हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region)


प्राचीन ग्रंथों में प्रत्येक गाँव या नगर में जलाशय होना आवश्यक बतलाया गया है। राजवल्लभ वास्तुशास्त्र1 के लेखक मण्डन ने भी बड़े नगर के लिये कई वापिकाएँ, कुण्ड तथा तालाबों का होना अच्छा माना है। भारतीय धर्म में जलाशय निर्माण को एक बहुत बड़ा पुण्य कार्य माना गया है, किन्तु इस आध्यात्मिक भावना का भौतिक महत्त्व भी रहा है क्योंकि जलाशय एक ओर सिंचाई के श्रेष्ठ साधन बनते थे, वहीं दूसरी ओर जन सामान्य को पेयजल की कठिनाई से मुक्त भी करते थे। शासक एवं उनके सामन्त जलाशय निर्माण में पर्याप्त रुचि लेते थे।

जलाशयों में पाषाण की भित्तियां एवं घाटों का निर्माण हुआ करता था। घाटों में विभिन्न रेखाकृतियाँ उभार कर उन्हें कलात्मक बनाया जाता था। इनके ऊपरी भाग में छतरियाँ बनी रहती थी और चारों ओर से या एक ओर से सीढ़ियाँ बनी रहती थी, जो नीचे तक पहुँच जाती थी। जलाशय के पास ही जलाशय की स्थापना के अवसर पर एक स्तम्भ लगाने की भी परम्परा रही है। यह स्तम्भ भी कलात्मक हुआ करता था। स्तम्भ के ऊपरी भाग में मन्दिर के समान प्रायः वर्गाकृति में शिखर बना रहता था। शिखर के नीचे चारों ओर ताके होती थी जिनमें आराध्य देवताओं की प्रतिमाएँ उभारी जाती थी। ताकों में प्रायः गणपति की प्रतिमाएँ होती थी। ताकों के नीचे चतुष्कोणीय, षट्कोणीय, अथवा षोडश स्तम्भ बने रहते थे। स्तम्भ के मूल भाग पर प्रायः जलाशय निर्माता से सम्बन्धित व जलाशय निर्माण से सम्बन्धित सूचनाओं का लेख भी उत्कीर्ण करवा दिया जाता था। बावड़ी के प्रवेश मार्ग में अलंकरण की दृष्टि से कतिपय आकृतियाँ उर्त्कीण की जाती रही हैं तथा बीच-बीच में प्रतोलियो (पालों) का निर्माण भी होता रहा।2

बावड़ी स्थापत्य


बाव अथवा बावड़ी का तात्पर्य एक विशेष प्रकार के जलस्थापत्य से है, जिसमें गहरा कुआँ अथवा एक कुण्ड बना होता था। स्थापत्य की दृष्टि से बावड़ी चतुरस, वर्तुल अथवा दीर्घ बनायी जाती थी। तथा इसमें प्रवेश के लिये एक, दो, तीन या चार द्वार होते थे। बावड़ी को पदसोपान, सीढ़ियाँ और स्तम्भों से सामान्यतया मजबूत और सुन्दर बनाया जाता था। इसमें चारों ओर देवी देवताओं की मूर्तियों से अलंकरण किया जाता था। रथिका बिम्बो में वरुण आदि देवताओं की मूर्तियाँ बनायी जाती थी जिनके दर्शन कर लोग पुण्य लाभ प्राप्त कर सकें। इन कलाकृतियों में तत्कालीन समाज व धर्म की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। बावड़ी का कुण्ड आयताकार वर्णाकार या अष्टभुजाकार होता था। इन पर अलंकृत द्वार तथा तोरण बनाये जाते थे। जलस्तर भूमि से काफी नीचे होता था, अतः सोपानों की योजना, शृंखला में तथा अन्तराल युक्त बनायी जाती थी, जिसमें बावड़ी के घटते-बढ़ते जलस्तर का प्रभाव उसके उपयोग में बाधक न हो सके। प्राचीन शिलालेखों में बावड़ी के संस्कृत रूप वापी शब्द का उल्लेख मिलता है। वास्तुशास्त्र के प्रतिष्ठित ग्रंथों समरागण सूत्रधार, अपराजित पृच्छा, राजवल्लभ, वास्तुशास्त्र, विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र आदि में वापी एवं उसके निर्माण सम्बन्धी जानकारी मिलती है।3

बावड़ियों के आकार प्रकार व रचना एक राज्य से दूसरे राज्य में भिन्न होती है। यह भिन्नता प्राकृतिक वातावरण, भूमि के प्रकार, वर्षा की मात्रा और भूमिगत जलस्तर पर निर्भर करती है। बावड़ियाँ आमतौर पर पृथ्वी की सतह के समान्तर कुएँ के रूप में होती हैं जिनमें सिंचाई व पीने के लिये पानी खींचा जाता है। सीढ़ियाँ जो पानी तक विश्राम कक्षों और कमरों में खुलने वाले तंग मार्ग तक पहुँचती है। बावड़ियों की डिजाइनों में भिन्नता उनको बनवाने वाले लोगों के संसाधनों व स्तर के कारण होती हैं।

बूंदी के जलाशयों की तकनीक


भावलदेवी बावड़ी

बूंदी नगर में स्थित भावलदेवी बावड़ी का निर्माण महाराव राजा भावसिंह की रानी भावलदेवी ने प्रजा के कल्याण के लिये 1677 ई. में करवाया था।4 भावलदेवी प्रतापगढ़ नरेश हरिसिंह की दुहिता थी।5 बून्दी राजघराने की परम्परा के अनुसार सभी महारानियों को राजमाता का खिताब प्राप्त करने के बाद एक बावड़ी बनवानी पड़ती थी। सार्वजनिक जलस्रोत जैसे कुण्ड और बावड़ी को बनवाना दयालुता और सामाजिक कल्याण के साथ जोड़कर देखा जाता था। रियासतकालीन यह बावड़ी बून्दी के राजपरिवार की जल प्रबन्धन नीति को उजागर करती है। बाद में यह बावड़ी राजकवि सूर्यमल्ल मिश्रण, जो कि बून्दी राजदरबार के कवि थे और उनकी हवेली भावल्दी बावड़ी के गली के पार स्थित है, को दे दी गयी। इसी भावल्दी बावड़ी की बारादरी में उन्होंने अपने बहुत से स्मरणीय कार्य जैसे ‘वंश भास्कर’ (बून्दी के चौहान शासकों के भाग्य का काल) ‘वीर सतसई’ (भारत की आजादी के लिये शुरू प्रथम क्रान्ति 1857 ई. की कुछ गौरवमय यादें) ‘बसन्त विलास’ और ‘चन्दोमयुस’ लिखी। भावल्दी बावड़ी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि राजस्थान राज्य के क्षेत्रीय महत्त्व को दर्शाती है। इस बावड़ी को राज्य सरकार की Adopt a monument योजनान्तर्गत रख-रखाव एवं संरक्षित करने हेतु INTACH संस्था को गोद दिया गया है।

स्थिति


भावल्दी बावड़ी पुरानी बून्दी कस्बे के हृदय (बीच) में स्थित है जो कि सूर्यमल्ल मिश्रण जी की हवेली के सामने और सेठजी के चौक के पास है। यह रास्ता सेठ जी के चौक से कागजी देवरा को जोड़ता है और राधादामोदर मन्दिर से सटा हुआ है।

पहुँच और परिवेश


भावल्दी बावड़ी तक पहुँचने का एक ही रास्ता है, जो कि पुराने शहर से जैतसागर और डबलाना रोड से नाहर का चोहटा होते हुए बून्दी पैलेस का मुख्य रास्ता है। यह रास्ता आवासीय क्षेत्र है, जो कि बदलती हुई चौड़ाई के साथ सुव्यवस्थित है। कई स्थानों पर यह सकड़ा और कई चौराहों पर चौड़ा है। अतः यह सामुदायिक जगहों और चौक जैसा है। मन्दिर की उपस्थिति और चौक को केन्द्रित करते हुए स्तम्भ इनकी पहचान हैं। यह रास्ता भावल्दी बावड़ी पर थोड़ा सा चौड़ा है। यहाँ एक पक्का रोड जैतसागर की नीचे की ओर ढलान लिये हुए है। बावड़ी के आस-पास की जगह सबसे बड़ी आवासीय इकाइयाँ है, जो बावड़ी के दाहिनी ओर स्थित है। बावड़ी का मुख्य द्वार आगे की गली से है यद्यपि कुछ छोटी गलियाँ बावड़ी के दूसरी ओर भी हैं, जो कि ऊपर की ओर बारादरी से और पीछे की ओर आवास से जुड़ती हैं जबकि सामने की ओर से मकानों और बावड़ी के बीच कुछ दूरी रखी गयी है। पीछे की ओर बावड़ी की दीवारें घरों से जुड़ती हैं।

संरचना


भावल्दी बावड़ी मुख्यतः एक भूमिगत संरचना है, जिसका निर्माण स्थानीय जल विज्ञान, भूगर्भ और मिट्टी की प्रक्रिया के अनुसार समझ विकसित कर बनायी गयी है। यह बावड़ी 155 फीट लम्बी व 22 फीट 5 ईंच चौड़ी है, इसकी गहराई 65 फीट है।

दक्षिणाभिमुखी यह बावड़ी अंग्रेजी के वर्ण ‘एल‘ के आकार की है, जिसके दोनों ओर सीढ़ियाँ हैं जो 90 डिग्री के कोण पर पानी तक घूमती हैं। सीढ़ियाँ जमीन की सतह से पानी तक जाती हैं, जो ऐसी प्रतीत होती है जैसे कोई नीचे गुफा में जा रहा हो। सीढ़ियों का निर्माण इस प्रकार किया गया है कि पानी तक पहुँच सहज हो सके। इसमें 75 सीढ़ियाँ है जो कि छोटे-छोटे अन्तरालों में बनी हैं और सबसे बड़ा अन्तराल कोने में है जो कि एल आकार बनाती है। बावड़ी में स्तरों की संख्या सीढ़ियों के नीचे जाते हुए बढ़ता है। पहले क्रम की सीढ़ियों के सोपान पंक्ति की समाप्ति तक दो स्तर हैं और दूसरे क्रम की सीढ़ियों के सोपान पंक्ति की समाप्ति पर तीन स्तर हैं। बावड़ी पर एक समान छत है जिसमें बारादरी और छतरी भी है। वास्तव में बावड़ी एक साधारण भार वहन करने वाली उप रचना है जिसमें दीवार संरचना का प्रमुख भाग है जो कि भूमि के चारों तरफ से उत्पन्न होने वाले पार्श्व बल को रोकती है। यह इसकी दीवारों की मोटाई से स्पष्ट है जो की 5 फीट और 1.5 मीटर की पायी गयी है। फिर भी बहुत गहराई के साथ यह धारणा है कि कुएँ की ओर दीवारों की मोटाई बढती जाती है जो कि नीचे की कमजोर दुबली संरचना के स्थायित्व के लिये आवश्यक है।

1. प्रवेश द्वार - इस बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 6X6X6 घनफीट आकार के आधारों पर अष्टस्तम्भकार 12 फीट ऊँची आयताकार छतरियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी का प्रवेश बहुत अच्छा बना हुआ है जो बारादरी और छतरियों के साथ चौरस छत को प्रदर्शित करता है। जिनमें राजपूत एवं मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इन छतरियों के नीचे भगवान गणेश और देवी सरस्वती की मूर्ति लगी हुई है। बारादरी की रूप-रेखा पीछे परिलक्षित होती है।

2. मुख्यद्वार - बावड़ी के दोनों द्वारों का क्रम सीढ़ियों के दूसरे स्तर के अन्त तक सुनियोजित है, जो कि बावड़ी की गहराई से एक स्तर ऊँचे तक हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार से 15वीं सीढ़ी एक 25X3 वर्गफीट की पाट है जिसके दोनों तरफ दीवारों में कलात्मक मेहराबदार ताकें बनी हुई हैं। दायीं ताक में शिलालेख लगा हुआ है जबकि बायीं ताक रिक्त है। इस पाट से 19वीं सीढ़ी पर एक 20X20 वर्गफीट की विशाल पाट है। इसी पाट से बावड़ी उत्तर दिशा में मुड़ जाती है। इस पाट के पूर्वी भुजा पर एक 20 फीट ऊँची, 14 फीट चौड़ी कलात्मक जैन प्रभावयुक्त मेहराब बनाई गई है। इस मेहराब के सटे हुये 18 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा दरवाजा बना है। जिसकी छत पर बूंदी शैली में चित्रकारी की गई है।6

3. जलकुण्ड - बावड़ी के नीचे के स्तर बने दरवाजे की बड़ी पाट से नीचे उतरने पर एक विशालकाय 32x25 वर्गफीट की कुण्डी बनी हुई है।

4. बारादरी - बारादरी पहले द्वार के ऊपर सीढ़ियों के पहले स्तर पर बनी हुई है। मेहराब एवं दरवाजे की संयुक्त छत पर 12 स्तम्भों का कक्ष बना हुआ है। इस बारादरी में सूर्यमल्ल मिश्रण में कुछ साहित्यक महत्त्व के कार्य करने का जिम्मा लिया था। इस समय इसका उपयोग पढ़ने के कक्ष और पुस्तकालय के रूप में किया जा रहा है जिसे सूर्यमल्ल वाचनालय के नाम से जाना जाता है व बूंदी नगर निगम द्वारा संचालित है।

5. ताखें, आले - राजस्थानी स्थापत्य में अलंकार (सजावट) के रूप में उपयोग होने वाला दूसरा प्रमुख घटक ताखें हैं। भावल्दी बावड़ी में दो तरह के ताखे बनाये गये हैं।

(अ) देवों के आवासीय ताखें


प्रकार-1 : बावड़ी में प्रवेश करते ही दोनों तरफ आवासीय ताखें हैं जिसमें दायीं ओर भगवान गणेश ओर बायीं ओर हंसारूढ़ जलदेवी की प्रतिमा स्थापित है। जलदेवी की प्रतिमा में आगे-पीछे सेविकाएँ सेवा में निमग्न हैं।

प्रकार-2 : बावड़ी के नीचे की ओर की दीवारों के कोने में दो मंदिरनुमा आवासीय ताखे हैं जिसमें बायीं ओर की ताक में 2x3x1 घनफीट आकार में शंख, चक्र, गदा व पदम धारण किये चतुर्भुज विष्णु की खड़गासन प्रतिमा स्थापित है जोमानवरूपधारी गरुड़ पर विराजमान है। इस मूर्ति के दोनों तरफ पहरेदार व सेवकों को तथा चारों तरफ छोटी-छोटी 20 प्रतिमाओं को उकेरा गया है। इस मूर्ति पर जैन प्रभाव दिखायी देता है। दायीं तरफ की ताक में चतुरानन ब्रह्मा विराजमान है जिसके सभी मुखों पर लम्बी तीखी दाढी व मूंछे बनाई गई हैं। इनमें मुगल प्रभाव दिखाई देता है।

प्रकार-3 : बावड़ी के नीचे की ओर पाट की दक्षिणी दीवार पर नन्दी सहित शिवलिंग स्थापित है। पाट की पश्चिमी दीवार पर गजारूढ इन्द्र की प्रतिमा स्थापित है। इस गज को महावत हाँक रहा है तथा परियाँ ऊपर उड़ते-उड़ते साथ चल रही हैं। प्रतिमा के चारों तरफ देवी-देवताओं की छोटी-छोटी प्रतिमाएँ इन्द्र के राज्य (स्वर्ग) को दर्शाती है।

(ब) शिलालेखों के लिये ताखें


प्रकार-4 : बावड़ी की सीढ़ियों के पहले सोपानक्रम के दोनों तरफ दीवारों में कलात्मक मेहराबदार ताके बनीं हुई हैं जहाँ पर दायीं तरफ के आवासीय ताखे में चौकोर पत्थर पर संस्कृत का शिलालेख है। यह बावड़ी और उसके निर्माण के विषय में सूचना देते हैं। बायीं ओर का ताखा खाली है जिसके उद्देश्य के बारे में अटकलें लगायी जा सकती हैं। शिलालेख से ज्ञात होता है कि बावड़ी का निर्माण प्रारम्भ करने से पूर्व शुभ मुहूर्त देखा जाता था। साथ ही विधि पूर्वक गणपति की आराधना व पूजा की जाती थी, जिसका उद्देश्य यह होता था कि निर्माण कार्य में किसी प्रकार की कोई बाधा न आवे।

6. छतरियाँ - राजस्थानी स्थापत्यकला में छतरी सजावट का प्रतीकात्मक तत्व है।

भावल्दी बावड़ी में तीन तरह की छतरियाँ हैं -

- प्रवेश द्वार पर चौकोर छतरियाँ
- कुएँ के पास गोल छतरियाँ
- बारादरी की छत के कोने पर छोटी वर्गाकार छतरियाँ

7. तोरण - हालाँकि तोरण एक संस्कृत शब्द है जो मुख्यद्वार के लिये उपयोग किया जाता है साथ ही यह जैन स्थापत्य में प्रधान व मुख्य द्वार पर सजावट के लिये महत्त्वपूर्ण है। तोरण बावड़ी के प्रथम प्रवेशद्वार पर बना हुआ है जो उसके स्थापत्य को और सुन्दर बनाता है।

8. चबूतरा - बावड़ी की सीढ़ियों के जोड़ पर चबूतरा है, जिसके किनारे व्यवस्थित दीवारें हैं। चबूतरा बैठने के लिये उपयोग में आता है।

9. ऊँची दीवारें - बावड़ी की समतल छत पर दीवार है जिसका निर्माण पूर्णतया (पूर्ण रूप रेखा से) पत्थर की चौकोर पट्टियों से पत्थर के खम्भों पर जोड़कर किया गया है।

10. घिरनी - बावड़ी के कुएँ से पानी को खींचने के लिये बावड़ी की छत के साथ-साथ कुएँ के पश्चिमी किनारे पर घिरनी लगी हुई है।

11. अलंकरण और सतही सजावट


भावल्दी बावड़ी में निम्न अलंकरण देखे गये हैं -

(1) चित्रकला :- सतही सजावट पेन्टिंग के रूप में है जो कि बून्दी स्कूल पेन्टिंग से सम्बन्धित है जो दोनों मुख्य द्वारों पर बनी मेहराबों में दर्शित है।

(2) पलस्तर पर अंलकरण :- सतही सजावट चूने के प्लास्टर में अंलकरण के रूप में है जो दोनों मुख्य द्वारों, बारादरी और छतरियों पर देखने को मिलता है।

(3) पत्थरों में निर्माण कार्य :- पत्थरों में निर्माण कार्य अलंकरण के स्वरूप में भावल्दी बावड़ी में विस्तृत है विशेष तौर पर तोरण, छतरियों, कोष्ठकों, ताखों, ऊँची दीवारों, खम्भों, स्तम्भों, चबूतरों में इन अलंकरणों को देखा जा सकता है।

स्थापत्य


भावल्दी बावड़ी का निर्माण चूने व पत्थर द्वारा किया गया है। दीवारों पर आयताकार पाषाण लगाकर कलात्मकता प्रदान की गई। सम्पूर्ण निर्माण एक के बाद एक बड़े पत्थरों के बीच छोटे पत्थरों को भरकर किया गया है, जिससे भार सन्तुलन बना रह सके। कुछ निर्माण बहुत उच्चस्तरीय है और पत्थरों की उपलब्धता के अनुसार कुछ निर्माण कमजोर दर्जे के भी हैं, जैसे बीम और सीधी पट्टियाँ एक ही पत्थर की बनी हैं। तोरण के ऊपर बना बीम एक समान तीन समतल पत्थरों से मिलकर बना है। धातु की साक्ष्य प्रथम गेट पर पायी गयी है जो कि केवल एक ही बिना प्लास्टर का भाग है।

राजस्थान के अन्य स्थानों की तरह बून्दी की भावल्दी बावड़ी का स्थापत्य हिन्दू और इस्लामी विशेषताओं का मिला-जुला रूप है जो कि मुगल स्थापत्य से बहुत प्रभावित है। मुगल स्थापत्य, शासक शाहजहाँ (1628-1658 ई.) के समय में अपनी ऊँचाइयों पर था जब विश्व धरोहर आगरा में ताजमहल और दिल्ली में लाल किले का निर्माण हुआ। मुगल समय में इस काल को स्थापत्य का स्वर्ण युग माना जाता है। इसी की कुछ मुख्य विशेषताएँ भावल्दी बावड़ी में पायी गयी हैं जैसे की शहंशाह औरंगजेब के समय की बारादरी, मेहराबों का प्रयोग, सीढ़ियों के छोटे खम्भे, काँच की नली के बाँसुरी आकार के गुम्बद, तारेनुमा पलास्टर की सजावट, जिनमें हिन्दू और जैन तत्व दिखायी देते हैं।

