गरीब और गांवों के हाथ से छीनकर जल का बाजारीकरण

गोपाल कृष्ण अग्रवाल जल के निजीकरण और बाजारीकरण पर काम करते हैं। नई जलनीति 2012 की पुरजोर कोशिश है कि जल वितरण के क्षेत्र में कंपनियों को बढ़ावा दिया जाय। गोपाल कृष्ण का मानना है कि भारत सरकार द्वारा पेश की गई, विश्व बैंक द्वारा समर्थित राष्ट्रीय जल नीति 2012 के मसौदे में उल्लिखित जल के निजीकरण को हर हाल में रोका जाना चाहिए। जल का निजीकरण पूरी तरह गरीब और गांव विरोधी है। गोपाल कृष्ण कहते हैं कि निजीकरण के बजाय केंद्र सरकार को तालाब, बावड़ी आदि जैसी पारंपरिक जल तकनीकों पर काम करना चाहिए।

जल के निजीकरण से गरीब और कमजोर लोगों की पहुंच से जल दूर हो जाएगा जो इसके लिए उतना मूल्य देने में सक्षम नहीं हैं, जितना मूल्य धनी लोग दे सकते हैं। भारत सरकार द्वारा हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय जल नीति, 2012 के मसौदे में उल्लिखित जल के निजीकरण को हर हाल में रोका जाना चाहिए, जो स्पष्ट रूप से गरीब विरोधी है। इसके साथ ही केंद्र सरकार को तालाब, बावड़ी आदि जैसी पारंपरिक जल संरक्षण पद्धतियों के पुनरुद्धार के जरिये एक एकीकृत जल संसाधन नियोजन को लागू करना चाहिए।

जल जीवन का एक महत्वपूर्ण तत्व है। इन तत्वों में से किसी के निजी स्वामित्व या व्यावसायीकरण की अवधारणा मानवता के हित में नहीं है। एक ऐसी अवधारणा जो मानवता के लिए ठीक न हो, एक राष्ट्र के लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकती। हमने पाया है कि अदालतों व सरकार सहित विभिन्न भागीदारों के साथ हमारी कई चर्चाओं व बातचीत में इस पर आम सहमति है कि जल के व्यावसायीकरण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इस पर सहमति होने के बावजूद इसे लागू करने के स्तर पर भिन्नता है। जल संसाधन के संरक्षण के नाम पर इसका एक वस्तु के तौर पर व्यावसायीकरण करने की पहल कुल मिलाकर इसे निजी संपत्ति बनाने की दिशा में इशारा करती है। यह काम वितरण एवं रखरखाव के माध्यम से सार्वजनिक-निजी साझीदारी यानी पीपीपी माडल के रूप में किया जा रहा है।

जीने के अधिकार के तौर पर जल हवा की तरह प्रकृति द्वारा नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता है और मानव इसका लाखों वर्षों से इस्तेमाल करता आ रहा है। उच्चतम न्यायालय ने एमसी मेहता बनाम कमलनाथ मामले में अपने निर्णय में कहा था कि सरकार सभी प्राकृतिक संसाधनों की एक न्यासी है। न्यास इस सिद्धांत पर निर्भर है कि हवा, समुद्र, जल और वन जैसे निश्चित संसाधनों का संपूर्ण मानव के लिए इतना अधिक महत्व है कि इन्हें निजी स्वामित्व का विषय बनाना पूरी तरह से अनुचित होगा। ये संसाधन प्रकृति के उपहार हैं, इन्हें हर किसी को नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाना चाहिए। एक अन्य मामले में केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के पास संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार है और वह लोगों से जल का या किसी अन्य प्राकृतिक संसाधनों का स्वामित्व नहीं छीन सकती। जीने के अधिकार के तहत जल तक लोगों की पहुंच का घोषणा पत्र अर्थहीन हो जाएगा अगर इसकी सुलभता केवल उन्हीं लोगों के लिए हो जो इसकी कीमत अदा कर सकते हैं।

