हमारा प्यासा मध्यप्रदेश

16 Aug 2011
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जलती है धरती पानी दो, मरती है धरती पानी दो, सूखे कंठों को पानी दो, चौके चूल्हे को पानी दो।


बीएसपी। वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में यही भाजपा का मुख्य नारा था। बी एस पी। यानी,कि बिजली, सड़क, पानी। भाजपा 2008 को चुनाव भी जीत चुकी है। अब उसने मिशन 2013 की घोषणा कर दी है लेकिन बी एस पी का क्या हुआ? इस लेख में हम न बी की बात करेंगें न एस की। केवल पी तक ही अपनी बात को केन्द्रित करेंगे। पी मतलब पानी।

 

 

नगर निकायों में पानी स्थिति


हमारे पास 15 अप्रैल के बाद की स्थिति की जानकारी नहीं है लेकिन इस दिन तक स्थानीय प्रशासन और लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय विभाग द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार प्रदेश के 360 नगर निकायों में से 189 में रोज पानी सप्लाई नहीं हो रहा है लेकिन इनमें से 29 नगर निकायों में तीन दिन या इससे अधिक दिन छोड़ कर पानी सप्लाई हो रहा है। 50 नगर निकायों में दो दिन छोड़ कर बाकी 110 नगर निकायों में एक दिन छोड़कर पानी आता है। स्थिति इतनी भयावह है कि झाबुआ जिले के खवासा में 20 दिन में एक बार पानी सप्लाई होता है। इसी जिले के मेघनगर में 15 दिन में एक बार जनता को पानी के दर्शन नसीब होते हैं। शुजालपुर में 7 दिन बाद जिले में सोयतकलां और नगर पंचायत सीहोर में 6 दिन छोड़कर पानी दिया जाता है। छतरपुर के बकस्वाहा,शाजापुर के सुमनेर, खंडवा के मूंदी, राजगढ़ की ब्यावरा नगर पालिका में 5-5 दिन के अंतराल से पानी मिल रहा है। छतरपुर के महाराजपुर और गढ़ीमलहरा, छिंदवाड़ा के चांदामेटा, चौरई, राजगढ़ के बोड़ा और माचलपुर में 4-4 दिन के अंतर से बुरहानपुर के 10 वार्डों में तीन दिन छोड़ कर, पानी सप्लाई हो रहा है। धार जिले में कुक्षी में 4 दिन छोड़ कर, मनावर और गंधवानी में तीन दिन छोड़कर, धामनोद में 2 दिन छोड़कर, धरमपुरी में 4 दिन बाद, नालछा में 7 दिन के अंतराल से और मांडू में 1 दिन छोड़कर पानी दिया जा रहा है। राजधानी भोपाल में भी एक दिन छोड़कर पानी मिल रहा है। बैरसिया में अगर दो दिन छोड़कर पानी मिल रहा है तो कोलार नगर पालिका में तो नल जल योजना ही नहीं है, वहां टैंकरों से पानी सप्लाई हो रहा है। इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जो कोलार डैम भोपाल की प्यास बुझाता है, उसी डैम से कोलार के नागरिकों की प्यास बुझाने की कोई योजना नहीं है। गर्मी के इस मौसम में बीस दिन या सात दिन में मिलने वाला पानी पीने के लिए कितना सुरक्षित हो सकता है, इसका अंदाजा तो सहज ही प्रदेश में गंदे पानी से होने वाली बीमारियों, उलटी, दस्त, डायरिया सहित पेट की अन्य बीमारियों के बढ़ते मरीजों से लगाया जा सकता है।

 

 

 

 