यद्यपि मुगल स्थापत्य जैसी अलग पहचान के तत्व भी भावल्दी बावड़ी में दिखाई देते हैं जिनमें तोरण और छतरियाँ, छज्जा गुम्बदों पर कलर गुम्बद, क्षैतिज पर सजावटी तस्में मुख्य है।

जल का स्रोत


वर्षाजल से भरण के साथ ही सतही जल से भी बावड़ी में पानी भरता है। स्थानीय लोगों के अनुसार पानी की सप्लाई भूजल से भी होती है। जो कि वहाँ पर बने गौ-मुख से दर्शित है। बावड़ी का पानी पीने योग्य व मीठा है। बूंदी के बुनियादी जलस्रोत और राजस्थान में बावड़ियों के ऐतिहासिक व्यवस्था को समझने पर यह कह सकते हैं कि शायद बावड़ी क्षेत्र की अन्य झीलों जैतसागर व नवलसागर से जुड़ी हुई है जो कि प्रायः लगातार बावड़ी को जल उपलब्ध कराते हैं और इसके अलावा दक्षिण की पहाड़ियों, किलों और अन्य स्थानों से रिस कर आये पानी से भी जल प्राप्त कर लेती है।

रानीजी की बावड़ी


हाड़ौती की प्राचीन राजधानी बून्दी के दक्षिणी छोर पर चौगान दरवाजे के बाहर प्रसिद्ध रानी जी की बावड़ी स्थित है। बून्दी नरेश अनिरुद्ध सिंह की महारानी लाडकुंवरी जी नाथावती ने 1700 ई. में धर्मार्थ इस बावड़ी का निर्माण करवाया था।7 लाडकुंवरी फतेहसिंह जी की पोती, जसवन्तसिंह जी की पुत्री तथा नमाना के सोलंकी सरदार यशवन्तसिंह जी की दुहिता थी।8

125 फीट गहराई अपने में समेटे हुए इस ऐतिहासिक बावड़ी का क्षेत्रफल 9680 वर्ग फीट है। बावड़ी का मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिमाभिमुखी है, जिसके दोनों ओर 16 फीट ऊँची दो छतरियाँ भी हैं। इन छतरियों की विशेषता यह है कि प्रत्येक छतरी 12 स्तम्भों पर टिकी हुई है। बायीं छतरी के नीचे प्रवेशद्वार पर पश्चिमी दिशा के एक आलियें में हंस पर आरूढ़ सरस्वती को हाथ में वीणा लिये स्थापित की गई है। मूर्ति बड़ी ही सजीव जान पड़ती है। हंस के आगे एक सेविका पात्र में कोई खाद्य पदार्थ लिये दर्शाया गया है तथा हंस के पीछे से एक अन्य सेविका सरस्वती को पंखा झल रही है। सरस्वती को जल की देवी के मध्य नजर रखते हुए स्थापित किया था।9 इसी आधार के प्रवेश द्वार के दायीं ओर एक अन्य आलियें में चतुर्भुज गणपति की प्रतिमा स्थापित है, जिनको कार्य सिद्धि के देवता मानकर स्थापित किया गया है। इसी आधार की उत्तरी दीवार में बने आलिये में 2X3 वर्ग फीट आकार का एक शिलालेख उकेरा गया है। इन दोनों आधारों के मध्य स्थित पाट से दोनों तरफ की छतरियों पर पहुँचने हेतु दीवार के समान्तर 6-6 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। पाट से 22वीं सीढ़ी के बाद उत्तर व दक्षिण दिशा में बने निकास द्वारों से 20-20 सीढ़ियाँ चढ़कर बावड़ी के बाहर निकला जा सकता है। इन दोनों तरफ के निकास द्वारों पर चित्रकारीयुक्त दरवाजे बनाये गये हैं। दरवाजों के आधारों पर 12 फीट ऊँची अष्टभुजाकार मुगल प्रभाव युक्त छतरियाँ बनाई गई हैं। छतरियों के पास बायीं तरफ के कलात्मक आलिये में चतुर्भुजाधारी हरिहर को हाथों में डमरू, गदा, त्रिशूल व पुष्प धारण किये हुये दिखाया गया है। इस प्रतिमा में विष्णु व शिव की मिश्रित छवि दिखाई देती है इसलिये इन्हें हरिहर कहा गया है। छतरियों के दायीं तरफ के आलिये में आभूषणों से अलंकृत अष्टभुजाधारी हरिहर की प्रतिमा को उकेरा गया है। हरिहर अपने आठों हाथों में नाग, त्रिशूल, गदा, पुष्प, मुगदर, डमरू तथा कमण्डल धारण किये हुये हैं। दोनों तरफ की प्रतिमाएँ एक जैसी हैं। दायीं तरफ की प्रतिमा में अष्टभुजा व बायीं तरफ की प्रतिमा में चारभुजाएँ हैं।

बावड़ी में नीचे की ओर जाने के लिये असंख्य सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। सीढ़ियों के नीचे उतरने पर आठ कलात्मक स्तम्भ दिखाई पड़ते हैं, जिनके शीर्ष भाग पर घुमावदार सूँड़ वाले हाथियों पर उकेरे आभूषण ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे वे बावड़ी से पानी लेकर अपनी प्यास बुझाने जा रहे हैं। बावड़ी का मेहराबदार अलंकृत तोरणद्वार स्थापत्य कला की पूर्णता का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। छेनी से उकेरे गये नाजुक आकर्षक मेहराब इस बावड़ी की सुन्दरता एवं महानता में चार चाँद लगाते हैं तथा इसे बावड़ियों की स्थापत्य कला के सर्वोत्तम आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इन स्तम्भों से युक्त पाट के दोनोंतरफ दीवार में से बायीं दीवार की मंदिरनुमा ताक में खण्डित ब्रह्मा की प्रतिमा एवं दायीं दीवार की मंदिरनुमा ताक में नन्दी सहित चतुर्मुखी शिवलिंग स्थापित है। इस पाट से कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरने पर दोनों तरफ की दीवारों पर 5-5 कलात्मक मेहराबदार ताके बनाई गई हैं।10

बायीं तरफ की प्रथम ताक में आभूषणों से अलंकृत खड़गासन मुद्रा में हाथों में पुष्प व डण्ड लिये मानव रूप को उकेरा गया है। दूसरी ताक में विष्णु के चतुर्भुजी नरसिंह अवतार की प्रतिमा स्थापित है। तृतीय ताक में विष्णु के मत्स्य अवतार को हाथों में गदा, पुष्प, चक्र व शंख लिये दर्शाया गया है। चतुर्थ ताक में छः प्रतिमाओं को उकेरा गया है। प्रथम शेर सवार माता का रौद्र रूप, द्वितीय राम, तृतीय कृष्ण, चतुर्थ परशुराम, पंचम कलगी एवं छठे बोद्ध रूपों को पाषाण पर उकेरा गया है। पाँचवीं ताक में चतुर्भुज हरिहर रूप के साथ छोटी-छोटी मूर्तियों को उकेरा गया है। दायीं तरफ की दीवार के प्रथम ताक में मानव रूप एवं द्वितीय ताक में आभूषणों से अलंकृत चतुर्भुज विष्णु के कच्छप अवतार को दिखाया गया है। तृतीय ताक में विष्णु के वराह अवतार में वराह द्वारा पृथ्वी को अपनी नाक से उठाते हुये दिखाया गया है। प्रतिमा के पाँव में ढाल तलवार लिये किसी राजा को दिखाया गया है। चतुर्थ ताक में विष्णु के वामन अवतार को राजा बलि द्वारा कुछ दान देते हुए दिखाया गया है। पाँचवीं ताक में हरिहर विष्णु की प्रतिमा के पीछे एक सेविका को पंखा झलते हुये उकेरा गया है 11 बावड़ी के दोनों उर्ध्वाधर दरवाजों में रिक्त ताकें बनीं हुई हैं। दरवाजों की छत पर बारीक कुराई का कार्य हो रहा है। छतों पर बूंदी व किशनगढ़ शैली में चित्र बनाये गये हैं। इन दरवाजों के बाद 25x25 वर्गफीट आकार की कुण्डी बनी हुई है। इस कुण्डी में गहराई तक उतरने हेतु 15-15 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। बावड़ी कुल गहराई 80 फीट है। कुण्डी की पूर्वी दीवार पर शेषशायी विष्णु सेवकों के साथ ब्रह्मा एवं दोनों तरफ 3-3 दरवाजों को उकेरा गया है। बावड़ी का निर्माण चूने व पत्थर की चिनाई करके किया गया है। बावड़ी के निर्माण के समय तीन तरफ से प्रवेश संभव बनाने हेतु इसे इस प्रकार बनाया गया है कि ये जीसस के क्रॉस की तरह नजर आती है। पेयजल उपयोग, पर्यटन धर्म एवं पुरातत्व की दृष्टि से यह बावड़ी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वास्तु-शास्त्र के अनुसार एक श्रेष्ठ बावड़ी के लिये जो विशेषताएँ होती हैं इन समस्त विशेषताओं को यह बावड़ी अपने में समेटे हुए है।

रानीजी की बावड़ी

अभयनाथ की बावड़ी



बूंदी के बालचन्द पाड़ा क्षेत्र में अभयनाथ महादेव के उत्तरी तरफ L आकार की अभयनाथ जी की बावड़ी स्थित है इस बावड़ी का निर्माण 1703 ई. में रामचन्द्र गौड़ की बेटी अनोपा तुलसी, बेटा वनराज तथा उपपत्नी बहमना सिसोदिया की पुत्री अजव कुंवरी व पुत्र उदयसिंह ने करवाया।12 इस बावड़ी का कुल क्षेत्रफल 1650 वर्ग फीट है। यह बावड़ी पूर्व-पश्चिम 30 फीट लम्बी एवं उत्तर-दक्षिण 80 फीट लम्बी है तथा चौड़ाई 15 फीट है। इस बावड़ी का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में तथा कुण्डी दक्षिण दिशा में है। प्रवेश द्वार के दोनों तरफ चौखटे बनी हुई हैं। बायीं तरफ की चौखट के नीचे बने ताखे में मोर पर सरस्वती जी और दायीं ओर की चौखट के नीचे बने ताखे में चूहे पर गणेश जी विराजमान हैं। बावड़ी में कुल 64 सीढ़ियाँ व पाटे हैं। अभयनाथ बावड़ी में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर 14वीं सीढ़ी के बाद 15×4 फीट आकार का एक बड़ा पाट बना हुआ है और इसके बाद 29वीं सीढ़ी पर एक 15×4 फीट आकार का पाट बना हुआ है। इस पाट पर 12 फीट ऊँचा, 10 फीट चौड़ा व 6 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। 34वीं सीढ़ी पर एक 15×18 वर्गफीट आकार का मण्डप बना हुआ है। जिनकी ताकों के ऊपर कलात्मक तोरण उकेरे गये हैं। इन दोनों तोरणों के मध्य माला जपते साधुओं की प्रतिमाएँ भी उकेरी गई हैं। इस मण्डप की ऊँचाई 15 फीट है। जहाँ से बावड़ी 900 के कोण पर मुड़ जाती है। 45वीं सीढ़ी पर स्थित 12×16 वर्गफीट के पाट के दोनों तरफ रिक्त ताके हैं एवं 60वीं सीढ़ी पर एक 14 फीट ऊँचा 8 फीट चौड़ा व 6 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। इस दरवाजे के ऊपर तथा कुण्डी तीनों तरफ मण्डप के समान्तर तीन-तीन तिबारियाँ बनी हुई हैं। जिनकी ऊँचाई 9 फीट है। यह तिबारियाँ इस बावड़ी की सुन्दरता को बढ़ाती है। इस बावड़ी में 12x12 वर्गफीट की एक कुण्डी है जिसमें जाने के लिये दरवाजे से समलम्ब चतुर्भुजाकार में 4 सीढ़ियाँ बनी हुई है। तिबारियाँ और मण्डप 2 फीट पाटों से सीधी जुड़ी हुई हैं। सीढ़ियों के दोनों तरफ पानी में उतरने के लिये 5-5 पाटिये सीढ़ीदार लगे हुये हैं। ऊपर की ओर पानी खींचने का ढाणा बने होने के चिह्न है। इस बावड़ी की कुल गहराई 50 फीट है। बावड़ी में पानी भरा है जिसको मन्दिर के कार्यों में काम लिया जाता है।13

अभयनाथ की बावड़ी बून्दी

दधिमति माता की बावड़ी


बूंदी नगर से चार किलोमीटर पश्चिमी दिशा में दधिमाता मंदिर एवं मण्डुकेश्वर महादेव के मंदिर के सामने यह बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी को हाड़ाराव नारायणदास के समय में नेगी लूना और रणमल ने खुदवाया था। उसके बाद ख्वास ललिता के द्वारा भी बावडी में आंशिक कार्य भी करवाया गया फिर राव राजा भाव सिंह जी के समय में 1697 ई. में पुरोहित सुखदेव पुत्र भवानीदास ने इसे पूर्ण करवाया।14 सुखदेव की पुत्री राधा ने मण्डुकेश्वर मंदिर एवं भवानीदास के भाई देवीदास के पुत्र गजमुख पुरोहित ने माता का मंदिर बनवाकर माता की प्रतिष्ठा करवाई।15

दधिमति माता की बावड़ी पूर्ण रूप से पक्की बनी हुई है। इसकी गहराई 37 फीट, लम्बाई 86 फीट चौड़ाई, 31.6 फीट है। इस बावड़ी में कुल 42 सीढ़ियाँ हैं। 26 सीढ़ियाँ परिदृश्यित है। शेष सिढ़ियाँ पानी में डूबी हुई हैं। बावड़ी के 14वीं सीढ़ी के बाद पाट के दायीं तरफ की ताक में शिलालेख लगा हुआ है जबकि बायीं तरफ की ताक रिक्त है। इस बावड़ी के दरवाजे के स्थान पर 8 स्तम्भोंयुक्त मेहराब बनाया गया है।

बावड़ी की सीढ़ियों के बीच से दोनों तरफ छोटी-छोटी 16-16 सिढ़ियाँ डेढ़ फीट चौड़ी हैं, जो सीधे नीचे तक जाती है। यह बावड़ी दक्षिण देखती हुई है जिसके प्रवेश द्वार के दोनों तरफ चौखटें बनी हुयी हैं। बावड़ी के ऊपर पहुँचने पर दायीं ओर के ताके में चूहे के रथ पर सवार गणेश की मूर्ति है। रथ को दो मूसक खींच रहे है, गणेश जी के चारों हाथों में शंख, रथ की डोर, मूसल व मोदक हैं। रथ के पीछे दो दासियाँ चँवर झलते हुए चल रही है । बायीं ओर के ताक में जलदेवी की प्रतिमा है जो रथ में सवार है। इस रथ को दो हंस खींच रहे हैं। जलदेवी चारों हाथों में वीणा, शंख, माला व सिर पर कमल के पुष्प का मुकुट धारण किए हुए है। बावड़ी के बीच में चार खम्भे हैं जिन पर बनावट बेल बूटों में अंकित है। बावड़ी के ऊपर चकले के लिये ढाणा बना हुआ है जो संख्या में दो है। 16 बावड़ी का जीर्णोद्धार महाराब बुद्धसिंह जी के समय पुरोहित गजमुख जी ने करवाया।17 इस बावड़ी का निर्माण देवों की पूजा हेतु जलापूर्ति स्नान एवं राहगीरों को पानी हेतु किया गया था।

दधिमाता की बावड़ी बून्दी

गोल्हा बावड़ी


बूंदी नगर में नाहर के चबुतरे के पास स्थित इस बावड़ी को आबू मीणा के पुत्र गोल्हा मीणा ने 1203 ईस्वी में बनवाया था।18 डमरा बावड़ी व गोल्हा बावड़ी पास-पास ही बनी है, जो इस क्षेत्र में मीणाओं के वर्चस्व को दर्शाती है। हिन्दी की ‘ई’ मात्रा की आकार की इस बावड़ी का द्वार उत्तर दिशा में है। इस बावड़ी में कुल 34 सीढ़ियाँ व पाटे हैं। इस बावड़ी की गहराई 35 फीट है। इस बावड़ी के प्रवेश द्वार के सामने स्थित 10×8 वर्गफीट की पाट के बाद पश्चिम से पूर्व को उतरती हुई 6 सीढ़ियाँ व 3x6 वर्गफीट पाट से बावड़ी दक्षिण में मुड़ जाती है। यहीं से 3 सीढ़ियों के बाद स्थित 8×8 वर्गफीट की पाट से बावड़ी पश्चिम दिशा में मुड़ जाती है। 16 सीढ़ियों के बाद 18x18 वर्गफीट की कुण्डी है जिसमें दक्षिण दिशा को छोड़कर तीनों दिशाओं में सीढ़ियाँ नीचे तक गयी हैं। कुण्डी की दक्षिण दिशा में जल निकासी हेतु ढाणा बना हुआ है। इस बावड़ी के निर्माण में बड़ी-बड़ी शिलाएँ उपयोग में ली गई हैं। इस बावड़ी की द्वितीय पाट की पूर्व दिशा में दीवार में खण्डित जल देवी प्रतिमा लगी हुई है। इस बावड़ी के जल से देवी-देवताओं का जलाभिषेक किया जाता था, जो इस बावड़ी की पवित्रता का द्योतक है। यह बावड़ी स्थापत्य का एक बेजोड़ नमूना है। अब इस बावड़ी का अपभ्रंश गुल्ला बावड़ी हो गया है।19

नाहरदूस की बावड़ी


बूंदी नगर से खोजा गेज से बाहर निकलते ही बायीं तरफ यह कबाण्यादार एवं पश्चिममुखी बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण 1664 ई. में महाराव राजा शत्रुशाल की रानी सिसोदणी जी ने करवाया था।20 यह बावड़ी 147 फीट लम्बी व 35 फीट चौड़ी है। बावड़ी के दोनों तरफ 5-5 फीट मोटी दीवारें होने के कारण बावड़ी की चौड़ाई 25 फीट रह गई है। बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ चतुर्थ स्तम्भकार 12 फीट ऊँची छतरियाँ बनी हुई हैं। इन छतरियों की दोनों आधारों में रिक्त ताके बनी हुई हैं। दायीं तरफ के आधार पर शिलालेख लिखा हुआ है। बावड़ी में प्रवेश करते ही तीसरी सीढ़ी एवं 23वीं सीढ़ी पर विशाल पाटें बनी हुई हैं। इन मुख्य पाटों के दोनों तरफ दीवारों में मंदिरनुमा ताके बनाई गई हैं। दायीं तरफ के मंदिर में बावड़ी वाले सगस महाराज की चौकी एवं बायीं तरफ के मंदिर में चतुरानन, चतुर्भुज ब्रह्माजी की प्रतिमा स्थापित है। ब्रह्माजी के प्रत्येक मुख पर दाढी एवं सिर पर जटा है। 30वीं सीढ़ी पर स्थित पाट पर 18 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा व 12 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के लम्बवत 22 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा व 12 फीट मोटा अन्य दरवाजा स्थित है। इस दरवाजे के अन्दर छोटे-छोटे छः दरवाजे बनाये गये हैं। इनमें से दो दरवाजों द्वारा बावड़ी से सीधे 22 सीढ़ीयाँ चढकर बाहर निकला जा सकता है। यह रास्ता सुरंग की तरह लगता है। इन निकास द्वारों पर भी चार स्तम्भों से युक्त कलात्मक छतरियाँ बनाई गई हैं। दरवाजे की छत बावड़ी का मुकुट-सा प्रतीत होता है। जिन्हें स्थानीय भाषा में कबाण्या कहते हैं। इन दरवाजों के बाद 25x25 वर्गफीट आकार की कुण्डी बनी हुई है। जिसके तीन तरफ से समलम्ब चतुर्भुज आकार में बनी सीढ़ियों द्वारा नीचे गहराई तक उतरा जा सकता है। बावड़ी की कुल गहराई 73 फीट है। बावड़ी में कुल 78 सीढ़ियाँ हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार से 20 फीट बायीं तरफ एक पाँच फीट ऊँचा कीर्तिस्तम्भ गाड़ा गया है। इस बावड़ी का निर्माण नगर गेट बन्द हो जाने पर राहगीरों के लिये विश्राम एवं जल पूर्ति हेतु करवाया गया था।21 बावड़ी के नाम के पीछे किंवदन्ती है कि जब यह बावड़ी निर्माणाधीन थी तो इसके आस-पास घना जंगल होने के कारण इसमें एक शेर गिर गया। बावड़ी में सीढ़ियाँ नहीं होने कारण शेर ने अन्दर ही दहाड़ते-दहाड़ते अपनी जान दे दी इसलिये इस बावड़ी को नाहरदूंख (शेर की दहाड़) की बावड़ी के नाम से भी जाना जाता है।

