हिमालय में एक और भगीरथ प्रयास

उफरैंखाल प्रयोग उत्तरांचल में जलप्रबंध व ग्रामीण विकास के टिकाऊ विकल्प का जीता-जागता उदाहरण है और विश्वबैंक के कर्ज से अरबों रुपयों की असफल योजनाएं ढो रही सरकारों के मुंह पर करारा तमाचा यह बता रहा है कि आर्थिक तंगी से गुज़र रहे इस नवगठित राज्य में यदि प्रत्येक ग्राम पंचायत ईमानदारी से उफरैंखाल प्रयोग को अपने यहां दोहरा ले तो बिना किसी भारी खर्चे और सरकारी अमले के मौजूदा जल संकट से निजात पाई जा सकती है। लेकिन पानी के दाम लगाने की चिंता में दुबली होती जा रही राष्ट्रीय जल नीति के चश्मे से क्या उफरैंखाल के भगीरथ प्रयास के मर्म को समझा जा सकता है? आज दुनिया में पानी के संभावित भारी कारोबार पर कब्ज़ा करने के लिए मोर्चे सज रहे हैं। जल-प्रबंध धीरे-धीरे निजी कारपोरेट कंपनियों और बैंकों के दायरे में सिमट रहा है। सरकारें नदियों तक को बेच देने पर आमादा हैं और यह तय है कि जल संकट नई सदी में सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक संघर्षों का कारण बनेगा। अपने देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी को शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है और यह स्थिति साल-दर-साल बिगड़ती जा रही है। ऐसे निराशा भरे दौर में हिमालय की वादियों में ग्रामीणों की संगठित शक्ति से एक ऐसा भगीरथ प्रयास चल रहा है जिसने सूखी पहाड़ियों के बीच एक गंगा उतार दी है। उत्तरांचल में चमोली, पौड़ी और अल्मोड़ा जिले में फैले दूधातोली क्षेत्र में काम कर रहे दूधातोली लोक विकास संस्थान, उफरैंखाल ने बिना किसी सरकारी इमदाद और ताम-झाम के पिछले दो दशकों में एक सूखी धारा में प्राण लौटा कर यह साबित कर दिया है कि यदि ग्रामीणों पर भरोसा किया जाय और उन्हें उनकी परंपरागत क्षमताओं का अहसास कराया जाय तो भगीरथ का गंगा अवतरण भी दोहराया जा सकता है।

राज्य प्रायोजित जल प्रबंधन से पहले हिमालय के सभी इलाकों में पानी के इंतज़ाम की दुर्लभ लोक परम्पराएं रही हैं। इनमें अपने भूगोल और जलस्रोतों की प्रकृति के अनुसार अनूठी विविधताएँ पायी जाती है। जल प्रबंध में राज्य के हस्तक्षेप और खास तौर पर आज़ादी के बाद इसे पूरी तरह सरकारी काम-काज बना लिए जाने के बाद स्थानीय समाजों ने तो अपनी परम्पराओं को भुला दिया, किंतु घर-घर पानी पहुंचाने और जलस्रोत की सुध न लेने की नीति पर टिकी सरकारी योजनाएं भी बुरी तरह असफल साबित हुई। परिणामस्वरूप आज उत्तरांचल का शायद ही ऐसा कोई गांव या नगर हो जो जल संकट से प्रभावित न हो। बर्फ का घर माने जाने वाले हिमालय की 60 प्रतिशत बसासतें गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं और सरकार ‘स्वजल’ जैसी विश्व बैंक के कर्ज से चलने वाली ‘स्वयंसेवी’ परियोजनाओं की आड़ में अपनी जिम्मेदारियों से हाथ झाड़ रही है।

