ग्लोबल वार्मिंग के कारण कनाडा की अंतिम साबुत बची हिमचट्टान टूटी

13 Aug 2020
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ग्लोबल वार्मिंग के कारण कनाडा की अंतिम साबुत बची हिमचट्टान टूटी
ग्लोबल वार्मिंग के कारण कनाडा की अंतिम साबुत बची हिमचट्टान टूटी

दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग का असर अब तेजी से बढ़ने लगा है। उत्तरी अमेरिका के देश ‘कनाडा’ में साबुत बची अंतिम हिमचट्टान का अधिकांश हिस्सा टूटकर विशाल हिमशैल द्वीपों में बिखर गया। ये लगभग 4 हजार साल पुरानी हिमचट्टान थी, जो एलेसमेरे द्वीप के उत्तर पश्चिम पर मौजूद थी। ये आकार में कोलंबिया जिले से बड़ी, यानि लगभग 187 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई थी, लेकिन 43 प्रतिशत हिस्सा टूटने से यह महज 106 वर्ग किलोमीटर ही शेष रह गई है। इससे वैज्ञानिकों में अब खलबली मच गई है। 

सबसे पहले कनाडाई हिमसेवा की बर्फ विश्लेषक एड्रीन व्हाइट ने हिमचट्टान के टूटने की जानकारी दी थी। ये सब उन्होंने उपग्रह से ली गई तस्वीरों में देखा था। एड्रीन  ने एपी न्यूज़ को बताया कि हिमचट्टान 30 या 31 जुलाई को टूटी है। 

वे कहती हैं ‘ये बर्फ का बहुत विशाल टुकड़ा है। इसके टूटने से दो विशाल हिमशैल के साथ ही छोटी-छोटी कई हिमशिलाएं बन गई हैं और इन सबका पहले से ही पानी में तैरना शुरू हो गया है। सबसे बड़ा हिमशैल  करीब मैनहट्टन के आकार का यानि 55 वर्ग किलोमीटर फैला है और यह 11.5 किलोमीटर लंबा है। इनकी मोटाई 230 से 260 फुट है।

 

नीचे दिए गए ट्वीट में दी गई वीडियों में आप देख सकते हैं कि किस प्रकार ये हिमचट्टान टूटी।

 

 

ओटावा यूनिवर्सिटी के ग्लेशियर विज्ञान के प्राध्यापक ल्यूक कोपलैंड ने रायटर्स को बताया कि ‘कनाडा के आर्कटिक में इस साल गर्मियों में तापमान 30 साल के औसत से 5 डिग्री सेल्सियस तक अधिक महसूस किया गया है।’ यानि कि यहां तापमान 1980 से 2010 तक के औसत से ज्यादा गर्म है।

 

 

बिजनेस इनसाइडर के अनुसार हिमचट्टान टूटने के दौरान एक रिसर्च कैंप भी खो/नष्ट हो गया था। कार्लटन विश्वविद्यालय में भूगोल और पर्यावरण अध्ययन विभाग के प्रोफेसर डेरेक म्यूएलर ने एक ब्लाॅग पोस्ट में बताया कि ‘‘हमारे उपकरण और शिविर क्षेत्र इस दुर्घटना में नष्ट हो गए हैं, लेकिन हम भाग्यशाली हैं कि उस दौरान हम लोग आइसशैल्फ पर मौजूद नहीं थे।’’ 

दूसरी तरफ, WIRL ने चेतावनी देते हुए कहा है कि आइसशैल्फ अभी भी अस्थिर है और आने वाले कुछ दिनों या हफ्तों में और बर्फ टूट सकती है। एड्रीन व्हाइट कहती हैं कि ‘अगर इनमें से कोई भी चट्टान तेल रिग (तेल निकालने वाला विशेष उपकरण) की तरफ बढ़ने लगे तो आप इसे हटाने के लिए कुछ नहीं कर सकते और आपको तेल रिग को ही हटाकर दूसरी जगह ले जाना होगा।’

आर्कटिक क्या है?