नाहरधुस की बावड़ी बून्दी

मनोहर बावड़ी


बून्दी के कागजी देवरा मोहल्ले में अंग्रेजी के L आकार में स्थित यह बावड़ी उत्तर-पूर्वाभिमुखी है। इस बावड़ी का निर्माण महाराब राजा बुद्धसिंह के शासन काल में धावड गुर्जर गंगाराम के भाई मनोहर राम ने 1724 ई. में करवाया था।22 इस बावड़ी की दक्षिण दिशा का दोष दूर करने हेतु इसे उत्तर-पूर्व दिशा में मोड़ दिया गया, जो स्पष्ट करता है कि इस बावड़ी का निर्माण वास्तुविद्यानुसार किया गया है। बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 5 घन फीट आयतन के दो आधारों पर 10 फीट ऊँची अष्टभुजाकार छतरियाँ बनी हुई हैं। इन छतरियों के नीचे आधारों में क्रमशः बांये आधार की ताक में जल देवी की प्रतिमा स्थापित है जो हंसारूढ़ हैं, जबकि दायीं तरफ के आधार में गणपति की प्रतिमा स्थापित है।

प्रवेश द्वार से 16वीं सीढ़ी एक 15 × 16 वर्ग फीट की पाट है। इस पर सामने की दीवार में एक कलात्मक ताक है। दक्षिण दिशा की दीवार में भी एक ताक है। दोनों ताकें रिक्त हैं। इस पाट से बावड़ी उत्तर-पूर्व दिशा में मुड़ जाती है। इस पाट से 35वीं सीढ़ी एक 12 × 10 वर्ग फीट की पाट है जिस पर 18 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा व 6 फीट मोटा तोरणद्वार बनाया गया है जो कलात्मक है। इस तोरणद्वार के दोनों तरफ कलात्मक ताकें बनी हुई हैं जो रिक्त है। इस तोरणद्वार से 21वीं सीढ़ी एक 12 × 10 वर्ग फीट की पाट है, जिसके दोनों तरफ की दीवारों पर रिक्त ताकें बनी हुई हैं। इस पाट के समान्तर 42 फीट दूरी पर एक कलात्मक दरवाजा स्थित है, जिसकी ऊँचाई 20 फीट, चौड़ाई 8 फीट व मोटाई 5 फीट है। इस दरवाजे के ऊपर तीन दरवाजों से युक्त तिबारियाँ बनी हुई है। इस दरवाजे से नीचे तृतीय पाट से 60 सीढ़ियों बाद एक 12 × 5 × 15 घन फीट आकार में एक दरवाजा बना हुआ है। बावड़ी की कुल लम्बाई 165 फीट, चौड़ाई 13 फीट है व गहराई 82 फीट है। बावड़ी में कुल 127 सीढ़ियाँ हैं जो हमें कुण्डी तक लेकर जाती है। इस बावड़ी पर पानी निकासी हेतु ढाणा बना हुआ है। बावड़ी के निर्माण में चूने व पत्थर का प्रयोग किया गया है, दीवारों को आयताकार स्लेबों से ढक कर कलात्मकता प्रदान की गई है।

बावड़ी में तिबारियाँ एवं छतरियाँ बनी हैं जो स्थानीय निवासियों एवं राहगीरों के लिये प्राकृतिक वातानुकूलन का काम करती थी। जनता फुर्सत के समय वहाँ बैठकर आराम किया करती थी। इस बावड़ी का जल स्थानीय जनता एवं राहगीरों के काम आता था। यह बावड़ी अपने समय की एक भव्य एवं विशाल बावड़ी मानी जाती थी। इस बावड़ी का नामकरण इसके निर्माता गुर्जर मनोहर के नाम पर मनोहर बावड़ी रखा गया।

मालनमासी हनुमान की बावड़ी


बून्दी की पूर्व दिशा में प्रसिद्ध मालनमासी हनुमान मंदिर के पास यह पश्चिममुखी बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी व मंदिर का निर्माण राव राजा शत्रुशाल सिंह की ग्यारहवीं रानी मालनवासिया राठौडी जी साहिबा ने 1645 ई. में करवाया था।23

यह बावड़ी 178 फीट लम्बी व 30 फीट चौड़ी है। बावड़ी में प्रवेश करने हेतु 1 फीट चौड़ा, 15 फीट ऊँचा व 14 फीट आन्तरिक मोटाई लिये हुए एक प्रवेश द्वार बना हुआ है। प्रवेश द्वार की बाहरी चौड़ाई 31 फीट है। इस प्रवेश द्वार के ऊपर तीन दरवाजों युक्त प्रासाद बने हुए हैं। मध्य के कक्ष में उत्तर दिशा की तरफ एक झरोखा बना हुआ है जिससे हनुमानजी के दर्शन किये जा सकते हैं। तीन दरवाजों में से एक दरवाजा ध्वस्त हो चुका है। ऊपर वाले तीन दरवाजों में दायें बायें दरवाजों की क्रमशः ऊँचाई 12 फीट चौड़ाई 15 फीट व मोटाई 12 फीट है। मध्य के दरवाजे को कक्ष की तरह प्रयोग किया जाता था। बावड़ी का निर्माण पत्थरों को चूने से चुनाई करके किया गया है। दीवारों को चूने के प्लास्टर से ढक कर सुन्दरता प्रदान की गई है। सीढ़ियों एवं पाटों को आयताकार पाषाण खण्डों से बनाया गया है। बावड़ी में कुल 90 सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी में प्रवेश करते ही 24वीं सीढ़ी एक 25 × 12 वर्ग फीट की पाट है। जिसके बायीं तरफ की ताक में बावड़ी वाले सगसजी महाराज पुजाते हैं। प्रथम पाट के समान्तर 70 फीट की दूरी पर एक कलात्मक दरवाजा बना हुआ है। इस दरवाजे को बन्द करके कक्षनुमा बनाकर उत्तर की तरफ बावड़ी को देखता हुआ झरोखा बनाया गया है। इस दरवाजे से सीढ़ियाँ बाहर तक गयी हैं जो स्पष्ट करती हैं कि बावड़ी में जल से भरे होने पर इन सीढ़ियों से इस कक्ष में सीधे प्रवेश सम्भव था। इस दरवाजे के ऊर्ध्वाधर नीचे एक इसी माप का दरवाजा जो पहली पाट से 24 सीढ़ियाँ नीचे स्थित पाट पर बना हुआ है। इस दरवाजे में छोटे-छोटे 3 दरवाजे और बने हुए हैं जो इसे भूलभुलैया सा बनाते हैं। इस दरवाजे से बाहर की तरफ दोनों दीवारों में दो कलात्मक दरवाजे बने हुए हैं। बायें दरवाजे में सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, जो इसे ऊपर के दरवाजे पर बने कक्ष से जोड़ती हैं। दूसरी पाट से 24वीं सीढ़ी एक 23 × 12 वर्ग फीट की पाट है जिस पर एक दरवाजा और बना हुआ है जो जमींदोज हो गया है। इन तीनों ऊर्ध्वाधर दरवाजों के बाद बावड़ी की 80 फीट गहरी कलात्मक कुण्डी बनी हुई है। कुण्डी के ऊपर पूर्व व पश्चिम दिशा में दीवार में 15 फीट ऊँची, 8 फीट चौड़ी व 4 फीट मोटी कलात्मक दरवाजों युक्त तिबारियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी से पानी निकासी हेतु ढाणे बने हुए हैं। इन ढाणों से 8-8 फीट की विशाल शिलायें कुण्डी के मध्य तक जाती है जो स्पष्ट करती है कि इस बावड़ी से हाथियों द्वारा पानी खींचकर, इस पानी का उपयोग पास में बने बगीचे, बाग एवं मंदिर हेतु किया जाता था। बावड़ी के पास प्रसिद्ध मालनमासी हनुमान मंदिर स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण मंदिर एवं विशाल बाग में जलापूर्ति हेतु किया गया। यह बावड़ी स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है।

नारूक्की की बावड़ी


बून्दी में कागजी देवरा क्षेत्र में खान ख्वास की हवेली के सामने नारूक्की की कलात्मक बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण राव राजा अनिरुद्ध सिंह के शासनकाल में इनकी रानी नारूक्की जी ने 1692 ई. में करवाया था।24

दक्षिण-पश्चिभामुखी यह कलात्मक बावड़ी 135 फीट लम्बी व 29 फीट चौड़ी है। बावड़ी के प्रवेशद्वार के दोनों तरफ 4 × 4 × 8 घन फीट आकार की चौखटे बनी हुई हैं। इनमें से बायीं चौखट में हंसारूढ़ जलदेवी की प्रतिमा स्थापित थी जो अब चोरी हो चुकी है। जबकि दायीं चौखट में 3×4 वर्ग फीट आकार के गणपति स्थापित है। इन दोनों तरफ की चौखट के ऊपर अष्टभुजाकार मुगल शैली में छतरियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी में प्रवेश करते ही 22वीं सीढ़ी पर एक 23×4 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवारों में रिक्त आलिये बने हुए हैं। इस पाट से 21वीं सीढ़ी पर एक कलात्मक तोरण द्वार बना हुआ है। जिसकी ऊँचाई 35 फीट है। इस तोरण द्वार के दोनों तरफ दो पहरेदारों को उकेरा गया है इस तोरण द्वार के बाद दीवार के दोनों तरफ दीवार में ही शिखरबद्ध मंदिरों को उकेरा गया है। इन मंदिरों में से बायीं तरफ के मंदिर में बैल पर चतुर्भुज जटाधारी शिव विराजमान हैं। जिनके दायीं जांघ पर पार्वती विराजमान है। शिव प्रतिमा के दोनों तरफ सेवक खड़े है। बायीं तरफ के मंदिर में चतुरानन ब्रह्मा विराजमान है जिनके सभी सिरों पर पतली दाढ़ी है जो मुगल प्रभाव को दर्शाती है। इस मूर्ति का आकार 2×3 वर्ग फीट है। इन दोनों मंदिरों के सामने 25×15 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट के समान्तर 42 फीट दूरी पर एक दरवाजा 25 फीट चौड़ा 40 फीट ऊँचा व 8 फीट मोटा बना हुआ है। इस पाट से दोनों दीवारों के सहारे-सहारे 2 फीट चौड़ी पाटें दरवाजे तक जाती हैं। इस दरवाजे के दोनों तरफ दो छोटे दरवाजे इस बड़े दरवाजे में प्रवेश हेतु बने हुए हैं। दरवाजे के ऊपर दोनों तरफ दो कक्ष बने हुए हैं जिनकी छते व दरवाजे युक्त स्थान है। इस दरवाजे के बाद 25×25 वर्ग फीट आकार की 50 फीट गहरी कुण्डी है। कुण्डी की उत्तरी दीवार पर ताक में शेषशैया पर विराजमान विष्णु की प्रतिमा उकेरित है। इस बावड़ी में वर्ष भर जल रहता है।

नेगीजी की बावड़ी


बून्दी के बालचन्द पाड़ा क्षेत्र में नौलखा घाट के समीप यह बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण महाराव विष्णु सिंह के शासनकाल में 1776 ई. में नेगी चन्द्रभान द्वारा करवाया गया। इस बावड़ी का नाम इसके निर्माणकर्ता नेगी चन्द्रभान के नाम से नेगी की बावड़ी विख्यात हुआ। नेगी चन्द्रभान फौजदारी व बक्षी गिरी के पदों पर रहे। उन्होंने यही बाग व तालाब का घाट बनवाकर एक तिबारी का निर्माण करवाया।25

पश्चिभामुखी अंग्रेजी के Z आकार की यह बावड़ी 53 फीट लम्बी व 8 फीट चौड़ी है। बावड़ी कलात्मकता रहित है। बावड़ी में प्रवेश करते ही छठी सीढ़ी से बावड़ी दक्षिण दिशा में मुड़ जाती है। इस बावड़ी के वास्तुदोष दक्षिणाभिमुखी से बचाने हेतु ही इसका प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा की तरफ कर दिया गया। बावड़ी में 22वीं सीढ़ी एक 6×3 वर्ग फीट की पाट है जिसके दोनों तरफ दीवार में रिक्त ताकें बनी हुई है। इस पाट से 7वीं सीढ़ी भी 6×6 वर्ग फीट की पाट है। यहाँ से बावड़ी पूर्व को मुड़ जाती है। पाट की पश्चिम दीवार पर एक रिक्त ताक बनी हुई है। इसी पाट एवं इससे आगे की तीन सीढ़ियों के सम्मिलित आधार पर 12 फीट ऊँचा, 6 फीट चौड़ा, व 3.5 फीट मोटा तिबारीनुमा दरवाजा बना हुआ है जिसमें दोनों तरफ सीढ़ियाँ बनाई गई है। उत्तर दिशा की सीढ़ियाँ पास में बनी हवेली के अन्दर तक गई है तथा दक्षिण तरफ की सीढ़ियाँ तालाब के घाट में निकलती हैं। बावड़ी में जल निकासी हेतु पूर्व व उत्तर दिशा में दो ढाणे बने हुए हैं। पूर्व के ढाणे से जल निकाला जाता था। बावड़ी के दक्षिणी तरफ प्रसिद्ध नवल सागर झील है।

इस बावड़ी के निर्माण का उद्देश्य नेगी जी द्वारा अपनी हवेली एवं अपने द्वारा बनाये गये घाट व बाग में जलापूर्ति करना था। वर्तमान में यह बावड़ी सजल है। बावड़ी हवेली के परकोटे में होने के कारण सुरक्षित भी है। बावड़ी के निर्माण स्थल को देखने से यह भी स्पष्ट होता है कि राहगीर भी इस बावड़ी के जल का उपयोग किया करते थे।

अनारकली बावड़ी


बून्दी से दक्षिण पश्चिम दिशा में 5 किमी दूर छत्रपुरा गाँव के मध्य में यह ऐतिहासिक बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण 1648 ई में महाराव शत्रुशाल सिंह जी के राज्य समय में उनकी ख्वास (उपपत्नी) अनारा ने करवाया था।26

पश्चिमामुखी यह बावड़ी 95 फीट लम्बी व 25 फीट चौड़ी है। बावड़ी में प्रवेश करने पर 12वीं सीढ़ी पर एक 18×4 वर्गफीट आकार की पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवारों में रिक्त ताकें बनी हुई हैं। इस पाट से 12वीं सीढ़ी भी एक 18×5 वर्गफीट आकार की मुख्य पाट है। इस पाट से 28 सीढ़ियों बाद 12×8 वर्गफीट की पाट पर 14 फीट ऊँचा 10 फीट चौड़ा 8 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के उर्ध्वाधर ऊपर एक 13 फीट ऊँचा, 12 फीट चौड़ा व 8 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। इस दरवाजे के ऊपर 18 फीट चौड़ी, 8 फीट मोटी व 13 फीट ऊँची तीन तिबारियों से युक्त कबाणिया बनी हुई हैं। ऊपर वाले दरवाजे पर मुख्य पाट से दोनों दीवारों के सहारे-सहारे 2 फीट चौड़ी पाटों द्वारा पहुँचा जा सकता है। दोनों दरवाजों के बाद 18×18 वर्गफीट आकार की कुण्डी स्थित है। इस कुण्डी में गहराई तक पहुँचने हेतु 15 सीढ़ियाँ बनाई गई है। बावड़ी की कुल गहराई 58 फीट व सीढ़ियों की कुल संख्या 57 है। इस बावड़ी का निर्माण चूने से पत्थरों को चिनकर किया गया है। दीवारों व सीढ़ियों को आयताकार कातलों द्वारा ढका गया है। यह आयताकार कातले, लाल व पीले रंग के पत्थरों का है जो बावड़ी को कलात्मकता प्रदान करती हैं।

इस बावड़ी के निर्माण का उद्देश्य छत्रपुरा के ग्रामवासियों, राहगीरों एवं बाग के लिये जलापूर्ति करना था। इस बावड़ी पर बने कबाणियाँ (झरोखेदार प्रासाद) राहगीरों एवं ग्रामवासियों द्वारा फुर्सत के क्षणों में आराम करने के लिये आदर्श स्थल थे।

अनारकली की बावड़ी बून्दी

रामसा बावड़ी


बून्दी से 10 किलोमीटर दूर फूल सागर के आगे चन्द्रभागा नदी के तट पर बड़ोदिया ग्राम में रामसा के नाम से यह बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण महाराव भाव सिंह के शासनकाल में 1671 ई. में बड़ोदिया के वणिक साह केसों के पुत्रों भाई जगन्नाथ, भाई राम, भाई देवरा ने करवाया। बावड़ी निर्माण के बाद भाव सिंह द्वारा बावड़ी के रख-रखाव हेतु 10 बीघा जमीन दी गई।27 उत्तराभिमुखी यह बावड़ी 95 फीट लम्बी व 18 फीट चौड़ी है। बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ रिक्त ताके बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से 6 फीट दूर दायीं दीवार में एक शिलालेख उकेरा गया है। इस लेख के बाद एक ताक में खड़गासन चतुर्भुजरूप में नग्न भैरव प्रतिमा है। इस प्रतिमा के हाथों में ढाल, तलवार, नरमुण्ड एवं दण्ड है। नरमुण्ड से रिसते खून को स्वान द्वारा चाटते हुये दिखाया गया है। प्रतिमा के दायीं तरफ एक सैनिक तलवार ढाल लेकर आक्रामक मुद्रा में है। बावड़ी में प्रवेश से 20वीं सीढ़ी पर 13x13 वर्गफीट की पहली पाट, इस पाट से 12वीं सीढ़ी पर 13x8 वर्गफीट की दूसरी पाट एवं 15वीं सीढ़ी पर 13x8 वर्गफीट की तीसरी पाट स्थित है। जिस पर 24 फीट ऊँचा, 8 फीट चौड़ा व 7 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के बाहर 16x16 वर्गफीट की कुण्डी बनी हुई है। कुण्डी में गहराई तक जाने हेतु समलम्ब चतुर्भुजाकार आकार में सीढ़ियाँ बनी हुई है। बावड़ी की गहराई 60 फीट है। कुण्डी के सामने की दीवार में एक कलात्मक ताक में 2x3 वर्गफीट आकार की खड़गासन मुद्रा में चतुर्भुज विष्णु की प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, कमण्डल व पुष्प है। बावड़ी से जल निकासी हेतु कुण्डी के ऊपर विशाल पाषाण शिलाएँ लगी हुई हैं। पूर्व व पश्चिम की तरफ अलग-अलग ढाणे बने हुये हैं। बावड़ी में कुल 63 सीढ़ियाँ हैं। बावड़ी का निर्माण चूने व पत्थर की चिनाई करके दीवारों व सीढ़ियों को पत्थर के कातलों से ढका गया है। इस बावड़ी के निर्माण का उद्देश्य बड़ोदिया ग्राम वासियों एवं जीव-जन्तुओं को जल उपलब्ध कराना था।28

छीपाओं की बावड़ी


बूंदी से 20 किलोमीटर दूरी पर दबलाना ग्राम में मेज नदी के किनारे बालाजी के मंदिर के पास यह बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण 1766 ई. में नामदेववंशी नगाजी ने अपनी कुल देवी वागामाता जी की कृपा से करवाया।29 उत्तर देखती हुई यह बावड़ी 68 फीट लम्बी व 15 फीट चौड़ी है। बावडी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 4x4x4 घनफीट आकार की चबुतरों पर 4 स्तम्भोंयुक्त 10 फीट ऊँची छतरियाँ बनाई गई हैं। दायीं छतरी में 2x3 वर्गफीट आकार में गणपति की प्रतिमा स्थापित है। जबकि बायीं छतरी रिक्त है। बावड़ी में प्रवेश करते ही 13वीं सीढ़ी पर स्थित पाट से दोनों दीवारों के सहारे-सहारे 2 फीट चौड़ी 35 फीट लम्बी पाटे तिबारीनुमा बने दरवाजे तक जाती है। इस तिबारी में 8 स्तम्भ हैं। बावड़ी से ऊँची निकली हुई तिबारी की छत रात्रि विश्राम के काम आती थी। बावड़ी में 9-9 सीढ़ियों के अन्तराल पर 2 पाटे बनी हुई हैं। इस पाट के दोनों तरफ की दीवारों में ताके बनाई गयी है। निचली पाट की दीवार में बायीं ताक रिक्त व दायीं ताक में एक शिलालेख लगा हुआ है। इस पाट से 8वीं सीढ़ी पर 15 फीट ऊँचा, 8 फीट चौड़ा व 7 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के बाद 12x12 वर्गफीट की कुण्डी है। बावड़ी में कुल 48 सिढ़ियाँ कुण्डी तक जाती हैं। बावड़ी में दक्षिण दिशा में पानी निकासी हेतु ढाणा बनाया गया है। इस बावड़ी की गहराई 75 फीट है। बावड़ी के निर्माण में छोटे-छोटे पत्थरों, छोटी ईंटों एवं चूने का प्रयोग किया गया है। दीवारों पर चूने का प्लास्टर किया गया है। बावड़ी के पानी का उपयोग स्थानीय जनता, राहगीरों एवं पास बने बालाजी के मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता था।

