हुजूर! यह विकास का मतलब क्या होता है?

15 Jul 2011
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पिछले 60 वर्षों में भारत में औद्योगीकरण की वजह से कोई छह करोड़ लोग पहले से ही विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से कोई 20 लाख वंचित लोग उड़ीसा में रहते हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत लोग आदिवासी या दलित हैं।

पिछले दिनों ब्लॉग हाशिया पर नृतत्वशास्त्री फेलिक्स पैडेल और समरेंद्र दास की शोधपरक रिपोर्ट पढऩे को मिली। यह रिपोर्ट तथाकथित विकास की अवधारण पर पुनर्विचार की मांग करती है। इस रिपोर्ट को ज्यों का त्यों हाशिया से साभार प्रस्तुत कर रहे हैं-
भारत समेत तीसरी दुनिया के अर्धउपनिवेशों के लिए विकास का क्या मतलब है? सिर्फ यह कि वे अपने संसाधनों और सस्ते श्रम को विकसित साम्राज्यवादी देशों के बहुराष्ट्रीय निगमों के मुनाफे और अपार लालच के लिए उन्हें सौंप दें? और इन कथित विकासशील देशों में लोकतंत्र का क्या मतलब है? यह कि अपने संसाधनों की लूट का विरोध कर रही अपनी जनता को संसद में बनाए कानूनों के जरिए बंदूक और सेना के बल पर चुप रखना या कुचल देना। पश्चिम बंगाल से लेकर उड़ीसा, झारखंड और बस्तर तक यही चल रहा है। पूरे भारत में और पूरी दुनिया में विकास और लोकतंत्र के नाम पर जो हो रहा है, उसके निहितार्थ क्या हैं? इससे किनको फायदा हो रहा है? जाने-माने नृतत्वशास्त्री फेलिक्स पैडेल और समरेंद्र दास की यह शोधपरक रिपोर्ट हमें इसका ब्योरा देती है। इसे हम पानोस दक्षिण एशिया की पुस्तक बुलडोजर और महुआ के फूल से साभार पेश कर रहे हैं। एक विनम्र सूचना यह भी कि पुस्तक में प्रकाशित मूल अनुवाद की कुछ गलतियों को हमने सुधारने की कोशिश की है।

 

 

फेलिक्स पैडेल और समरेंद्र दास


उड़ीसा में अल्युमिनियम की तलाश का नतीजा सांस्कृतिक जनसंहार के रूप में सामने आया है। विस्थापन ने जहां एक ओर आदिवासी समाज की संरचना की रीढ़ तोड़ दी है, वहीं कारखानों से फैलते प्रदूषण ने इलाके से खेती की संभावना समाप्त करके यहां के बाशिंदों से उनकी जीविका का सबसे अहम श्रोत छीन लिया है। चूंकि अल्युमिनियम उत्पादन को आगे बढ़ाने में हथियारों के उद्योग का वरदहस्त है, इसलिए स्थानीय लोगों की ओर कोई ध्यान भी नहीं देता और यह कहीं ज्यादा आपराधिक है।

औद्योगीकरण की एक नई आंधी, जिसे विकास, उन्नति और गरीबी निवारण की आड़ में थोपने की कोशिश हो रही है, से उड़ीसा और उसके पड़ोसी राज्यों के सैकड़ों गांवों के विस्थापन का खतरा पैदा हो गया है। खनन, धातु शोधन, बांध और ऊर्जा संयंत्र के लिए आदर्श जगहों के रूप में चिह्नित ये सारे इलाके आदिवासियों के रिहायशी स्थल हैं, जिनके नुकसान को विकास की अंधी दौड़ में एक ऐसी चीज के रूप में देखा जा रहा है जिससे बचा नहीं जा सकता।

पिछले 60 वर्षों में भारत में औद्योगीकरण की वजह से कोई छह करोड़ लोग पहले से ही विस्थापित हो चुके हैं। इनमें से कोई 20 लाख वंचित लोग उड़ीसा में रहते हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत लोग आदिवासी या दलित हैं। इनमें से कुछ ही लोगों को समुचित मुआवजा मिला और अधिकांश लोगों के जीवन स्तर में किसी तरह का कोई सुधार नहीं हुआ, हालांकि बड़ी बेशर्मी से कहा यही जाता है कि विकास की शुरुआत विस्थापन से होती है। विस्थापितों के अनुसार सच यह है कि परियोजनाओं के उल्टे नतीजे निकले हैं। गरीबी की जिन हदों तक ये लोग पहुंच गए हैं, वे उतनी ही तकलीफदेह हैं जितनी उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं और परम्पराओं के टूटने की कसक। यह कसक निश्चित रूप से उस जमीन के साथ रिश्ता बिगडऩे से पैदा होती है जिसे कभी उन्होंने खुद या उनके पुरखों ने जोता था।

इस प्रक्रिया को किस प्रकार समझा जा सकता है? हममें से हर किसी को एक न एक क्षेत्र में विशिष्टता हासिल है मगर जो कुछ घटित हो रहा है, उसे समझने के लिए हमें बहुआयामी माध्यम अपनाना पड़ेगा। मानव ज्ञान के अनुसार किसी भी चीज की समझदारी विकसित करने के लिए हमें सम्बद्ध व्यक्तियों के अभिमत को उन्हीं के शब्दों में सुन कर समझने का प्रयास करना होगा। मगर हममें से कम ही लोग ऐसे हैं जो यह सुनना चाहते हैं कि आदिवासी लोग कह क्या रहे हैं। हम लोग जानते हैं कि हजारों आदिवासियों को पूरे भारत में सभा-सम्मेलनों में ले जाने के लिए घुमाया जाता है, मगर रोड शो में उन्हें दर-किनार कर दिया जाता है। शायद ही उनसे कभी कहा जाता हो कि वे अपनी बात सबके सामने रखें, पूरी मीटिंग में वे अपने चेहरे पर एक गौरवशाली चुप्पी लेकर बैठे रहते हैं और फिर अपने गांव वापस चले जाते हैं। उन्हें उन लोगों की नासमझी सालती है जो यह दावा करते हैं कि वे उनकी मदद करेंगे।

 

 

 

 

सांस्कृतिक जनसंहार

 

 

 

