हरित रसायन : समय की मांग


वर्ष 1980 के पूर्व रसायन वैज्ञानिकों को अधिकांश रसायनों की विषाक्तता के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी। परन्तु अब उन्हें इस बारे में पर्याप्त जानकारी होने के कारण वे निर्माण की ऐसी विधियों की खोज करते हैं जिसमें विषाक्तता के कारणों का निवारण किया जा सके। हरित रसायन रसायन शास्त्र की सभी शाखाओं- कार्बनिक, अकार्बनिक, भौतिक, विश्लेषणात्मक रसायन, जैव कार्बनिक, जैव अकार्बनिक, जैव रसायन, औषधि रसायन, बहुलक रसायन आदि पर लागू होती है।

रसायन विज्ञान ने मानव जीवन को सुख-सुविधापूर्ण बनाने में बहुत योगदान दिया है। उसने अनेक जीवनोपयोगी पदार्थों का निर्माण किया है जिनका उपयोग दवाओं एवं स्वास्थ्य-रक्षा, रंग बहुलक, वस्त्र, कृषि रसायन, भोजन में रसायन, सौंदर्य प्रसाधन, साबुन एवं अपमार्जक, स्मार्ट मैटीरियल, प्रोपैलेन्ट आदि के रूप में बहुतायत से होता है।

औषधियों के साथ-साथ एन्टीबायोटिक दवाओं की खोज ने जीवन को दीर्घायु बनाने के साथ-साथ उसे गुणवत्तापूर्ण भी बनाया है। कृत्रिम रंगों ने जीवन में रंग भरा है। इसी प्रकार अनेक कृषि रसायनों, उर्वरकों, कीटनाशकों एवं परिरक्षकों ने खाद्यान्न सुरक्षा प्रदान करने में मदद की है। वस्त्रों, साबुन एवं अपमार्जकों, सौन्दर्य प्रसाधनों, प्लास्टिक एवं दूसरे बहुलकों के बिना आज जीवन की कल्पना भी मुश्किल है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि रसायन विज्ञान में चमत्कार कर किया है।

लेकिन भौतिक विकास के कई दुष्परिणाम भी आज हमारे सामने है जिसकी कीमत हमें चुकानी पड़ रही है। अधिकांश रसायनों का उत्पादन वृहद स्तर पर होता है। औद्योगिक घराने जो इन रसायनों का निर्माण करते हैं, वे इसे कम मूल्य पर निर्मित करना चाहते हैं। परन्तु इस निर्माण प्रक्रिया में जल, मृदा एवं वायु प्रदूषण होता है और धरती पर सभी प्रकार का जीवन इससे प्रभावित होता है।

वर्ष 1960 में जापान में अनेक नवजात शिशुओं में जन्मजात बीमारियाँ पाई गईं जिसका कारण थैलिडोमाइड (Thaliomide) नामक दवा बताई गयी। सन 1962 में प्रसिद्ध कीटनाशक DDT पर उंगली उठाई गयी तो 1970 में ओजोन छिद्र के लिये मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFCs) को जिम्मेवार बताया गया। इसी प्रकार 1980 में अमेरिका के टाइम्स समुद्रतट के मृदा प्रदूषण के लिये प्रमुख खरपतवार नाशक 2,4-D एवं 2,4,5-T तथा 1984 में भारत में घटी भोपाल गैस त्रासदी के लिये मिथाइल आइसोसायनेट (MIC) को जिम्मेदार माना गया।

इस प्रकार की दुर्घटनाओं ने लोगों का कृत्रिम रसायनों के दुष्प्रभाव की तरफ ध्यान आकृष्ट किया। लोगों के विरोध के फलस्वरूप ही अनेक देशों में क्लीन वाटर एक्ट, रिसोर्स रिकवरी एंड कन्जर्वेशन एक्ट, पोल्यूशन प्रिवेंशन एक्ट आदि बने ताकि रासायनिक उद्योगों पर अंकुश लगाया जा सके।

यह सही है कि पर्यावरण को काफी नुकसान पहुँच चुका है। परन्तु स्थिति ऐसी भी नहीं है कि अब हम धरती को बचा ही नहीं सकते। इस विषम परिस्थिति ने सरकार, नीति निर्धारकों के साथ-साथ वैज्ञानिकों का भी ध्यान आकृष्ट किया। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रासायनिक शोध में एक नए दर्शन का जन्म हुआ। यह है- हरित रसायन। इस दर्शन का विकास मुख्य रूप से पॉल अनास्टास एवं जॉन वार्नर ने किया था। पॉल अनास्टास को हरित रसायन का जनक कहा जाता है।

हरित रसायन क्या है?