यह उतना ही निरर्थक है जितना कि यह कहना कि सरकार केवल उन्हीं लोगों को जीवन जीने के अधिकार की गारंटी देगी जो इसके लिए भुगतान कर सकते हैं। जल के व्यावसायीकरण और देर-सबेर इसके निजीकरण के बारे में बहुत कुछ सुना जा रहा है। जब सरकार अन्य नीतियों की तरह अंतत: जल का निजीकरण करने का निर्णय करेगी तो यही कहेगी कि इसे भी सार्वजनिक हित में किया गया है, लेकिन लोगों की ओर से जल के निजीकरण के लिए मांग नहीं सुनाई देती। वर्तमान में हमारे पास दो वर्ग हैं, जिसमें पहला वर्ग प्रभावशाली और शक्तिशाली वर्ग है, जो नीति निर्धारण और इसे लागू करने के हर पहलू पर प्रभाव डालता है। यह वर्ग सब कुछ खरीदने में सक्षम है।

इस वर्ग के लिए कीमत से ज्यादा उपलब्धता मायने रखती है, लेकिन हमारी प्राथमिक चिंता दूसरे वर्ग यानी आम आदमी को लेकर है। जल के निजीकरण के लिए सबसे बड़ी वजह निजी क्षेत्र का प्रभाव है। जल एक ऐसा क्षेत्र है जो अपनी प्रकृति से प्राकृतिक एकाधिकार का सृजन करता है और निजीकरण की पहल से ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है कि सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को जल की नीलामी की जाएगी। जल की उपलब्धता और मांग के सरकारी आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि कुल मिलाकर इसकी कोई कमी नहीं है। वास्तव में जल की उपलब्धता में भारी स्थानिक विषमताएं हैं, जो पूरी तस्वीर को एक तरह से भ्रामक बनाती है। यह बात राहत देनी चाहिए कि कुल मिलाकर देश में जल की किल्लत नहीं है। इससे अधिक निराशाजनक और क्या होगा कि आजादी के छह दशक के बाद भी सरकारें अपने नागरिकों की मूलभूत जरूरतें पूरी नहीं कर सकी हैं।

मूलभूत आवश्यकताओं को उपलब्ध कराने में अपनी असफलता पर पर्दा डालने के लिए सरकारें सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने के लिए बाजार के पक्ष में तर्क दे रही हैं। भारत जैसे विकासशील देश को विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और डब्ल्यूटीओ जैसे समझौते बाजार प्रणाली को रामबाण के तौर पर अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वर्ष 1990 की शुरुआत में नीतिगत ढांचे में बदलाव ने इन्हें देश में पांव पसारने का मौका दिया और वे पश्चिमी देशों की कंपनियों के लिए नए बाजार तलाशने के अपने एजेंडे को पूरा करने के लिए नीतिगत निर्णयों को प्रभावित करते रहे हैं। विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ऋण देने की शर्तों के तहत नियंत्रण खत्म करने और विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने के नाम पर विदेशी निजी कंपनियों के लिए बड़ी भूमिका की मांग करते हैं। अब ऐसा ही कुछ जल के क्षेत्र में होने के आसार नजर आ रहे हैं।

जल के संदर्भ में सरकारों ने अनेक कार्यक्रम एवं कानून पेश किए हैं, मसलन शहरों, महानगरों और राज्यों में जलापूर्ति के लिए जल बोर्ड का गठन, भूमिगत जल निकालने और इसके इस्तेमाल के नियमन के कानून, जल संसाधन के संरक्षण पर कानून, उद्योगों को जलापूर्ति के लिए कानून आदि। यहां तक कि राष्ट्रीय जल नीति भी पेश की गई। इन सबका अध्ययन करने से स्पष्ट पता चलता है कि जल आवंटन के लिए वर्तमान जल नीति में किस तरह से बाजार की व्यवस्था का इस्तेमाल किया गया है। इससे ऐसे गरीब और कमजोर लोगों की पहुंच से जल दूर हो जाएगा जो इसके लिए उतना मूल्य देने में सक्षम नहीं हैं, जितना मूल्य धनी लोग दे सकते हैं। भारत सरकार द्वारा हाल ही में पेश की गई राष्ट्रीय जल नीति, 2012 के मसौदे में उल्लिखित जल के निजीकरण को हर हाल में रोका जाना चाहिए, जो स्पष्ट रूप से गरीब विरोधी है। इसके साथ ही केंद्र सरकार को तालाब, बावड़ी आदि जैसी पारंपरिक जल संरक्षण पद्धतियों के पुनरुद्धार के जरिये एक एकीकृत जल संसाधन नियोजन को लागू करना चाहिए।

(गोपाल कृष्ण अग्रवाल: लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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