खेती की परम्परा और उसके साथ जुड़ी हुई आर्थिक व्यवस्था तब बिखर जाती है, जब लोग जमीन से कट जाते हैं और फिर कभी किसानों की तरह काम नहीं कर सकते।

भारत की मौजूदा औद्योगीकरण की प्रक्रिया उसकी विकास दर को तो बढ़ा सकती है, मगर इसका आदिवासियों पर प्रभाव किसी सांस्कृतिक जनसंहार से कम नहीं है। आदिवासी संस्कृति उनकी सामाजिक संस्थाओं द्वारा कायम संबंधों के आधार पर जीवंत बनी रहती है और विस्थापन इसी पारस्परिक बंधन के चिथड़े उड़ा देता है।

खेती की परम्परा और उसके साथ जुड़ी हुई आर्थिक व्यवस्था तब बिखर जाती है, जब लोग जमीन से कट जाते हैं और फिर कभी किसानों की तरह काम नहीं कर सकते। नाते-रिश्तों में दरार पड़ जाती है क्योंकि पारम्परिक रूप से सामाजिक रिश्ते गांवों की संरचना और दूसरे गांवों में रह रहे अपने आत्मीय स्वजनों से पारस्परिक दूरी पर निर्भर करते हैं। इलाके में किसी भी खनन कंपनी का प्रवेश निर्विवाद रूप से लोगों को उसके पक्ष या विपक्ष में बांट देता है। किसी भी इलाके में अगर किसी परियोजना की वजह से विस्थापन होता है तो वहां ऐसे लोगों के बीच जो मुआवजे की रकम स्वीकार कर लेते हैं और अपना घर-बार छोड़ कर ले जाते हैं और वे लोग जो इस योजना का विरोध करते हैं, हमेशा एक तनाव बना रहता है।

धार्मिक व्यवस्था दरक जाती है क्योंकि गांव के पवित्र पूजा स्थल हटा दिए जाते हैं और वे पहाड़ जिन्हें लोग सम्मान से देखते थे, उनकी खुदाई हो जाती है। लांजीगढ़ रिफाइनरी के निर्माण का रास्ता आसान करने के लिए किनारी गांव के बाशिंदों को वेदांतानगर ले जाया गया। उनमें से एक महिला ने गांव में बुलडोजर चलते देखा, जिसने गांव के सामूहिक पृथ्वी मंदिर को सपाट कर दिया। उसने इस जबरन विस्थापन की घटना के कुछ दिन बाद हम लोगों को बताया, ’हमारे देवता तक नष्ट हो गए।’ उसके लिए इसके पास जमीन न होने का मतलब था कि वह अब अपने लिए कभी भी अन्न का उत्पादन नहीं कर पाएंगी। पारम्परिक जीवन शैली की सारी मान्यताएं जिनसे लोग ऊर्जा पाते थे, वे सब ध्वस्त हो गईं।

स्थानीय तौर पर उपलब्ध सामग्रियों की संस्कृति, जिसके पास जो है उसका सबसे बेहतर इस्तेमाल कर लेना, वह भी उसी समय ध्वंस हो गई जब स्थानीय मिट्टी और लकड़ी के बने घरों को गिरा कर उनकी जगह कंक्रीट के घर बना दिए गए। लेकिन सबसे बड़ी बात हुई समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन। कल तक जहां लोग अपने क्षेत्र और अपने संसाधनों के मालिक थे, वहीं आज अपने आप को शक्ति और क्षमता के एक जबरदस्त सीढ़ीनुमा प्रशासन तंत्र की सबसे निचली पायदान पर फेंका हुआ पाते हैं।

इस पूरे काले कारनामे में भ्रष्टाचार की अपनी भूमिका है जिसकी वजह से पूरा का पूरा गांव परियोजनाओं के हवाले हो जाता है और भले ही यह सब टेबुल के नीचे होता हो, मगर इसका समाज पर एक बहुत ही नकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ता है। इससे लोगों का ध्रुवीकरण होता है, सम्पत्तिशाली वर्ग की सम्पत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती है और उनके ‘भोग-विलास’ के क्रम में पहले से कहीं ज्यादा बदतरी और बेशर्मी देखने को मिलती है।

फरवरी 21, 2007 के उडिय़ा समाचार पत्र ‘सम्बाद’ के मुख पृष्ठ पर तालचर के निकट की एक कोयला खदान के एक नए स्कैंडल की खबर छपी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि टंगरापड़ा, नियमगिरी और खंडधरा खनन लीजों के मामले के न सुलझने के बावजूद एक अकेली खदान की लीज हासिल करने के लिए 200 करोड़ रुपयों (लगभग 45 मिलियन डॉलर) की घूस दी गई है। टंगरापड़ा खदान जाजपुर जिले में क्रोमाइट डिपॉजिट की खान है जिसकी लीज जिंदल स्ट्रिप्स को दी गई थी। लेकिन उड़ीसा उच्च न्यायालय ने इस अनुबंध की यह आलोचना की थी कि अगर योजना के अनुसार खदान का काम आगे बढ़ाया गया तो राज्य को 450 करोड़ डॉलर का नुकसान होगा। नियमगिरी उड़ीसा का सबसे अधिक विवादास्पद बॉक्साइट भंडार है जिसका विस्तार कालाहाण्डी और रायगड़ा जिलों तक फैला हुआ है, जबकि खंडधरा क्योंझर जिले का एक जंगल है जिसके पहाड़ों में प्रचुर मात्रा में लौह अयस्क उपलब्ध है।

 

 

 

यह सम्पत्ति किसकी है?