“हरित रसायन उन रासायनिक पदार्थों एवं प्रक्रियाओं के उपयोग एवं विकास पर जोर देता है जिसमें जहरीले प्रदूषक कारक पदार्थों का उपयोग एवं उत्पादन न हो या न्यूनतम हो।” –पॉल अनास्टास, 2000

Green chemistry or sustainable chemistry may be defined as the benign chemistry that does not harm either to human or to the environment.

अतः हरित रसायन प्रदूषण को उसके उद्गम स्थल पर ही रोकने या घटाने पर जोर देता है। यह किसी रासायनिक प्रक्रिया की क्षमता बढ़ाने एवं उससे होने वाले नुकसान को घटाने पर जोर देता है। यह पर्यावरण रसायन से भिन्न है जो वातावरण में होने वाले रासायनिक गतिविधियों पर केंद्रित है।

एक मायने में हरित रसायन कोई नया रसायन विज्ञान नहीं है। यह रसायनों एवं रासायनिक विधियों के दुष्प्रभावों को घटाने की ही विधि है। रासायनिक उद्योगों के द्वारा हमारे वातावरण में सर्वाधिक प्रदूषण फैल रहा है। इन अपशिष्ट उत्पादों (waste products) के निस्तारण में बहुत-सा समय, प्रयास एवं धन व्यर्थ होता है। अतः प्रयास इस बात के किये जाते हैं कि निर्माण की ऐसी विधियाँ विकसित की जाएँ कि इनमें अपशिष्ट पदार्थ न्यूनतम मात्रा में निर्मित हो, वातावरण में इनका प्रभाव न्यूनतम हो तथा इनका निस्तारण भी सुविधाजनक हो। इन विधियों के द्वारा रसायनों की निर्माण लागत भी घटती है। अतः हरित रसायन का अपना अर्थशास्त्र भी है।

वर्ष 1980 के पूर्व रसायन वैज्ञानिकों को अधिकांश रसायनों की विषाक्तता के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी। परन्तु अब उन्हें इस बारे में पर्याप्त जानकारी होने के कारण वे निर्माण की ऐसी विधियों की खोज करते हैं जिसमें विषाक्तता के कारणों का निवारण किया जा सके। हरित रसायन रसायन शास्त्र की सभी शाखाओं- कार्बनिक, अकार्बनिक, भौतिक, विश्लेषणात्मक रसायन, जैव कार्बनिक, जैव अकार्बनिक, जैव रसायन, औषधि रसायन, बहुलक रसायन आदि पर लागू होती है।

हरित ही क्यों? (Why Green?)


हमें प्रकृति से सीखना चाहिए।
प्रकृति हरी है! प्रकृति सुन्दर है!!

हरे पौधे सर्वसुलभ CO2 एवं जल से सर्वाधिक महत्त्व के उत्पाद हमारा भोजन (ग्लूकोज) एवं प्राणदायिनी ऑक्सीजन गैस का निर्माण करते हैं।

क्या ऐसा ही प्रयास हमारा नहीं होना चाहिए?


जो जीवधारी हरे नहीं होते हैं वे प्रायः अपना भोजन निर्मित नहीं कर पाते। साथ ही ऑक्सीजन गैस का भी निर्माण नहीं कर पाते। वे मृतोपजीवी एवं परजीवी होते हैं। हमें मृतोपजीवी या परजीवी नहीं बनना है!!

हरित रसायन के मूल सिद्धान्त


हरित रसायन को इसके 12 मूल सिद्धान्तों के द्वारा समझा जा सकता है।

1. अपशिष्ट पदार्थों की रोकथाम


अपशिष्ट पदार्थों के उत्पादन एवं बाद में उनके निस्तारण से कहीं बेहतर है कि अपशिष्ट पदार्थों का निर्माण ही न हो। कहा भी गया है- ‘Prevention is better than cure’.