इस परिदृश्य में उफरैंखाल का प्रयोग उम्मीद की किरण बन कर भरा है, जिसमें भगीरथ बने हैं एक स्थानीय शिक्षक सच्चिदानंनद भारती। अपने छात्र जीवन में ‘चिपको आंदोलन’ के कार्यकर्ता रह चुके भारती स्थानीय विद्यालय में अध्यापक हैं। अस्सी के दशक में पड़े जबर्दस्त सूखे ने इस क्षेत्र की हरियाली को नेस्तनाबूद कर डाला। भारती ने आस-पास के ग्रामवासियों को इस बात के लिए तैयार किया कि सूखे-बंजर पहाड़ी ढलानों पर वृक्षारोपण करें। उनका पहला प्रयास लगभग असफल रहा और पहले दौर के पौधे सूखे को झेल नहीं पाए। तब इस समस्या के निराकरण के लिए चिंतन-मनन प्रारम्भ हुआ और निराकरण के बतौर रोपे गए पौधों के निकट गड्ढे खोदने की शुरुआत हुई। इस तरह वर्षाजल को एकत्र करने के उपायों ने नमी को रोकने में मदद की और पौधों के मरने की रफ्तार थमी।

नवें दशक के प्रारम्भ होते-होते नंगी पहाड़ियां हरे-भरे नवनिर्मित जंगल से भरने लगीं। भारती का यह प्रयोग आसपास के ग्रामवासियों को प्रभावित करने लगा और इस तरह बड़े स्तर पर पहाड़ी ढलानों में हिमालय में वर्षाजल संग्रह की पुरानी पद्धति ‘खाल’ (जल तलाई) को पुनर्जीवित करने की शुरुआत हुई। इस प्रक्रिया में पनढालों पर क्रमशः कई छोटी-बड़ी जल तलाइयां ऋंखलाबद्ध ढंग से बनाई गयीं। तलाइयों के किनारे उतीस, बांज, काफल, बुरांस, देवदार जैसे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल वृक्षों का रोपण किया गया। इस अभियान ने अपना रंग दिखाना शुरू किया और आस-पास के बरसाती नालों में नमी टिकने लगी। ढलानों के सूख चुके जल स्रोतों में पानी लौट आया। नालों को जोड़ने वाली एक सूखी हुई लघु सरिता में जीवन लौटा और आज यह एक सदाबहार नदी का रूप ले चुकी है, जिसे गाँववासी ‘गाडगंगा’ कहते हैं। क्षेत्र के 37 गाँवों में संस्थान ने पहाड़ी ढालों पर लगभग 7000 से अधिक तलाइयां बनाई हैं जिसकी मेड़ पर दूमड़ घास और पानी रोकने वाले वृक्षों का रोपण किया है। वर्षा का पानी चोटियों पर बनी तालों से ही रुकना आरम्भ हो जाता है और क्रमशः नीचे की तलाइयों में रिसता हुआ नालों को जीवन देता है। इस तरह मुख्य नदी का संपूर्ण जल ग्रहण क्षेत्र घने पंचायती वनों से ढक चुका है। जिस काम को वन विभाग की अरबों रुपयों की जलागम परियोजनाएं भी नहीं कर पाती हैं, भारती के दूधातोली लोकविकास संस्थान ने बिना किसी सरकारी सहायता या प्रचार के चुपचाप महज ग्रामीणों की इच्छाशक्ति के बूत पर कर दिखाया। इस काम के लिए संस्थान ने अल्मोड़ा स्थित ‘उत्तराखंड सेवा निधि’ से जनजागरण शिविरों के संचालन के लिए नाम-मात्र की मदद ली। प्रत्येक शिविर में लगभग एक हजार ग्रामीण हिस्सेदारी करते हैं और अपने अनुभवों का आदान-प्रदान करते हैं। साल भर में ऐसे दो या तीन शिविरों का आयोजन होता है। इन प्रयासों के फलस्वरूप सुंदरगांव, करूड़खाल, देवराड़ी, टयोल्या, जदरिया, स्यूसाले, गाडखर्क, मनियार गांव, डुमलोट, डांडाखिल, चोपता, चौखाली, भगवतीटालिया, और सिरईखेत आदि कई गाँवों में सहकारिता का एक नया वातावरण पैदा हुआ है। जंगल और पानी के संरक्षण के अलावा यहां उद्यानीकरण, लोक साक्षरता, सौर ऊर्जा व धूम्ररहित चूल्हे का प्रचार-प्रसार, शौचालय, स्नानागार व प्रसूतिगृह निर्माण जैसे कार्यों की शुरूआत हुई है।