उड़ीसा के समृद्ध संसाधनों से बहुत से विवादों का जन्म होता है, इसमें ‘विकास’ के हामी काफी बड़े हिस्से पर हाथ साफ कर देते हैं, जबकि इस इलाके में लंबे समय से रहने वाले आदिवासी वंचित रह जाते हैं। उदाहरण के लिए भारत की सबसे बड़ी बॉक्साइट खदान पंचपाट माली में है, जो नाल्को के अधीन है। यहां देश की सात चालू रिफाइनरियों में से दो मौजूद हैं, पहली नाल्को की दामनजुड़ी में और दूसरी हाल में पूरी की गई वेदांत की लांजीगढ़ में। इसके साथ देश के छह स्मेल्टरों में से दो स्मेल्टर, एक नाल्को का अनगुल में और दूसरा इडल का हीराकुंड में, यहीं चालू हैं। बहुत सी नई परियोजनाएं भी आने वाली हैं जैसे उत्कल की एक रिफाइनरी का काम काशीपुर में चल रहा है। कुछ दूसरे स्मेल्टर्स की भी योजना है जिसमें से वेदांत का एक कारखाना झारसुगुड़ा जिले में निर्माणाधीन है और दूसरा संबलपुर जिले में हिंडाल्को के अधीन योजना के अंतिम दौर में है।

यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि अंग्रेज भूगर्भ वैज्ञानिकों ने मूलत: इस पूरी योजना की रूपरेखा 1920 के दशक में तैयार की थी जिसमें फैक्ट्रियों की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए बांधों का निर्माण, रेलों का नेटवर्क और बंदरगाहों की व्यवस्था थी। उनके अनुसार उड़ीसा के पहाड़ों में पाया जाने वाला बॉक्साइट ‘इतना अच्छा है कि अगर यह अधिक मात्रा में मौजूद हो तो यह इलाका (रायपुर-वैजाग) रेलवे लाइन के निर्माण के बाद बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा… इसकी महत्ता इसलिए और भी बढ़ जाती है क्योंकि यहीं दक्षिण-पश्चिम दिशा में मद्रास क्षेत्र (जयपुर रियासत) में जल-विद्युत पैदा करने की बहुत सी जगहें हैं और विशाखापत्तनम के पास में एक बंदरगाह का निर्माण किया जानेवाला है।’ इसके अलावा टीएल वाकर नाम का एक भूगर्भशास्त्री था जिसने उड़ीसा के बॉक्साइट से ढके पहाड़ों के इन खनिजों को यहां की कंध जनजाति के नाम के आधार पर खोंडालाइट नाम दिया था। यह आदिवासी इन पहाड़ों के चारों ओर निवास करते हैं और इन पहाड़ों को बहुत पवित्र स्थान मानते हैं।

उड़ीसा की बहुचर्चित खनिज सम्पदा को अर्थशास्त्री एक अनछुआ संसाधन मानते हैं लेकिन यहां के आदिवासी इन खनिज-समृद्ध पहाड़ों को अपनी जमीन की उर्वरता का स्रोत मानते हैं। अगर पेड़ काट दिए जाएं और पहाड़ों का खनन कर लिया जाए तो उड़ीसा का एक बहुत बड़ा क्षेत्र सूख जाएगा और तेजी से उसकी उर्वरता नष्ट हो जाएगी- यह चीज पंचपाट माली और दामनजुड़ी वाले इलाके में तो अभी से साफ दिखाई पड़ रही है।

काशीपुर आंदोलन के एक कंध नेता भगवान मांझी उत्कल अल्युमिना परियोजना के बारे में इसी तरह की बात बताते हैं। आंदोलन की वजह से बारह वर्षों तक परियोजना का काम रुका रहा, लेकिन उत्कल ने 2006 में फिर इस रिफाइनरी पर काम शुरू किया। भगवान मांझी के गांव कुचेईपदर के आसपास की कई वर्ग किलोमीटर जमीन अब नंगी हो गई है। पहाड़ों को नोच कर मशीनें उन्हें सपाट करने पर लगी हैं। रिफाइनरी साइट के पास के दो गांवों रामीबेड़ा और केंदूखुंटी का अब कोई वजूद नहीं बचा है। इन गांवों के बाशिंदों को कार्यस्थल के पास की एक कॉलोनी में रख दिया गया है और उनकी हैसियत बंधुआ मजदूरों के एक समूह से अधिक कुछ नहीं है।

रामीबेड़ा के सबसे मातबर नेता और सबसे बड़े भूमिधर मंगता मांझी की मौत 1998 में पुलिस उत्पीडऩ के कारण हो गई। बताते हैं कि पुलिस वाले उत्कल कंपनी की गाड़ी में रात में आए और अपनी मिर्च की फसल की रखवाली कर रहे मांझी को मचान से उतार कर बंदूक के कुंदों से मारा और केंदूखुंटी के दो अन्य दलितों के साथ बांध कर ले गए। उन्हें कई हफ्तों तक पुलिस हिरासत में रखा। जब उनको रिहा किया गया, तब पुलिस की मार-पीट से उनका चेहरा विकृत हो चुका था और कुछ दिनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।अभी उत्कल की योजना है कि स्थानीय पहाड़ बापला माली से 19.5 करोड़ टन बॉक्साइट का खनन किया जाए। इन पहाड़ों को आसपास के बड़े क्षेत्रों में फैली तीन जनजातियों के लोग बड़ा पवित्र मानते हैं। इस बीच उत्कल का मानना है कि आने वाले 30 वर्षों के भीतर यह स्रोत समाप्त हो जाएगा। इस तरह से उनके काम की वजह से यह गैर-नवीकरणीय संसाधन हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा। सिर्फ इतना ही नहीं होगा, बल्कि बापला माली की बहुत सी सदानीरा जल-धाराओं पर भी उसका बुरा असर पड़ेगा।

पुलिस के लगातार हमलों के खिलाफ कुचेईपदर गांव के निवासियों ने कुछ वर्षों के लिए गांव में पुलिस के घुसने पर पाबंदी लगा दी थी। ऐसी ही झड़पों में एक बार भगवान मांझी ने एक वरिष्ठ अधिकारी से बात की। वह बताते थे, ‘मैंने एसपी से पूछा कि ”हुजूर! यह विकास का मतलब क्या होता है? क्या आप लोगों को उजाड़ देने को ही विकास मानते हैं? जिन लोगों के लिए विकास किया जाता है, उसका फायदा उन्हें मिलना चाहिए। इसके बाद यह फायदा आने वाली पीढिय़ों को मिलना चाहिए। इस तरह से विकास होना चाहिए। यह सिर्फ कुछ अधिकारियों के लोभ को शांत करने के लिए नहीं होना चाहिए। लाखों साल पुराने इन पहाड़ों को नष्ट करना विकास नहीं हो सकता। अगर सरकार ने यह फैसला कर लिया है कि उसे अल्युमिना चाहिए और इसके लिए उसे बॉक्साइट की जरूरत है तो फिर उसे हमें पुनर्स्थापना के लिए जमीन देनी चाहिए। आदिवासी होने के नाते हम लोग किसान हैं। हम जमीन के बिना नहीं रह सकते।’’

 

 

 

 

अल्युमिनियम के अत्यधिक उत्पादन की वजह से अमूमन सांस्कृतिक जनसंहार का जन्म होता है। यह क्षेत्र ‘संसाधनों से अभिशप्त है’ और ऐसे क्षेत्र हर प्रकार की आर्थिक चालबाजी और हर संभव तरीके से शोषण के शिकार बनते हैं।

अब यह तो साफ है कि अल्युमिनियम हासिल करने की ललक में दो तरह से सांस्कृतिक जनसंहार की मार पड़ती है। एक तो विस्थापन आदिवासियों के सामाजिक ढांचे को सीधे तौर पर बर्बाद कर देता है और दूसरे कारखाने ख़ुद पर्यावरण को इस कदर तबाह करेंगे कि जल्दी ही पश्चिमी उड़ीसा का एक बड़ा क्षेत्र सूख कर खेती लायक नहीं बचेगा। बॉक्साइट के खनन से पहाड़ों की जल-धारण क्षमता समाप्त हो जाती है जिसके फलस्वरूप पानी के स्रोत सूख जाते हैं। वैसे भी कारखानों में पानी की बहुत ज्यादा खपत होती है और उनसे पर्यावरण का भी प्रदूषण फैलता है। जंगलों की सफाई और कारखानों से निकलने वाला धुआं दोनों मिल कर बारिश की मात्रा को बेतरह घटा देते हैं। इस बात को न केवल आदिवासी अच्छी तरह जानते हैं, बल्कि वैज्ञानिक भी मानते हैं।

अल्युमिनियम के अत्यधिक उत्पादन की वजह से अमूमन सांस्कृतिक जनसंहार का जन्म होता है। यह क्षेत्र ‘संसाधनों से अभिशप्त है’ और ऐसे क्षेत्र हर प्रकार की आर्थिक चालबाजी और हर संभव तरीके से शोषण के शिकार बनते हैं। अल्युमिनियम उद्योग ने शुरू से ही बहुत से देशों की आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता की जड़ें खोद डाली हैं। अब ‘संसाधन अभिशाप’ की परतें उड़ीसा में खुलने लगी हैं जहां मूल्यों का पतन हुआ है और रिश्वतखोरी जगजाहिर हो रही है। सांस्कृतिक जनसंहार का जन्म अल्युमिनियम और हथियारों के उद्योगों के आपसी रिश्तों से भी होता है। इसके युद्ध से संबंध की कोई सीधी जानकारी नहीं मिलती, मगर अल्युमिनियम की गिनती उन चार प्रमुख धातुओं में होती है जिन्हें ‘सामरिक महत्व’ का माना जाता है क्योंकि हथियारों के निर्माण में इनका महत्वपूर्ण उपयोग होता है। यही वजह है कि न्यूक्लियर वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने, जो इस लेख लिखे जाने के समय भारत के राष्ट्रपति थे, अपनी पुस्तक ‘इण्डिया 2020’ में अल्युमिनियम की महत्ता समझाने और भारत के 2020 तक विकसित देशों की कतार में खड़ा होने की अपनी कल्पना में इसकी भूमिका पर कई पन्ने लिखे हैं। इन दोनों ही बिंदुओं पर इस लेख में आगे विस्तार से चर्चा है।

 

 

 

 

प्रतिरोध और पुनर्वास


अब यह कहा जा सकता है कि 2 जनवरी, 2006 वह तारीख है जिस दिन विस्थापन के विरुद्ध आदिवासी प्रतिरोध मजबूत हुआ। यही वह दिन था जब कलिंगनगर हत्याकाण्ड में पुलिस के हाथों 12 आदिवासी मारे गए थे जब वे अपनी जमीन पर टाटा स्टील के कारखाने के निर्माण का विरोध कर रहे थे। विस्थापन विरोधी मंच ने तभी से कलिंगनगर में विशाल नाकेबंदी कर रखी है।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में टाटा स्टील के एक दूसरे कारखाने के निर्माण को भी इसी तरह के आदिवासी प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि आदिवासियों का कहना है कि उनकी ‘रजामंदी’ पूर्णत: स्वेच्छा से नहीं दी गई थी। उनका प्रतिरोध एक प्रायोजित गृह-युद्ध की पृष्ठ-भूमि में शुरू हुआ, जब मध्य मार्च 2005 में सरकार समर्थित सलवा जुड़ुम (शांतिमार्च) कार्यक्रम हाथ में लिया गया। इस युद्ध का लक्ष्य केवल माओवादियों को ही समाप्त करना नहीं था, वरन औद्योगीकरण की उन योजनाओं को भी पूरा करना था जिनका आदिवासी समाज लंबे अरसे से विरोध कर रहा था। इसकी वजह से दंतेवाड़ा जिले में 80,000 आदिवासियों का विस्थापन हुआ जिसमें भय और आतंक का माहौल बना कर मानवीय अधिकारों का ऐसा जघन्य हनन हुआ जो किसी भी कल्पना से परे है। पश्चिम बंगाल में जहां भूमि अधिग्रहण के बाद भयंकर रक्तपात हुआ तब उच्च न्यायालय ने गैर-कानूनी ढंग से टाटा द्वारा सिंगूर में तथाकथित भूमि अधिग्रहण के खिलाफ बहुत कड़ा फैसला सुनाया था।

भारत में अब राष्ट्रीय स्तर पर एक उदार नई पुनर्वास और पुनर्स्थापन नीति की बात चल रही है, लेकिन इस उदार पुनर्वास और पुनर्स्थापन नीति में कहा क्या गया है? इस नीति का लब्बोलुआब यह है कि जिन थोड़े बहुत लोगों के पास जमीन का पट्टा है, उन्हें नगद पैसा दिया जाएगा, साथ में दिया जाएगा कारखाने के पास कॉलोनी में कंक्रीट का एक नया घर और रोजगार का वायदा जो पिछले समय में शायद ही कभी पूरा किया गया। इस तरह के पुनर्वास पैकेजों में शायद ही कभी विस्थापित लोगों को छीनी गई जमीन के बदले जमीन दी गई हो। यद्यपि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ यह मानते हैं कि यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा है। विश्व बांध आयोग ने इस तरह की व्यवस्था के प्रावधान की सिफारिश की थी, लेकिन इस प्रस्ताव को केंद्र और राज्य-सरकार दोनों ने ही खारिज कर दिया। इसी तरह से एक्स्ट्रैक्टिव इंडस्ट्री रिव्यू ने, जो विश्व बैंक द्वारा गठित एक स्वतंत्र पुनरीक्षण था, सिफारिश की थी कि विश्व बैंक विकासशील देशों में कोयला और खनन परियोजनाओं के लिए पैसा देना बंद कर दे और उसके स्थान पर ऊर्जा के पुनर्नवीनीकरण वाले संसाधनों पर अपना ध्यान केंद्रित करे। इस सलाह को भी दरकिनार कर दिया गया।

भगवान (मांझी) ने जमीन के मुद्दे के इर्द-गिर्द चल रहे बहुत से अनुत्तरित सवालों को सामने रखा। उनका कहना था, ”विकास के नाम पर जिन लोगों का विस्थापन हुआ है उनके बारे में हमने सरकार से सफाई मांगी है। कितने लोगों का आपने सही तरीके से पुनर्वास किया? आपने उनको रोजगार नहीं दिया, आपने पहले से विस्थापितों का तो पुनर्वास किया नहीं फिर आप और अधिक लोगों को कैसे विस्थापित कर सकते हैं? आप उनको लेकर कहां जाएंगे और उनको क्या काम देंगे? यह आप पहले हमें बताइये। सरकार हमारे सवालों का जवाब नहीं देती है। हमारा बुनियादी सवाल है कि अगर हमारी जमीन ले ली जाती है तो हम जिंदा कैसे रहेंगे? हम लोग आदिवासी किसान हैं। हम लोग मिट्टी के कीड़े हैं, उन्हीं मछलियों की तरह जिन्हें अगर पानी से निकाल दिया जाए तो वे मर जाएंगी। एक किसान से उसकी जमीन ले लीजिए, वह जिंदा नहीं बचेगा। इसलिए, हम अपनी जमीन छोड़ेंगे नहीं।’’

पुनर्वास और पुनर्स्थापन विशेषज्ञों तथा विश्व बैंक की पुनर्वास नीति की खास सिफारिश है कि विस्थापित लोगों की जीवन शैली में सुधार आना चाहिए। इसके बावजूद ऐसा कभी होता नहीं है। कंपनियां निगमों के सामाजिक उत्तरदायित्व जैसी बड़ी-बड़ी बातें करके इन सच्चाइयों पर परदा डाल देती हैं और दान-धर्म के मिशनरी मॉडल का विज्ञापन करती हैं, जबकि उनकी सारी कोशिश शिक्षा, स्वास्थ्य, खेल-कूद और स्वयं सहायता समूहों तक केंद्रित रह जाती हैं। इन सारे कार्यक्रमों का मतलब है कि उन्हें आदिवासी संस्कृतियों की कोई समझ ही नहीं है।

अपनी वार्षिक आम रिपोर्ट (2006) में वेदांत रिसोर्सेज ने 60 पृष्ठ इस बात का बखान करने में लगाए हैं कि उसने अपने सामाजिक उत्तरदायित्व कार्यक्रम में कितने अच्छे-अच्छे काम किए हैं। इस (रिपोर्ट) में चमकीले कागज पर मुस्कुराते हुए उन आदिवासियों के रंगीन चित्र लगे हुए हैं जिनको इस कार्यक्रम के अधीन ‘सुसंस्कृत’ किया गया है। यह वास्तविक सच्चाई से एकदम परे है। वेदांत की लांजीगढ़ रिफाइनरी में काम के समय की दुर्घटनाओं में सैकड़ों लोग मारे गए हैं और इलाके में इस बात को सारे लोग जानते हैं कि अक्सर मजदूरों से काम करवा कर उन्हें पैसा नहीं दिया जाता और उन्हें काम पाने के लिए काफी लल्लो-चप्पो करनी पड़ती है।

 

 

 

 

उलटा असर


अल्युमिनियम उद्योग सबसे ज्यादा ऊर्जा की खपत वाले उद्योगों में से एक है। अल्युमिना की एक मीट्रिक टन मात्रा के शोधन में औसतन 250 किलोवाट पावर (केवीएच) बिजली की खपत होती है, जबकि अल्युमिनियम को गलाने में कम से कम 1300 केवीएच बिजली लग जाती है। जर्मनी के वप्परटल इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि एक टन अल्युमिनियम के उत्पादन में 1,378 टन से कम पानी नहीं लगता है (इस्पात की इसी मात्रा के उत्पादन में 44 टन पानी लगता है जो तुलना में काफी कम होने के बावजूद ज्यादा ही है।) कुल मिला कर एक टन अल्युमिनियम बनाने में रिफाइनरियों में से 4 से 8 टन तक का जहरीला ठोस लाल कचरा निकलता है, मुख्यत: स्मेल्टर्स से लगभग 13.1 टन कार्बन-डाईऑक्साइड और 85 टन पर्यावरणीय कूड़ा-करकट और निर्जीव अपशिष्ट निकलता है। सीधे शब्दों में हम कह सकते हैं कि अल्युमिनियम उत्पादन का नकारात्मक प्रभाव उसके सकारात्मक प्रभाव से 85 गुना ज्यादा है। इंग्लैंड सरकार की हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले एक टन कार्बन उत्सर्जन से होने वाली क्षति की लागत 85 डॉलर प्रति टन बैठती है जिसका मतलब होता है अल्युमिनियम के एक टन के उत्पादन पर 1000 डॉलर का नुकसान।

बॉक्साइट से अल्युमिनियम के उत्पादन तक समाज और पर्यावरण चार स्तरों पर नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। ये हैं बॉक्साइट का खनन, अल्युमिना का शोधन, अल्युमिनियम का गलाना और इन तीनों कथित कामों को करने के लिए बिजली का उत्पादन। जल-विद्युत के लिए बड़े बांधों का निर्माण या कोयले से ताप विद्युत पैदा करने के लिए ताप विद्युत घरों के निर्माण से यह जरूरतें पूरी की जाती हैं। इसी कड़ी में उड़ीसा में हजारों लोग जलाशयों के निर्माण और कोयला खदानों के कारण विस्थापित हुए हैं और यह दोनों संसाधन ऊर्जा के उत्पादन के लिए जरूरी हैं। इनकी कुर्बानी के पीछे भी अल्युमिनियम उद्योग का हाथ है।