2. परमाणु मितव्ययता


निर्माण की ऐसी विधियों का विकास एवं सुरक्षित पदार्थों का उपयोग किया जाए जिससे मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर न्यूनतम दुष्प्रभाव पड़े।

3. सुरक्षित रासायनिक संश्लेषण


जहाँ तक सम्भव हो निर्माण की ऐसी विधियों का विकास एवं सुरक्षित पदार्थों का उपयोग किया जाए जिससे मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर न्यूनतम दुष्प्रभाव पड़े।

4. सुरक्षित रासायनिक पदार्थों का निर्माण


ऐसे रासायनिक पदार्थों का निर्माण किया जाए जिनमें वांछित गुण तो हों परन्तु उनमें विषाक्तता न्यूनतम हो।

5. सुरक्षित विलायकों एवं सहायक रसायनों का उपयोग


विलायकों, पृथक्कारी रसायनों एवं अन्य सहायक रसायनों आदि का न्यूनतम उपयोग किया जाए या फिर उन विलायकों का उपयोग किया जाए जो निरापद हों।

6. ऊर्जा दक्ष प्रक्रियाओं का उपयोग


अधिकाधिक अभिक्रियाओं को सामान्य तापमान एवं दाब पर सम्पन्न किया जाना चाहिए जिससे पर्यावरण को क्षति न हो तथा आर्थिक हितों की पूर्ति हो सके।

7. नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग


जहाँ तक सम्भव हो वहाँ नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग किया जाए।

8. अनावश्यक व्युत्पन्न बनाने से बचना


यौगिकों के अनावश्यक व्युत्पन्न बनाने से बचना चाहिए (जैसे ब्लॉकिंग समूह को लगाना एवं उसे हटाना)। इससे अनावश्यक अपशिष्ट तैयार होता है।

9. उत्प्रेरण


उत्प्रेरक (विशेष रूप से जैव-उत्प्रेरक) जितने अधिक विशिष्ट हों उतने बेहतर परिणाम होंगे।

10. उत्पादों का प्राकृतिक अपघटन


रासायनिक पदार्थ प्राकृतिक रूप से अपघटित होने चाहिए जो नुकसान रहित पदार्थ में अपघटित हो जाएँ।

11. प्रदूषण की रोकथाम के लिये वास्तविक समय विश्लेषण


विषाक्त पदार्थों के निर्माण के पूर्व ही उसकी लगातार जाँच एवं रोकथाम की व्यवस्था की जानी चाहिए।

12. दुर्घटना की रोकथाम के लिये सुरक्षित रसायन विज्ञान


ऐसे रसायनों का प्रयोग करना चाहिए जिससे कि आग, विस्फोट, गैसों का रिसाव, आदि से बचा जा सके।

हरित रसायन में प्रयुक्त की जाने वाली महत्त्वपूर्ण तकनीकें


1. हरित अभिकर्मकों, हरित विलायकों एवं हरित उत्प्रेरकों का रासायनिक निर्माण में उपयोग

हरित रसायन में प्रयुक्त की जाने वाली महत्त्वपूर्ण तकनीकेंहरित रसायन में प्रयुक्त की जाने वाली महत्त्वपूर्ण तकनीकेंहरित रसायन के मूल स्तंभ

1. उत्प्रेरित अभिक्रियाएँ


अनेक रासायनिक अभिक्रियाओं को तापमान एवं दाब की सामान्य परिस्थितियों में उत्प्रेरक, विशेष रूप से एन्जाइम उत्प्रेरक की उपस्थिति में कराया जा सकता है। ये अभिक्रियाएँ अधिक सक्षम (efficient) एवं अधिक विशिष्ट (specific) होती हैं। साथ ही उत्प्रेरक पुनः चक्रीत (recycled) हो जाते हैं। चूँकि उत्प्रेरक की उपस्थिति में रासायनिक अभिक्रियाएँ कम ताप एवं दाब पर सम्पन्न हो जाती हैं जिनसे ऊर्जा की कम खपत होती है तथा आर्थिक लाभ की स्थिति प्राप्त होती है। उत्प्रेरित अभिक्रियाओं में सुजुकी अभिक्रिया, सोनोगसीरा अभिक्रिया, (समाइल अभिक्रिया आदि अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो सामान्य दशाओं (ambient conditions) में, नुकसानरहित विलायकों में आसानी से सम्पन्न हो जाते हैं, साथ ही उत्प्रेरक पुनः प्राप्त हो जाता है। आधुनिक कार्बनिक रसायनशास्त्र के विकास में उक्त अभिक्रियाएँ अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

2. कार्बनिक विलायकों के स्थान पर अन्य विलायक


कार्बनिक रासायनिक निर्माण में प्रायः क्लोरीनयुक्त विलायकों का प्रयोग होता है जैसे क्लोरोफार्म, कार्बन टेट्राक्लोराइड, डाइक्लोरोमीथेन, एथिलीन क्लोराइड आदि। परंतु ये विलायक विषाक्त हैं तथा कोशिकाओं एवं ऊतकों को नुकसान पहुँचाते हैं। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रकृति हमेशा विलायक के रूप में जल को स्वीकार करती है। अतः जल एक सर्वमान्य विलायक है। इसी प्रकार सुपरक्रिटिकल द्रवों जैसे scCO2 का भी प्रयोग बहुतायत से हो रहा है। जल एवं अन्य सुपरक्रिटिकल द्रव अभिक्रिया के दौरान एवं इसके उपरान्त वाष्पन पर नुकसान रहित गैसों का निर्माण करते हैं। विलायक के रूप में आयनिक द्रवों का भी प्रयोग किया जा सकता है।