सच्चिदानंद भारती के काम की बुनियादी बात यह है कि उन्होंने ग्रामीणों को कोई नया विचार का नहीं दिया है। उनके अनुसार समाज में जो पीढ़ियों से होता रहा और अनेक वजहों से समाप्त हो गया, उन्होंने उसकी याद भर दिला दी और ग्रामीणों को संगठन की ताकत का अहसास कराया। एक बार उन्होंने स्वयं अपनी क्षमता के परिणाम देखे तो उनका सोया हुआ आत्मविश्वास जाग उठा। इस सामूहिक जागृति के अनेक और सुपरिणाम निकले। शुरुआत में ही दैड़ा गांव के लोगों ने फसलों की सुरक्षा के लिए 9 किमी. लंबी व 6 फीट। ऊंची मजबूत दीवार श्रमदान के जरिए बनाई। आज 37 गावों में फैले इस आंदोलन ने यहां के निवासियों में सहयोग और सामुदायिक जीवन की सूख चुकी परम्पराओं मे भी नवजीवन का संचार किया है। वे बंजर खेतों, वृक्षविहीन पहाड़ियों और जहां भी 45 डिग्री के कम का पनढाल उपलब्ध हो वहां तालाब बनाते हैं। उत्तरांचल के शेषगांवों में सामुदायिक जीवन में बिखराव के जैसे गहरे घाव दिखाई देते हैं, दूधातोली क्षेत्र इससे उबरा मालूम पड़ता है। गांव के सामुदायिक कामों-रास्तों व नहरों की मरम्मत, पेयजल स्रोतों की सफाई जैसे काम स्त्री, पुरुष, बच्चे सभी मिल कर उत्साह से करते हुए देखे जा सकते हैं। यह देखना बड़ा सुखद अनुभव है कि इस प्रयोग का न तो कोई औपचारिक ढांचा है और न ही कोई पूर्णकालिक कार्यकर्ता या वेतनभोगी कार्यकर्ता। कुकुरमुत्तों की तरह उग आई भारी-भरकम इमारतों और सुविधासम्पन्न स्वयंसेवी संस्थाओं के विपरीत दूधातोली लोक विकास संस्थान ग्रामीणों के जज्बों में मौजूद है। इसका कोई व्यवस्थित कार्यालय तक नहीं है। स्कूल के शिक्षक, सरकारी विभागों के स्थानीय कर्मचारी, छात्र-छात्राएं और ग्रामीण स्वप्रेरणा से इस काम में जुटे हैं। यह इस बात की भी ताईद करता है कि सच्चे कामों के लिए बजट की नहीं ईमानदार इरादों की ज्यादा जरुरत होती है। जल प्रबंध के लिए चिंतित अध्येताओं के लिए आज उफरैंखाल तीर्थ बन चुका है। नामी-गिरामी हस्तियां भारती के काम को देखने आ चुकी हैं। जलागम प्रबंध पर कार्य कर रही दूसरे राज्यों की अनेक संस्थाओं के लोग यहां आकर वर्कशॉप करते हैं। एफ.ए.ओ. (यू.एन) ने इस पर विशेष प्रकाशन किए हैं। लैंसडाउन कैंट के सेना मुख्यालय ने उफरैंखाल से प्रेरणा लेकर अपनी विकट जल समस्या के समाधान के लिए वर्षाजल संग्रहण हेतु तालाब बनाए हैं। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी इस प्रयोग को मध्य प्रदेश में दोहराने की मंशा जता चुके हैं।

उफरैंखाल प्रयोग उत्तरांचल में जलप्रबंध व ग्रामीण विकास के टिकाऊ विकल्प का जीता-जागता उदाहरण है और विश्वबैंक के कर्ज से अरबों रुपयों की असफल योजनाएं ढो रही सरकारों के मुंह पर करारा तमाचा यह बता रहा है कि आर्थिक तंगी से गुज़र रहे इस नवगठित राज्य में यदि प्रत्येक ग्राम पंचायत ईमानदारी से उफरैंखाल प्रयोग को अपने यहां दोहरा ले तो बिना किसी भारी खर्चे और सरकारी अमले के मौजूदा जल संकट से निजात पाई जा सकती है। लेकिन पानी के दाम लगाने की चिंता में दुबली होती जा रही राष्ट्रीय जल नीति के चश्मे से क्या उफरैंखाल के भगीरथ प्रयास के मर्म को समझा जा सकता है?

(यह आलेख सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली की मीडिया फैलोशिप के अंतर्गत तैयार किया गया है।)

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