हिमालय को बचाना होगा

9 Jun 2018
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हिमालय
हिमालय

 

देश की आधी आबादी को आज भी पानी गंगाजल प्रणाली से ही मिलता है और गंगा संकट में है। गंगा का संकट दरअसल हिमालय के संकट से जुड़ा है जिसे हम लगातार उजाड़ते जा रहे हैं। गंगा के पानी को बचाने के लिये हिमालय को बचाना जरूरी है।

अनुपम मिश्रजी के जाने के बाद देश में वर्षाजल को थामने के लिये थाह-अथाह का ज्ञान-अज्ञान की धारा पर काम करने वालों की धारा ही बिखर गई, ‘आज भी खरे हैं तालाब’ यह हमारे समय की कालजयी रचना है, पानी पर चिन्तित लेखकों को इस पुस्तक ने जो मार्ग दिया है उसी में संकट का समाधान है।

हिमालय हमारे देश के सकल जल का 63.21 प्रतिशत जल देता है जो उसकी तीन महान जल प्रणालियों से प्राप्त होता है, जिन्हें ब्रह्मपुत्र, गंगा और सिंध जल प्रणालियों के नाम से जाना जाता है। उनमें से गंगाजी उत्तराखण्ड हिमालय से उद्गमित होकर पाँच राज्यों से बहती हुई करीब 2525 किमी की दूरी तय करके गंगासागर में मिलती हैं। हमारे देश की करीब आधी आबादी के लिये अन्न-जल का प्रबन्ध ‘गंगाजल प्रणाली’ से ही प्राप्त होता है और देश के सकल जल में 25 प्रतिशत गंगाजी के जल का योगदान है।

उत्तराखण्ड से बहने वाली सभी नदियाँ- भागीरथी, अलकनन्दा, पिंडर, टौंस, यमुना, काली, गौरी, शारदा, सरयू, गौला, नयार, कोसी आदि गंगाजी की ही धाराएँ हैं। इन नदियों की भी छोटी-छोटी अनेक धाराएँ हैं, जैसे पौड़ी जिले की नयार नदी का उद्गम दूधातोली बन पर्वत है, एक ही जगह से दो अलग-अलग स्रोत अलग-अलग पर्वत खाइयों से बहती हैं जिन्हें पूर्वी और पश्चिमी नयार कहते हैं, जो सतपुली में नयार बन जाती है और व्यासक्षार में गंगाजी में मिल जाती है।

इसमें पसोल नदी, मछलाड, भरसार और कोलागाड़ नदी-जैसी बहुत-सी छोटी-छोटी नदियाँ मिलती हैं, इन अति लघु सरिताओं का उद्गम प्रायः पर्वतों से निकलने वाले जलस्रोत होते हैं, कहीं-कहीं तो ये जलस्रोत पूरी-पूरी नदी जैसे ही होते हैं, ये जलस्रोत किसी ग्लेशियर से नहीं बनते, बल्कि खूब घने वर्षादार वनों से तैयार होते हैं, दूधातोली भी एक घना वर्षादार पठारी ढाल का वन है जिससे रामगंगा, वीणूगंगा, क्षीरगंगा, पूर्वी-पश्चिमी नयार और आटागाड़-जैसी बारामासी नदियाँ निकलती हैं। ऐसे ही कोसी, गोला, हिंबल, चंद्रभागा, रिस्पना, कमलगंगा, गगास आदि नदियाँ भी पर्वतीय वनों से ही तैयार होती हैं।

उत्तराखण्ड में एक प्रसिद्ध मुहावरा है (गाड मेटीक गंगा) अर्थात लघु सरिताओं के जोड़ से ही गंगाजी बनती हैं। इस छोटे-से मुहावरे में पहाड़ का पूरा जल विज्ञान समाया हुआ है। एक अध्ययन के अनुसार ऋषिकेश में गंगाजी के जल का केवल तीस प्रतिशत ही ग्लेशियर का जल है और शेष भाग गाड-गदेरों से आए जल का है। इस प्रकार ये गाड-गदेरे न सिर्फ उत्तराखण्ड के लोगों की, बल्कि गंगाजी के जीवन की भी आयु रेखाएँ हैं। इनके सूखने का अर्थ है- गंगाजी का सूखना। जिसका मतलब होता है भारत की पूरी सुरक्षा, संस्कृति, सभ्यता और अर्थव्यवस्था का छिन्न-भिन्न होना, गंगाजी के आस्था से अधिक अस्तित्व की नदी होने से ही देशवासियों ने उसे ‘देवनदी’ और उसके उद्गम भूमि को ‘देवभूमि’ कहकर अपना सम्मान प्रकट किया है।

पिछले सौ वर्षों में उत्तराखण्ड की करीब तीन सौ छोटी-बड़ी नदियाँ बारामासी न रहकर मौसमी नदियाँ हो गई हैं। जैसे रुड़की की सैलानी, देहरादून की रिस्पना, बिंदाल, नैनीताल की कोकड़झाला, पौड़ी की हिंबल, ऋषिकेश की चंद्रभागा आदि प्रसिद्ध नदी मालिनी रामगंगा, बालखिला, कमलगंगा, कोसी, नयार सबमें पानी तेजी से घट रहा है। इनकी लम्बाई भी घट रही है; इनके घटने से इन सौ वर्षों में गंगाजी के जल में भी तीस प्रतिशत के लगभग कमी आँकी गई है।