3. नवीकरणीय संसाधनों का उपयोग


लगभग 95 प्रतिशत यौगिकों का निर्माण कोयले एवं पेट्रोलियम उत्पादों से होता है। जैसा हम जानते हैं कि कोयला एवं पेट्रोलियम अनवीकरणीय संसाधन हैं तथा निकट भविष्य में ये बहुत सुलभ नहीं रहेंगे। साथ ही कार्बनिक होने के कारण ये स्वयं में ऑक्सीकृत होकर CO2 में परिवर्तित हो जाते हैं जो एक प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है तथा ग्लोबल वार्मिंग के लिये जिम्मेवार है। अतः एक बेहतर विकल्प एवं नवीकरणीय संसाधन की खोज बहुत आवश्यक है।

बायोमास (Biomass) जो कार्बोहाइड्रेट का एक प्रचुर स्रोत है तथा नवीकरणीय संसाधन होने के कारण एक बेहतर विकल्प हो सकता है। बायोमास में उपस्थित D-ग्लूकोज, एन्जाइम की मदद से लैक्टिक अम्ल में आसानी से परिवर्तित हो सकता है, जो एलिफैटिक यौगिकों के निर्माण के लिये एक उपयुक्त प्लेटफार्म का कार्य करेगा। इसी प्रकार, D-ग्लूकोज का E coli नामक जीवाणु द्वारा परिवर्तन करने से कैटेकॉल प्राप्त होता है जो ऐरोमैटिक यौगिकों के लिये उपयुक्त प्लेटफार्म का कार्य करता है।

हरित रसायन के मूल स्तंभ गन्ना भी एक उत्कृष्ट नवीकरणीय संसाधन है। इससे एथेनॉल बनाया जाता है जो अनेक कार्बनिक पदार्थों के लिये शुरुआती पदार्थ है। इसी प्रकार गन्ने के अपशिष्ट पदार्थ- खोई या बेगास (Bagasse) से ग्लिसरॉल, ब्यूटेनॉल, साइट्रिक अम्ल, ऐकोनिटिक अम्ल आदि प्राप्त होता है। चूँकि कार्बोहाइड्रेट (बायोमास से प्राप्त होने वाले यौगिक जल में घुलनशील होते हैं अतः उपर्युक्त परिवर्तन जलीय माध्यम में ही सम्पादित होंगे। इसलिये कोयले एवं पेट्रोलियम से होने वाले परिवर्तन विधियों को अब इस नए परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित करना होगा।

4. परमाणु मितव्ययता


हरित रसायन में इस बात का प्रयास किया जाता है कि किसी रासायनिक अभिक्रिया में अपशिष्ट पदार्थ न बनें या न्यूनतम बनें। दूसरे शब्दों में, सभी अभिकर्मक पूरी तरह से एक ही उत्पाद में परिवर्तित हो जाएँ। इससे इन अपशिष्ट पदार्थों के निस्तारण की समस्या से भी बचा जा सकेगा।

हरित रसायन में परमाणु मितव्ययता इसीलिये योगात्मक अभिक्रियाओं, आण्विक पुनर्विन्यास अभिक्रियाओं एवं पेरीसाइक्लिक अभिक्रियाओं पर अधिक जोर देता है जिसमें एक ही उत्पाद बनता है। इन अभिक्रियाओं में परमाणु मितव्ययता 100 प्रतिशत होता है। इसके विपरीत प्रतिस्थापन अभिक्रियाओं एवं विलोपन अभिक्रियाओं में यह प्रतिशत काफी कम होता है। उदाहरण के लिये-

