घट रहा है पानी

26 Mar 2018
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water level degradation
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पानी की 80 प्रतिशत से ज्यादा जरूरतें हम भूजल से ही पूरी करते हैं, लेकिन इनका पुनर्भरण नहीं करते। इन लापरवाहियों के चलते ही केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चेताया है कि पाँच साल पहले तक देश की 121 नदियाँ प्रदूषित थीं, जिनकी संख्या अब बढ़कर 275 हो गई है। इस प्रदूषण का कारण औद्योगिक और शहरी नालों की नदियों में निकासी है। साथ ही नदियों पर बाँधों का बेतरतीब निर्माण और नदियों से रेत निकालना भी है। इन कारणों के चलते आज हमारी गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियाँ भी बज-बजाते नालों में तब्दील हो गई हैं। भारत के लिये यह एक कड़ी चेतावनी है कि वह विश्व-भूगोल में उन देशों में शुमार हो गया है, जहाँ निकट भविष्य में भयंकर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की ताजा रिपोर्ट में यह चिन्ताजनक पहलू रेखांकित किया गया है कि आने वाले 30 साल के भीतर देश के जल भण्डारों में 40 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।

इस नाते देश की बढ़ती आबादी के परिप्रेक्ष्य में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता तेजी से घटेगी। उत्तर-पश्चिमी भारत तो पहले से ही भीषण जल संकट से रूबरू है। अब देश के अन्य हिस्से भी इसके दायरे में आते जा रहे हैं। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक जलस्रोतों में 22 फीसदी पानी ही शेष रह जाएगा। वर्ष-1991 और 2011 के बीच प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता में 70 फीसदी की कमी दर्ज की गई है।

हमारी वर्तमान आबादी 1.3 अरब है, जो 2050 तक 1.7 अरब हो जाएगी। इस स्थिति में दुनिया की कुल आबादी में भारत की जनसंख्या 16 फीसदी होगी। गोया, इतनी बड़ी आबादी को जल उपलब्ध कराना इसलिये कठिन होगा क्योंकि हमारे हिस्से में पृथ्वी का कुल 4 फीसदी पानी ही है। जबकि भूजल दोहन के वैश्विक खाते में हमारा हिस्सा करीब 25 प्रतिशत है। इस विसंगति के चलते पूरी आबादी को पानी उपलब्ध कराना बड़ी कठिन चुनौती है।

देश में बीते 50-60 सालों के भीतर जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का या तो क्षरण हुआ है या उनकी उपलब्धता घटी है। वे तेजी से प्रदूषित भी हुए हैं। ‘जल ही जीवन है’ की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरन्तर कम होती जा रही है।

2001 में प्रति व्यक्ति के हिसाब से वर्ष भर में पानी की उपलब्धता 1820 घन मीटर थी, जो 2011 में 1545 घन मीटर रह गई। 2025 में इसके घटकर 1341 घनमीटर और 2050 तक 1140 घन मीटर हो जाने की आशंका जताई गई है। आज भी करीब 1630 करोड़ भारतीय शुद्ध पेयजल से वंचित है। इस कारण 21 फीसदी लोग संक्रामक रोगों की चपेट में आ रहे हैं। नतीजतन पाँच साल से कम उम्र के 500 बच्चे प्रतिदिन डायरिया से मर रहे हैं। इस संकट की बड़ी वजह भूजल का लगातार दोहन है।

पानी की 80 प्रतिशत से ज्यादा जरूरतें हम भूजल से ही पूरी करते हैं, लेकिन इनका पुनर्भरण नहीं करते। इन लापरवाहियों के चलते ही केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने चेताया है कि पाँच साल पहले तक देश की 121 नदियाँ प्रदूषित थीं, जिनकी संख्या अब बढ़कर 275 हो गई है। इस प्रदूषण का कारण औद्योगिक और शहरी नालों की नदियों में निकासी है। साथ ही नदियों पर बाँधों का बेतरतीब निर्माण और नदियों से रेत निकालना भी है। इन कारणों के चलते आज हमारी गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियाँ भी बज-बजाते नालों में तब्दील हो गई हैं।

पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत संस्था सेंटर फॉर साइंस द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ की रिपोर्ट ने तो यहाँ तक चेताया है कि केपटाउन में जिस तरह से पानी की कमी रेखांकित की गई है, वही हाल भारत के बंगलुरु का होने वाला है। 2012 में इस शहर की जनसंख्या 90 लाख थी, जो अब 2018 में 1.10 करोड़ हो गई है। 2031 तक यह संख्या 2 करोड़ हो जाने का अनुमान है। फिलहाल इस शहर के पास प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 100 लीटर पानी की ही उपलब्धता है।

निरन्तर जनसंख्या बढ़ने से पिछले कुछ सालों में ही इस नगर के सौ गाँव विलुप्त हो चुके हैं। इन हालातों के चलते अगले कुछ सालों में इस शहर में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 88 लीटर पानी दिया जाना ही सम्भव हो सकेगा। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट ने तो यहाँ तक चेताया है कि केपटाउन साओ पालो, बंगलुरु, मैक्सिको सिटी, नैरोबी, कराची, काबुल, इस्तांबुल, बीजिंग, ब्यूनोस आयर्स और सना ऐसे शहर हैं, जिन्हें पानी के सन्दर्भ में ‘जीरो-डे’ घोषित कर दिया गया है।

टाटा एनर्जी रिसर्च, इंस्टीट्यूट (टेरी) के अनुसन्धान परक अध्ययनों से साबित हुआ है कि भूजल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ियों को कालान्तर में जबरदस्त जल समस्या से सामना करना होगा। नलकूपों के उत्खनन सम्बन्धी जिन आँकड़ों को हमने ‘क्रान्ति’ की संज्ञा दी थी, दरअसल यह तबाही की पूर्व सूचना थी।

देश में खाद्यान्न सुलभता के आँकड़ों को पिछले 60 वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इस खाद्यान्न उत्पादन के लिये जिस हरित क्रान्ति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है, उसके कारण नलकूपों की संख्या कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ी है। नतीजतन उतनी ही तेजी से भूजल की उपलब्धता घटी है। सिंचाई के लिये 60 फीसदी पानी भू-गर्भ से ही लिया जाता है।

अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूप पूरे देश में थे, जिनकी संख्या 1 करोड़ से ऊपर है। वर्तमान में करीब 262 जिले पानी के भीषण संकट के दौर से गुजर रहे हैं। गुजरात के मेहसाणा और तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में तो भूजल एकदम खत्म ही हो गया है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र और महेंद्रगढ़, मध्य प्रदेश के खंडवा, खरगोन और भिंड जिलों में प्रतिवर्ष जल की सतह आधा मीटर नीचे खिसक रही है। इस जल के नीचे उतर जाने से जल को ऊपर खींचने में ज्यादा बिजली और श्रम खर्च हो रहा है। जिन जल क्षेत्रों में पानी का अत्यधिक दोहन हो चुका है, वहाँ पानी खींचने के खर्च में 600 करोड़ रुपए का इजाफा हुआ है।

नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से कुओं को जल स्तर पर जबरदस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। कुओं की हालत यह है कि देश के 75 प्रतिशत कुएँ हर साल दिसम्बर माह में 10 प्रतिशत अप्रैल माह में सूख जाते है। पूरे देश में केवल दो प्रतिशत ऐसे कुएँ हैं, जिनमें बरसात के पहले तक पानी रहता है। एक ट्यूबवेल पाँच से लेकर 10 कुओं तक पानी सोख लेता है।

जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद भी अब मानने लगे हैं कि जलस्तर को नष्ट करने और जलधाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है। नलकूपों के खनन में तेजी आने से पहले तक कुओं में लबालब पानी रहता था, लेकिन सफल नलकूपों की पूरी एक शृंखला तैयार होने के बाद कुएँ समय से पहले सूखने लगे हैं।

भूमि संरक्षण विभाग की दलील है कि भूमि में 210 से लेकर 330 फीट तक छेद (बोर) कर दिये जाने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएँ नीचे चली गईं हैं। इससे जलस्तर भी नीचे चला गया और ज्यादातर कुएँ समय से पूर्व ही सूखने लगे। नलकूपों का खनन करने वाली रिंग और गेंज मशीनों के चलने से धरती की परतों का बहुत बड़ा क्षेत्र प्रकम्पित होता है। इससे अविरल बह रही जलधाराओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और जलधाराओं की पूरी संरचना अस्त-व्यस्त होकर छिन्न-भिन्न हो जाती है। जबकि जलस्तर स्थिर बनाए रखने में यही जलधाराएँ सहायक रहती हैं।

अब हालात इतने बदतर हो गए हैं कि जलस्तर तीन सौ से आठ सौ फीट की गहराई तक चला गया है। इस कारण पेयजल व सिंचाई दोनों के ही संकट विकराल होते चले जा रहे हैं। दूसरी तरफ नलकूप खनन से जीविका और धन अर्जन करने वाले अब ऐसी ताकतवर मशीनों से खनन कर रहे हैं, जिनकी खनन क्षमता एक हजार फीट तक है और ये आठ इंच तक का चौड़ा छेद करती हैं। लिहाजा यह तो निश्चित है कि ये मशीनें जलस्तर की समस्या बढ़ाएँगी ही, जल प्रदूषण की समस्या भी खड़ी करेंगी। क्योंकि अधिक गहराई से निकाले गए जल में अनेक प्रकार के खनिज व लवण घुले होते हैं। जल की सतह पर जहरीली गैसें भी छा जाती हैं, जो अनेक रोगों को जन्म देती हैं। ये गैसें गहरे कुओं के लिये भी घातक हैं।

भूजल कम होते जाने की हानि केवल यह नहीं है कि उसका दोहन खर्चीला होता जा रहा है, बल्कि यह है कि उस जल की बड़ी मात्रा सन्दूषित भी हो रही है। चूँकि भूजल की कोई कीमत प्रकृति हमसे वसूल नहीं करती है। साथ ही इसके बेहिसाब उपयोग पर भी सरकार की ओर से कोई प्रतिबन्ध नहीं है, इसलिये भावी पीढ़ियों का जल वर्तमान पीढ़ी बेरहमी से लगातार खर्च कर रही है। इस समस्या के निराकरण के सार्थक उपाय बड़ी मात्रा में पारम्परिक जलग्रहण के भण्डार तैयार करना है।

पारम्परिक मानते हुए जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले साठ सालों में घोर उपेक्षा की है, नतीजतन आज हम जल समस्या से जूझ रहे हैं, जबकि इन्हीं पारम्परिक ज्ञान आधारित तकनीकों के जरिए स्थानीय मिट्टी और पत्थर से अन्ना हजारे रालेगाँव सिद्धि में जो जल भण्डार तैयार किये हैं, उनके निष्कर्ष समाज के सर्वांगीण विकास समृद्धि और रोजगार के इतने ठोस आधार बन गए हैं।

फलस्वरूप गाँव में पेयजल की कोई समस्या तो है ही नहीं सिंचाई के लिये भी भरपूर पानी है। गोया, जल संसाधन मंत्रालय हो अथवा केन्द्रीय जल आयोग हो, इनके पास जल संग्रह की कोई न तो सोच है और न ही तात्कालिक समाधान के लिये राणनीति है। पिछले एक दशक से हर साल देश सूखा और बाढ़ के कहर का सामना कर रहा है। बावजूद कोई सबक नहीं लिया जा रहा है। पानी का मुद्दा संसद और विधानसभाओं में बहस से भी नदारद है। गोया, जल संकट का निवारण जब तक सम्भव नहीं है, तब तक सरकार, समाज और उद्योगपति एक साथ सक्रिय नहीं होते।

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