गुमशुदा नदी को ढूंढ रहे सौ साल पुराने नक्शों से

14 May 2017
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cremation Anil Madhav Dave
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मध्यप्रदेश में इंदौर शहर के बीचो-बीच से एक नदी लापता हो गई। यह संभवतः किसी नदी के गुमशुदा हो जाने का पहला मामला है। इससे भी बड़ी हैरत की बात तो यह है कि बीते पचास–साठ सालों में इस बात की किसी को भनक तक नहीं लगी। गंगा एक्शन प्लान में शामिल इस लुप्त नदी के बारे में एनजीटी ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए नगर निगम के बड़े अधिकारियों से पड़ताल की तो उनके भी हाथ–पाँव फूल गए। नदी कहाँ थी और कब गायब हो गई, उन्हें पता ही नहीं चला। अब, जबकि एनजीटी ने कड़े तेवर दिखाए तो आनन–फानन में नदी को तलाशने की जुगत भिडाई गई। यहाँ राजस्थान से विशेष दल बुलवाकर चौबीसों घंटे नदी के उद्गम से शहर के बीच तक जमीन खोदकर उसके प्रवाह क्षेत्र की खोज की जा रही है।

सुनने में यह किस्सा भले ही रोचक लगे, लेकिन नदियों और जलस्रोतों को लेकर बीते कुछ सालों में हमारी घोर उपेक्षा को उजागर करता है। शहर के असीमित विस्तार और कथित विकास की दुहाई देते हुए हमने इन कुछ सालों में जीवनदायिनी नदियों, तालाबों और परम्परागत जल संसाधनों को बुरी तरह मटियामेट कर दिया है।

आखिरकार इंदौर नगर निगम ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की फटकार के बाद लुप्त हो चुकी सरस्वती और कान्ह (खान) नदी के वास्तविक प्रवाह मार्ग की खोज करना शुरू कर दी है। राजस्व रिकॉर्ड में मिले शहर के 1925 के नक्शों की मदद से नदियों के उद्गम स्थल से मैपिंग करते हुए मिलान किया जा रहा है। साठ सालों में नदी के प्रवाह क्षेत्र में अवैध निर्माण और अतिक्रमण इतने बढ़ गए कि अब अधिकारी भी इसका पता लगाने में असहाय हैं। इसलिए इस काम में दक्ष राजस्थान से टीम बुलाई गई है। ये लोग दिन-रात पोकलेन, जेसीबी और अन्य मशीनों के जरिए खुदाई करते हुए नदी को ढूँढने की कोशिश में जुटे हैं।

इससे पहले एनजीटी के न्यायाधीश ने खुद इंदौर पहुँचकर नदी की दुर्दशा की पड़ताल की थी और स्थिति में जमीनी सुधार नहीं होने पर निगम अधिकारियों से जवाब तलब भी किए थे। इस पड़ताल में एनजीटी के रजिस्ट्रार ने निगम के प्रयासों को नाकाफी बताते हुए शहरी विकास विभाग को इसकी मॉनिटरिंग करने को कहा है। इसके बाद कुछ अवैध निर्माण करने वालों तथा किनारे की फ़ैक्टरियों, मैरिज गार्डन तथा रहवासियों से सीवरेज की पृथक व्यवस्था करने के आदेश दिए हैं।

एनजीटी की लगातार फटकार के बाद भी इन नदियों की साफ़ सफाई का काम कछुए की चाल से हो रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट की नयी गाइडलाइन ने अधिकारियों की चिंता बढ़ा दी है। गौरतलब है कि कान्ह, सरस्वती और क्षिप्रा नदियाँ आगे जाकर गम्भीर और चंबल में मिलती हैं, जो गंगा की सहायक नदियाँ हैं। इस लिहाज से इनका महत्त्व बढ़ गया है और अब इनकी देखरेख सुप्रीम कोर्ट की गाइड-लाइन के मुताबिक हो रही है।

इस मुद्दे को एनजीटी तक ले जाने वाले समाजसेवी किशोर कोडवानी के आग्रह पर न्यायाधीश के दल ने मौका मुआयना भी किया था। वे कहते हैं कि शहर के पर्यावरण के साथ बड़ा खिलवाड़ किया गया है। इसकी नदियों पर ऊँची–ऊँची बिल्डिंग तन गई और निगम अधिकारियों ने कोई कार्यवाही नहीं की।

वे कहते हैं– 'जब हम शिशु होते हैं तो माँ हमारा मल–मूत्र तक साफ़ करती है लेकिन हम स्वार्थ में इतने अंधे हो गए हैं कि माँ की तरह की नदियों का आंचल ही मैला करने लगे हैं। कभी खान और सरस्वती का यह किनारा ओंकारेश्वर तीर्थ पर जाने वाले पदयात्रियों का पड़ाव हुआ करता था। किनारे के पंढरीनाथ मंदिर में दर्शन के बाद ही वे आगे बढ़ते थे। मंदसौर की संधि के बाद सन 1818 में होलकर शासकों ने इंदौर को अपनी राजधानी बनाया। इन दो सौ सालों में इंदौर ने इतनी तरक्की की कि आज वह देश का 14 वां बड़ा शहर बन गया है पर इस हड़बड़ी में हमने इंदौर के पर्यावरण को खत्म कर दिया। बड़े अनुमान के मुताबिक शहर की 50 हजार हेक्टेयर में से नदी और तालाबों की 781 हेक्टेयर जमीन पर भी अतिक्रमण कर निर्माण कर लिये। हम कितने कपूत हैं कि 265 वर्ग किमी क्षेत्रफल के इस शहर, जमीन का एक प्रतिशत महज 210 किमी लंबी 11 नदियों को भी जिंदा नहीं रख सके। साढ़े छह सौ करोड़ के सीवरेज प्रोजेक्ट में ड्रेनेज का पानी नदियों में आने से रोकने के लिये कोई प्रावधान नहीं है। इंदौर में हर साल 800 करोड़ रुपये तरह-तरह के धार्मिक आयोजनों पर खर्च होते हैं, लेकिन नदियों पर किसी का ध्यान नहीं है। शहर में इंजीनियरिंग के दस हजार तथा समाज सेवा के तीन हजार विद्यार्थी और इक्कीस लाख की आबादी के शहर में नदी का गुम हो जाना शर्मनाक है। गंदे नालों की वजह से शहर का 94 फीसदी भूमिगत पानी दूषित हो रहा है। हम मौत से नहीं डर रहे तो क्या अब विनाश का इंतज़ार है।'

इंदौर के करीब 35 किमी दूर माचल गाँव के जंगलों से चलती हुई सरस्वती नदी शहर में आकर कान्ह नदी से मिलकर अपना पानी सदियों तक उसमें उलीचती रही। कान्ह नदी इंदौर से 11 किमी दूर रालामंडल की पहाड़ियों से पानी लेकर शहर के बीच से गुजरते हुए सरस्वती से मिलते हुए आगे उज्जैन के सफ़र पर निकलती है, जहाँ वह क्षिप्रा नदी में जा मिलती है। कान्ह नदी की जगह अब एक गंदा नाला भर बहता है। बीते दस सालों से इसे साफ़ करने की कवायद चल रही है लेकिन करोड़ों रुपये खर्च करने के बाद भी अब तक इसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं आया है। सिंहस्थ से पहले इसका गंदा पानी क्षिप्रा में नहीं मिलने देने के प्रयास में 75 करोड़ रुपये खर्च कर इसे उज्जैन से पहले मिलाने की जगह पाइपलाइन में बहाते हुए उज्जैन के बाद क्षिप्रा में मिलाया गया।

इंदौर नगर निगम के अपर आयुक्त देवेंद्रसिंह कहते हैं– '1925 के नक्शों के मुताबिक राऊ तालाब के बाद सरस्वती नदी के लिये गहन सफाई और खुदाई का काम चल रहा है। अभी मैपिंग का काम चल रहा है। राजस्व रिकॉर्ड के साथ ही निगम का रिकॉर्ड भी निकाला गया है। 8-10 दिनों में मैपिंग की इमेज को गूगल पर इम्पोज कर इसकी वास्तविक स्थिति और प्रवाह क्षेत्र पता लग सकेगा। इससे यह पता लग सकेगा कि सालों पहले लुप्त हो चुकी सरस्वती और कान्ह नदी का अस्तित्व किस तरह था। पुराने रिकॉर्ड बताते हैं कि सरस्वती नदी शहरी सीमा में कान्ह नदी से मिलती थी। राजस्थान की नदी नालों की सफाई कर खोजने में दक्ष टीम इसे अंजाम दे रही है। ये खुद अपने संसाधन, वाहन और मशीनें लेकर आए हैं। ये चौबीसों घंटे काम करते हैं। नदी क्षेत्र में अवैध निर्माण या अतिक्रमण मिलने पर नोटिस देंगे और हटाएँगे।'

ब्रिटिश लायब्रेरी के सेंट्रल इंडिया कलेक्शन में तत्कालीन छायाचित्रकार दीनदयाल का एक चित्र है, इसमें कान्ह नदी में स्वच्छ पानी बह रहा है और आस-पास घने पेड़–पौधे हैं। इसे 1882 में इंदौर रेसीडेंसी के पुल से लिया गया था। सेप्ट विश्वविद्यालय की छात्रा अर्शिया कुरैशी ने 2007 में प्रस्तुत अपने शोध प्रबंध में दावा किया है कि कान्ह नदी में इंदौर के अलग-अलग दिशाओं से आने वाली दस नदियों का पानी मिलता था।

70-80 साल के बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने इसे बहते हुए देखा है और इससे उनकी कई स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं। 76 वर्षीय शारदा दुबे बताती हैं कि तब नदी में साफ़-सुथरा पानी बहता रहता था। इसके किनारों पर कई मंदिर थे। आस-पास के पेड़ों पर शाम–सुबह पक्षियों का कलरव होता था। लोग गर्मियों में इसके चौड़े पाट और खूबसूरत किनारों पर घूमने आया करते थे। पारसी मोहल्ले में नदी किनारे रहने वाले देवकीनंदन रायकवार बताते हैं कि कभी यह शहर की प्यास बुझाती थी। बच्चे इसमें नहाते थे। यहाँ घाट पर मुंडन होते थे। अब भी मोहल्ले में किसी भी काम से पहले ढोल-ढमाके से नदी की पूजा की जाती है। अब नदी गंदगी से पटे नाले में तब्दील हो गई है। बुजुर्गों के मुताबिक वर्तमान निहालपुर तालाब से बिलावली और पिपलिया पाला होते हुए सरस्वती नदी बहती रही है।
 

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