परमाणु मितव्ययता

5. उत्पादों का प्राकृतिक अपघटन


पिछले कई दशकों में रसायनविदों ने अनेक नए एवं वांछित गुणों वाले अणुओं का निर्माण किया, परंतु उन्होंने इसका ध्यान नहीं रखा कि वे प्राकृतिक रूप से अपघटित हो सकें तथा पुनः चक्रीत हो सकें। लेकिन सभी प्राकृतिक उत्पाद समय से नष्ट हो जाते हैं तथा वातावरण में पुनः चक्रीत हो जाते हैं। क्लोरोफ्लोरो कार्बन सामान्य परिस्थितियों में अत्यंत स्थायी अणु होने के कारण ओजोन छिद्र के लिये जिम्मेवार माने जाते हैं। इसी प्रकार पॉलीक्लोरो कार्बनिक कीटनाशी जैसे DDT, एल्ड्रिन आदि अणुओं के स्थायी प्रकृति के कारण इसने पूरे भोजन संजाल (food web) को प्रभावित किया। इसी वजह से इन कीटनाशकों को जीनोबायोटिक (Xenobiotic) कहते हैं। प्रसिद्ध खरपतवारनाशी 2,4-D एवं 2,4,5-T जो फीनॉक्सीऐसीटिक अम्ल के व्युत्पन्न हैं, आसानी से अपघटित हो जाते हैं परंतु इनके अपघटित उत्पाद- dioxin- कैंसर उत्पन्न करने वाला पदार्थ है। परिणामतः इन सभी को प्रतिबन्धित करना पड़ा। परन्तु ये तब तक वातावरण को काफी नुकसान पहुँचा चुके थे।

मानव जीवन की जीवन-रेखा बन चुके प्लास्टिक, प्राकृतिक रूप से अपघटित न होने के कारण, आज प्रदूषण के सबसे बड़े कारक हैं। इसके विपरीत, साबुन एवं अपमार्जक प्रकृति में आसानी से अपघटित हो जाते हैं। परंतु जिन सूक्ष्म जीवों के द्वारा जलीय तंत्र में इनका अपघटन होता है, वे उस तंत्र के घुलित ऑक्सीजन (dissolved oxygen) की मात्रा अत्यंत घटा देते हैं। अतः प्राकृतिक रूप से अपघटित होने के बावजूद साबुन एवं अपमार्जक एक गम्भीर जल प्रदूषक हैं।

जब भी कोई नया उत्पाद निर्मित किया जाता है तो इस बात की आशंका सदैव रहती है कि उसमें विषाक्तता हो। लेकिन यदि हमें इस विषाक्तता का कारण पता चल जाए तो आण्विक संरचना में उचित परिवर्तन करके विषाक्तता को समाप्त या कम किया जा सकता है। उदाहरण के लिये, DDT की संरचना में परिवर्तन करके मिथाक्सीक्लोर नामक कीटनाशी तैयार किया गया जो DDT के समान कीटनाशी क्षमता रखता है परंतु जो वातावरण एवं मानव के लिये विषाक्त भी नहीं है तथा आसानी से अपघटित हो जाता है।

परमाणु मितव्ययता

6. ऊर्जा दक्ष प्रक्रियाएँ


धातुकर्म एवं अन्य रासायनिक उद्योगों में ऊर्जा की अत्यधिक खपत होती है। सम्पूर्ण ऊर्जा का 1/7 भाग इन उद्देश्यों पर खर्चा होता है। हरित रसायन में ऐसी रासायनिक विधियों पर बल दिया जाता है जिसमें ऊर्जा की खपत न्यूनतम हो। इसके लिये सक्षम एवं जैव उत्प्रेरक जो पुनर्प्राप्त हो सके तथा ताप एवं दाब की सामान्य परिस्थितियों पर सम्पन्न हो सके, का प्रयोग किया जाए। आसवन, क्रिस्टलीकरण, वाष्प आसवन, उर्द्ध्वपातन आदि से बचना चाहिए। साथ ही सूक्ष्म तरंगों एवं पराध्वनि तरंगों की मदद भी रासायनिक संश्लेषण में ली जानी चाहिए।

हरित रसायन का भविष्य


आज यह समय की माँग है कि रासायनिक पदार्थों के उपयोग एवं निर्माण में हरित रसायन के मूल सिद्धांतों का प्रयोग किया जाए। यदि हम इनका उपयोग बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से करेंगे तो हम पर्यावरण, अर्थ एवं समाज का भला कर सकेंगे।

अन्त में…
वास्तव में हरित रसायन एक वैज्ञानिक सोच, कार्यशैली एवं रासायनिक दर्शन है। अपने पर्यावरण, अर्थ एवं समाज की संरक्षा ही इसका मूल उद्देश्य है। सम्भव है कि कुछ लोगों को यह एक छोटा कदम प्रतीत हो परंतु व्यक्ति, समाज एवं मानवता के लिये यह किसी महान प्रयास से कम नहीं...

एसोशिएट प्रोफेसर, रसायन विभाग, डी.ए.वी. कॉलेज, कानपुर- 208001, ई-मेल : asri1406@gmail.com

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading