हमारी मर्जी से नहीं बरसेगा पानी

2 Nov 2010
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बुरे वक्त के लिए सहेजकर रखना सीखना होगा

21वीं सदी की सबसे बड़ी समस्या पानी है। यह बात इस वर्ष हमें अधिक अच्छे से इसलिए समझ आ रही है क्योंकि अभी तक देश भर में 65 फीसदी बारिश कम हुई है। सिर्फ इस वजह से ही पहले से सिर चढ़ी हुई मंदी अधिक गहरा गई है। उस पर से तुर्रा यह कि मंदी के साथ-साथ महँगाई भी बढ़ रही है और आम आदमी की कमर तोड़े दे रही है। मंदी, महँगाई और बारिश के बीच संबंध को समझने के लिए हमें उसी गणित को समझना होगा जो बाघ और बैंगन के बीच संबंध को समझाता है।

पानी की अहमियत को बताना तो सूरज को दिया दिखाने जैसा ही है, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी हमारी सरकारों ने इस विषय में बातें अधिक और काम कम किया है। पिछले एक दशक से हम नदी जोड़ परियोजना के बारे में सुन-समझ रहे हैं। लेकिन ये नदियाँ फिलहाल कागजों पर ही बह और जुड़ रही हैं। जिस साल बारिश ठीक-ठाक होती है, हम प्रसन्न हो जाते हैं। जिस साल बारिश कम होती है वह साल हमारा रोते-गाते हुए बीतता है, हम अपनी सारी असफलताओं (मसलन महँगाई, कम उत्पादन, किसान आत्महत्या आदि) का ठीकरा इन्द्र देव पर फोड़ देते हैं। जिस वर्ष बारिश जरूरत से ज्यादा हो जाए यानी बाढ़ जैसी स्थिति बन जाए वह साल भी हमारा हैरानी-परेशानी और पानी के प्रकोप को कोसते हुए बीतता है।

हमारे देश का आम आदमी चाहता है कि उसके शहर में इतना पानी पड़ जाए कि उसके पीने के लिए पर्याप्त रहे। मसलन 20 से 30 इंच के बीच। कई बार आपने लोगों को कहते हुए भी सुना होगा कि बारिश धीरे-धीरे होनी चाहिए ताकि पानी जमीन में अच्छे से पैठ जाए। 30 से 40 इंच बारिश होनी चाहिए ताकि अगली गर्मियों में पानी की किल्लत महसूस नहीं हो। अगर किसी रोज ज्यादा पानी गिर जाता है तो लोग परेशान हो जाते हैं। उनकी गाड़ियाँ बंद हो जाती हैं, जनजीवन रुक जाता है और वे दुआएँ मनाने लगते हैं कि बस, अब बहुत हुआ। बारिश बंद हो जानी चाहिए हम लोग ऑफिस नहीं पहुँच पा रहे हैं।

हमारे देश के किसान भी आम आदमी की तरह ही हैं। वे चाहते हैं कि एक निर्धारित समय पर निर्धारित बारिश हो ताकि उनकी फसल अच्छे से पनप सके। अगर किसान छत्तीसगढ़ या झारखंड का है (वहाँ धान की खेती होती है) तो उसे 40 से 50 इंच के बीच बारिश चाहिए। किसान के लिए अगर कम बारिश होगी तो बीज तथा पौधे सूख जाएँगे, ज्यादा बारिश होगी तो गल जाएँगे, उनमें कीड़े लग जाएँगे। इसलिए हम हमेशा भगवान से यही चाहते हैं कि हमारी मर्जी के अनुसार ही पानी बरसे। ना कम, ना ज्यादा। ठीक हमारी अपेक्षा अनुसार।

आशावादी होना बुरा नहीं है लेकिन प्रकृति को अपने ढंग से चलाना किसी के बस की बात नहीं। आज भी भारत के ज्यादातर शहरों में आजादी से पहले बने बैराज, बाँध और तालाब बने हुए हैं। आजादी के बाद जो प्रयास हुए हैं वो बेतहाशा बढ़ी जनसंख्या के लिहाज से कम ही हैं। पिछले दो दशकों से पानी की जो अभूतपूर्व कमी शहर देख रहे हैं वो दिनोदिन बढ़नी ही है। तेज बारिश के बाद सड़कों पर बहते पानी को देखकर हमेशा मन से एक ठंडी आह निकलती है। काश, वो पानी अगली गर्मिंयों के लिए हम बचा पाते।