इस गम्भीर संकट से निपटने के लिये सरकारें पिछले चालीस वर्षों से उत्तराखण्ड में ‘जलागम प्रबन्ध परियोजना’ चला रही हैं, पर अभी तो जल आगमन के बजाय गायब ही हो रहा है।

समाज वर्षों से इस संकट का हल जानता था, लेकिन डेढ़-दो सौ सालों की उपेक्षा के दौर ने समाज की जल संचय की परम्परा को भुला दिया। पहाड़ों में यह परम्परा चाल-खाल के रूप में और नौलों को बनाने के रूप में थी, तो देश में बड़े-बड़े तालाब-जोहड़ बनाने के रूप में थी। अकेले पौड़ी जिले में ही तीन हजार से अधिक चाल-खाल थीं।

ये चाल-खाल पहाड़ की किसी ऊँची सी समतल ढाल पर बनती थी, जो तीस-बत्तीस कदम लम्बी-चौड़ी और चार-पाँच कदम गहरी होती थी, इनमें वर्षाजल संचय होता था जो गर्मियों में पशुओं के लिये पीने के काम आता और धीरे-धीरे रिसकर नीचे के जलस्रोतों को सूखने से बचाता था, जबकि नौले गाँव-खेतों के समीप रिसते भूजल को बहुत ही अनुभवी मिस्त्रियों द्वारा एक कलात्मक कुंड में जमा कर दिया जाता है, जो गाँव के पीने के लिये होता है। हजार साल पहले बने नौले आज भी खरे हैं, जैसे कुमायूँ में चम्पावत का नौला। बिना सीमेंट, बिना प्लास्टिक के यह वर्षाजल संचय की परम्परा हमारे हिमालयी भूगोल के अत्यन्त अनुकूल थी और टिकाऊ भी। भारी वर्षा और सूखा दोनों को झेलने में समर्थ थे ये चाल-खाल।

आज से लगभग चालीस साल पहले समाज की इसी परम्परा को हमने जाना और कुछ आज के हिसाब से जोड़ने की कोशिश की, उफरैंखाल पौड़ी जनपद की एक छोटी-सी बस्ती है। इसी की पहाड़ी पर हमने बरसात के पानी को संचित करने के लिये कुछ छोटे-छोटे गड्ढे बनाए, ये चाल-खाल से छोटे थे, तो कहीं पर खूब बड़े भी। जहाँ पर जितनी जमीन तालाब बनाने के योग्य होती थी, उतनी ही बड़ी या छोटी बना दी जाती थी, इन्हें हमने ‘जल तलैया’ नाम दिया।

लोगों के साथ मिल-जुलकर अत्यन्त घरेलू ढंग से पानी और जंगल के काम में लगे, सूखी पहाड़ी पर वर्षाजल के थमने से पेड़ भी और घास भी तेजी से बढ़ने लगे। हमारा नारा था- ‘घास जंगल, खेत, पाणी, यूंका बिना योजना काणी।’ अर्थात घास, जंगल, खेती और पानी के प्रबन्ध के बिना सभी योजनाएँ अधूरी हैं। उफरैंखाल की पहाड़ी पर तीन हजार छोटी-छोटी जल तलैयों के बनने और गहरे जड़वाले पानीदार पेड़ों के लगने से बहुत सुन्दर परिणाम आए। एक सूखी नदी फिर से बारामासी बनी, जिसे अब ‘गाडगंगा’ कहते हैं। अब तक डेढ़ सौ गाँवों में हमने पानी और जंगल का काम किया है और तीस हजार से अधिक चाल-खाल बनाकर दर्जनों जलस्रोतों को सूखने से बचाया है।

जल तलैयों के बनने से वर्षाजल पहाड़ पर ही थमा और जमीन नमीदार बन जाती है, जिससे जंगलों में आग का खतरा भी घट जाता है। अनुपमजी इस काम को देखने सालों-साल उफरैंखाल आते रहे। सन 2001 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघ चालक के.सी. सुदर्शनजी पूरे तीन दिन तक इस क्षेत्र में रहे और फिर उन्होंने उफरैंखाल के इस ‘पाणी राखो आन्दोलन’ के काम को देशभर में रखा। तब से तो यहाँ लोगों का आना-जाना बना ही रहता है। सिक्किम सरकार ने अपने सभी बी.डी.ओ. यहाँ जल-संरक्षण की परम्परा समझने को भेजे और फिर अपने यहाँ इसी मॉडल पर वर्षाजल संरक्षण करके जलस्रोतों को संरक्षित किया है।

बहुत ही धीरज के साथ खड़े किये गये इस काम में लक्ष्य संख्या, आँकड़ों या पैसों-रुपयों का नहीं चुपचाप काम को रखा गया है। ऐसे में वर्षाजल के सार-सम्भाल यह कार्य दो-चार साल का नहीं, कुछ सदियों का काम बन जाता है। इसमें केवल उत्तराखण्ड ही नहीं, सभी पर्वतीय क्षेत्रों, जलस्रोतों, तालाबों, नदी-झरनों के सुधार के बीज छिपे हैं।

(लेखक उत्तराखण्ड में ‘पाणी राखो आन्दोलन’ के प्रणेता हैं)
 

 

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