हीट और गैस चैंबर बनते शहर

भारत के शहर इस समय जल रहे हैं।
भारत के शहर इस समय जल रहे हैं।

आबादी के बोझ से कराहते और सुविधाओं के नाम पर भयानक प्रदूषण झेलते ये शहर आधारिक संरचना पर भीषण दबाव, मंहगाई और कामकाज की जगहों से रिहाइश की बढती दूरियों के कारण उनमें रहने वालों की सुविधा की बजाय दुविधा का केन्द्र बन रहे हैं। इधर कुछ वर्षों में उन्हें एक नई समस्या ने घेर लिया है। यह समस्या गांव के मुकाबले शहरों में ज्यादा गर्मी होने की है। इस समस्या को वैज्ञानिकों ने ‘अर्बन हीट’ करार दिया है। यह अर्बन हीट सिर्फ गर्मियों में नहीं बल्कि सर्दियों में भी समस्या बन रही है। इसे शहरी लू की संज्ञा दी जा रही है, जिसने असल में शहरों को गर्माते हीट चैंबरों में बदलकर रख दिया है।

भारत वैसे तो आज भी गांवों का देश कहलाता है। देश की करीब 60 प्रतिशत आबादी गांव-देहात में रहती है। लेकिन रोजगार और विकास की तेज रफ्तार की मांग के चलते देश में शहरों की संख्या और आकार भी तेजी से बढ़ रहा है। गांव-कस्बों के मुकाबले बेहतर आधारिक संरचना, शानदार जनसुविधाओं, रोजगार और अवसरों के केन्द्र के रूप में शहर बसाए और बनाए इस उद्देश्य से जाते हैं कि वहां रहने व बसने वाले लोगों को एक अच्छी जीवनशैली के साथ जीने का मौका मिले। पर अब शहर ही दुनिया के लिए मुसीबत बनते जा रहे हैं।

हमें छू रही शहरी लू

इस शहरी लू पर एक नजर पिछले वर्ष 2018 में तब गई थी, जब यूएस जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज ने दुनिया के 44 शहरों में बढ़ते तापमान पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस शोध रिपोर्ट में दक्षिण एशिया के 6 महानगरों में पैदा होने वाली शहरी लू पर फोकस करते हुए बताया गया था कि वर्ष 1979 से 2005 के बीच जिस कोलकाता शहर में सालाना 16 दिन भयंकर लू चलती थी, अब वहां ऐसे दिनों की संख्या बढ़कर 44 तक हो गई है। इसी शोध में दावा किया गया है कि दिल्ली-मुंबई-कोलकाता जैसे महानगरों की करोड़ों की आबादी के सामने आने वाले वक्त में शहरी लू झेलने का खतरा चार गुना तक बढ़ गया है। इसमें एक चेतावनी भी दी गई थी कि अब शहरियों को इस अर्बन हीट के साथ रहने और लगातार उसका खतरा सहन करना सीखना होगा। सवाल यह है कि आखिर बड़े शहरों या महानगरों में ऐसा क्या है जो वहां प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाली गर्मी या लू के मुकाबले कई गुना ज्यादा गर्मी पैदा हो रही है। गंभीर बात यह भी है कि इस शहरी लू के लिए मई-जून का मौसम ही जरूरी नहीं रह गया है, बल्कि यह घोर सर्दी में भी अपना असर दिखा सकती है।

देश की राजधानी दिल्ली में पिछले 17 सालों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ, क्योंकि यहां पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, दुनिया भर के शहरों में शहरी प्रदूषण के कारण सर्दियों में कोहरे की सघनता में भारी कमी देखी गई। आईआईटी मुंबई और देहरादून स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज ने अमरीकी स्पेस एजेंसी नासा के 17 सालों के उपग्रह डाटा का विश्लेषण कर तैयार कर कोहरा छांटने की प्रक्रियाको फाॅग होलकी संज्ञा देते हुए बताया था कि दिल्ली जनवरी, 2018 में 90 से ज्यादा फाॅग होल हो गए थे। 