जब भी किसी बैराज या बाँध के साइफन चालू होते हैं तो उनकी खूबसूरती देखने से ज्यादा मन यह सोचकर परेशान हो उठता है कि काश, इस बाँध की गहराई कुछ और ज्यादा होती। ज्यादातर महानगरों में अब तालाब नहीं बचे। जहाँ बचे हैं वहाँ पुराने स्टेट टाइम (आजादी से पहले जब राजा-महाराजाओं का राज हुआ करता था) के तालाबों की चैनल व्यवस्था है और वो भी अतिक्रमण का शिकार हैं। शहरों के बीच से बह रही नदियाँ नालों में तब्दील हो चुकी हैं। सरकारें बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या और नालों पर जमे अतिक्रमणकारी वोटरों के दबाव में चुप रह जाती हैं।

भारत जैसे विशाल भू-भाग तथा विशालतम आबादी वाले देश में पानी के संकट को जिस तरह से अनदेखा किया जाता है वैसा उदाहरण कम ही देखने को मिलता है। इसका खामियाजा भविष्य में क्या होगा इस पर आमतौर पर बहसें चलती रहती हैं, लेकिन ये बहसें भी अच्छे मानसून की आमद पर दफन हो जाती हैं। लेकिन इस बार ये साल भर चलती रहेंगी, क्योंकि बादलों ने हमें ठेंगा दिखा दिया है। शहरों में चौड़ी सड़कें बनाने के लिए जिस तरह से हरे-भरे पेड़ों को निर्लज्जता के साथ काट दिया जाता है उस समय भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी भी यह छोटी-सी बात नहीं समझ पाते कि वो उस शहर से बादलों और बारिश को विमुख करने की दिशा में बढ़ रहे हैं। किसी शहर में जितने लोग रहते हों उतने ही पेड़ होने चाहिए लेकिन वर्तमान हालात क्या हैं ये बताने की जरूरत नहीं।

इस बार मध्यप्रदेश में बाँधों के विकास के लिए 379 करोड़ विश्व बैंक ने मंजूर किए हैं। इस रकम से 50 बाँधों का उद्धार किया जाएगा। लेकिन यह भविष्य के गर्भ में ही छिपा है कि उन बाँधों का कितना उद्धार हो पाएगा। एक ओर जहाँ अरब देशों में सड़कों के नीचे बड़े-बड़े पानी के टैंक बनाकर उसे वाप्षीकृत होने से बचाया जाता है वहीं हमारे देश में सूख रहे जल स्रोतों में जमा थोड़ा-बहुत जल भी सूरज की भीषण गर्मी से उड़ जाता है। हम ऐसी समस्याओं पर कभी ध्यान नहीं देते। बाँधों की मरम्मत और नए बाँधों के निर्माण की इस देश में कैसी गति है यह हम जानते हैं। इंदिरा सागर और सरदार सरोवर जैसे बाँधों को बनने में दशकों का समय लग गया। नए बाँध बनने शुरू होते नहीं हैं कि उससे पहले विस्थापितों के हिमायती सामने आ जाते हैं और काम अटक जाता है।

ओंकारेश्वर बाँध परियोजना इस मामले को लेकर कई बार अटकी। उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के बीच केन और बेतवा नदियों के जोड़ को लेकर समझौता हुआ था। खुद प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह वहाँ मौजूद थे। दोनों प्रदेशों के तत्कालीन मुख्यमंत्रियों मुलायमसिंह यादव और बाबूलाल गौर ने 25 अगस्त 2005 को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। लेकिन इस नदी जोड़ परियोजना का 4 वर्षों में क्या हुआ, किसी को नहीं मालूम।

मध्यप्रदेश के भिण्ड जिले के अटेर क्षेत्र में कनेरा सिंचाई परियोजना को शासन से स्वीकृति मिलने में ही 25 साल लग गए। इस परियोजना से लगभग 100 गाँवों को लाभ मिलने वाला है। इन उदाहरणों से समझा जा सकता है कि देश में योजनाएँ लागू होने की दर इतनी धीमी है कि सरकारें बदल जाती हैं, लेकिन ढर्रा नहीं बदलता। अभी तक पानी को लेकर कोई केन्द्रीयकृत नीति नहीं बन पाई है जबकि वर्तमान समय में इसकी सख्त और तुरंत जरूरत है।

नदी जोड़ परियोजना में एनडीए की वाजपेयी सरकार ने जितनी दिलचस्पी दिखाई थी बाद की सरकार में उस मामले में उतनी ही उदासीनता दिखाई दी। अब मौसम बदल रहा है। बादल हमारा साथ छोड़ रहे हैं। समय है कि जितना पानी पास में है उसे ही बचाकर रखा जाए, हौले से सहेजा जाए नहीं तो देश की आबादी के पास प्यासा तड़पने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाएगा।
 

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