पनघट की बावड़ी


बूंदी से नेनवा जाने वाले मार्ग पर प्राचीन ठिकाना धोवड़ा गाँव के किनारे पनघट की बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण 1780 ई. में महाराजा भवानी सिंह जी की पत्नी नाथावत कनकगरा जी ने करवाया था।30 इस बावड़ी की लम्बाई 140 फीट व चौड़ाई 23.5 फीट है। इस बावड़ी की दीवारें 8 फीट मोटी हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार पर चौखटें बनी हुई हैं। बायीं तरफ की चौखट में हंसारूढ़ जलदेवी के हाथों में वीणा व सिर पर कमलपुष्प का मुकुट धारण किये हुये प्रतिमा स्थापित है। कमल पुष्प के डण्ठल को एक सेवक पकड़े हुये है जबकि अन्य सेवक हंस को मोती चुगा रहे हैं। दायीं तरफ की चौखट में गणपति स्थापित है। बावड़ी में प्रवेश करते ही 12वीं सीढ़ी पर 17.5x17.5 वर्गफीट आकार की विशाल पाट हैं। इस पाट से बावड़ी पूर्व दिशा में मुड़ जाती है। इस पाट की दक्षिणी व पश्चिमी दीवार पर रिक्त ताकें हैं। प्रथम पाट से 21वीं सीढ़ी पर दूसरी पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवारों में कलात्मक रिक्त ताके बनी हुई है। इसी पाट से दोनों दीवारों के समान्तर 2 फीट चौड़ी पाटे 10 फीट ऊँची अष्टभुजाकार तिबारी तक जाती है। तिबारी में प्रवेश हेतु दरवाजे बने हुये हैं। इस तिबारी के नीचे एक 9 फीट चौड़ा, 18 फीट ऊँचा व 5 फीट मोटा कलात्मक दरवाजा द्वितीय पाट से 47वीं सीढ़ी पर बना हुआ है। इस दरवाजे के बाहर स्थित कुण्डी की गहराई में उतरने हेतु 20 अतिरिक्त सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इस बावड़ी की कुल गहराई 65 फीट व सीढ़ियों की संख्या 101 है। बावड़ी से पानी निकासी हेतु पूर्व की तरफ दो समान्तर ढाणे बने हुये हैं। बावड़ी पर जानवरों को पानी पिलाने हेतु पक्की खेलें बनीं हुई हैं। बावड़ी के पास गणेशजी का प्राचीन स्थान एवं शिव मंदिर स्थित है। बावड़ी का निर्माण इन्हीं गणेशजी की कृपा से ग्रामवासियों एवं जानवरों के लिये जलापूर्ति के उद्देश्य से किया गया है।

गणेशघाटी की बावड़ी


बून्दी नगर से जैतसागर होते हुए दबलाना जाने वाले मार्ग पर गणेश घाटी की तलहटी में यह बावड़ी स्थित है। बावड़ी का निर्माण ब्राह्मण सनाढ्य उपाध्याय गणेशराम ने 1790 ई. के माघ शुक्ल 5 शुक्रवार को करवाकर उद्घाटन किया।31

अंग्रेजी के L आकार की यह बावड़ी दक्षिण-पूर्वाभिमुखी है। बावड़ी की कुल लम्बाई 51 फीट व चौड़ाई 12 फीट है। बावड़ी के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ गोखड़े बने हुए हैं जिनमें बायीं तरफ के गोखड़े की ताक में 1.5×1 वर्ग फीट आकार की चतुर्भज हंसारूढ़ जलदेवी की प्रतिमा स्थापित है, जो चारों हाथों में क्रमशः गदा, शंख, वीणा व पुष्प धारण किये हुए है। दायीं तरफ के गोखड़े की ताक रिक्त है। जहाँ से बावड़ी पश्चिम-दक्षिण दिशा में मुड़ जाती है। पाट से पाँचवी सीढ़ी भी 8 × 4 वर्ग फीट की पाट है। जिसके दोनों तरफ दीवार में बनी ताकों में क्रमशः बायीं ताक में चतुर्भुज विष्णु व चतुरानन ब्रह्मा की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। जबकि दायीं ताक में शिवलिंग स्थापित है। इन मूर्तियों में ब्रह्मा जी के लम्बी तीखी दाढ़ी तथा मूंछे हैं जो मुगल प्रभाव को दृष्टिगत कराती हैं। विष्णु प्रतिमा चारों हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा व कमल पुष्प धारण किए हुए हैं। इन प्रतिमाओं का आकार 15 × 1 वर्ग फीट है। इस पाट से 12वीं सीढ़ी पर 8 फीट चौड़ा, 10 फीट ऊँचा व 3 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। दरवाजे के ऊपर 6 फीट चौड़ा, 7 फीट ऊँचा व 3 फीट मोटा एक अन्य दरवाजा बनाया गया है। इन दोनों दरवाजों के बाद 11 × 11 वर्गफीट की कुण्डी बनी हुई है। यह कुण्डी 5 फीट गहराई के बाद बेलनाकार कुएँ का रूप ले लेती है। बावड़ी की कुल गहराई 45 फीट है। बावड़ी की कुण्डी के सामने वाली दीवार पर शेषनाग पर आसीन विष्णु भगवान की प्रतिमा को उकेरा गया है। इसी दीवार पर पानी निकासी हेतु ढाणा बनाया गया है। बावड़ी का निर्माण चूने व पत्थर से किया गया है। बावड़ी में कुल 25 सीढ़ियाँ हैं। बावड़ी में प्रवेशद्वार के दायीं तरफ शिलालेख लगा हुआ है।

इस बावड़ी का निर्माण धर्मार्थ राहगीरों, एवं नगर कोट के दरवाजे पर तैनात सैनिकों की जलापूर्ति हेतु किया गया था।

देवपुरा की बावड़ी


बून्दी में राजकीय महाविद्यालय के आगे देवपुरा ग्राम में, गुरुद्वारे वाली गली में, गणेश बाग के सामने एक प्राचीन बावड़ी स्थित है। महाराव अनिरुद्ध सिंह जी के राज समय में 1690 ई. में इस बावड़ी व बाग का निर्माण बेजनाथी जी के पुत्र श्रीमान धर्ममूर्ति श्री सुर्वभूदान जी लाठी, वरजी साह जी सभी साह परिवार ने महाराव अनिरुद्ध सिंह के पुत्र बुधसिंह के बचपन में उनकी वर्षगांठ के उपलक्ष्य में करवाया था। इस बावड़ी के प्रवेश द्वार की ताक में गणेश जी की स्थापना श्रीबीसकरणा बाई ने करवाई।32

पश्चिमामुखी यह बावड़ी 140 फीट लम्बी व 26 फीट चौड़ी है। बावड़ी में प्रवेश द्वार के दोनों तरफ चौखटें बनी हुई है। दायीं चौखट में 2×2 वर्ग फीट आकार में गणपति एवं बायीं ताक में इसी आकार की हंसारूढ जलदेवी की प्रतिमा स्थापित है। वर्तमान में जलदेवी की प्रतिमा को असामाजिक तत्वों द्वारा नष्ट कर दिया गया है। बावड़ी में प्रवेश करते ही चौथी सीढ़ी पर 18×4 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट से 19वीं सीढ़ी भी एक 18×4 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवार में दो ताकें बनी हुई है। बायीं ताक में शिलालेख लगा हुआ है जबकि दायीं ताक में शिवलिंग स्थापित है। इस पाट से 20वीं सीढ़ी एक 18×12 वर्ग फीट आकार की सबसे बड़ी पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवारों में मंदिरनुमा आकृति बनाकर नीचे ताकें बनाई गई हैं। दायीं तरफ के मंदिर में नंदी, पार्वती सहित शिवलिंग स्थापित है। नन्दी के आगे पैरों पर भक्ति मुद्रा में एक व्यक्ति बैठा हुआ है। पार्वती खड्गासन मुद्रा में चतुर्भुज रूप में आभूषणों से पूर्णरूप से अलंकृत है एवं चारों हाथों में क्रमशः गदा, कमल, शंख एवं कलष लिये हुए हैं। पार्वती के पैरों में बायीं तरफ कार्तिकेय व दायीं तरफ गणेश जी विराजमान है। नन्दी के ऊपर नागपाश बना हुआ है। इस बड़ी पाट से 35 सीढ़ियों के बाद 18 फीट चौड़ा, 20 फीट ऊँचा व 8 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के लम्बवत ऊपर इसी आकार का अन्य दरवाजा स्थित है। इस दरवाजे में पहुँचने हेतु बड़ी पाट से दोनों दीवारों के सहारे-सहारे लम्बी दो पाटें बनाई गई है। इन दरवाजों के निर्माण में मुगल प्रभाव दृष्टिगत होता है। इन दरवाजों के बाद 18×20 वर्ग फीट की कुण्डी है। कुण्डी में गहराई तक जाने हेतु पूर्व दिशा को छोडकर शेष तीन दिशाओं में 8-8 सीढ़ियाँ, समलम्ब चतुर्भुजाकार आकार में बनी हुई है। बावड़ी की कुल गहराई 70 फीट है। बावड़ी में कुल 82 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं।

बावड़ी की कुण्डी के ऊपर उत्तर से दक्षिण दिशा में एक विशालकाय पाषाण का मरगोल लगा हुआ है। कुण्डी की उत्तरी दीवार पर पानी निकासी हेतु ढाणा बना हुआ है। ढाणा व मरगोल इंगित करते हैं कि इस बावड़ी द्वारा बहुत बडे बाग की सिंचाई होती थी। बावड़ी के किनारे बनी बड़ी-बड़ी खेले जानवरों की जलापूर्ति को दर्शाती हैं। इस बावड़ी के शिलालेख से बावड़ी के साथ विशाल बाग बनवाना सिद्ध होता है। इस कुण्डी की पूर्वी दीवार पर ऊपरी दरवाजे के समान्तर 2×2 वर्ग फीट को ताक में शेषनाग पर खड्गासन मुद्रा में चतुर्भुज विष्णु विराजमान हैं, जिनके हाथों में क्रमशः गदा, कमल, शंख व कलश सुशोभित है। बावड़ी में लगी प्रतिमाओं को अलंकृत किया गया है जो अन्य बावडि़यों की प्रतिमाओं में कम ही मिलता है। इस बावड़ी का निर्माण छोटे-छोटे पत्थरों एवं ईटों को चूने के साथ चिनकर बनाया गया एवं दीवारों पर चूने का प्लास्टर किया गया है। बावड़ी का निर्माण इसके साथ बने बाग एवं देवपुरा गाँव के निवासियों, जानवरों की जलापूर्ति के निमित्त धर्मार्थ किया गया था।

लाखेरी की व्यास बावड़ी


यह बावड़ी राजकीय सीनियर उच्च माध्यमिक विद्यालय लाखेरी के प्रांगण में स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण 1600 ई. में महाराजाधिराज राव सुरजन के राज्य समय में रघुनाथ जी के पुत्र व्यास संतदास ने करवाया था।33

अंग्रेजी के एल आकार में निर्मित पूर्वाभिमुखी यह बावड़ी 85 फीट लम्बी व 29 फीट चौड़ी है। बावड़ी के प्रवेश द्वार पर चौखटें बनी हुई है। बावड़ी में प्रवेश करते ही 14 सीढ़ियों के बाद एक 12×12 वर्ग फीट की पाट है, यहीं से बावड़ी उत्तर दिशा में मुड़ जाती है। इस पाट की दक्षिणी दीवार की ताक में शिलालेख लगा हुआ है। इस पाट से 8वीं सीढ़ी पर 12×4 फीट की पाट है, इस पाट के दोनों तरफ की दीवारों पर ताकें बनाई गई हैं। इन ताकों में देवता पुजाते हैं। इस पाट से 8वीं सीढ़ी भी 12×4 वर्ग फीट की पाट है इस पाट पर 18 फीट ऊँचा व 4 फीट मोटा दरवाजा बनाया गया है। इस दरवाजे के ऊपर एक दो दरवाजों युक्त 15 फीट लम्बा 4 फीट चौड़ा व 10 फीट ऊँचा कक्ष बनाया गया है। इस कक्ष में उत्तर व दक्षिण तरफ बावड़ी की दोनों तरफ देखते हुए दो झरोखे बने हुए हैं। इस दरवाजे के बाद 15×15 वर्गफीट की कुण्डी बनायी गयी है। बावड़ी की कुल गहराई 50 फीट एवं सीढ़ियों की संख्या 60 है। बावड़ी की कुण्डी में गहराई तक उतरने हेतु 17 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। बावड़ी से जल निकासी हेतु उत्तरी दीवार पर एक ढाणा बनाया गया है। बावड़ी के पास बड़ी-बड़ी खेलों के निशान हैं जो इंगित करते हैं कि इस बावड़ी से पशुओं के लिये जलापूर्ति की जाती थी। बावड़ी का निर्माण बड़े-बड़े पत्थरों को चूने से चिनकर किया गया है। बावड़ी की निर्माण शैली साधारण है। बावड़ी सजल है। बावड़ी के जल से लाखेरी निवासियों, राहगीरों, पशुओं एवं पास में बने विशाल बाग में जलापूर्ति की जाती थी। यह बावड़ी वक्त के साथ धोबियों द्वारा कपड़े धोने के काम ली जाने लगी। वर्तमान में इसे धोबियों की बावड़ी कहते है।

माटून्दा, बावड़ी


बून्दी से 8 किमी. दूर माटून्दा ग्राम के मध्य सतियों की छतरियों के पास में एक बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण रूपसिंह नाथावत सोलंकी की जागीरी में उनकी रानी सोनगरी सारहाइन ने 1659 ई. में करवाया था। इस बावड़ी के निर्माण की लागत 4001 कटार शाही रुपये आयी थी।34

पूर्वाभिमुखी यह बावड़ी 77 फीट लम्बी व 24 फीट चौड़ी है। प्रवेशद्वार के दोनों तरफ 6×4×8 घन फीट के आधारों पर आयताकार अष्टभुजाकार 8 फीट ऊँची छतरियाँ बनाई गई हैं। बायीं तरफ के आधार में 2×3 वर्ग फीट आकार में हंसारूढ़ सरस्वती की प्रतिमा एवं दायीं तरफ के आधार में 2×3 वर्ग फीट आकार में गणपति की प्रतिमा स्थापित है। प्रवेश से 8वीं सीढ़ी एक 17.5×6 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट के दोनों तरफ की दीवारों में ताकें बनाई गई है। बायीं ताक में भैरूजी व दायीं ताक में शिलालेख एवं सगस जी की चौकी है। इस पाट से 18 वीं सीढ़ी एक 17.5×7 वर्ग फीट की पाट है। इस पाट के दोनों तरफ दीवार में कलात्मक रिक्त ताकें बनी हुई हैं। इस पाट से 28वीं सीढ़ी भी एक पाट है जिस पर 22 फीट ऊँचा, 12 फीट व 8 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। यह दरवाजा हाथियों की प्रतिमाओं से अलंकृत हैं। दरवाजे के बाद 18×18 वर्ग फीट की कुण्डी है, जिसमें 15 समलम्ब चतुर्भुजाकार सीढ़ियों द्वारा गहराई तक जाया जा सकता है। बावड़ी की कुल गहराई 55 फीट है; बावड़ी का निर्माण पत्थरों को चूने में चिनकर किया गया है। दीवारों, सीढ़ियों एवं पाटों को आयताकार पट्टिकाओं से ढककर कलात्मकता प्रदान की गई है। यह बावड़ी साफ सुथरी सजल है। बावड़ी में वर्षभर जल रहता है। बावड़ी के पास बायीं तरफ सतियों की तीन छतरियाँ बनी हुई हैं। बावड़ी के पश्चिम तरफ पानी निकासी हेतु ठाणा बनाया गया है। इस बावड़ी को राजकीय संरक्षण एवं सहयोग प्राप्त था। इसलिये यह कलात्मकता लिये हुए एक विशाल बावड़ी है। इस बावड़ी के आस-पास सती स्मारक उस स्थान को पवित्रता प्रदान करते हैं। इस बावड़ी के निर्माण का उद्देश्य ग्रामवासियों एवं राहगीरों के लिये सुलभ जल उपलब्ध कराना था। बावड़ी के जल से कृषि एवं बाग हेतु भी जल निकाला जाता था।

धाय र्भाइ जी का कुण्ड


धाय भाई जी का कुण्ड लंका गेट रोड पर जिला कारागृह के पास स्थित है। इसका निर्माण राजा शत्रुशाल के शासनकाल में वाधा जाति के अजीत के बेटे भाण जी तथा इनके पुत्र गोपी की पत्नी धायमा सबीरा द्वारा गोपी की द्वितीय पत्नी सुहाई के पुत्र कन्हीराम के विवाह के उपलक्ष्य में किया गया।35 धाय भाई जी के कुण्ड का निर्माण 1645 ई. प्रारम्भ हुआ एवं 1654 ई. में यह कुण्ड बनकर पूर्ण हुआ।

स्थापत्य संरचना को दर्शाता यह एक आयताकार कुण्ड है, जिसकी लम्बाई 195 फीट व चौड़ाई 153 फीट है। यह विशाल कुण्ड शीर्ष से तल तक 78 फीट गहरा है। कुण्ड में तीन दिशाओं में प्रवेश संभव है। मुख्य प्रवेश द्वार पश्चिमी दिशा में है। मुख्य प्रवेश द्वार के दोनों ओर बनी ताकों में दायीं ओर चतुर्भुज गणपति व बायीं ओर हंसारूढ़ जल देवी की प्रतिमा स्थापित है इस कुण्ड की दीवारें 7 फीट चौड़ी व 4 फीट ऊँची अन्दर से खोखली है। इन दीवारों में प्रवेश करने हेतु प्रवेश द्वार के दोनों तरफ 2-2 रास्ते बनाये गए हैं। पश्चिमी मुख्य प्रवेश द्वार से 8 सीढ़ियों के बाद एक 6 फीट चौड़ी पाट है, जो पूर्व दिशा में बने प्रसादों को छोड़कर कुण्ड के चारों तरफ घूमती हैं। इस पाट के नीचे जाने हेतु 14 सीढ़ियोंयुक्त खण्ड हैं, जिसके दोनों तरफ 3 वर्ग फीट आकार के 7-7 खण्ड नीचे तक गये हैं। 17 सीढ़ियों के बाद एक तीन फीट चौड़ी पाट है। इस पाट से 4 पूर्ण एवं दोनों कोनों में अर्द्ध समलम्ब चतुर्भुजाकार सीढ़ियाँ बनाई गई। प्रत्येक खण्ड में 6-6 सीढ़ियाँ हैं। यह कुण्ड बहुस्तरीय है एवं विभिन्न स्तरों पर विभिन्न खण्डों में सीढ़ियाँ नीचे उतरती हैं एवं विभिन्न समानान्तर पाटे बनी हुई हैं, जो कुण्ड की कुण्डी के तीनों तरफ घूमती है। इस कुण्डी का आकार 40x30 वर्ग फीट है। जो मात्र 10 फीट गहरी है। कुण्ड की कुल गहराई 60 फीट है। इस प्रकार उत्तरी व दक्षिणी प्रवेश द्वार से कुण्ड में प्रवेश करके इसी क्रम में कुण्डी तक उतरा जा सकता है। उत्तरी प्रवेश द्वार के दोनों तरफ बनी ताकों में से बायीं ताक में नन्दी सवार शिव-पार्वती की प्रतिमा है। शिव ने त्रिशूल एवं कमण्डल धारण किया हुआ है तथा पार्वती को अपनी जंघा पर बिठाया हुआ है। दायीं तरफ ताक में भैंरू प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा चतुर्भुज खड़गासन मुद्रा में है। भैंरू के दायीं तरफ कुत्ता व बायीं तरफ एक सेवक सेवारत है। इस कुण्ड में प्रथम पाट 5 फीट चौड़ी है, जो कुण्ड के चारों तरफ बने प्रसादों को छोड़कर घूमती है। इस पाट पर सीधे प्रवेश हेतु पश्चिमी व पूर्वी दिशा के कोनों से 13-13 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इसी पाट पर पश्चिमी दिशा में एक शिलालेख लगा हुआ है।

कुण्ड की पूर्वी दिशा में दो कक्षों व इनके मध्य बरामदेयुक्त प्रासाद बने हुए हैं। जिनके दोनों कक्षों के ऊपर पानी निकालने हेतु ढाणे बने हुए हैं। इन कक्षों में बने झरोखे कुण्ड की तरफ खुलते हैं। बरामदे के ऊपर उर्ध्वाधर एक बरामदा और बना हुआ है। पानी निकालने हेतु बने दोनों ढाणों पर प्रवेश हेतु दो कलात्मक दरवाजे बने हुए हैं। प्रवेशद्वार के सामने की ओर महलनुमा तिबारियाँ व 8x7.6 फीट के दो झरोखेदार कक्ष बने हुऐ हैं। इन कक्षों के मध्य तिबारी में दीवार पर देव मन्दिर है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि पुजारी इन कक्षों में निवास करते थे तथा कुण्ड का जल पूजार्थ काम में लिया जाता था। बूंदी की आम जनता कुण्ड के जल को उपयोग में लेती थी साथ ही आस-पास की भूमि को इससे सिंचित किया जाता था।36

कुण्ड के प्रवेश स्थल के समीप ही दो बड़ी-बड़ी कलात्मक रहित छतरियाँ स्थित है। इन छतरियों में से एक छतरी को राव भावसिंह के धाय भाई कान्ह जी ने अपनी पत्नी की स्मृति स्वरूप बनवाया था। छतरियाँ 12 फीट ऊँचे वर्गाकार आधार पर स्थित है, जिनकी ऊँचाई 19 फीट है। कुण्ड के पास 1606 ई. में राव भोज के पुत्र मनोहर द्वारा बनवाया गया बाग है।37 कुण्ड से इस बाग में जलापूर्ति की जाती थी। इस कुण्ड का निर्माण चूने के पत्थरों से करके दीवारों, सीढ़ियोंव पाटों को आयताकार पाषाण पट्टिकाओं से ढक दिया गया है। यह कुण्ड विशालता एवं कलात्मकता लिये हुये हैं।

धायभाय जी का कुण्ड बून्दी

प्रधान जी का कुण्ड


बूंदी नगर में चौगान दरवाजे एवं तिलक चौक के मध्य सदर बाजार में प्रधान जी का कुण्ड स्थित है। इस कुण्ड का निर्माण शाह गणेश राम प्रधान पुत्र कुशाली राम महाजन सोमानी गौत्र कुदाल निवासी बड़ौदिया ने राव राजा बुद्धसिंह के शासन काल में 1732 ई. में बनवाया गया था।38 उत्तर की ओर देखता हुआ यह कुण्ड 50x50 वर्गफीट आकार में बना हुआ है। कुण्ड में प्रवेश करने के लिये 12 फीट ऊँचा एवं 8 फीट चौड़ा मुख्य दरवाजा बनाया गया है। दरवाजे में किवाड़ लगे हुये हैं। इस कुण्ड की सीढ़ियोंका प्रत्येक खण्ड समकोण त्रिभुजाकार दिखाई देता है। जो इस कुण्ड को अन्य कुण्डों से अलग करता है। मुख्य प्रवेश द्वार से 32 सीढ़ियोंद्वारा मुख्य पाट तक पहुँचा जाता है। इस पाट के सम्मुख दिवार पर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित है। जबकि पूर्वी दिवार पर बनी ताक रिक्त है। इसी पाट से 11 सीढ़ियाँ चढकर 12 दरवाजों युक्त एल आकार की तबारी में पहुँचा जाता है। इसी तिबारी के मध्य में पानी निकासी हेतु घिरनी लगी हुई है। इसी घिरणी के ऊपर पानी निकास हेतु ढाणा बनाया गया है। इन उत्तरी तिबारियों के उर्ध्वाधर नीचे भी 5 दरवाजों युक्त तिबारियाँ बनाई गई हैं। ऊपर वाली तिबारी की दक्षिण दिशा में एक दरवाजा बना हुआ है जो इसे प्रधान जी की हवेली से जोड़ता है। इसी हवेली की जलापूर्ति करने के कारण यह प्रधान जी का कुण्ड कहलाता है। बावड़ी के मुख्य पाट से सीढ़ियाँ पश्चिम में मुड़ जाती हैं। इस पाट से 23 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर प्रथम पाट, 17 सीढ़ियाँ उतरकर द्वितीय पाट, 15 सीढ़ियाँ उतरकर तृतीय पाट, 9 सीढ़ियाँ उतरकर चतुर्थ पाट, 13 सीढ़ियाँ उतरकर पंचम पाट एवं 14 सीढ़ियाँ उतरकर कुण्डी में अन्तिम स्थल तक पहुँचा जा सकता है।39 यहाँ पर कुण्डी का आकार 12x14 फीट रह जाता है। प्रत्येक पाट से सीढ़ियाँ घड़ी की दिशा में समकोण पर मुड़ जाती है एवं त्रिभुजाकार खण्डों में बनी सीढ़ियों की लम्बाई एक निश्चित अनुपात में कम होती जाती है। इसलिये अन्तिम सीढ़ी डेढ़ फीट लम्बी रह जाती है। इस प्रकार ऊपर से नीचे जाने हेतु 9 त्रिभुजाकार खण्डों में कुल 155 सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कुण्ड की कुल गहराई 70 फीट है। कुण्ड स्थापत्यकला का उत्कृष्ट नमूना है।

प्रधानजी का कुण्ड बून्दी

बोहराजी का कुण्ड


बूंदी नगर में अभयनाथ महादेव के सामने आयताकार बोहराजी का कुण्ड स्थित है। इस कुण्ड का निर्माण 1732 ई. में महाराव उम्मेदसिंह जी एवं उनके कामदारों श्री शालिन सिंह, श्री बालसिंह एवं दलेल सिंह के समय में बोहरा समावर के पुत्र बिसन चन्द जी ने करवाया एवं नारायण नागर ने इसे पूर्ण करवाया।40 इस कुण्ड की गहराई लगभग 12.0 फीट, लम्बाई 58.0 फीट तथा चौड़ाई 38.0 फीट है। कुण्ड में प्रवेश हेतु उत्तर दिशा को छोड़कर शेष तीनों दिशाओं में चतुर्भुज आकार के खण्ड बने हुये हैं। प्रत्येक खण्ड की असमान्तर भुजाओं पर 10-10 सीढ़ियाँ बनी हुई है। कुण्ड में प्रथम पाट तक पहुँचने हेतु पूर्व व पश्चिम दिशा में 3 एवं दक्षिणी दिशा में 6 खण्ड बने हैं। उत्तर दिशा में केवल दीवार है। इन खण्डों के बाद कुण्ड के चारों तरफ 20 फीट चौड़ी पाट है। केवल उत्तर दिशा में 60 फीट भाग ढाणे के कारण छोड़ा हुआ है। प्रत्येक प्रवेश स्थल में 30-30 सीढ़ियाँ तीसरे पाट से भी नीचे जाती हैं। प्रथम चौड़ी पाट से द्वितीय पाट पर जाने हेतु 5-5 सीढ़ियोंयुक्त समलम्ब चतुर्भुज आकार के खण्ड बने हुए हैं। ऐसे 2-2 खण्ड पूर्व और पश्चिम में तथा 4 खण्ड दक्षिण में है। यह खण्ड द्वितीय पाट पर पहुँचाते हैं। द्वितीय पाट से तृतीय पाट पर जाने हेतु 5-5 सीढ़ियोंयुक्त खण्ड बने हुए है। तृतीय पाट 10 फीट चौड़ी है। तृतीय पाट से चतुर्थ पाट तक जाने हेतु 4-4 सीढ़ियों युक्त चतुर्भुजाकार खण्ड बने हुये हैं। पूर्व, पश्चिम दिशा में ऐसे 5 खण्ड एवं दक्षिण में 4 खण्ड है। चतुर्थ पाट 4 फीट चौड़ी है। इसी क्रम में कुण्डी तक 5 पाटे हैं। अन्त में 50x40 वर्गफीट की कुण्डी है। इस कुण्ड में उत्तर की तरफ पानी निकासी हेतु ढाणा बना हुआ है एवं पूर्व दिशा में ताक में शिलालेख लगा हुआ है इसी दिशा में विष्णु की प्रतिमा सगसजी का स्थान दूध पिलाती गाय तथा नन्दी के साथ शिव-पार्वती स्थापित है। कुण्ड का निर्माण चूने से पत्थरों को चिनकर किया गया है। पाटों, सीढ़ियोंएवं दीवारों को आयताकार पत्थरों की पट्टियों से ढककर कुण्ड को कलात्मकता प्रदान की गई है। इस कुण्ड के चारों घाटों के नाम क्रमशः सनु घाट, श्रीघाट, इच्छा घाट, नघाट है। इसका पानी प्रदूषित होने के कारण पीने योग्य नहीं है।41

बोहराजी कुण्ड बून्दी

नवलसागर तालाब


बून्दी में राजमहलों से नीचे आने पर दायीं ओर जाने वाला मार्ग रावले से लगे हुए नवल सागर तालाब पर पहुँचाता है।42 इस तालाब के निर्माण से पूर्व यह स्थल दो पहाड़ियों के मध्य एक बड़ा नाला था जहाँ से वर्षा ऋतु का जल बड़े प्रवाह से निकल जाया करता था। यह तालाब महाराव राजा उम्मेद सिंह के शासन काल में 1761 ई. में बनवाया गया था।43 नरेश अजीतसिंह ने नवलसागर तालाब की पाल में भरती करवाकर यहाँ बाग लगवाया एवं तालाब में जलबुर्ज बनवाया था। राजा विष्णु सिंह की ख्वास सुन्दरशाल ने नवलसागर तालाब के किनारे पर सुन्दर घाट बनवाया।44 नौ घाटों से युक्त इस तालाब के पश्चिम भाग पर एक कलात्मक शिव मन्दिर तथा बावड़ी स्थित है जिसे बून्दी नरेश राव भोज के समय अवदीच ब्राह्मण नृसिंह ने 1588 ई. में बनवाया था।45 इसी प्रकार तालाब के मध्य में 13×13 वर्गफीट के आधार पर स्थित 21 फीट ऊँची एक अष्टभुजाकार छतरी है, जिसका निर्माण भी राव भोज ने 1588 ई. में करवाकर इसमें चुटकल्या भैरव की प्रतिमा स्थापित करवाई थी।46 वर्तमान में अब वह प्रतिमा इस छतरी में विद्यमान नहीं है। इस प्रकार तालाब के मन्दिर की बावड़ी तथा छतरी का निर्माण तालाब के निर्माण के 173 वर्ष पूर्व हो चुका था। अतः स्पष्ट है कि यह स्थल तालाब निर्माण से पूर्व भी धार्मिक आस्था का केन्द्र था।

नवलसागर तालाब का क्षेत्रफल 45326 वर्ग मीटर है। तालाब का मन्दिर 29 फीट ऊँचा है जो 38x277 वर्ग फीट के आयताकार आधार पर स्थित है। गर्भगृह में 6 इंच व्यास का श्वेत पाषाण का शिवलिंग स्थित है। शिवलिंग के सामने चतुभुर्ज पार्वती की प्रतिमा है। तालाब के दक्षिणी छोर पर 20x18 वर्ग मीटर का बड़ा ईदगाह स्थित है जिसका बून्दी की मुस्लिम धार्मिक परम्पराओं में विशेष महत्त्व है। ईदगाह के चारों कोनों पर चार मीनारें हैं यही पर स्नान हेतु बना हुआ ईदगाह घाट है।

तालाब के उत्तरी तट पर अनेक देव मन्दिर बने हैं तालाब के उत्तर पश्चिम कोने पर 13 फीट ऊँची छतरी में शिव परिवार सहित प्रसिद्ध गजलक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित है। यह प्रतिमा श्वेत प्रस्तर खण्ड पर उत्कीर्ण कारीगरी का एक अनुपम उदाहरण है। मध्य में एक षोडषी बैठी दोनों हाथों से अपनी खुली केश राशि संभाल रही है। षोडषी का उर्ध्वमान उजागर एंव अधोभाग श्रीयन्त्र में विलीन है। श्रीयन्त्र लक्ष्मी का तान्त्रिक प्रतीक है। लोगों का विश्वास है कि इस यन्त्र को धोकर प्रसव पीड़ा से पीड़ित स्त्री को जल पिलाने से प्रसव पीड़ा कम हो जाती है।47 आगे बढ़ने पर मुकटेश्वर शिव का स्थान आता है। इन देव प्रतिमाओं की स्थापना नागर नवल राम के पौत्र मुकट लाल ने 1870 ई. में करवाई थी।48 नवलराम जी के नाम से ही इस तालाब को नवल सागर तालाब कहा जाने लगा। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि नवलराम उस काल में निःसन्देह प्रभावशाली व्यक्ति था। आगे बढ़ने पर गोपाल घाट आता है। घाट के शिलालेख पर ‘मर्दाना हिन्दू शब्द‘ लिखा है।49 जिससे स्पष्ट है कि यहाँ केवल हिन्दू जनता ही स्नान कर सकती थी। अतः स्पष्ट है कि जन साधारण में धार्मिक भेदभाव था। इस स्थान पर स्त्रियों के स्नान के लिये निषेध था। तालाब का पानी इतना पवित्र माना जाता था कि निकट ही स्थित गोपाल मन्दिर में मूर्तियों की पूजार्थ जल पुजारी इसी गोपाल घाट से भरकर ले जाते थे।

मुकटेश्वर स्थान के आगे स्थित सुन्दर घाट का क्षेत्रफल 1985 वर्ग मीटर है। इसका निर्माण 1810 ई. में महाराजाधिराज महाराव राजा विष्णुसिंह की ख्वास (कृपापात्र) सुन्दरशोभा ने करवाया, साथ ही श्याम सुन्दरजी तथा कपूरेश्वर जी के मन्दिर बनाये।50 बून्दी की धार्मिक परम्पराओं में हनुमान पूजा का विशेष स्थान रहा है। सुन्दरघाट परिसर में बुर्ज के शीर्ष पर 6 फीट ऊँची उत्तराभिमुखी हनुमान प्रतिमा 16 स्तम्भों की छतरी को 1810 ई. में विष्णुसिंह जी ने स्थापित करवाई।51 इस प्रतिमा की स्थिति कुछ इस प्रकार से है कि राजमहलों से स्पष्ट दिखाई पड़ती है। अतः स्पष्ट है कि प्रत्येक बून्दी नरेश प्रातःकाल अपने शयन कक्ष से उठते ही इस वीरभाव से युक्त दिव्य प्रतिमा के दर्शन करते थे। सामान्यतया यहाँ राजपरिवार ही पूजा अर्चना करता आया है, किन्तु अब यह मन्दिर सामान्य जनता के लिये भी पवित्र धार्मिक स्थल बन गया है। सुन्दर घाट के एक ओर नवल सागर तालाब में झूलता हुआ महल बना है, जिसमें बून्दी शैली की सुन्दर चित्रकारी अंकित है। यह महल राजपरिवार के सदस्यों के लिये तालाब के विहंगम दृश्य के अवलोकन व शुद्ध वायु सेवन के उद्देश्य से बनाया गया था।

नवल सागर के पूर्वी तट पर अन्तःपुर (रावला) स्थित है। तालाब के जल के सानिध्य से प्रवाहित शीतल पवन से यह अन्तःपुर सदियों से वातानुकूलित रहता आया है। रावले व तालाब के मध्य राम बाग स्थित हैं, जिसे महाराव विष्णुसिंह की कृपापात्र सुन्दर शोभा ने बनवाया था।52 इस बाग में अर्द्धचन्द्राकार सीढ़ियोंंयुक्त घाट बना हुआ है। तालाब का जल सदियों से इस बाग की सिंचाई हेतु उपयोगी रहा है। नवल सागर तालाब के रामबाग स्थित धार्मिक घाटों का भी अपना एक अलग महत्त्व है। यहाँ जल झूलनी एकादशी को बून्दी नगर के सभी मन्दिरों से देव विमान एक साथ शोभायात्रा के रूप में आते हैं।

सथुर दर्रे का नाला व भूत्याखाल नाला तालाब के लिये प्रमुख जल उपलब्ध करवाने वाले जलस्रोत है। तालाब के निर्माताओं ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मध्य नजर रखते हुए इसका निर्माण करवाया, क्योंकि सूर्यास्त के समय इस तालाब के पानी में पड़ने वाली राजमहलों की परछाई मन को छू लेने वाली होती है। आज भी जब यह तालाब पानी से भर जाता है बून्दी की बहुसंख्यक जनता यहाँ आकर स्नान करती है।

नवलसागर तालाब बून्दी

रामसागर तालाब


बून्दी राज्य का प्रमुख जलस्रोत राम सागर बून्दी से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर हिण्डोली ग्राम के उत्तर में स्थित है। इस तालाब को बनाने की बुनियाद बून्दी नरेश राव भोज (1585-1607 ई.) के शासनकाल में हाड़ा हमीर सिंह ने डाली, किन्तु इसे मूर्तरूप दोडेदा (डाटून्दा) में रहने वाले महाजन रामाशाह ने 1594 ई. में प्रदान करवाया। रामाशाह हिण्डोली के पास स्थित हरणा ग्राम में रहने वाले चारण परशुराम का कामदार था। हिण्डोली ग्राम तालाब से पूर्व की ओर स्थित है।53

किंवदन्ती है कि दोड़ेदा में रहने वाले महाजन रामाशाह (रामधन) की पुत्री जब अपने ससुराल हिण्डोली पहुँची और गृह प्रवेश से पूर्व अपनी सास से पैर धोने के लिये जल माँगा तो सास ने ताना मारा कि अपने पिता से कहती जो वह तालाब खुदवाकर तुझे नाव में बिठाकर भेजते। इस ताने की क्रियावन्ति स्वरूप इस तालाब का निर्माण हुआ माना जाता है। आज भी तालाब के एक ओर हिण्डोली गाँव है तो दूसरी ओर दोड़ेदा (डाटून्दा) गाँव है।

हिण्डौली ग्राम के इस तालाब की परिधि चार वर्गमील है। तालाब के पास एक ऊँची पहाड़ी पर प्राचीन महल बने हुए हैं, जिनको राजवंश के प्रतापसिंह ने 17वीं शताब्दी के मध्य बनवाया था।54 महल के दरवाजे में प्रवेश करते दाहिने हाथ की ओर छज्जे पर लेख खुदा हुआ है जिस पर संवत 1708 (1651 ई.) स्पष्ट दिखाई देता है।55 यह लेख दरवाजा बनवाने का है इससे स्पष्ट होता है कि महल 1651 ई. में पूर्व निर्मित हो चुके थे। महलों के अंदरूनी एवं बाह्य हिस्सों में कलात्मक झरोखे निर्मित है, जिसमें खड़े होकर हिण्डोली ग्राम व तालाब रामसागर की सुन्दरता को निहारा जा सकता है। महलों के गुम्बद पर पत्थरों की कटाई-छटाई मनमोहक है। अंदरूनी भाग के स्तम्भ व ईंटें ढहकर बिखर गयी हैं।

कालान्तर में बून्दी महाराव राजा रघुवीर सिंह (1889-1927 ई.) ने इस तालाब पर एक पक्की पाल बनवाकर इसके ऊपर बारहदरी का निर्माण करवाकर पाल पर ही एक बाग लगवाया।56 बारहदरी में 12 दरवाजे व कलात्मक स्तम्भ है। महाराव रघुवीर सिंह ने बारहदरी के सामने दरीखाने का निर्माण करवाया तथा दरीखाने के दरवाजे में रंगीन काँच जड़े हुए थे जो अब सुरक्षा के अभाव में नष्ट हो चुके हैं। भीतरी दीवारों में कलात्मक चित्रकारी है, जो अब शनैःशनैः नष्ट होने लगी है। तालाब के किनारे पर असंख्य स्नान घाट बने हुए हैं। जहाँ हिण्डोली ग्राम की बहुसंख्यक जनता नित्य स्नान करने के लिये पहुँचती है। तालाब जहाँ एक ओर आस-पास की हजारों एकड़ भूमि को सिंचित करता है वहीं दूसरी ओर हिण्डोली के भू-भाग के जलस्तर को भी नियंत्रित करता है।

तालाब की पाल के सामने हुंडेश्वर शिव का अति प्राचीन मंदिर स्थित है। मंदिर के मध्य में एक विशाल शिवलिंग एवं सामने पूर्वाभिमुखी पार्वती की मूर्ति है। पार्वती की प्रतिमा के पास ही शंख, चक्र, गदा और पदम धारण किए हुए विष्णु की प्राचीन प्रतिमा है। हुंडेश्वर महादेव के सामने नन्दी विराजमान है। मुख्य मंदिर के बाहर तिबारी में एक लेख से ज्ञात होता है कि इस तिबारी का निर्माण बूंदी नरेश शत्रुशाल के शासन काल में परशुराम जोशी ने 1632 ई. में करवाया था।57 मंदिर के पास ही एक धर्मशाला के लेख से स्पष्ट होता है कि इस धर्मशाला का निर्माण महाराव विष्णुसिंह के शासन काल में गोपीनाथ बोहरा ने 1805 ई. में करवाया।58

