हमारा पानी किसने चुरा लिया?

10 Oct 2008
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नवभारत टाइम्स / मधु और भारत डोगरा

आज देश में क्या वजह है कि अब भी करोड़ों देशवासी जिंदगी की इस मूलभूत जरूरत के लिए तरस रहे हैं? हर साल गर्मियां शुरू होते ही शहरों और गांवों में पानी के लिए हाहाकार क्यों मचने लगता है?

पिछले दिनों हमने इस समस्या को समझने के लिए कुछ बस्तियों का दौरा किया। हमने यह जानने की कोशिश की कि लोग किस तरह इस संकट का सामना कर रहे हैं। यूपी का महोबा जिला अपने जल संकट के चलते इस वक्त खबरों में आ रहा है। लेकिन हैरतअंगेज बात यह है कि कुछ ही साल पहले तक महोबा में पानी की इफरात थी। चंदेल और बुंदेल राजाओं ने सैकड़ों साल पहले वहां कुओं और तालाबों का ऐसा नेटवर्क तैयार किया था, जिसे परंपरागत जल व्यवस्था की मिसाल माना जाता है। यह सिस्टम ही महोबा को पानी से भरपूर बनाता था। लेकिन अगले कुछ ही बरसों में ऐसा हुआ कि सैकड़ों साल की विरासत नष्ट हो गई और आज महोबा एक-एक बूंद के लिए तरस रहा है।

स्थानीय जानकारों का यह दावा सच लगता है कि अगर इन तालाबों की वक्त पर साफ-सफाई होती रहती, उन्हें गहरा किया जाता, तो यह नौबत नहीं आती। बेलाताल आज एकदम सूखा पड़ा है, लेकिन 80 साल के एक बुजुर्ग ने बताया कि उन्होंने पहले कभी इसे इस हाल में नहीं देखा था। इस तालाब से हजारों लोगों की जिंदगी चलती थी। कई गांव इससे पानी लेते थे। आसपास के एक बड़े इलाके का भूजल इससे सलामत रहता था। वह सब अतीत की बात बन चुका है।

यह कहानी सिर्फ महोबा की नहीं है। देश के तमाम गांवों और शहरों में इसे दोहराए जाते देखा जा सकता है। इसका जवाब महंगी जल योजनाएं नहीं हैं। आज सरकार हर गांव तक पानी का पाइप बिछाना चाहती है, लेकिन जिन स्त्रोतों से पानी आता, वे ही सूख चले हैं। हर साल लाखों हैंडपंप लगाए जा रहे हैं, लेकिन जमीन का पानी गिरता जा रहा है। मिसाल के लिए महोबा में जल संकट का हल करने के लिए बड़ी तादाद में टैंकर दौड़ाए जा रहे हैं। जब नल सूखा हो, तो ये टैंकर वरदान की तरह लगते हैं, लेकिन यह कोशिश हमेशा कामयाब नहीं हो सकती। लोगों को शिकायत होनी ही है कि उन तक यह पानी नहीं पहुंचता। खासतौर से जो दलित हैं और मुख्य सड़क पर नहीं रहते, उनके लिए यह सिस्टम बेकार है। इसमें करप्शन की शिकायतें भी आम हैं।

जल संकट को फौरी उपायों से छिपाने की इस कोशिश का अंजाम हमें समझना चाहिए। महोबा या कहीं भी, अकेला कारगर उपाय यही है कि परंपरागत जल स्त्रोतों को फिर से जिंदा किया जाए। महोबा में विजय सागर, कीत सागर, मदन सागर और कल्याण सागर जैसे तालाब इसलिए सूख गए कि उनकी सेहत पर ध्यान नहीं दिया गया। अगर कभी साफ-सफाई हुई भी तो करप्शन के चलते खानापूरी में बदल गई। कीत सागर की सफाई का काम तो किसी स्कैंडल की तरह लगता है। वहां मिट्टी निकालकर बगल में जमा कर दी गई, जो बारिश के साथ फिर से तालाब में समा गई। मदन सागर में यह काम शुरू ही बहुत देर से हुआ। इस तरह करोड़ों का खर्च भी किसी के काम नहीं आया।