 

 

 

 

अल्युमिनियम उद्योग के इतिहास का सावधानीपूर्वक अध्ययन किए जाने पर यह जाहिर होता है कि वास्तव में अल्युमिनियम को इसकी उत्पादन लागत से कम कीमत पर बेचा जाता है।

बांधों, रिफाइनरियों और स्मेल्टरों की अनचाही कीमतों के बारे में अपेक्षाकृत बहुत कुछ लिखित सामग्री उपलब्ध है। इसके विपरीत पहाड़ों की चोटियों से बॉक्साइट के खनन से उड़ीसा की जमीन की उर्वरता को कितना नुकसान पहुंचा है, उसके बारे में खास जानकारी उपलब्ध नहीं है। बॉक्साइट की जल-संचय क्षमता बहुत ज्यादा होती है। यह रंध्र युक्त होता है और स्पंज की तरह काम करता है। बारिश के पानी को यह पूरे वर्ष तक पकड़ कर रखता है और धीरे-धीरे छोड़ता है। पहाड़ों के खनन से उनकी जल-संग्रह क्षमता बेतरह कम हो जाती है। इस समस्या का बहुत कम अध्ययन हुआ है और वह शायद इसलिए कि अल्युमिनियम कंपनिया बॉक्साइट पर तो बहुत शोध करती हैं, मगर उन शोधों से बचने की कोशिश करती हैं जिनसे उनके कारनामों का नकारात्मक पक्ष सामने आता है। मौसम परिवर्तन के क्षेत्र में वैज्ञानिक सबूतों के साथ जो चालबाजी खेली जा रही है, उसी की तर्ज पर ये विकृतियां भी खुल कर सामने आती हैं।

अल्युमिनियम उद्योग के इतिहास का सावधानीपूर्वक अध्ययन किए जाने पर यह जाहिर होता है कि वास्तव में अल्युमिनियम को इसकी उत्पादन लागत से कम कीमत पर बेचा जाता है। रिफाइनरी और स्मेल्टर्स तभी मुनाफा कमा सकते हैं जब उन्हें बिजली, पानी, परिवहन आदि पर भारी सब्सिडी के साथ-साथ टैक्सों में भी कटौती के लाभ मिलें। भारत में अल्युमिनियम उद्योग की ऊर्जा ऑडिट (1988) में यह बात साफ-साफ कही गई है। यह ऑडिट स्वतंत्र रूप से करवाया गया था। कंपनिया खुद भी बहुत से लागत खर्च को अपने हिसाब-किताब से दरकिनार कर देती हैं जिसमें समाज द्वारा चुकाये जानी वाली कीमतें और पर्यावरणीय लागत मुख्य है। ये कीमतें मेजबान सरकारों पर थोप दी जाती हैं और आखिरकार इनको वही भुगतता है जो पूरी आबादी में सबसे कमजोर होता है।

दूसरे देश खनन और धातु उत्पादन उद्योगों को भारत में लगाने में सबसे ज्यादा रुचि ले रहे हैं। यूरोप और अमेरिका में अल्युमिनियम बंदी के कगार पर पहुंच गया है क्योंकि वहां बिजली के दाम बढ़ रहे हैं और पर्यावरण संबंधी कानूनों में भी सख्ती आ रही है। अल्कैन ने जैसे ही काशीपुर में रिफाइनरी लगाने का फैसला किया, उसने 2003 में इंग्लैण्ड की अपनी आखिरी रिफाइनरी (बर्नटिसलैंड) बंद कर दी। ऐसा लगता है कि घरेलू उत्पादन प्रक्रिया को दूसरे देशों के हवाले करके यूरोप अपना कार्बन उत्सर्जन कुछ कम कर रहा है पर यह भी वहम के अलावा कुछ नहीं है। अल्युमिनियम का जितना उपयोग अभी यूरोप में हो रहा है उससे भी काफी कार्बन का उत्सर्जन होता है। यह बात अलग है कि वह अभी यूरोप को छोड़ कर भारत को प्रदूषित कर रहा है।

 

 

 

 

संसाधनों का अभिशाप

 

 

 

नाइजीरिया में तेल कंपनिया जिस तरह का सलूक कर रही हैं, उदाहरण के लिए, वह उड़ीसा के लिए आने वाले दिनों में एक सबक हो सकता है।

संसाधनों का अभिशाप दुनिया के बहुत से ऐसे क्षेत्रों को प्रभावित कर रहा है जो प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न हैं। इन इलाकों में इस समृद्धि का दोहन करने के लिए बड़े-बड़े प्रकल्प यह कह कर लगाए जाते हैं कि इससे स्थानीय लोगों की सम्पत्ति बढ़ेगी मगर जो वास्तव में मिलता है वह है शोषण, गरीबी और हिंसा। नाइजीरिया का तेल समृद्ध डेल्टा, सिअरा लिओन, अंगोला और अफ्रीका के दूसरे अन्य देश, दक्षिण अमेरिका और भारत इस बानगी की पराकाष्ठा के कुछ उदाहरण हैं।

नाइजीरिया में तेल कंपनिया जिस तरह का सलूक कर रही हैं, उदाहरण के लिए, वह उड़ीसा के लिए आने वाले दिनों में एक सबक हो सकता है। शेल और उसी तरह की दूसरी कंपनियां लोगों की जिंदगी और पर्यावरण की कीमत पर भारी मुनाफा कमा रही हैं। किसी भी तरह के विरोध का गला घोंटने के लिए विरोध करने वाले को सुरक्षा कर्मी मार डालते हैं। इस तरह की सबसे मशहूर घटना केन सारो वीवा की मौत थी जिन्हें कत्ल के झूठे आरोप में आठ दूसरे ओगोनी लोगों के साथ 1995 में शेल के षड्यंत्र और सारी दुनिया से भत्र्सना के बीच फांसी पर चढ़ा दिया गया।