पृथ्वी पर दक्षिणी ध्रव के आसपास के क्षेत्र को अंटार्कटिका जाता है, जबकि पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के आसपास का क्षेत्र या आर्कटिक वृत्त के उत्तरी क्षेत्र को ‘आर्कटिक’ कहा जाता है। यह पृथ्वी के लगभग 1/6 भाग पर फैला है। आर्कटिक क्षेत्र के अन्तर्गत पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव, ध्रुव के आसपास का आर्कटिक या उत्तरी ध्रुवीय महासागर और इससे जुड़े आठ आर्कटिक देशों कनाडा, ग्रीनलैंड, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका (अलास्का), आइसलैंड, नार्वे, स्वीडन और फिनलैंड के भूखण्ड शामिल हैं।

आर्कटिक महासागर आंशिक रूप से साल भर बर्फ की एक विशाल परत से आच्छादित रहता है और सर्दियों में लगभग पूरी तरह बर्फ से ढँक जाता है। आर्कटिक महासागर का तापमान और लवणता मौसम के अनुसार बदलती रहती है। पाँच प्रमुख महासागरों में से इसकी औसत लवणता सबसे कम है और ग्रीष्म काल में यहाँ की लगभग 50 प्रतिशत बर्फ पिघल जाती है। आर्कटिक को विश्व का रेफ्रिजरेटर भी कहा जाता है।

हिमचट्टान पिघलने से कैसे पहुंच सकता है दुनिया को नुकसान

पूरी दुनिया में कार्बन डाइऑक्साइड और ग्रीन हाउस गैसों के अधिक उत्सर्जन के कारण तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) तेजी से बढ़ा है। तापमान बढ़ने से "विश्व का रेफ्रिजरेटर" कहे जाने वाले आर्कटिक की बर्फ सहित दुनियाभर में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। पिछले 30 वर्षों में ‘समर सी आइस’ अनुमानित 2.8 मिलियन स्क्वेयर मील घट गई है, तो वहीं बर्फ पिघलने की रफ्तार अब और बढ़ गई है। इससे समुद्र का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है। 1961 से समुद्र का जलस्तर सालाना 1.8 मिलीमीटर के औसत से बढ़ रहा है, पर 1993 से 2003 में इसमें 3.3 मिलीमीटर सालाना की वृद्धि देखी गई। जलस्तर बढ़ने से समुद्र के किनारे बसे शहर पानी में समा सकते हैं। ऐसे में या तो यहां के लोग भी पानी में समा जाएंगे या फिर इन्हें  दूसरे इलाकों में पलायन करना पड़ेगा और शहरों में पर आबादी का दबाव बढ़ने लगेगा। ऐसा अभी से देखने को भी मिल रहा है और कई द्वीप समुद्र में समा चुके हैं या समा रहे हैं। 

पैरिस समझौता भी नहीं टाल सकता खतरे को 

Deutsche Welle  में प्रकाशित एक शोध में कहा गया है कि बढ़ते तापमान के कारण बर्फ के नीचे की मिट्टी पिघलने लगी है। इस मिट्टी को पर्माफ्रॉस्ट कहते हैं। दरअसल, पर्माफ्रॉस्ट अथवा स्थायी तुषार-भूमि वह मिट्टी है जो 2 वर्षों से अधिक अवधि के लिये शून्य डिग्री सेल्सियस (32o F) से कम तापमान पर है।  ऐसा अलास्का, कनाडा और साइबेरिया जैसे उच्च अक्षांशीय अथवा पर्वतीय क्षेत्रों में होता है जहाँ ऊष्मा पूर्णतया मिट्टी की सतह को गर्म नहीं कर पाती है। पर्माफ्रॉस्ट मिट्टी में पत्तियाँ, टूटे हुए वृक्ष आदि बिना क्षय हुए पड़े रहते है। इस कारण यह जैविक कार्बन से समृद्ध होती है। जब मिट्टी जमी हुई होती है, तो कार्बन काफी हद तक निष्क्रिय होता है, लेकिन जब पर्माफ्रॉस्ट का ताप बढ़ता है तो सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों के कारण कार्बनिक पदार्थ का अपघटन तेज़ी से बढ़ने लगता है। फलस्वरूप वातावरण में कार्बन की सांद्रता बढ़ने लगती है। 

पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र के पिघलने की वजह से होने वाले नुकसान से 2050 तक 36 लाख लोग प्रभावित होंगे। आर्कटिक क्षेत्र में मौजूद तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार को नुकसान पहुंच सकता है। पैरिस समझौते से भी जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले इस विनाश को रोक नहीं जा सकता है, लेकिन तापमान वृद्धि को 2 सेल्सियस से कम रख पाने में सफलता मिलती है तो विनाश के प्रभाव को कुछ कम जरूर किया जा सकता है। ऐसे में साफ तौर पर कहा जा सकता है कि हमने जलवायु परिवर्तन को रोकने में देर कर दी है और अब शायद पैरिस समझौता भी इस विनाश को नहीं रोक पाएगा। खतरा इसलिए काफी बड़ा है क्योंकि पर्माफ्रॉस्ट पिघलने से सभी आर्कटिक देशों पर खतरा मंडराने लगेगा, जिसे रूस भी शामिल है। रूस का लगभग 65 प्रतिशत क्षेत्र पर्माफ्रास्ट है। 


 

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