इसके बरक्स चरखारी की मिसाल को नोट किया जाना चाहिए। महोबा के पास स्थित चरखारी के तालाबों की देखभाल की जिम्मेदारी स्थानीय लोगों और कार्यकर्ताओं ने अपने ऊपर ली। वे कामयाब रहे। इससे एक बार फिर इसी सिद्धांत की पुष्टि हुई कि असल चीज जन भागीदारी है, संसाधन नहीं। अगर जनता का साथ नहीं है, तो फिर बजट से कुछ नहीं होगा। इसके उलट कम संसाधन में भी लोग अपनी किस्मत बदलने का माद्दा रखते हैं। चरखारी में श्रमदान का जो अभियान चला, उसमें देश के दूसरे हिस्से से आए लोगों ने भी हाथ बंटाया।

यूपी के चित्रकूट और इलाहाबाद जिलों में फैला पाठा क्षेत्र भी पिछले कुछ बरसों से पानी का संकट झेल रहा है। वहां पानी पंप कर टंकियों और पाइपों से गांवों तक पहुंचाने की एक बेहद खर्चीली योजना चलाई गई थी, लेकिन उसका फायदा ज्यादातर लोगों तक नहीं पहुंचा। इस बीच अखिल भारतीय समाज सेवा संस्थान ने जगह-जगह पर कुदरती सोतों के संरक्षण की मुहिम चलाई। इन सोतों को ठीक कर कुओं का रूप दे दिया गया।

आज कई बस्तियों के लोग इस पानी से काम चला रहे हैं। भूजल की समस्या का जवाब तलाशने के लिए संस्थान ने नाबार्ड और दूसरी संस्थाओं की मदद से इटवा-पाटिन वॉटरशेड परियोजना चलाई। यह इलाका पठारी है, जिसकी ढलानों पर बारिश का पानी नहीं टिकता और भूजल में नहीं बदल पाता। हाल के बरसों में जंगलों के कटान ने इस समस्या को और भी बढ़ा दिया है। वॉटरशेड परियोजना के तहत जगह-जगह पर पानी को रोकने, उसकी रफ्तार कम करने और जमीन में समाने का मौका दिया जाता है। हमने पठार से देखा तो दूर-दूर तक जल संरक्षण के उपाय नजर आए। जन सहयोग ने इस परियोजना को इतना किफायती बना दिया कि 30 जगह के खर्च पर लगभग दोगुनी जगहों पर काम हो गया। इस इलाके के गांव वाले बताते हैं कि अब कम बारिश होने पर भी जमीन में नमी बनी रहती है।

हम शहरी लोगों को यह समझना चाहिए कि जल संकट शहरों के लिए भी सबसे बड़ी समस्या बन रहा है। महोबा या चित्रकूट के इन उदाहरणों में हमारे लिए भी सबक है। एक जमाने में शहरों में भी पानी का परंपरागत सिस्टम काम करता था। सरकार ने इस परंपरा को फिर से जिंदा करने का इरादा दिखाया है। कुछ जगहों पर पायलट प्रोजेक्ट चल रहे हैं। लेकिन यह नाकाफी है। जब तक हम लोग इस मुहिम से नहीं जुड़ेंगे, तब तक सरकारी कोशिश बेकार ही जाएगी। जहां तालाब और कुएं नहीं हैं, वहां भी पानी को बचाना होगा। मूल बात यह है कि जितना पानी हम खर्च करें, उतना हमारे पास वापस भी आए। शहरों में इसका उपाय वॉटर हार्वेस्टिंग है। अगर यह नहीं, तो फिर इस मुगालते में मत रहिए कि आप अपने लिए पानी खरीद सकते हैं। याद रखें, जो चीज खत्म हो जाएगी, उसे खरीदा नहीं जा सकेगा।

साभार - 15 Jun 2008, नवभारत टाइम्स

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