शहरी लू का एक एहसास वर्ष 2018 की शुरूआत में भी तब हुआ था, जब सर्दियों के दौरान देश की राजधानी दिल्ली समेत उत्तर भारत के कई शहरों में कोहरे का प्रकोप कम रहा। वैज्ञानिकों ने इसकी वजह जानने की कोशिश की कि आखिर हर सर्दियों में छाये रहने वाले प्राकृतिक कोहरे का असर बड़े शहरों पर कम क्यों हुआ? जबकि वाहनों से निकलने वाले धुएं की मात्रा इस दौरान बढ़ गई। इस बारे में अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन के जियोफिजिकल रिसर्च लेटर जर्नल में एक रिसर्च पेपर ‘अर्बन हीट आईलैंड ओवर दिल्ली ओवर दिल्ली पंचेज होल्स इन द इंडो-गैंगटिक प्लेन्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इसमें बताया गया था कि देश की राजधानी दिल्ली में पिछले 17 सालों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ, क्योंकि यहां पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। सिर्फ दिल्ली ही नहीं, दुनिया भर के शहरों में शहरी प्रदूषण के कारण सर्दियों में कोहरे की सघनता में भारी कमी देखी गई। आईआईटी मुंबई और देहरादून स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज ने अमरीकी स्पेस एजेंसी नासा के 17 सालों के उपग्रह डाटा का विश्लेषण कर तैयार कर कोहरा छांटने की प्रक्रियाको फाॅग होलकी संज्ञा देते हुए बताया था कि दिल्ली जनवरी, 2018 में 90 से ज्यादा फाॅग होल हो गए थे।

शोधकर्ताओं ने कहा था कि शहरी की गर्मी कोहरे को जला रही है जिसकी वजह से ग्रामीण इलाके के मुकाबले शहरों का तापमान 4 से 5 डिग्री ज्यादा हो जाता है। इस शहरी लू के पीछे जिम्मेदार वजहों का भी पता लगाया गया। बताया गया कि शहरों में तेजी से हो रहे हर किस्म के निर्माण कार्यों, बढ़ रहे शहरीकरण, हरित पट्टी में तेज गिरावट और क्रंकीट से तैयार हो रही संरचनाओं के कारण जमीन के अंदर की गर्मी सतह में या सतह के करीब फंसकर रह जाती है। शहरों की गर्मी का एक आकलन 2017 में पुणे स्थित भारतीय मौसम विभाग की इकाई और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टापिकल मेटरोलाॅजी ने भी हीट इंडेक्स के रूप में किया था। इस इंडेक्स में इंसानों पर तापमान में होने वाली घट-बढ़ के कारण पड़ने वाले असर दर्शाए गए थे। इस आकलन में कहा गया था कि देश के ज्यादातर शहरों में मानसून वर्षा से लेकर गर्मी और नमी की अतिरंजनाएं दिखने लगी हैं जो पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रही हैं। इस आकलन का सबसे अहम इशारा यह था कि शहरी गर्मी या शहरी लू के कारण ये शहर ऐसे द्वीपों में बदल गए हैं, जहां मौसम के अतिरेक लोगों के रहन-सहन को प्रभावित करने की स्थिति में आ गए हैं।

हीट-टैपिंग ग्रीनहाउस

इन संस्थाओं द्वारा तैयार रिपोर्ट वैसे तो और भी बहुत कुछ कहती है पर इसमें सबसे ज्यादा उल्लेखनीय संकेत शहरीकरण के रूप में की जा रही मानव गतिविधियों का है जो मौसम और आम जनजीवन के उलटफेर के नतीजे के रूप में सामने आती हैं। आज की सच्चाई यही है कि दिल्ली-मुंबई समेत देश के 23 शहरों की करीब 12 करोड़ आबादी की जरूरतों के मद्देनजर शहरीकरण और उसकी जरूरतों ने शहरों को हीट-टैपिंग ग्रीनहाउस, आसान शब्दों में कहें तो ऐसे हीट और गैस चैंबरों मे बदल डाला है जो मौसम की अतियों का कारण बन रहे हैं। ये शहर ऐसे क्यों बन गए हैं, इसकी कुछ स्पष्ट वजहें हैं। जैसे, कम जगह में ऊंची इमारतों का अधिक संख्या में बनना और उन्हें ठंडा, जगमगाता और साफ-सथुरा रखने के लिए बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल करना। चाहे घर हो या दफ्तर, मौसम से लड़ने के लिए उन्हें वातनुकुलित बनाना और आने-जाने के लिए कारों आदि का बढ़ता इस्तेमाल।

