विभाग द्वारा निर्देशित होता है। नवाचारों से सम्बन्धित कई सरकारी प्रयास विगत दो-तीन दशकों में हुए हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (2007) की रिपोर्ट में भी परम्परागत ज्ञान एवं नवाचारों को सहेजने एवं प्रोत्साहित करने की अनुशंसा की गई है।

राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान:


भारत सरकार के विभाग एवं प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्तशासी संगठन के रूप में फरवरी, 2000 में राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान (एन.आई.एफ) की स्थापना की गई थी। किसानों, मिस्त्रियों, कलाकारों तथा तृणमूल-स्तर पर अन्य व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले नवाचारों को प्रोत्साहन देने, उन्हें पुरस्कृत करने, पेटेंट कराने तथा विकसित कर बाजार लायक बनाने हेतु यह प्रतिष्ठान सतत प्रयत्नशील हैं। प्रति दो वर्ष में यह प्रतिष्ठान राष्ट्रीय प्रतियोगिता आयोजित करता है जिसमें कोई भी व्यक्ति अपना आविष्कार या नवाचार प्रस्तुत कर सकता है। सीनियर सेकेण्डरी कला तक के विद्यार्थियों हेतु भी यह प्रतिष्ठान इग्नाइट (Ignite) प्रतियोगिता आयोजित करता है। हनी बी एवं सृष्टि नामक स्वयंसेवी संस्थाओं की सहायता से यह प्रतिष्ठान कई प्रकार की परियोजनाएं एवं गतिविधियां संचालित करता है। सिडबी भी ऐसे नवाचारों को प्रोत्साहित करने हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करता है। सन 1997 में गुजरात में (Gian अर्थात Grassroot Innovation Agumentation Network) स्थापित किया गया था। सन 2002 में राजस्थान में तथा 2009 में कश्मीर विश्वविद्यालय में ऐसे ही केन्द्र स्थापित हुए।

राष्ट्रीय नवप्रवर्तन प्रतिष्ठान से सम्पर्क करने एवं अधिक जानकारी हेतु पता इस प्रकार है-राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद, सेटेलाईट काॅम्पलैक्स, मानसी क्राॅस रोड के पास, जोधपुर टेकरा, अहमदाबाद-380 015, फोन-: 079-26732456/26753501, ईमेल: info@nifindia.org, website: www.nif.org.in
इस प्रतिष्ठान की 10वीं द्विवार्षिक प्रतियोगिता हरित तृणमूल स्तरीय गैर-सहायता प्राप्त तकनीक, विचार एवं उत्कृष्ट परम्परागत ज्ञान पर केन्द्रित है जिसकी प्रविष्टि 31 मार्च, 2017 तक भेजी जा सकती है।

राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद:


सन 2010 में भारत सरकार ने 2011-2020 के दशक को ‘नवाचार दशक’ घोषित करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री ने सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद गठित की जिसे नवाचारों के लिए रोड मेप बनाने, बढ़ावा देने, मार्गोपाय सुझाने, लोकनीति निर्मित करने तथा अन्तर अनुशासनात्मक दृष्टिकोण से समावेशी विकास करने का दायित्व दिया गया। सन् 2010 में केन्द्रीय परिषद की स्थापना के पश्चात् मणिपुर राज्य ने राज्य नवप्रवर्तन परिषदों का गठन किया। राजस्थान ने जून, 2011 में राज्य आयोजना बोर्ड के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में यह परिषद गठित की जिसमें सभी सदस्य सरकारी अधिकारी थे। 2014 तक तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, उत्तराखण्ड तथा प. बंगाल के अतिरिक्त सभी राज्यों में ऐसी परिषदें स्थापित हो चुकी थी। राष्ट्रीय परिषद ने मई, 2011 में नगर आधारित प्रथम परिषद के रूप में ‘वड़ोदरा नवप्रवर्तन परिषद’ को मान्यता प्रदान की। योजना आयोग में कार्यरत रही राष्ट्रीय नवप्रवर्तन परिषद सैम पित्रोदा के त्यागपत्र के पश्चात् निष्क्रिय है। वर्ष 2015-16 के आम बजट से ‘अटल नवाचार मिशन’ सामने आया है जो नीति आयोग के माध्यम से नवाचार शोधों को बढ़ावा देगा।

बाधाएँ



क- सर्वप्रथम हमें गम्भीरतापूर्वक एवं निष्पक्षता से यह स्वीकारना होगा कि भारतीय समाज मूलतः एक भावुक (इमोशनल) समाज है तार्किक (रेशनल) समाज नही निरक्षरता उतना बड़ा मुद्दा नहीं है जितना प्रचारित किया जाता है। हम जीवन में प्रत्येक पक्ष में संवेदना, भावना एवं मूल्यों का तड़का लगाते हैं यही कारण है कि कभी सारे देश में गणेश प्रतिमाएं दूध पीने लग जाती हैं। (21 सितम्बर, 1995) तो कभी एक साधु शोभन सरकार को सपना आता है कि डोंडिया खेड़ा (उन्नाव, उ.प्र.) गाँव में जमीन में सोना दबा पड़ा है तथा सरकार खुदाई (सितम्बर, 2013) करने लग जाती है तथा 21वीं सदी के भारत की जगहंसाई होती है। समस्या यह है कि प्रयोग, विचार और नवाचार सभी वैज्ञानिक पद्धति की चीजें हैं जिनका तर्क की कसौटी पर परीक्षण करना पड़ता है। हो सकता है कि कई प्रयोगों में विफलता मिले। रूढ़िवादी समाज हमेशा नया सोचने वाले का प्रथमतः उपहास करता है। उसे पागल तथा सनकी कहा जाता है क्योंकि प्रतिभा एवं पागलपन में अंतर तो केवल सफलता है। बच्चों द्वारा खिलौनों से छेड़छाड़ या उसे खोलकर सुधारने-बिगाड़ने पर भी हम उसे टोकते ही हैं, प्रोत्साहित नहीं करते हैं।

ख- दूसरी बाधा भारतीय प्रशासनिक तंत्र एवं नौकरशाही है जहाँ प्रत्येक प्रयोग एवं नवाचार पर प्रवर्तित नियम ढूँढा जाता है तथा शायद ही कभी कोई विभाग किसी किसान के पक्ष का जवाब देता है। नवाचार को प्रोत्साहित करना तो दूर की बात है। गांवों में डीजल-इंजन से चल रहे ‘जुगाड़’ अवैध वाहन सहज परिवहन साधन घोषित हैं क्योंकि न तो उनका पंजीकरण है और न ही उनमें सुरक्षा तंत्र विकसित है। क्या सरकारी तंत्र को इस ग्रामीण परिवहन साधन को विकसित एवं मान्य नहीं करना चाहिए! सामान्य समझ को वैज्ञानिक दिशा देना भी तो प्रशासन का ही दायित्व है।

ग- तीसरी बाधा नवाचारों के पंजीकरण एवं पेटेंट से जुड़ी है। बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अन्तर्गत सभी व्यक्तियों को यह अधिकार है कि वे अपनी तकनीक, उत्पाद, सूत्र, सिद्धान्त, उपकरण या रचना का बौद्धिक सम्पत्ति अधिकार प्राप्त करें। पेटेंट कानून 1970 के अन्तर्गत भारत में नए उत्पाद या नई विधि का पेटेंट किया जाता है। 2005 के पश्चात् भारत में भी ‘प्रक्रिया’ के बजाय ‘उत्पाद’ का पेटेंट होने लग गया है किन्तु वैश्वीकरण की इस आपा-धापी में हल्दी एवं नीम के पेटेंट अमेरिका करवाता है तो भारत के एक आम किसान या मिस्त्री की व्यथा को भी समझा जाना चाहिए। आदिवासी समुदाय के देशज या परम्परागत ज्ञान के खजाने का अभी तक पेटेंट नहीं हुआ है। पेटेंट प्राप्त करने की प्रक्रिया बहुत कठिन तथा समय साध्य है। ऐसे में ठेठ ग्रामीण एवं निर्धन व्यक्ति अपने नवाचार का पेटेंट कैसे करवाए? विभिन्न सरकारी संगठनों के मध्य समन्वय एवं प्रतिबद्धता का अभाव तो जगजाहिर है।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि देश में ग्रामीण नवाचारों का व्यापक आकाश है तो समस्याएं एवं बाधाएँ भी पर्याप्त हैं जिन्हें एक सुस्पष्ट नीति, प्रयासों एवं तंत्र के द्वारा दूर करना है। भारत के संविधान में निस्तर ज्ञान प्राप्ति तथा वैज्ञानिक सोच विकसित करने को एक मूल कर्तव्य (अनुच्छेद-51 क(ज)) बताया गया है अतः हमें स्कूली पाठ्यक्रम तथा घर-परिवार में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना होगा। इस कार्य में पंचायतों को भी सम्मिलित किया जाना चाहिए। ग्रामीण रूढ़ियों, अंधविश्वासों, टोना-टोटकों, जादू तथा कर्मकाण्डों पर चोट करने वाले अभियान चलाने होंगे तथा नवाचार को बढ़ावा देना होगा।

जिला-स्तर पर एक विज्ञान समिति इस कार्य का हाथ में ले तथा पेटेंट सम्बन्धी मामला हो तो उसका पंजीकरण कराना जिला प्रशासन की जिम्मेदारी घोषित कर देनी चाहिए। नवाचारी व्यक्ति की व्यथा सामने आने पर दोषी लोकसेवक को दण्डित करना चाहिए। वैज्ञानिक चिन्तन के बिना भारत विकसित राष्ट्र नहीं बन सकता।

(लेखक मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर में लोक प्रशासन के प्रोफेसर हैं।)ईमेल: skkataria64@rediffmail.com

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