ग्रामीण क्षेत्रों में पीने के लिए त्राहि-त्राहि


यह बदतर स्थिति केवल शहरों तक सीमित नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो हालत और भी भयावह है। पहाड़ी क्षेत्रों में तो आदिवासी गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। उन्हें कई-कई मील से पानी भर कर लाना पड़ रहा है। मैदानी क्षेत्रों में भी कुंओं और हैंडपंपों का पानी नीचे उतर गया है। जिनकी चिंता नहीं हो रही है। वह हैं पालतू पशु। नदी नालों में पानी सूख जाने के कारण उनकी प्यास बुझाना सबसे मुश्किल हो रहा है। केवल पशुओं के पीने के पानी के संकट के कारण ही कई क्षेत्रों में लोगों को पलायन करना पड़ रहा है। यदि हम आदिवासी बहुल क्षेत्रों की बात करें तो बालाघाट में 4 नल जल योजनायें और 168 हैंडपंप बंद पड़े हैं। मंडला में जहां नर्मदा कुंभ के नाम पर आरएसएस का कार्यक्रम आयोजित करने पर शिवराज सरकार ने करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये थे। वहां 56 नल जल योजनायें और 923 हैंडपंप बंद पड़े हुए हैं। सिवनी में 100 से ज्यादा गांवों में परिवहन से पानी की व्यवस्था हो रही है। 133 नल जल योजनाएं बंद हैं। इसके साथ ही 405 हैंडपंप भी बंद पड़े हुए हैं। बड़वानी जिले में 2 नल जल योजनायें ठप्प हैं। साथ ही 587 हैंडपंप बंद हैं। झाबुआ में 2 नल जल योजनायें बंद हैं। पिटोल में 4 व बामनियां में 3 दिन के बाद पानी सप्लाई होता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार खराब हैंडपंपों की संख्या तो मात्र 46 है, लेकिन 79 गांवों में गांववासियों को परिवहन से पानी लाकर प्यास बुझाने को मजबूर होना पड़ा रहा है। मंदसौर जिले में शासन ने मान लिया है कि 200 गांव पेयजल संकट से जूझ रहे हैं। कई गांव ऐसे भी हैं, जहां 5 किलोमीटर दूर से पानी लाया जा रहा है। 1415 हैंडपंप खराब पड़े हुए हैं और 25 नल जल योजनायें बंद पड़ी हैं। रतलाम में 116 हैंडपंप और 106 नलकूप योजनायें बंद हैं। शहरों तक में यह स्थिति है कि रतलाम नगरनिगम में एक दिन छोड़कर, जावरा नगर पालिका में 3 दिन छोड़कर, नामली नगर पंचायत में 3 दिन छोड़कर, ताल और पिपलोदा में 2 दिन छोड़कर पानी सप्लाई हो रहा है। दमोह जिला फिर पानी संकट से जूझ रहा है। जहां ग्रामीण क्षेत्रों 373 हैंडपंप बंद हैं। डिंडोरी जिले के 88 गांवों में पानी का भयावह संकट है। शहडोल संभाग में 183 में से 28 नल जल योजनायें बंद हैं।

जबलपुर जिले में 27 नल जल योजनायें बंद हैं। 200 हैंडपंप सूख गये हैं और 41 बसाहटों में टैंकर से पानी सप्लाई हो रहा है। ग्वालियर जिले में 1300 हैंडपंप सूखे गये हैं, इसके अलावा 200 हैंडपंप खराब हैं और 6 नल जल योजनायें बंद हैं। कुल मिलाकर सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही 4 लाख 62 हजार 348 हैंडपंपों में से 36,690 बंद पड़े हुये हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में नल जल की 8 हजार 835 योजनाओं मे से 1196 योजनाएं बंद हैं। जो हैंडपंप चालू भी हैं, उनमें से भी आधे से अधिक दबंगों के कब्जे में है। स्थिति यह है कि राजधानी भोपाल में ही 33 ट्यूबवेल पर दबंगों का कब्जा है। ग्रामीण क्षेत्रों में दलित और आदिवासी बस्तियों के हैंडपंप यदि खराब हैं तो वे दबंगों के कब्जे वाले हैंडपंपों से पानी भरने की सोच भी नहीं सकते। उल्लेखनीय है कि पेयजल संकट की यह स्थिति 15 अप्रैल की है। जब तक यह अंक पाठकों के हाथ में होगा, तब तक पेयजल संकट और ज्यादा विकराल हो चुका होगा।

 

 

 

60 फीसद बसाहटें: बिन पानी सब सून


राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के तहत सुरक्षित और शुद्ध पेयजल के लिए एक कार्यक्रम निर्धारित किया गया है। इस कार्यक्रम के तहत हर बसाहट में प्रति व्यक्ति 55 लीटर पानी प्रतिदिन उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया है। पानी की यह उपलब्धता व्यक्ति के निवास से अधिकतम 500 मीटर के दायरे में और पहाड़ी क्षेत्रों में व्यक्ति के निवास से अधिकतम 30 मीटर की ऊंचाई से होना चाहिये। प्रदेश में 1 लाख 27 हजार 197 बसाहटें हैं। सरकार के आंकड़ों के अनुसार मात्र 45 हजार 345 में ही 55 उपरोक्त मानदंड के अनुसार पानी उपलबध है। बाकी 81 हजार 852 में पानी उपलब्ध नहीं हो रहा है। इधर जमीनी हकीकत यह है कि सरकार जिन बसाहटों में पानी पहुंचाने का दावा कर रही है, उनमें से भी अधिकांश में कागजों पर ही पानी पहुंच रहा है।

 

 

 

जीवन नहीं जहर हुआ जल?