घरों-दफ्तरों की इमारतों का अंदर से वातालुकूलित बनाना और आने-जाने के लिए कारों आदि का बढ़ता इस्तेमाल। घरों-दफ्तरों की इमारतों को अंदर से वातानुकूलित रखने वाले एयरकंडीशर और खाने-पीने की चीजों को ठंडा रखने वाले रेफ्रीजरेटर कितनी ज्यादा गर्मी अपने आस-पास के इलाके में फेंकते हैं, इसका अंदाजा इनके आस-पास खड़े रहने से हो जाता है। अगर किसी शहर में एक वक्त में लाखों-करोड़ों एयर कंडीशनर-रेफ्रीजरेटर चल रहे हों। पेटोल-डीजल से चलने वाली लाखों कारें ग्रीनहाउस धुएं के साथ गर्मी भी वातावरण में घोल रही हों, तो शहरों में नकली रूप से पैदा होने वाली लू की संहार क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूएन-हैबिटेट द्वारा संयुक्त रूप से किए गए एक अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया कि शहरों की इमारतों व घरों को रोशन करने, उन्हें ठंडा रखने और पानी को शीतल करने के उपकरणों के इस्तेमाल और कारों के प्रयोग की वजह से शहरी इलाकों के औसत तापमान में 1 से 3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हो जाती है। ये उपकरण अपने आस-पास के माहौल में बेतहाशा गर्मी झोंकते हैं। जो मई-जून जैसे गर्म महीनों में शहरों को और ज्यादा गर्म कर देते हैं। इसी तरह कारों को चलाने में जलने वाला तेल धुएं के रूप में सिर्फ कार्बन डाइऑक्साइड ही वातावरण में नहीं झोंकता है, बल्कि आस-पास के तापमान में कुछ और इजाफा करता है।

शहरी लू से बचें कैसे?

सवाल है कि इस शहरी लू से कैसे निपटा जाए। अभी तक सामान्य मौसम बदलावों से मुकाबले के लिए जो साधन और उपाए आजमाए जा रहे हैं, उनमें कोई फेरबदल लाए बगैर संभव नहीं है कि हम शहरी लू का मुकाबला कर पाएं। जाहिर है इसके लिए शहरीकरण की योजनाओं के बारे में नए सिरे से कोई सोच बनानी होगी। अभी तो हमारे योजनाकार देश की आबादी की बढ़ती जरूरतों और गांवों से पलायन कर शहरों की ओर जाती आबादी के मद्देनजर आवास समस्या का ही समाधान खोज रहे है। उनके सामने शहरों की आबोहवा को बिगाड़ने वाली चीजों का कोई खाका मौजूद नहीं है।

कुछ भारतीय योजनाकारों केे मत में कंक्रीट की उंची इमारतों के बल पर होने वाला शहरीकरण असल में भारत के विकास के गांधीवादी के नजरिये को आघाम लगता है। एक मशहूर आर्किटेक्ट ए.जी.के. मेनन ने इस बारे में एक बार कहा था कि अच्छा होगा यदि हम भावी शहरों के निर्माण के मामले में विकसित कहे जाने वाले पश्चिमी देशों की नकल न करें और अपनी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनाएं। यदि ऐसा होगा, तभी हम शहरी लू और इसी किस्म अन्य शहरी त्रासदियों का कुछ मुकाबला कर पाएंगे, अन्यथा नहीं। 

 

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