रामसागर तालाब की पाल पर 4 छतरियाँ बनी हुई हैं। चारों छतरियों में स्तम्भ लेख उत्कीर्ण है जो छतरियों के निर्माण से सम्बन्धित हैं। उक्त छतरियों के पास सुन्दर बगीचे में तेजा महाराज का स्थान है। इस स्थान पर तेजा दशमी पर विशाल मेला भरता है। तालाब के किनारे ग्राम के उत्तर की तरफ एक पूर्वाभिमुखी रघुनाथजी का शिखरबद्ध मंदिर बना हुआ है। जिसका निर्माण 1728 ई. में जोशी नानूराम के पुत्र ने करवाया।59 इसमें रघुनाथ एवं लक्ष्मण की मूर्तियाँ श्वेत मकराने की बनी हुई है। उक्त मंदिर के पास ही वृहतकेश्वर महादेव का शिखरबद्ध मंदिर बना हुआ है। जिसमें शिवलिंग एवं उमा की प्रतिमा प्रतिस्थापित है। इस मंदिर का निर्माण 1632 ई. में गणेश जोशी के पुत्र परशुराम ने करवाया। इन मंदिरों का तालाब के किनारे बनाना ही तालाब के धार्मिक महत्त्व को दर्शाता है।60

फूलसागर तालाब


बून्दी नगर से 5 मील की दूरी पर उत्तर-पश्चिम दिशा में पक्की सड़क तक सुरम्य पहाड़ियों की गोद में फूल सागर तालाब स्थित है। इस तालाब का निर्माण राव भोज की ख्वास (उप पत्नी) फूललता ने 1602 ई. में करवाया था।61 फूलसागर तालाब के किनारे बून्दी नरेशों का निजी आवास फूलसागर पैलेस स्थित है। फूलसागर पैलेस के निर्माण का उद्देश्य शुद्ध वायु सेवन एवं महलों के लिये जलापूर्ति करना था क्योंकि उस काल में राजपूतों में पर्दाप्रथा प्रचलित होने के कारण रानियाँ रनिवास की चार दीवार में स्वयं को सहज अनुभव नहीं करती थी। 22 हेक्टेयर भूभाग में फैला यह शाही निवास स्थल चारों ओर से सुदृढ़ दीवारों से घिरा हुआ है जिसका निर्माण राव राजा भावसिंह ने 1670 ई. में करवाया था। यहाँ पर कई बगीचे एवं कृत्रिम झरने राजा अनिरुद्ध सिंह के शासनकाल में बनवाये गये।62 इस तालाब की पाल पर महलों में प्रवेश हेतु मार्ग बना हुआ है। दाहिनी ओर पहरेदारों के लिये एक निवास स्थल बना हुआ है। तालाब के मध्य में एक 8 फीट ऊँची छतरी स्थित है, जिसमें बैठकर शाही परिवार के सदस्य चारों और फैली जलराशि का अवलोकन करते थे। तालाब की पाल पर ही एक तरणताल स्थित है जो 50 फीट लम्बा व 25 फीट चौड़ा है। तरणताल की दीवार पर श्वेत टाइलें लगी हुई हैं साथ ही पाइप तथा फव्वारें भी इसमें लगे हुए हैं जिनके माध्यम से तरणताल को पानी से पूर्ण किया जाता था। निकट ही एक कक्ष वस्त्रादि बदलने व तरणताल में कूदने के लिये बना हुआ है। इसी स्थल पर जगह-जगह बियर बार बने हुए हैं जो तात्कालिक नरेशों की विलासिता पूर्ण प्रवृत्ति की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हैं। पाल पर ही फाटकें लगी हुई हैं जहाँ से तालाब का पानी आवश्यकतानुसार महलों में बने कुण्ड में भरा जाता था। तालाब की विशाल जल राशि इन महलों को सदैव वातानुकूलित करती रहती है।

तालाब की पाल के किनारे पक्की सड़क पर 18 फीट ऊँचा प्रवेशद्वार दिखाई पड़ता है। यहीं से महलों की एक लम्बी शृंखला प्रारम्भ होती है। आगे बढ़ने पर 67x44 वर्ग मीटर का एक बड़ा कुण्ड दिखाई पड़ता है जिसके मध्य में 16 फीट ऊँची छतरी बनी है। कुण्ड सहित छतरी का निर्माण महाराव राजा रामसिंह ने करवाया था। कुण्ड के मध्य छतरी इस बात का प्रमाण है कि छतरी से शाही परिवार के सदस्य व अतिथि कूदकर स्नान किया करते थे। जहाँ कुण्ड के एक ओर अतिथि कक्ष है तो दूसरी ओर नृत्यशाला स्थित है। इन अतिथि कक्षों में महाराव के सम्बन्धित रजवाड़ों के अलग-अलग हॉल बने हुए हैं।

महाराव के निजी कक्षों से आगे विशाल गार्डन व बाग बना हुआ है। महाराव राजा बहादुर सिंह द्वारा सम्पूर्ण फूलसागर पैलेस का योजनाबद्ध रूप से आधुनिकीकरण करवाया गया तथा पुरानी बावड़ी को भरवाकर आधुनिक बाग बनवाया।63 महाराव बहादुर सिंह की मूर्तिकला में विशेष रुचि थी, इसका प्रमाण उद्यान में स्थापित की गई जलपरियों की प्रतिमाओं से मिलता है।64 फूल सागर तालाब के पूर्वी किनारे पर रामपुरिया के पास एक बगीची का निर्माण भी राव भोज की ख्वास फूल लता जी ने 1602 ई. में तालाब के निर्माण के साथ ही करवाया था।65

कोटा के जलाशयों की तकनीक


अबला मीणी की बावड़ी

कोटा के राव मुकुन्दसिंह (1649 ई. से 1658 ई.) की एक ख्वास का नाम अबला था जो जाति से मीणी थी। कहा जाता है कि एक बार राव मुकुन्दसिंह जी मुकन्दरा दर्रे में शिकार खेलने गये वहाँ उन्होंने एक अत्यन्त रूपवती स्त्री को देखा जो खेराबाद की रहने वाली अबला मीणी थी। महाराज उसे अपने हरम में ले आये और यहाँ बसा कर और महल बाग व शिकारगाह बनवाकर रहने लगे। कोटा शहर के नयापुरा इलाके में अबला मीणी ने इस बावड़ी का निर्माण करवाया था।66 जनरल सर कनिंगहम ने लिखा है कि अबला मीणी ने मुकुन्दसिंहजी के पास रहना स्वीकार करते हुए यह शर्त रखी थी कि दर्रे के पहाड़ पर उसके लिये महल बनवाया जावे और उस पर प्रति रात्रि ऐसा चिराग जलाया जावे जो अबला के गाँव वालों को दिखायी दे सकें। उस समय यह दीपक जलाया जाता था। यह दीपक कब तक जलता रहा इसकी कोई जानकारी नहीं मिलती है।

अबला मीणी की बावड़ी एल आकार की पश्चिम मुखी देखती हुई है जिसमें मुख्यद्वार से सीढ़ियाँ उतरकर बावड़ी में प्रवेश किया जा सकता है। बावड़ी के प्रवेशद्वार पर तीन सीढ़ियों के बाद एक पाट बनी है। इसके बाद नीचे उतरने पर 8वीं सीढ़ी पर एक पाट उसके बाद 13वीं सीढ़ी पर एक पाट उसके बाद 18वीं सीढ़ी पर एक पाट बनी है। 8वीं व 13वीं सीढ़ी के मध्य दोनों तरफ 2 साधारण रिक्त ताकें हैं। बावड़ी के दोनों तरफ पूर्व व पश्चिम में 6-6 बरामदे बने हैं जो हवादार हैं। दरवाजे के नीचे एक कलात्मक बरामदा बना है जिसके मध्य में आर पार रिक्त ताका है। यहाँ से बावड़ी एल आकार में मुड़ जाती है। यहीं पर बावड़ी का कुण्ड स्थित है।

बावड़ी का एल आकार का भाग कलात्मक है जिसमें एक बड़ी तिबारी बनी हुई है। तिबारी की दोनों तरफ की दीवारों में 3-3 आर पार स्तम्भों पर बरामदा बना है बरामदों पर कंगूरेदार आकृति है। तिबारी के अन्दर दोनों तरफ 1-1 खाली ताका है तिबारी में प्रवेश करने हेतु एक तरफ कंगूरेदार दरवाजा व दूसरी तरफ साधारण दरवाजा है इस तिबारी के नीचे पानी कुण्ड तक जाता है दरवाजों के समानान्तर लम्बे पाटिये लगे हैं जो बावड़ी से बाहर निकलने वाली सीढ़ियों के बराबर तक जाते हैं। इन समानान्तर पाटियों के ऊपर एक तरफ 2-2 रिक्त ताके व नीचे के दोनों तरफ 4 ताके बनी है बावड़ी से 5-5 सीढ़ियों के क्रम में 2 पाटों के पार बाहर निकला जा सकता है इन सीढ़ियों के प्रथम पाट पर भी दोनों तरफ दो रिक्त ताके हैं बावड़ी की सीढ़ियों की दायीं तरफ कोने में पृथक से छोटी-छोटी सीढ़ियाँ भी बनी हैं। कुण्डी के सामने पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है जिस पर चार घिरणिया लगी है। घिरणियों के नीचे पत्थर में कटाई कर कलात्मक व अलंकरण युक्त बनाया गया है। इसके नीचे दीवार पर एक ताका बना हुआ है जिसमें हनुमानजी की मूर्ति लगी हुयी है बावड़ी के जल का उपयोग राहगीरों व कोटा की जनता के लिये किया जाता था।67

अबला मीणी की बावड़ी कोटा

जिन्दबाबा की बावड़ी


कोटा के नयापुरा इलाके में 500 वर्ष पूर्व जिन्दबाबा के द्वारा इस बावड़ी का निर्माण करवाया गया था।68 यहाँ पर जिन्दबाबा का स्थल है। जहाँ शुक्रवार को सभी धर्मों के लोग आते हैं। यह एक धार्मिक स्थल है। जिन्दबाबा ने श्रद्धालुओं के लिये इस बावड़ी का निर्माण करवाया था।

जिन्दबाबा की बावड़ी पूर्व पश्चिम देखती हुई है। बावड़ी में प्रवेश करने पर 5 सीढ़ियों के बाद एक पाट बनी हुयी है उसके बाद 10वीं सीढ़ी उतरने पर दूसरी पाट बनी हुयी है। इन सीढ़ियोंव पाट के समानान्तर दोनों तरफ लम्बे पाटियें लगे हैं। सीढ़ियाँ उतरने के बाद 4 स्तम्भों पर एक तिबारी बनी हुयी है जिसमें तीन दरवाजे आर पार बने हुये हैं। स्तम्भों पर कलात्मक अलंकरण किया हुआ है। तिबारी दोनों तरफ से खुली होने के कारण खुली एवं हवादार है। तिबारी के पहले दोनों ओर 4-4 रिक्त ताके बने हुये हैं जो खाली है जिनमें कभी मूर्तियाँ होने के संकेत मिलते हैं। तिबारी में भी दोनों तरफ दो रिक्त ताके बनी हैं। बावडी के सामने की ओर पानी खीचने का ढाणा बना है जिस पर चार घिरणियां लगी हुयी हैं। तिबारी के बाद एक वर्गाकार स्थान बना हुआ है जिसमें अष्टभुजाकार पानी की कुण्डी है। कुण्डी तक पहुँचने के लिये दोनों तरफ 3-3 सीढ़ियाँ बनी है एवं इन सीढ़ियों के मध्य मन्दिरनुमा देवों का आवासीय ताका बना हुआ जो रिक्त है। बावड़ी अलंकृत है जिस पर छोटे-छोटे अलंकरण है बावड़ी के पास ही जिन्दबाबा का मन्दिर है जिसमें श्रद्धालु बड़ी संख्या में पूजा अर्चना हेतु आते हैं। बावड़ी का जल मन्दिर में पूजा के लिये काम में लिया जा रहा है।69

जिन्दबाबा की बावड़ी कोटा

जमना बावड़ी


कोटा के नयापुरा इलाके में एम.बी.एस. हॉस्पिटल के सामने जमना बावड़ी स्थित है। बावड़ी के आगे वैद्यनाथ महादेव का मन्दिर बना हुआ है जिसके दरवाजे के पास बायीं ओर गणेशजी व दायीं ओर सरस्वती जी की मूर्ति स्थित है। इसके पास एक शिलालेख लिखा है, जो सिन्दूर से ढका है जिसकी भाषा अपठनीय व अस्पष्ट है। यह शिलालेख 5 लाइनों में अंकित है। मन्दिर के पीछे की ओर बावड़ी बनी है जिसकी शुरुआत 12 सीढ़ियोंसे होती है। इन 12 सीढ़ियों के बाद एक पाट बना है उसके आगे फिर 22 सीढ़ियाँ बनी हैं जो पानी में डूबी हुई है। बावड़ी के चारों ओर पत्थर की रेलिंग बनी है। 12 सीढ़ियों के अन्त में दोनों तरफ दो आले जिनमें दायीं ओर के ताखे में शिव पार्वती की मूर्ति है और बायीं ओर के ताखे में एक त्रिमूर्ति है। इस प्रकार 22 सीढ़ियों की समाप्ति पर बने दायीं ओर के आले में हनुमान जी एवं बायीं ओर के आले में एक मूर्ति लगी है जिस पर सीमेन्ट पुता होने के कारण अस्पष्ट है। बावड़ी के अन्त में पीछे की तरफ पानी का कुण्ड बना है जिस पर जाल बिछा हुआ है। पीछे कुण्ड के ऊपर एक बड़ा लाल रंग का पत्थर लगा है। लाल पत्थर के ऊपर एक चौकोर ढ़ाणा बना हुआ है जिस पर तीन घिरणियां लगी हुयी हैं। दोनों किनारों पर बनी घिरणियों के नीचे की ओर निकले हुये पत्थर पर कलात्मक अंलकरण है एवं ढाणे के दोनों तरफ दीवार में लगते हुये कंगूरे बने हुये हैं। लाल पत्थर के नीचे की ओर एक देवों का ताखा बना हुआ है जिसमें एक चर्तुभुजाधारी देवता की मूर्ति लगी है जो जानवर के वाहन पर विराजमान है।70

जमना बावड़ी कोटा

रंगबाड़ी की बावड़ी


रंगबाड़ी कोटा से 4 कि.मी. दूर रावतभाटा रोड पर हनुमाजी के मन्दिर के परिसर में यह बावड़ी उत्तर दक्षिण देखती हुई है। सम्पूर्ण बावड़ी आयताकार है जो तीन भागों में विभाजित है। प्रत्येक भाग में एक कुण्ड बना हुआ है। पहला भाग पूर्णतया वर्गाकार है जिसमें प्रवेश करने हेतु चारों और 5-5 सीढ़ियाँ बनी हैं पहले कुण्ड का पानी बीच में बनी नाली से बहकर दूसरे कुण्ड में प्रवेश करता है। दूसरा कुण्ड भी वर्गाकार है जिसमें चारों तरफ तीन चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियाँ बनी हैं। इन सीढ़ियोंको मध्य से काटकर बनायी गयी नाली से पानी तीसरे आयताकार कुण्ड में जाता है। तीसरे आयताकार कुण्ड में भी चारों तरफ 3-3 सीढ़ियाँ बनी हैं जो बीच में नाले से आपस में जुड़ी हैं जिससे पानी का आवागमन होता है। बावड़ी के अन्त में तालाब बना हुआ है जिसमें बावड़ी का पानी बह कर जाता है। बावड़ी का पानी श्रद्धालुओं के स्नान करने के काम आता है। बावड़ी के परिसर में हनुमानजी का मन्दिर बना हुआ है जिसको विभूषण जी की यात्रा से जोड़कर देखा जाता है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है।71

रंग बाड़ी की बावड़ी

विभीषण कुण्ड


कोटा से 25 कि.मी. दूर कैथून नगर के पूर्वी किनारे पर विभीषण का ऐतिहासिक प्राचीन मन्दिर है जिसके पास ही लगता हुआ विभीषण कुण्ड है। विभीषणजी के बारे में यह धार्मिक किंवदन्ती है कि विभीषण जी राम के राज्याभिषेक के समय शिवजी एवं हनुमानजी की इच्छानुसार दोनों को कांवड़ में बैठाकर भारत भ्रमण हेतु निकले। शिवजी एवं हनुमानजी ने विभीषण के सामने यह शर्त रखी की जहाँ उनकी कावट जमीन पर टिक जायेगी वहीं पर उनकी यात्रा समाप्त हो जावेगी। विभीषण जी ने लकड़ी की ऐसी कांवड़ बनायी जिसके एक सिरे की दूरी दूसरे सिरे से 8 कोस दूर थी। विभीषणजी यात्रा करते हुए कैथून (प्राचीन नाम कनकपुरी) पहुँचे उसी समय भगवान शिव वाला पलड़ा जमीन को छू गया। उनकी शर्त के अनुसार कैथून से चार कोस चारचोमा गाँव में शिवजी एवं चार कोस दूर रंगबाडी कोटा में हनुमानजी स्थापित हो गये। आज भी दोनों जगह दोनों की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। कैथून में विभीषणजी का यह मन्दिर विश्व का एकमात्र विभीषण मन्दिर है।72

यह कुण्ड चतुष्कोणीय है। कुण्ड का प्रवेशद्वार उत्तर-पश्चिम में है। कुण्ड में तीन दिशाओं में प्रवेश सम्भव है। यह कुण्ड बहुस्तरीय है एवं विभिन्न स्तर पर खण्डों में सीढ़ियाँ नीचे की ओर जाती है। कुण्ड का पनघट पूर्वी ईषान कोण में है। जिस पर कभी दो मशकों से पानी निकाला जाता था। दीवार से नीचे कुण्ड तक उतरने के तीन स्तर हैं पहले स्तर पर एक तीन तरफ चौड़ा पाटा लगा है दूसरे स्तर पर दोनों तरफ उतरने की 5-5 सीढ़ियाँ चार भागों में सोपानक्रम में बनी हैं। उसके बाद सीढ़ियों के नीचे तीन तरफ चौड़े पाटे के बाद कुण्ड में उतरने के लिये दो भागों में 5-5 सीढ़ियाँ दोनों तरफ बनी हैं। उसके बाद नीचे की तरफ एक चौड़ा पाटा बना है। कुण्ड में पूर्वी ओर तिबारी बनी हुयी है जिसके सामने की ओर अलंकरण युक्त चार खम्भे लगे हैं। तिबारी तीन तरफ से खुली है जिस पर पानी खीचने का ढाणा एवं दो घिरणियाँ बनी है। तिबारी पर ढलान लिये हुए छत पर दोनों तरफ नाले बने हुए हैं जिससे प्रतीत होता है कि प्राचीन काल में पानी का उपयोग पीने व सिंचाई के उपयोग में लिया जाता था। कुण्ड के पश्चिमी किनारे पर आगे की ओर एक चतुष्कोणीय छतरी बनी हुई है जिसके खम्भों पर ऊपर की ओर डिज़ाइन बने हैं। जिसके पास कुण्ड के बाहर की ओर वि.स. 1815 का शिलालेख लगा हुआ है। कुण्ड का पानी मीठा है। कुण्ड में बारह महीने पानी भरा रहता है और पीने व नहाने के काम आता है। प्राचीन काल में पानी का उपयोग पीने व सिंचाई में काम लिया जाता रहा होगा।73

विभीषण कुण्ड कोटा

झालावाड़ के जलाशयों की तकनीक


ठाकुर साहब की बावड़ी
झालावाड़ व झालरापाटन के मध्य गिन्दौर नामक ग्राम में ठाकुर साहब का प्राचीन श्रद्धा धाम है। यहाँ शीतल व सुस्वाद जल की एक कलात्मक ठाकुर साहब की बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी का निर्माण डूंगर गाँव की बेटी एवं ठाकुर जसोत सिंह जी की पोती मानदेव जी के द्वारा 1786 ई. में करवाया गया।74 यह बावड़ी पूर्व-पश्चिम देखती हुयी है। बावड़ी के प्रवेश द्वार पर 8 सीढ़ियाँ चढ़ती हुयी है जिसके दोनों ओर दो छोटे-छोटे मन्दिर स्थित है। दायीं ओर के मन्दिर में महादेव, पार्वती, शिवलिंग, नन्दी की प्रस्तर मूर्तियाँ व बायीं ओर के मन्दिर में गणेश जी की मूर्ति स्थापित है। सीढ़ियों के आगे चौड़ा चबूतरा है फिर 6 सीढ़ियाँ बावड़ी की ओर नीचे उतरते हुए है। जिसके दायीं ओर के ताखे में बावड़ी के निर्माण सम्बन्धी एक धार्मिक लेख अंकित है बावड़ी के बायीं ओर ठाकुर साहब का अर्द्धशिल्प कला का मन्दिर स्थित है जहाँ पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु पूजा के लिये आते हैं। यहाँ पर भी चौड़ा चबूतरा है जिसके बाद 6 सीढ़ियाँ नीचे बावड़ी के मध्य में बने कुएँ की ओर जाती हैं बावड़ी के सामने की ओर कंगूरेदार बेलबूटों की डिजाइन बनी है। बावड़ी में पानी भरा है जिसका उपयोग पूजा के काम में लिया जाता है। कुएँ के ऊपर एक तिबारी बनी है। बावड़ी कुएँ के पीछे तक फैली हुयी है। जिसके ऊपर लोहे का जाल बिछा है बावड़ी के अन्त में पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है। जिस पर चार घिरणियाँ लगी हुयी हैं। जिसका प्रयोग पानी खींचने के लिये किया जाता रहा है।75

चन्दमोलिश्वर मन्दिर की बावड़ी


झालरापाटन के चन्दमोलिश्वर महादेव मन्दिर परिसर में छत्रशाल जी की बावड़ी स्थित है। इस बावड़ी के निर्माण के सम्बन्ध में कोई दस्तावेजी साक्ष्य प्राप्त नहीं है। जनश्रुति है कि 1792 ई. में झालरापाटन के साथ ही जालिमसिंहजी ने जनता के सहयोग से इस बावड़ी को बनवाया था।76 यह बावड़ी चतुष्कोणीय है एवं उत्तर दक्षिण देखती हुयी है। इसके पूर्व पश्चिम की दीवारों के सहारे चारों कोनों से नीचे उतरने के लिये 12-12 सीढ़ियाँ बनी हैं एवं जहाँ पर सीढ़ियाँ खत्म हो रही हैं वहाँ पर दोनों तरफ चौड़े पाटे लगे हैं। जो दीवारों के सहारे चारों तरफ तक गये हुए हैं। पूर्व के तरफ जहाँ सीढ़ियाँ खत्म हो रही हैं वहाँ पर आगे बढ़ता हुआ एक चौड़ा पाटा लगा है जिसके दोनों तरफ 5-5 सीढ़ियाँ बावड़ी के बीच बने कुण्ड में उतरती हैं। वहीं पर सामने एक ताका बना है जो खाली है। दक्षिण पश्चिम एवं उत्तर पश्चिम के कोनों पर 5-5 सीढ़ियाँ नीचे उतरती हुयी बनी है। यह बावड़ी द्विस्तरीय है। बावड़ी के दक्षिण की तरफ बीच में चौड़ा चबूतरा बना है उसकी दीवार पर 5 ताका बने हैं। बीच के तीन ताखे छोटे व दोनों ओर के दो ताका बड़े हैं। पाँचों ताखे खाली हैं परन्तु बीच के तीनों ताक के दोनों तरफ दीवार पर गणेश जी की मूर्तियाँ लगी हुई हैं एवं बीच में माताजी की मूर्ति लगी हुई है। बावड़ी के उत्तर की तरफ बीच में तीन तिबारियाँ ऊपर नीचे करीब 36 फीट की बनी हुयी है उसके नीचे कुआँ स्थित है। तिबारी तीन स्तम्भों से तीन भागों में बटी है एवं तीन तरफ से खुली है। तिबारी के आगे की ओर कंगूरे व बेलबूटों की डिजाइन बनी है। स्तम्भ कलात्मक है। तिबारी के ऊपर पानी खींचने का ढाणा बना हुआ है एवं उस पर चार घिरणियाँ लगी हुयी है। घिरणियों के नीचे डिजाइन बनी हुयी है। इस बावड़ी के पानी का उपयोग राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक बावड़ी के सामने बने महादेव के मन्दिर में पूजा एवं स्नान के लिये काम में लिया जाता है।77

चन्द्रमोलिश्वर की बावड़ी झालावाड़

शान्तिनाथ जैन मन्दिर की बावड़ी


झालावाड़ व झालरापाटन के मध्य गिन्दौर ग्राम में प्रवेश करने पर बायीं ओर एक पश्चिम मुखी बावड़ी स्थित है जिसके बारे में कहा जाता है कि बावड़ी को 17वीं शताब्दी में जैनश्रावकों के आदेश से झालरापाटन के जैन सेठों द्वारा पानी की व्यवस्था हेतु करवाया गया था।78 कुछ लोग इसे खीचीं राजपूत दरबार द्वारा बनवाया जाना भी बताते हैं। बावड़ी के निर्माण के सम्बन्ध में कोई दस्तावेजी साक्ष्य उपलब्ध नहीं है। यह बावड़ी आयताकार है। इस बावड़ी को मुख्यतया तीन भागों में आगे, मध्य एवं पीछे के भाग में विभाजित किया गया है। आगे के भाग में विभिन्न स्तरों पर सीढ़ियाँ बनी है। शुरुआत में एक चौड़ा चबूतरा बना है जिसके दोनों तरफ सोपानक्रम में पाँच व दो सीढ़ियाँ बनी हुई है। चबूतरा के आगे पहले सोपान में 10 सीढ़ियाँ बनी है। दूसरे सोपान में करीब 5 फीट चबूतरा के आगे 8 सीढ़ियाँ बनी है। द्वितीय सोपान क्रम की शुरुआत से बावड़ी की दीवार के सहारे-सहारे मध्य भाग तक दोनों तरफ 2½-2½ फीट के पाटिये लगे है। एवं द्वितीय सोपानक्रम की सीढ़ियों के बराबर बावड़ी की मुख्य दीवारें में दो बड़े ताखे बने हैं जो खाली हैं।

बावड़ी को मध्य भाग ऊपर व नीचे की तिबारी में बटा है। नीचे की तिबारी आगे पीछे से खुली हुयी है। तिबारी का फर्श बना है एवं तिबारी के अन्दर दोनों तरफ बड़े आले बने हैं। एवं तिबारी के बाहर दोनों तरफ दो छोटे ताखे बने हैं। ऊपर की तिबारी को दो खम्भों की सहायता से आगे के भाग को तीन भागों में बाँटा गया है। मध्य का भाग बड़ा एवं दोनों तरफ के भाग छोटे हैं तिबारी के पीछे की दीवार में बीच में एक बड़ा दरवाजा, दोनों तरफ आर-पार दिखते दो ताखे एवं उनके पास बावड़ी की दिवार के लगते बावड़ी के अन्तिम भाग में जाने के लिये दो छोटे दरवाजे बने हैं जो दोनों तरफ दीवारों के लगे पाटियों के सहारे अन्तिम भाग को जोड़ते हैं। मध्य की तिबारी के बाद बावड़ी का जल का कुण्ड बना है। जल का कुण्ड काफी गहरा है एवं नीचे दीवारों के चारों ओर छाटे-छोटे ताखे बने हैं। कुण्ड के ऊपर दोनों तरफ विपरीत दिशा में 9-9 सीढ़ियाँ हैं एवं सीढ़ियों की समाप्ति पर बड़े आले बने हैं।

बावड़ी के पीछे के अन्तिम भाग में एक ऊँची तिबारी बनी है जो आगे की तरफ तीन बराबर भागों में खुली हुयी है जिनमें दो ताखे भी आर-पार दिखते हुए बने हैं। पीछे की दीवार पर बीच में एक बड़ा ताखा उसके दोनों ओर 2-2 छोटे ताखे एवं दोनों साइडों में 1-1 ताखा बना है। जिनमें सिन्दूर पुता हुआ है। बीच के बड़े ताखे में अर्द्धशिल्प में ठाकुर जी का मन्दिर बना है एवं दोनों तरफ दो-दो छोटी मूर्तियाँ लगी हैं परन्तु सिन्दूर लगा होने के कारण मूर्तियों की पहचान सम्भव नहीं है। ठाकुर जी की मूर्ति के नीचे पत्थर पर बीच में हनुमान जी व दोनों तरफ सिंह पर दुर्गा जी की पेन्टिंग लगी है। सम्भवतः यह मूर्तियाँ बाद में लगायी गयी हैं। पीछे की तिबारी के ऊपर ढाण बना है जिस पर तीन घिरणियाँ लगी हैं जिसका उपयोग पानी खींचने के लिये किया जाता था। बावड़ी परिसर में ही शान्तिनाथ जी जैन मन्दिर बना है जहाँ पर प्रस्तर पर एक शिलालेख लिखा है जिस पर बावड़ी के पानी के उपयोग ठाकुर जी की पूजा में काम लिये जाने के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।

शान्तिनाथ मन्दिर की बावड़ी झालावाड़

रमणिकनाथ की बावड़ी


झालावाड़ के गढ पैलेस के परिसर में स्थित इस बावड़ी का निर्माण झाला जालिमसिंह के समय 1796 ई. में करवाया गया था। बावड़ी के परिसर में एक रमणिकनाथ जी का (कृष्ण का बाल स्वरूप) मन्दिर है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर बायीं ओर गणेश जी व दायीं ओर सरस्वती जी मोर पर विराजमान हैं। मन्दिर के दरवाजे के बाहर पत्थर पर शिलालेख अंकित है जो चूने से पुता होने के कारण अपठनीय है एवं शिलालेख के ऊपर की ओर अर्द्धशिल्प गणेशजी की मूर्ति है। शिलालेख के बीच का पत्थर टूटा हुआ है। उसी परिसर में एक आयताकार दक्षिणमुखी बावड़ी स्थित है जिसमें पानी भरा हुआ है जिसका उपयोग वर्तमान में पाइप द्वारा गढ परिसर में बने पार्क में काम लिया जाता है। बावड़ी में 22 सीढ़ियाँ है। बावड़ी के दोनों तरफ पाटे बने हुये हैं। बावड़ी की दीवारों पर कलात्मक डिजाइन है। कहा जाता है कि मन्दिर व बावड़ी की स्थापना 1806 ई. में महाराजा मंगलसिंह के शासन काल में हुई थी। यह बावड़ी आज भी रियासत कालीन कुशल जल प्रबन्धन का उदाहरण है।79

रमणिक नाथजी की बावड़ी झालावाड़

बारां के जलाशयों की तकनीक


बड़ा गाँव की बावड़ी

बारां से 12 किमी दूर मांगरोल रोड पर बड़ा ग्राम में यह बावड़ी स्थित है। यह बावड़ी श्री बड़गाँव बालाजी जल कल्याण समिति की सार्वजनिक सम्पत्ति है। इस बावड़ी का निर्माण 900 वर्ष पूर्व राज दरबार द्वारा करवाया गया था। इसका जीर्णोद्धार 2008 में स्थानीय नागरिक एवं जनप्रतिनिधि श्री प्रमोद जैन भाया के द्वारा करवाया गया है। पूर्व पश्चिम देखती हुई इस बावड़ी का एक सुसज्जित प्रवेश द्वार है। प्रवेश द्वार से तीन सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के बाद करीब 8x12 फीट का एक स्तम्भों युक्त चबूतरा बना है। यह चबूतरा चारों तरफ से खुला है जिसके ऊपर छतरी के आकार में अलंकरण है। इसके नीचे तीन सीढ़ियाँ उतरने के बाद पहला पाट, 20वीं सीढ़ी के बाद दूसरा पाट, 30वीं सीढ़ी पर तीसरा पाट एवं 39वीं सीढ़ी पर चतुर्थ पाट स्थित है, जहाँ पर सीढ़ियाँ समाप्त होती हैं। दोनों तरफ से खुली हुयी तिबारी है जिसमें दोनों तरफ तीन दरवाजे बने हुये हैं। बावड़ी में बनी तिबारी के ताकों में एक तरफ जिन्द बाबा का व दूसरी तरफ गणेश जी का स्थान है जहाँ पर स्थानीय नागरिक विवाह निमंत्रण हेतु आते हैं। इस तिबारी के ऊपर ऊर्ध्वाधर में झरोखेदार दोनों तरफ से खुली हुयी एक तिबारी और बनी हुयी है। उसके आगे एक वर्गाकार कुण्ड है जिसमें गोल आकार में 40 फीट गहरा कुण्ड बना हुआ है। इस कुण्ड में उतरने के लिये छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनी हैं। पानी में डूबी होने के कारण सीढ़ियों की संख्या ज्ञात नहीं की जा सकती है इस बावड़ी परिसर की 12 बीघा जमीन पर हनुमान जी, शिवजी, रामजी के अलग-अलग मन्दिर बने है। इस बावड़ी के निर्माण से सम्बन्धित एक शिलालेख बावड़ी के पास स्थित श्री कृष्ण गौशाला में पड़ा हुआ है। यह शिलालेख 12 लाइन में 1x 4 फीट के प्रस्तर पर खुदा है जो अपठनीय है। शिलालेख की नौवीं लाइन में बावड़ी शब्द दिखायी देता है। जिससे यह ज्ञात होता है कि यह शिलालेख बावड़ी के निर्माण से सम्बन्धित है। इस बावड़ी पर कई धार्मिक आयोजन किये जाते हैं। यहाँ पर सभी धर्मों के सामूहिक विवाहों के आयोजन भी होते हैं।80

बड़ागांव की बावड़ी बारां

पाटून्दा की बावड़ी


बारां मुख्यालय से 38 कि.मी. दूर स्थित इस बावड़ी का निर्माण रियासत काल में अरणिया जागीर के पुरोहित समाज के लोगों द्वारा पेयजल की व्यवस्था हेतु करवाया गया था। यह बावड़ी I आकार में है एवं पूर्व-पश्चिम देखती हुयी है। बावड़ी का प्रवेश-द्वार साधारण है। प्रवेश-द्वार पर 3 फीट चौड़ा पाटा लगा हुआ है। बावड़ी में 8 सीढ़ियों के बाद 4x12 वर्ग फीट की प्रथम पाट है एवं 16वीं सीढ़ी के बाद 5x12 वर्ग फीट की दूसरी पाट है। दूसरी पाट के दोनों तरफ दो तांके बनी हुई है। एक तरफ की ताक में हाथ में कमल लिये हुए ब्रह्मा जी की मूर्ति स्थापित है वहीं दूसरी ओर की ताक में काल भैरव की चतुर्भज मूर्ति स्थापित है। इस प्रतिमा के हाथों मे ढाल, तलवार, नरमुण्ड व दण्ड है। नरमुण्ड से रिसते खून को श्वान द्वारा चाहते दिखाया है। दोनों तरफ दो श्वान बैठने की मुद्रा में है। उसके बाद 5 सीढ़ियाँ नीचे उतरते हुए बनी हैं। दोनों तरफ दीवार के समानान्तर 4-4 सीढ़ियों के बाद नीचे की ओर पाटे लगे हैं जिनकी सहायता से भी बावड़ी में उतरा जा सकता है। सीढ़ियों की समाप्ति पर पानी का आयताकार कुण्ड बना है जिसमें पानी भरा हुआ है। आयताकार कुण्ड के आगे 4-4 स्तम्भों पर स्थित एक 8x12 फीट की कलात्मक तिबारी है। यह तिबारी दो तरफ से खुली है। अन्तिम सीढ़ियोंसे तिबारी तक जाने के लिये कुण्ड की दीवार के सहारे दोनों तरफ 2-2 फीट चौड़े पाटिये लगे हुये हैं। तिबारी के मध्य में दायीं तरफ एक ताक बनी हुयी है, जिसमें रिद्धि-सिद्धि के साथ गणेशजी की प्रतिमा स्थापित है। जिस पर सिन्दूर लगा हुआ है तिबारी में प्रवेश हेतु कलात्मक स्तम्भों के मध्य दरवाजे बने हुये हैं । इन कलात्मक स्तम्भों में से दायीं ओर के स्तम्भ पर मोर पर विराजमान सरस्वती जी है एवं बायीं ओर के स्तम्भ पर घोड़े पर देवी की मूर्ति स्थापित हैं। तिबारी के ऊपर कंगूरेदार अंलकरण है एवं तिबारी के नीचे कुण्ड की तरफ बनी दीवार पर अनेक मूर्तियाँ स्थापित हैं जिनमें मध्य में गणेशजी के दोनों ओर हाथी व 3-3 नर्तकियों को वाद्य यन्त्रों के साथ दिखाया गया है। तिबारी के आगे वर्गाकार कुण्ड बना हुआ है जिसमें गोलाकार कुआँ है। कुएँ के ऊपर ढाणा बना हुआ है जिस पर तीन घिरणियाँ लगी हुई हैं। घिरणियों के नीचे कलात्मक कंगूरे बने हुए हैं। बावड़ी के प्रवेश द्वार के बायीं ओर एक छोटा मन्दिर बना है जहाँ पर गणेशजी की प्रतिमा स्थापित है एवं दायीं ओर एक प्रस्तर पर शिलालेख अंकित है जो अपठनीय है वर्तमान में इस बावड़ी का उपयोग स्थानीय नागरिकों के द्वारा सिंचाई के लिये किया जा रहा है।81

पाटून्दा की बावड़ी बारां

बमूलिया कुण्ड


बारां से मांगरोल रोड पर 15 किमी दूरी पर मुख्य सड़क पर यह कुण्ड स्थित है यह कुण्ड उत्तर-दक्षिण देखता हुआ है। इस कुण्ड का निर्माण 500 वर्ष पूर्व रियासत काल में जनसहयोग द्वारा करवाया गया था। इस कुण्ड के पानी का उपयोग पीने व नहाने के काम में लिया जाता था। बाद में इसको कुएँ के रूप में खुदवाकर और गहरा करवा लिया गया। इस कुण्ड की प्राचीन बनावट है। बहुस्तरीय इस कुण्ड में सीढ़ियों के पाँच स्तर बने हैं। प्रथम स्तर में तीन दिशाओं के मध्य में स्थित आयताकार पाट से दोनों तरफ 9-9 सीढ़ियाँ नीचे की ओर उतरती हैं। कुण्ड की उत्तर दिशा में एक ढाणा बना हुआ है जो कुण्ड के मध्य तक जाता है जिसके आगे दो घिरणियाँ लगी हैं। ढाणे पर जिन्द बाबा का स्थान बना है जहाँ पर पूजा अर्चना की जाती है। इस ढाणे के दोनों तरफ 9-9 सीढ़ियाँ नीचे उतरती हैं। ये सीढ़ियाँ विपरीत दिशाओं में नीचे की ओर विस्तारित हैं इन सीढ़ियों के क्रम की समाप्ति पर चारों दिशाओं में 1.5 फीट चौड़ा पाट लगा है। उसके बाद सीढ़ियों के दूसरे क्रम में 8-8 सीढ़ियाँ अन्दर की ओर आती हुयी है फिर 1.5 फीट का दूसरी पाट है। तीसरे क्रम में 6-6 सीढ़ियाँ बाहर की ओर जाती हुई हैं। 1.5 फीट का तीसरा पाट है चौथे क्रम में 5-5 सीढ़ियों के अन्दर की ओर जाते हुए चतुर्थ पाट है। उसके पश्चात नीचे की ओर 1 व 1.5 फीट की 2-2 पाट कुण्ड के चारों तरफ लगी है जो कुण्ड के पाँचवें स्तर को दर्शाती है। सीढ़ियों की समाप्ति पर एक वर्गाकार कुण्ड स्थित है जिसमें प्रवेश करने के लिये कुण्ड की दो दिशाओं में L आकार में सीढ़ियाँ बनी हैं। ढाणे के पास में नाली बनी है जहाँ से पानी का निकास होता है। इस कुण्ड के पास में पानी की खेले बनी हैं जिनमें कुण्ड से पाइपों द्वारा पानी भरा जाता है। कुण्ड के पास में हनुमानजी का मन्दिर है जिसमें हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित है इसलिये इस कुण्ड को हनुमान जी का कुण्ड भी कहते हैं।82

दुर्ग में जलाशय तकनीक


तारागढ़ किला

कोटा जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के सामने बून्दी नगर की उत्तरी पहाड़ी पर 1426 फीट की ऊँचाई पर तारागढ़ दुर्ग स्थित है जिसे बून्दी नरेश राव बरसिंह ने निर्मित करवाया था।83 राव बरसिंह ने मेवाड़, मालवा और गुजरात की ओर से संभावित आक्रमणों से सुरक्षा हेतु बून्दी के पर्वत शिखर पर इस दुर्ग का निर्माण करवाया था। पर्वत की ऊँची चोटी पर स्थित होने के फलस्वरूप धरती से आकाश के तारे के समान दिखलायी पड़ने के कारण कदाचित इसका नाम तारागढ़ पड़ा हो।84 मुख्य दुर्ग की लम्बाई 500 मीटर व चौड़ाई 300 मीटर है। पहाड़ियों को घेरकर प्राचीरें इस तरह बनाई गई हैं जो दुर्ग की दोहरी रक्षा पंक्ति का कार्य करती हैं। प्राचीरों की ऊँचाई 7 मीटर व मोटाई 6 से 8 मीटर तक है। प्राचीरों के धरातल स्थल पर जल निकास के लिये अनेक पक्के मार्ग बने हुए हैं जिससे कि वर्षाऋतु का पानी जो पहाड़ों से नीचे आता था बहकर निकल जाये और प्राचीरों को किसी प्रकार की हानि नहीं हो।