जल ही जीवन है, के उपदेशात्मक नारे भलें ही प्रदेश के नगरों, गांवों और शहरों में लिखे हों, लेकिन अब प्रदेश के नागरिकों को जो पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है, वह प्रदेश के नागरिकों को जीवन नहीं देता है। इस गंदे और प्रदूषित पानी से जनता को बीमारियां मिलती हैं। राज्य के 10 जिले ऐसे हैं, जहां 1273 गांवों में फ्लोराईड युक्त पानी मिलता है। कुछ जिलों के पेयजल स्रोतों में लोहतत्व, नाईट्रेट और खारे पानी की अधिकता पायी गई है। केन्द्र सरकार की ओर से इन जिलों में वैकल्पिक जल स्रोत विकसित करने के लिए राज्य सरकार को बजट भी उपलब्ध करवाया था लेकिन जिस प्रकार प्रदेश की दूसरी योजनायें भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ी हैं, जाहिर है कि यह बजट भी इसी गति को प्राप्त हुआ है। दूषित जल पीने के लिए केवल ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों के लोग ही अभिशप्त नहीं हैं। शहरी क्षेत्रों में भी नगर निकायों या लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय विभाग की ओर से ट्यूबवेल का खनन हो रहा है, उनके पानी सप्लाई से पहले पानी का परीक्षण नहीं हो रहा है। ग्वालियर नगर निगम सहित कई नगर निकायों में पीला और बदबूदार पानी सप्लाई हो रहा है।

 

 

 

 

राज्य सरकार के प्रयास और पेयजल संकट


प्रदेश नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग गर्मी के मौसम में पानी के आने वाले संकट को समझ रहा था। इस लिए उसने पांच माह पहले से ही 223 नगर निकायों में पेयजल संकट को दूर करने के प्रस्ताव राज्य शासन को भेज दिये थे। विभाग ने पेयजल संकट का समाधान करने के लिए 39 करोड़ 42 लाख रुपये की मांग की थी लेकिन राज्य शासन ने मात्र 5 करोड़ 84 लाख रुपये की ही स्वीकृति दी है। यह स्वीकृति भी काफी देरी से मिली है। पहली नजर में ही यह बात साफ हो जाती है कि यह राशि ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ है। जिससे पेयजल संकट का समाधान तो नहीं होगा, इस पैसे को कागजों पर खर्च कर अस्थाई बंदोबस्त दिखा कर इस पैसे को भ्रष्ट अधिकारियों, ठेकेदारों व नेताओं के बीच बांट लिया जायेगा। राज्य सरकार पेयजल के लिए केन्द्र के सिर पर ठीकरा फोडऩे की कोशिश कर रही है। राज्य सरकार ने पेयजल समस्याग्रस्त शहरों में संकट के स्थाई समाधान के लिए जो योजना तैयार की है उस पर अमल के लिए 1400 करोड़ रुपये की आवश्यकता है। राज्य सरकार ने 17 शहरों में पेयजल संकट के समाधान के लिए जो डीपीआर तैयार की है, उसमें 688 करोड़ 29 लाख रुपये की जरूरत है। इस प्रस्ताव के लिए केन्द्र से पैसा मिलने में एक समस्या यह भी है कि इन सभी 17 शहरों में यूआइडीएसएमटी योजना के तहत काम चल रहा है लेकिन लागत अनुमान से ज्यादा होने के कारण योजनायें अधूरी पड़ी हैं। हालत ये है कि आये दिन पेयजल संकट की स्थिति बदतर हो रही है लेकिन राज्य के 18 जिलों का प्रशासन इस स्थिति से बेफिक्र है। इनमें भोपाल, हरदा, होशंगाबाद, इंदौर, बुरहानपुर (नगर निगम क्षेत्र को छोड़कर) खरगोन, ग्वालियर, मुरैना, गुना, दतिया, श्योपुर, जबलपुर, नरसिंहपुर, डिंडोरी, सिवनी, बालाघाट, शहडोल और उमरिया शामिल हैं।

 

 

 

 

भ्रष्टाचार की जकडऩ में नगर निकाय


राज्य सरकार का मकसद जनता की प्यास बुझाना नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार की गंगा में डुबकी लगाना है। इस लिए जानबूझकर राज्य सरकार नगर निकायों के प्रशासनिक ढांचे को ध्वस्त कर रही है। जैसा कि शुरू में ही उल्लेख किया गया है कि प्रदेश में 360 नगर निकाय हैं। इनमें से 50 फीसदी से अधिक में सीएमओ (मुख्य नगरपालिका अधिकारी) की बजाय वर्षों से प्रभारी सीएमओ जमे बैठे हैं। या राजनीतिक संरक्षण में भ्रष्टाचार में बंदरबाट करने के लिए उन्हें बिठा रखा है। नगर पालिका अधिनियम 94 (4) के तहत तृतीय व चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों पर कार्यवाही करने का अधिकार सीएमओ के पास होता है, जबकि स्वास्थ्य निरीक्षक, राजस्व निरीक्षक, मुख्य लिपिक, लेखापाल व उप यंत्री पर कार्यवाही करने का अधिकार संचालक को होता है। लेकिन स्थिति यह है कि कुछ नगर पालिकाओं व नगर पंचायतों में तो तृतीय श्रेणी कर्मचारी या दैनिक वेतन भोगी तक प्रभारी सीएमओ बने बैठे हैं। जाहिर है कि ये लोग राजनीतिक संरक्षण के कारण ही जमे हुए हैं। इस लिए एक तो राजनीतिक संरक्षण उपर से संचालक ये बहाना बना लेते हैं कि इन पर कार्यवाही करने का उन्हें अधिकार नहीं है।

इसका खामियाजा नगर निकायों में लूट के रूप में सामने आ रहा है। पिछले साल की ऑडिट रिर्पोट के अनुसार प्रदेश की 10 नगर निगमों, दो दर्जन नगरपालिकाओं, तीन विकास प्राधिकरणों और 48 कृषि उपज मंडियों में ठेकेदारों ने 290 करोड़ की चपत लगाई है। इस रिर्पोट के अनुसार 24 करोड़ 23 लाख रुपये का ठेकेदारों को दोहरा भुगतान कर दिया गया। 58 करोड़ 56 लाख की वसूली इन संस्थाओं ने नहीं की। विभिन्न प्रकार की गड़बडियों और अनियमितताओं से 173 करोड़ 29 लाख कर हानि हुई। 5 करोड़ 24 लाख का अधिक भुगतान कर दिया गया। संदिग्ध व्यय 3 करोड़ 13 लाख, निर्माण कार्यों में अनयिमताओं से 2 करोड़ 53 लाख का नुकसान हुआ है। राजनीतिक संरक्षण में नगर निकायों की हो रही लूट के साथ ही इन स्वायतशासी संस्थाओं की स्वायतता पर भी हमला हो रहा है। एशियन विकास बैंक से लिए जाने वाले कर्ज के तहत इन निकायों पर जो शर्तें थोपी जा रही हैं, उनके अनुसार जलकर की दरों को लगातार मंहगा किया जा रहा है लेकिन जलकर की दरों में वृद्धि के बाद भी नागरिकों को पानी मिलने की कोई गारंटी नहीं है। भोपाल नगर निगम में नए नल कनेक्शन लेने वाले उपभोक्ताओं से यह शपथ पत्र भी भरवाया जा रहा है कि पानी न मिलने पर निगम की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।

एडीबी की शर्तों के अंतर्गत पानी के प्रबंधन के नाम पर केवल जलकर दरों में बढ़ोतरी तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वह गरीबों को प्यास बुझाने की नगर निकायों की जिम्मेदारी से मुक्ति तक जाती हैं। इसके अनुसार सार्वजनिक नलों को काटा जायेगा। क्योंकि इनसे शासन को कोई आय नहीं होती है और पानी की बर्बादी होती है। मतलब साफ है पहले पानी पिलाना एक पुण्य हुआ करता था। अब गरीबों की प्यास बुझाना पानी की बर्बादी है। भोपाल शहर में ही 6 हजार सार्वजनिक नलों को काटने का प्रस्ताव है।

 

 

 

 

पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप: मतलब सिर्फ मुनाफा


एडीबी की शर्तों को आगे बढ़ाते हुए अब पानी के निजीकरण की शुरुआत हो गई है। पीपीपी के नाम पर पानी का निजीकरण किया जा रहा है। भले ही इसके लिए तर्क ये दिया जा रहा हो कि पेयजल संकट को हल करने के लिए साधन जुटाने को निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी जरूरी है। मगर निजीक्षेत्र केवल समाज सेवा के लिए नहीं बल्कि मुनाफे के लिए ही पूंजी निवेश करता है। जलकर दरों में वृद्धि उन्हें मुनाफे की गारंटी देकर पूंजी निवेश करने के लिए आकर्षित करने का प्रयास भी है। इसी प्रयास के तहत आज कल पेयजल को अधिक महत्व दिया जा रहा है। सिंचाई पर पेयजल को प्राथमिकता दी जा रही है। इंदिरा सागर बांध कोटा का पानी पहले केवल कोटा शहर को पेयजल के लिए सप्लाई होता था, अब तीन और शहरों को इस बांध से पानी देने की योजना है। मध्यप्रदेश में करीब तीस बांधों का पानी जो पहले सिंचाई के लिए छोड़ा जाता था, अब उनका पानी शहरों को पेयजल के लिए होगा, किंतु यहां भी सवाल केवल प्यास बुझाने का नहीं मुनाफा कमाने का है।

एक बीघा खेत को सिंचाई के लिए आबपाशी की दर 130 रुपये है। दो फसलों को पानी देने से यह राशि 260 रुपये हो जायेगी। कृषि संकट के कारण इसका भी भुगतान किसान नहीं कर पा रहे हैं लेकिन यदि यही पानी शहर में पेयजल के रूप में सप्लाई किया जाता है, तो इससे 200 नलों को पानी सप्लाई हो सकता है। यदि लीकेज आदि को भी अलग कर इन नलों की संख्या सिर्फ 100 कर दी जाये तो भी आज की जलकर की दर 150 रुपये प्रति नल के हिसाब से 15 हजार रुपये जलकर के रूप में प्रतिमाह मिलेगा और साल भर में वसूली जाने वाली जलकर राशि 1 लाख 80 हजार रुपये हो जायेगी। अब तो एक नया ट्रेंड भी चल पड़ा है। नलों से शुद्ध पानी न मिलने के कारण पानी व्यवसाय में लगी कंपनियां 20 लीटर के पानी की केन 150 रुपये प्रतिमाह के हिसाब से घरों में सप्लाई कर रही हैं। यह पानी भी हमारा ही पानी होगा, जो पीपीपी के तहत जनता की जेब काटेगा। मगर गरीबों की प्यास बुझाने का कोई इंतजाम पीपीपी के तहत नहीं है।

 

 

 

 

पीएचई विभाग का खात्मा मतलब नहीं बुझेगी प्यास


अभी राज्य सरकार ने लोक स्वास्थ्य यांत्रिकीय विभाग के पानी सप्लाई में लगे अमले को नगर निकायों को सौंप कर पेयजल की जिम्मेदारी से राज्य सरकार को मुक्त कर लिया है। इससे इन कर्मचारियों को दो माह से वेतन नहीं मिला है लेकिन बात केवल वेतन तक ही सीमित नहीं है नगर निकाय पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। आने वाले दिनों जब इस अमले का बोझ भी नगर निकायों पर पड़ेगा तो पेयजल की व्यवस्था करना और भी कठिन हो जायेगा। अभी हाल ही में विद्युत नियामक आयोग के सामने इंदौर नगर निगम के आयुक्त ने विद्युत दरें न बढ़ाने का तर्क देते हुये कहा था कि इंदौर नगर निगम की वार्षिक आय 157 करोड़ है। उसे पेयजल सप्लाई के लिए बिजली बिल का ही 77 करोड़ भुगतान करना पड़ता है। यदि और दरें बढ़ जाती हैं तो फिर नगर निगम नगर विकास और कल्याण की अपनी दूसरी जिम्मेदारियों को कैसे पूरा करेगा।

 

 

 

 

संघर्ष ही रास्ता


उदारीकरण के दौर के भयावह परिणाम सामने हैं। पानी जैसी प्राकृतिक संपदा को भी निजीकरण कर मुनाफे की खातिर औद्योगिक घरानों को सौंपने के प्रयास बहुत तेजी से हो रहे हैं। जब फिलपीन की राजधानी मनीला में पानी के निजीकरण का समझौता प्रदेश सरकार ने किया था, तब भी हमने इसके गंभीर परिणामों के बारे में कहा था। अब खतरे सिर्फ बताने भर के नहीं हैं। भेड़िया घर के अंदर आ घुसा है। उससे मुकाबला कर ही उसे परास्त किया जा सकता है। जाहिर है कि इसके लिए आम जनता की एकता और संघर्ष पहली शर्त है।

 

 

 

 

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