दुर्ग में कोई प्राकृतिक जलाशय नहीं होने के कारण विशाल जलकुण्ड बनाये गये जिन्हें स्थानीय भाषा में टांके कहते हैं। इन टांको में वर्षा का पानी एकत्रित कर लिया जाता था। दुर्ग में इन जलाशयों की संख्या पाँच है। इन जलाशयों में जगह-जगह पत्थर के सिल्ट वाल्व लगाकर पानी को फिल्टर किये जाने का प्रबन्ध किया गया है। जलाशयों में 100 सीढ़ियाँ तक बनी हुई है।85 ये टांके पत्थर व चूने से निर्मित हैं और वर्ष पर्यन्त पानी से भरे रहते हैं जबकि गढ़ के नीचे कुएँ सूख जाते हैं। दुर्ग में जाल की तरह फैले हुये ये टांके दुर्ग के सभी हिस्सों में जल वितरण के काम आते थे। बाहरी आक्रमण एवं विपरीत परिस्थितियों में इनका महत्त्व अत्यधिक बढ़ जाता था।

दुर्ग में एक टाका दुर्ग के पूर्व की ओर भीम बुर्ज के नजदीक बना है। इस टांके से भीमबुर्ज सहित पूर्वी छोर के सुरक्षा प्रहरियों के लिये जल की पूर्ति की जाती थी। एक अन्य टांका दुर्ग के मंगल गज दरवाजे के समीप ही स्थित है। इस टांके से कभी गढ़ में जल उपलब्ध कराया जाता था। आज भी इस दुर्ग के टांके से लेकर गढ़ के कुण्ड तक भूमिगत पाईप लाईन बिछी हुई है। दो अन्य टांके दुर्ग में किलाधारी के मन्दिर के उत्तर व दक्षिण की तरफ स्थित है। किलाधारी महाराज के मन्दिर के उत्तर की ओर चावण्ड दरवाजे के निकट 80 फीट भुजा वाला यह वर्गाकार टांका सम्पूर्ण दुर्ग को जलापूर्ति कर जीवन प्रदान करता था इसलिये इसे दुर्ग जीवन टांका कहते हैं। यह टांका दुर्ग का प्राचीनतम टांका है। राव बरसिंह ने 1354 ई. में जब इस दुर्ग का निर्माण करवाया उसी समय इस टांके का भी निर्माण करवाया था। क्योंकि दुर्ग में कोई भी प्राकृतिक जल स्रोत न होने के कारण दुर्ग निर्माण के लिये एक कृत्रिम टांका बनवाना पड़ा था। यह टांका उस समय इतना मजबूत नहीं था बाद में इसे चौड़ा व गहरा करके 1775 ई. में कलात्मक रूप दिया गया। इस कार्य में दुर्गाधिकारी वैश्य प्रधान आनन्दी लाल सेमाणी, संगतराश गिरिधारी तथा कारीगण सेवोण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 86 यह टांका वर्गाकार है। कुण्ड में पूर्व से पश्चिम दिशा में प्रवेश द्वार बनाये गये हैं। पानी निकासी हेतु उत्तर दिशा में ढाणा बनाया गया है। सम्पूर्ण टांका 5 फीट ऊँची दीवारों से परिबद्ध है। दोनों प्रवेश द्वारों से कुण्ड में प्रवेश करने पर 3-3 सीढ़ियाँ नीचे उतरते ही 4 फीट चौड़ी पाट कुण्ड के चारों तरफ घूमती है। इसी पाट की दीवारों पर जल संवर्धन एवं संरक्षण हेतु चारों दिशाओं में 13 जल छनित्र ताके बनाई गई थी। जिनसे वर्षा का पानी छन-छन कर कुण्ड में पहुँचता था। कुण्ड में जल भरने हेतु कुण्ड के चारों तरफ 10 फीट चौड़ा ढालयुक्त पक्का फर्श बनाया गया है। इस फर्श के किनारों पर दीवारें बनाई गई हैं। वर्षा का जल इन दीवारों तक भरकर ऊपर निकलता है जिससे मिट्टी, पत्थर दीवार से टकराकर बाहर ही रह जाते हैं और पानी जल छनित्र ताकों तक पहुँचता है और छनकर कुण्ड में इकट्ठा होता है। इस छनित्र तकनीक के कारण ही ऐसे कुण्डों को टांका कहा जाता है। किले के मुख्य प्रवेश द्वार से 3-3 सीढ़ियाँ नीचे उतरने पर 4 फीट चौड़ी पाट पर पहुँचते हैं। इस पाट से 17-17 सीढ़ियाँ दक्षिण, पूर्व व पश्चिम दिशा में उतरने हेतु बनाई गई है एवं 18-18 सीढ़ियाँ उत्तरी कोनों से बनाई गई हैं जो 10 फीट ऊँची, 12 फीट लम्बी व 4 फीट चौड़ी तिबारी में पहुँचती है। इसी तिबारी के ऊपर ढाणा बना हुआ है। तिबारी के साथ-साथ ढाई फीट चौड़ी पाट कुण्ड के चारों तरफ बनी हुई है। कुण्ड की कुल गहराई 45 फीट है। कुण्ड का निर्माण चूने-पत्थर से करके दीवारों एवं पाटों पर चूने का प्लास्टर किया गया है। कुण्ड में पानी भराव हेतु वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग हुआ है।87

किलाधारी जी के मंदिर के दक्षिण की तरफ एक जल कुण्ड स्थित है। जिसे किलाधारी के टांके के नाम से पहचाना जाता है। इस टांके का निर्माण महाराव राजा श्री उम्मेद सिंह जी ने 1795 ई. में किलाधारी जी के मंदिर के साथ में करवाया था।88 मुख्य रूप से इस टांके का जल किलाधारी जी महाराज की पूजा अर्चना के कार्य में लिया जाता था। यह टांका आयताकार है जो 120 फीट लम्बा तथा 102 फीट चौड़ा है। कुण्ड के चारों तरफ 2 फीट ऊँची दीवार बनाई गई है। उत्तरी दिशा की दीवार में 6 एवं पूर्व में 4 जल छनित्र ताके बनी हुई है। जिनसे वर्षा का जल कुण्ड में छन-छन कर इकट्ठा किया जाता था। कुण्ड की पूर्वी दिशा में 16x16 वर्गफीट आकार का ढाणा बना हुआ है। इस ढाणे के नीचे से एक गुप्त सुरंगरूपी मार्ग पास बने जीवरखा के महल में पानी की पूर्ति करता था। कुण्ड में प्रवेश करने हेतु पश्चिमी दिशा में 7 फीट ऊँचा, 3 फीट चौड़ा व 1 फीट मोटा दरवाजा बना हुआ है। प्रवेश द्वार के समान्तर 3 फीट चौड़ी पाट टांके के चारों तरफ घूमती है। प्रवेश द्वार से 5वीं सीढ़ी के बाद 6x5 वर्गफीट की पाट है इसी पाट से जोड़कर 2 फीट चौड़ी पाट टांके के चारों तरफ घूमती हैं। इस पाट के बाद उत्तर-पश्चिमी कोने में 6-6 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। इस प्रकार टांके में द्वितीय प्रवेश स्थान ढाणे की दक्षिण तरफ बनाया गया है। इस स्थान से 26 सीढ़ियाँ नीचे उतरकर अन्तिम पाट तक पहुँचा जा सकता है। इसके बाद टांका 80x60 फीट रह जाता है। कुण्ड की गहराई 55 फीट है। ढाणे के तीनों तरफ सुरक्षा हेतु पाषाण पट्टिकाएँ लगाई गई हैं। कुण्ड के दक्षिण-पूर्व कोने में एक 10 फीट लम्बी, 8 फीट चौड़ी व 9 फीट ऊँची तिबारी आराम करने के उद्देश्य से निर्मित करवाई गई है।

एक लघु टांका चावण्ड दरवाजे की प्राचीर से लगा हुआ है जो दुर्ग का सबसे छोटा टांका है। इन टांकों के पास ही परकोटों तथा महलों के निर्माण के लिये मसाला तैयार करने के स्थल बने हुए हैं जहाँ से निर्मित मसाला इन इमारतों में काम आता था। किलाधारी जी महाराज के मन्दिर के पृष्ठ भाग पर टांके को स्पर्श करते हुए जीवरखा महल बने हैं। इन महलों का निर्माण महाराव राजा विष्णुसिंह तथा राजा रामसिंह ने करवाया था। इसी दरवाजे से बाहर दायीं ओर चलने पर स्तम्भों पर टिकी हुई एक तिबारी बनी हुई है। इसी तिबारी से भूमिगत सोपान मार्ग किलाधारी जी के टांके में जाता है। यहाँ अन्तिम छोर पर एक कुण्डनुमा आकृति दिखायी देती है जिसमें सूर्य के प्रकाश के कारण टांके के जल की मछलियाँ स्पष्ट रूप से दिखायी देने के कारण रानियों द्वारा इन मछलियों का शिकार किया जाने का शौक पूरा किया जाता था। तारागढ़ दुर्ग के राजप्रसादों में रंग विलास उद्यान स्थित है जिसमें दुर्ग को जाने वाले रास्ते से भी पहुँचा जा सकता है। इस उद्यान के मध्य में एक कलात्मक कृत्रिम जल कुण्ड है जिसमें पानी तारागढ़ दुर्ग के टॉके से पाइपलाइन द्वारा आता था। यह पाइपलाइन आज भी कुण्ड से पहाड़ी के भूमिगत मार्ग से होते हुए दुर्ग के टाँकों तक बिछी है। 25.6x24.6 वर्ग फीट आकार के इस जलकुण्ड के चारों ओर कलात्मक जालियों से युक्त बैठने के लिये झरोखे बने हैं। जल कुण्ड से चारों दिशाओं में चार मार्ग बने हैं। पास ही बने देवालय की स्थापना को देखते हुए इस जलकुण्ड का जल पवित्र धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होता था।89

इन्द्रगढ़ दुर्ग


इन्द्रगढ बून्दी से 80 किलोमीटर दूरी पर बून्दी राज्य का महत्त्वपूर्ण ठिकाना था। राव रतनसिंह (1607-1631 ई.) के पौत्र इन्द्रशाल ने अरावली पर्वत पर 17 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया जो इन्द्रगढ़ दुर्ग के नाम से ख्याति प्राप्त है।90 दुर्ग के चारों ओर 35-40 फीट ऊँचा परकोटा बना हुआ है। यह दुर्ग दो सौ फीट ऊँचाई एवं आधा किलोमीटर की परिधि में फैला हुआ है। दुर्ग अपने साये में असंख्य महलों, छतरियों, दरवाजों, ऊँचे परकोटों, रनिवासों आदि को समेटे हुए है, दुर्ग की कारीगरी बेजोड़ है जो राजपूती वास्तुनिधि का प्रतीक है।

दुर्ग में एक कुण्ड है जिसे स्थानीय भाषा में टाँका कहा गया है। कुण्ड में पूरे बारह माह शीतल जल भरा रहता है परन्तु इतनी ऊँचाई पर बने हुए इस कुण्ड के जलस्रोत का आज तक कोई पता नहीं लग पाया है। टाँके की सभी सीढ़ियाँ पानी तक जाती हैं। यह टाँका जहाँ एक ओर दीर्घकाल तक किले में निवास करने वाले राजपरिवार के लिये जल की आवश्यकता को पूर्ण करता रहा है वहीं दूसरी ओर युद्धकाल में सैनिकों के लिये बड़ा उपयोगी रहा है।91

गागरोण दुर्ग


झालावाड़ से 4 किलो मीटर की दूरी पर स्थित गागरोण दुर्ग दक्षिण पूर्वी राजस्थान के सबसे प्राचीन और विकट दुर्गों में से एक है। गागरोण व उसका निकटवर्ती प्रदेश शस्य श्यामल मालवा अंचल का भाग है तथा बहुत उर्वर और नैसर्गिक सौन्दर्य से सम्पन्न है। यह ख्यात नाम दुर्ग अरावली पर्वतमाला की एक सुदृढ़ चट्टान पर कालिसिन्ध और आहू नदियों के संगम स्थल पर स्थित है तथा हमारे प्राचीन शास्त्रों में वर्णित जलदुर्ग की कोटि में आता है।92 पौराणिक मान्यता गागरोन का सम्बन्ध भगवान कृष्ण के पुरोहित गर्गाचारी से जोड़ती है जिनका यह निवास स्थान था। कुछ विद्वान प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित ‘गर्गराटपुर‘ के रूप में इसकी पहचान करते हैं।93

ऐतिहासिक परम्परा के अनुसार गागरोण पर 12 वीं शताब्दी से पूर्व डोड (परमार) राजपूतों का अधिकार था।94 जिन्होंने इस दुर्ग का निर्माण करवाया। उनके नाम पर यह दुर्ग डोडगढ या धूलरगढ़ कहलाया। तत्पश्चात यह दुर्ग खींची चौहानों के अधिकार में आ गया। ‘चौहान कुल कल्पद्रुम‘ के अनुसार गागरोण के खींची राजवंश का संस्थापक देवनसिंह (उर्फ धारू) था जिसने बीजलदेव नामक डोड शासक जो उसका बहनोई था को मारकर धुलरगढ़ पर अधिकार कर लिया। उसने अपनी बहिन के नाम पर इस दुर्ग का नाम गागरोण या गंगारमण रखा।95 इस घटना का समय 12 वीं शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है।

गागरोण दुर्ग की सबसे बड़ी विशेषता इसकी नैसर्गिक सुरक्षा व्यवस्था है। वृहदाकार पाषाण शिलाओं से निर्मित दुर्ग की उतंग प्राचीरें, विशालकाय बुर्जें तथा सतत जल से भरी रहने वाली गहरी खाई, घुमावदार सुदृढ़ प्रवेश द्वारों की वजह से गागरोण के किले की सुरक्षा व्यवस्था को भेदना किसी के लिये आसान नहीं रहा है। मध्यकाल में यह दुर्ग सामरिक महत्त्व के दुर्गों में कोटा की सुरक्षा पंक्ति में प्रथम स्थान रखता था। गागरोण दुर्ग के इसी दुभेध स्वरूप की प्रशंसा करते हुए इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है।96

“Until you approach close to Gagrown its town and Castle apper united and present a bold and striking object and it is only on mounting the ridge that and perceives the strength of this position, the rock being seraped by the action of the waters to an unmense light on whichever side an enemy might approach it, he would have to take the bull by the horns.”

जल दुर्ग स्मृत तज्ज्ञैरासमन्तमहाजलम।97


शुक्रनीति के जल दुर्ग के लक्षणों को दर्शाता हुआ गागरोण का किला राजस्थान में जल दुर्ग का उत्कृष्ठ उदाहरण है क्योंकि यह तीन ओर से आहू और कालिसिन्ध नदियों से घिरा है। इनमें आहू नदी कोटा के निकटवर्ती पहाड़ियों से तथा कालिसिन्ध मध्यप्रदेश से निकलकर विपरित दिशा में बहती आती है। गागरोण दुर्ग के दक्षिण में इनका मिलन होता है जहाँ से ये दोनों नदियाँ एकरूप होकर दुर्ग के पूर्वी भाग की परिक्रमा करती हुई तथा चट्टानों के बीच अठखेलियाँ करती हुई प्रचण्ड वेग से किले के समानान्तर बहकर गणेश घाट से सीधे उत्तर की ओर प्रवाहित हो जाती है। आहू और कालिसिन्ध नदियों का संगमस्थल स्थानीय भाषा में ‘सामेलजी‘ के नाम से विख्यात है तथा पवित्र स्थान माना जाता है इसके पास ही गागरोण के सन्त नरेश पीपाजी की छतरी है। इस स्थान से थोड़ा आगे असीम जल राशि पर एक दीर्घ पूल का निर्माण किया गया है जिससे किले की पास की भूमि पर पहुँच जाता था और समीपवर्ती बुर्ज के पास बनी सुरंग से नदी का पानी किले के भीतर पहुँचाया जाता था। इस प्रकार अरावली पर्वतमाला की गोद में अवस्थित तथा उसकी परिक्रमा करती आहू और कालिसिन्ध नदियों का अविरल जल धाराओं ने दुर्ग की प्रथम रक्षा पंक्ति एवं किले के अन्तः भाग में विशाल ऊँची बुर्जों ने दूसरी सुरक्षा पंक्ति का कार्य किया है। “अचलदास खीचीं री वचनिका” में लिखा है कि विविध उपाय करने पर भी यह दुर्गम किला सहज में ही हस्तगत होने वाला नहीं था।98

शाहबाद दुर्ग


बारां जिले में स्थित शाहबाद के प्राचीन दुर्ग का निर्माण 1521 ईस्वी में चौहान राजा मुकुटमणि देव ने आरम्भ करवाया। आगे चलकर इस दुर्ग पर मालवा के मुसलमान बादशाहों के अधिकार में चले जाने पर उन्होंने इसका नाम शाहबाद रखा।99उन्होंने दुर्ग की रक्षा व्यवस्था में भी आवश्यक सुधार किये। मध्य युग मे शेरशाह ने इस दुर्ग की मरम्मत व पुनर्निर्माण करवाया।

यह दुर्ग समुद्र की सतह से 1800 फीट ऊँची मुकन्दरा श्रेणी की एक पहाड़ी की पंक्ति पर है जो भामती नाम से प्रसिद्ध है। अपने शिखर भाग से शाहबाद के प्रसिद्ध दुर्ग को ताज की तरह धारण किये हुए भामती की यह पहाड़ी कोटा राज्य में सबसे ऊँची तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये विख्यात है। इस पहाड़ी प्रदेश को चम्बल कालिसिन्ध, पार्वती तथा उसकी सहायक नदियाँ सींचती है। शाहबाद दुर्ग में अथाह जलराशि वाले अनेक जलस्रोत थे। शाहबाद किले की बड़ी बावड़ी भी एक प्राचीन संस्कृति की धरोहर है। यह एक अथाह जलराशि वाला अद्भुत स्रोत है। शाहबाद दुर्ग तक पहुँचने के लिये एकमात्र मार्ग ऊँची पहाड़ी पर से होकर जाता है किन्तु बड़ी बावड़ी में एक गुप्त मार्ग का पता चला है जिसको सम्भवतः किले के अन्दर से बाहर निकलने का आपातकालीन निकास के रूप में इसका उपयोग किया जाता होगा।100 इस मार्ग का दरवाजा बावड़ी में जल कम होने पर स्पष्ट दिखायी पड़ता है। इस बावड़ी की विशेषता यह है कि एक तो इसका जल कभी नहीं सूखता है तथा बावड़ी के भीतर के कक्षों में लगे किवाड़ न तो गलते हैं, न ही सड़ते हैं और न ही कहीं से टूटे दिखते हैं। उनमें लगे ताले भी इसके निर्मल जल से ऊपर से साफ नजर आते हैं। कहते हैं कि इन कक्षों के भीतर विपुल धन सम्पत्ति है तथा इस खजाने की बीजक शिवपुरी या झालावाड़ में होने की चर्चा चलती है, परन्तु आज तक न तो कभी किसी ने इसे देखा है और न किसी ने इन्हें प्रस्तुत किया है।101 कथा प्रसिद्ध है कि यह गुप्त मार्ग एक भवन में जाता था जिससे दुर्ग के निर्माता ब्राह्मणों का खजाना भरा था। यह धन ब्राह्मणों का होने के कारण पहले के किसी राजा ने इसको नहीं लिया। इस बावड़ी के पानी का स्तर हर ऋतु में बराबर बना रहता है। इसके दोनों कुण्ड अति गहरी प्राकृतिक खाई का काम करते हैं। तीसरी ओर एक तालाब है तथा चौथी ओर एक ऊँची पहाड़ी की तरफ पर से इसमें पहुँचने का मार्ग है।

संदर्भ ग्रन्थ सूची


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राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में जल विरासत - 12वीं सदी से 18वीं सदी तक

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

हाड़ौती का भूगोल एवं इतिहास (Geography and history of Hadoti)

2

हाड़ौती क्षेत्र में जल का इतिहास एवं महत्त्व (History and significance of water in the Hadoti region)

3

हाड़ौती क्षेत्र में जल के ऐतिहासिक स्रोत (Historical sources of water in the Hadoti region)

4

हाड़ौती के प्रमुख जल संसाधन (Major water resources of Hadoti)

5

हाड़ौती के जलाशय निर्माण एवं तकनीक (Reservoir Construction & Techniques in the Hadoti region)

6

उपसंहार

 

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