अल्युमिनियम उद्योग ने व्यावहारिक तौर पर बहुत से देशों की अर्थ-व्यवस्था को तभी से नियंत्रित कर रखा है, जबसे उन्होंने आज़ादी हासिल की। गुयाना की आजादी 1957 से लेकर 1966 तक टलती रही जिस दरम्यान अंग्रेजों ने उन्हें देश में केवल सीमित तौर पर स्वशासन की मोहलत दी थी। इन वर्षों में छेदी जगन को तीन बार सत्ता इस शर्त पर मिली कि वे बॉक्साइट की रॉयल्टी एक समुचित स्तर तक बढ़ा देंगे और अल्कैन की सहायक कंपनी का राष्टरीयकरण कर देंगे। इसके बदले में एमआई-6 और सीआईए ने देश को अस्थिर करने की कोशिश की और जब अंतत: 1970 में उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया तब उस पर विश्व बैंक की तरफ से काफी दबाव डाला गया कि वह अल्कैन की क्षतिपूर्ति करे।

जमैका में 1972 में अमरीकी राजदूत ने माइकेल मैनली को ताकीद की थी कि अगर उन्होंने बॉक्साइट की रॉयल्टी बढ़ाने या उद्योगों के राष्ट्रीयकरण को चुनावी मुद्दा बनाया तो उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिए जाने का अंजाम भुगतना पड़ सकता है। यह केवल बंदर घुड़की नहीं थी क्योंकि अगले ही साल सीआईए ने चिली में पिनोशे द्वारा किए गए तख्तापटल का समर्थन किया और यह काम अनाकोण्डा और केन्निकॉट तांबे की खदानों और पेप्सीकोला की शह पर हुआ था। फिर भी मैनली ने अपनी योजना के अनुसार ही काम किया और 1974 में उन्होंने देश की बॉक्साइट खदानों में 51 साझेदारी का राष्ट्रीयकरण कर डाला। उसी साल उन्होंने बॉक्साइट पैदा करने वाले देशों का इंटरनेशनल बॉक्साइट एसोसिएशन (आईबीए) नाम का संगठन बनाया और कुछ समय के लिए अल्युमिनियम कंपनियों के साथ बॉक्साइट के बेहतर दामों के लिए करार किया। इस मामले में कच्चे माल का दाम तैयार माल का 7.5 प्रतिशत रखा गया। इसकी तुलना अगर लंदन मेटल एक्सचेंज की अल्युमिनियम कीमतों से करें तो वह इंगट का मात्र 0.4 प्रतिशत थी और भारत का रॉयल्टी रेट भी 2004 से इतना ही है।

कैजर अल्युमिनियम द्वारा संचालित एक सहायक कंपनी वाल्को (वोल्टा अल्युमिनियम कंपनी) के एक विशाल स्मेल्टर की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए घाना में वोल्टा नदी पर दुनिया के सबसे बड़े बांधों में से एक, पर बहुत घटिया किस्म के बांध का निर्माण किया गया। इसकी वजह से कोई 80,000 लोग विस्थापित हुए, 740 गांवों को तबाह किया गया और अनुमानित तौर पर 70,000 लोग रिवर ब्लाइंडनेस और शिस्टोसोमियासिस नाम की बीमारियों के शिकार होकर हमेशा के लिए आंखों की रोशनी खो बैठे। कंपनी और घाना के पहले राष्ट्रपति एनक्रूमा के बीच हुए इकरारनामें को कपटपूर्वक कैजर के हक में कर दिया गया। इस पूरे उपक्रम में विश्व बैंक ने कंपनी के हिमायती की भूमिका अदा की थी। सीआइए ने 1957 से 1966 के बीच देश को अस्थिर करने का प्रयास किया और बांध और स्मेल्टर के चालू होने के एक महीने बाद एनक्रूमा को सत्ताच्युत कर दिया गया।

आजकल भारत में विषद चर्चा का विषय स्पेशल इकनॉमिक जोन (एसईजेड) भी कोई अजूबी चीज नहीं है। वह क्षेत्र जो संसाधन सम्पन्न हैं, उनकी औद्योगिक संस्थाओं का उपयोग बहुराष्टरीय कंपनियां अपने लाभ के लिए कर लेती हैं (इसका एक लंबा इतिहास है) जबकि इलाका गरीब बना रहता है। अल्युमिनियम उद्योग ने गुयाना, जमैका, घाना और गिनी जैसी कई जगहों में मुनाफा केवल इसलिए कमाया क्योंकि ये सब सब्सिडी वाले अंत:क्षेत्र थे। कंपनियों द्वारा इन देशों का शोषण इस बात की नजीर है कि उड़ीसा में बनने वाले अल्युमिनियम कारखानों से यहां का क्या हश्र होने वाला है। वेदांत और हिंडाल्को के प्रस्तावित स्मेल्टर्स उत्तर उड़ीसा में इन्हीं एसईजेड में स्थापित होने वाले हैं। घाना के वाल्को मास्टर करारनामे के मुकाबले 2005 के एसईजेड एक्ट में बिजली, पानी और जमीन के दामों में छप्पर फाड़ सब्सिडी देने का प्रावधान है और यह सभी प्रावधान भारत के उन कानूनों के खिलाफ हैं जिनमें श्रमिकों के अधिकार, भूमि के अधिकार और पर्यावरण की बात कही जाती है।

अल्युमिनियम उद्योग द्वारा पैदा किया हुआ ऐसा ही संसाधनों का अभिशाप आस्ट्रेलिया और ब्राजील के कुछ भागों में भी देखने को मिलता है। उत्तरी आस्ट्रेलिया मंय अल्कैन और अलकोआ परियोजनाओं में केप यॉर्क और अन्रहमलैंड में आदिम जाति के लोगों का विस्थापन हुआ, जबकि ब्राजील के टुकुरूई बांध की वजह से वहां से मूल वासियों का विस्थापन हुआ। मध्य भारत के खनन क्षेत्रों में भी यही कहानी दुहराई जाती है जिसके बारे में 25 जनवरी, 2001 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने गणतंत्रा दिवस के समय चिंता व्यक्त की थी। पांच सप्ताह पहले घटी मईकांच पुलिस हत्याकांड का हवाला देते हुए उन्होंने कहा था, ”जंगलों के बीच चल रही खनन प्रक्रिया से बहुत सी आदिवासी जन-जातियों के अस्तित्व और जीविका पर खतरा मंडरा रहा है… हमारी आने वाली पीढिय़ाँ ऐसा न कहें कि गणतंत्रीय भारत हरी-भरी पृथ्वी और निरीह आदिवासियों के मलबे पर खड़ा है जहाँ वे सदियों से रहते आए हैं।’’

युद्ध को हवा देते हुएअल्युमिनियम उत्पादन को आगे बढ़ाने में हथियारों के उद्योग का मुख्य हाथ है यद्यपि यह बात खुल कर सामने नहीं आती है। भगवान मांझी इस सबंध का खुलासा तब करते हैं जब वह पूछते हैं कि बापला माली का बॉक्साइट कहां भेजा जायेगा, ”अगर उन्हें इसकी इतनी ज्यादा जरूरत है तो उन्हें यह हमें बताना चाहिए कि यह जरूरत क्यों है। हमारे बॉक्साइट का उपयोग कितनी मिसाइलों में किया जाएगा? आप कैसा बम बनाएंगे? कितने लड़ाकू हवाई जहाज बनेंगे? आपको हमें पूरा हिसाब देना होगा।’’

अल्युमिनियम का युद्ध से संबंध उसके पहले संरक्षकों-फ्रांस के नेपोलियन तृतीय और जर्मनी के कैसर विल्हेम तक जाता है। अल्युमिनियम के विस्फोटक गुण का आविष्कार 1901 में हुआ था, जब अमोनल और थर्माइट को खोज निकाला गया था। उसके बाद इस धातु ने दुनिया के इतिहास की धारा ही बदल दी।

 

 

 

दूसरे विश्व युद्ध में अल्युमिनियम का उपयोग, मुख्य रूप से नापाम बम समेत, बमों में पलीता लगाने के लिए किया जाता था जिसकी वजह से हवाई हमलों में जर्मनी और जापान में हजारों नागरिकों को जान गंवानी पड़ी थी।

अल्युमिनियम प्लांट में बिजली की भारी खपत क्यों होती है और इस धातु का अस्त्र-शस्त्रों के उपयोग में क्या रिश्ता है? अल्युमिनियम ऑक्साइड के अणुओं में अल्युमिनियम के ऑक्सीजन के साथ बॉण्ड को तोडऩे के लिए स्मेल्टरों में बिजली की जरूरत पड़ती है। थर्माइट इस प्रक्रिया को उलट देता है। बम में आइरन ऑक्साइड को अल्युमिनियम पाउडर के साथ भर दिया जाता है। जब फ्यूज में पलीता लगता है तब अल्युमिनियम का तापक्रम बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और यह ऑक्सीजन के साथ फिर बॉण्ड करने की कोशिश करता है जिससे बहुत ज्यादा धमाकेदार विस्फोट होता है। थर्माइट का इस्तेमाल सबसे पहले मिल्स बम हैंड ग्रेनेड में पहले विश्व युद्ध में हुआ था जब ब्रिटेन ने 70,000 ऐसे ‘बम’ बनाए थे। इससे कम से कम 70,000 सिपाही मारे गए थे और इसके आविष्कारक सर विलियम मिल्स को इसके लिए नाइटहुड से नवाजा गया था। पहले विश्व युद्ध के दौरान ही अल्युमिनियम कंपनियों को यह आभास हो गया था कि उनका भविष्य हथियारों और विस्फोटकों के निर्माण के साथ जुड़ा हुआ है। अलकोआ के लगभग 90 प्रतिशत उत्पादन का इस्तेमाल हथियारों के निर्माण में लगा और अल्युमिनियम कार्पोरेशन ऑफ अमेरिका की मानक आत्मकथा में कहा गया है कि ‘अलकोआ के लिए युद्ध शुभ था।’

1930 के आस-पास हवाई जहाजों के डिजाइन में अल्युमिनियम का उपयोग होना शुरू हो गया और जैसे ही जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका ने हजारों लड़ाकू जहाजों का निर्माण करना शुरू किया, अल्युमिनियम कंपनियों ने बेतरह पैसा बनाया। अल्युमिनियम अब भी एक खाली जंबो जेट तथा दूसरे हवाई जहाजों के पूरे वजन का 80 प्रतिशत होता है जिसमें इसे प्लास्टिक के साथ भी यौगिक बना कर इस्तेमाल किया जाता है।

दूसरे विश्व युद्ध में अल्युमिनियम का उपयोग, मुख्य रूप से नापाम बम समेत, बमों में पलीता लगाने के लिए किया जाता था जिसकी वजह से हवाई हमलों में जर्मनी और जापान में हजारों नागरिकों को जान गंवानी पड़ी थी। वास्तव में युद्ध संबंधी धातुओं के निर्माण में जो भी खनिज लगते हैं, वे सब के सब उड़ीसा में पाए जाते हैं- लोहा, क्रोमाइट, मैंगनीज; इस्पात के लिए और बॉक्साइट तथा यूरेनियम, सब कुछ।हिटलर को उड़ीसा के बॉक्साइट खनिज की जानकारी थी और यह एक वजह थी जो उड़ीसा के बंदरगाहों पर जापान ने बम गिराए थे। अमेरिका में विशालकाय बांधों के निर्माण के पीछे मुख्य कारण अल्युमिनियम स्मेल्टर्स के लिए बिजली की आपूर्ति करना था। ‘पश्चिमी बांधों से पैदा होने वाली बिजली के कारण दूसरा विश्व युद्ध जीतने में मदद मिली थी’ क्योंकि इससे अल्युमिनियम बनाने में मदद मिलती थी जिसका उपयोग हथियारों और हवाई जहाजों में होता था।

युद्ध के बाद अल्युमिनियम से होने वाली आमदनी धराशायी हो गई, लेकिन इसमें फिर उछाल आया जब कोरिया में युद्ध शुरू हुआ, उसके बाद वियतनाम और फिर कितने ही युद्ध अमेरिका के उकसाने पर हुए। कोरियाई युद्ध के समय अमेरिका के तात्कालिक राष्ट्रपति ड्वाइट डी आइजनहॉवर द्वारा स्थापित ‘सैन्य उद्योग कॉम्प्लेक्स की आधारशिला’ अल्युमिनियम ही थी। उनका कार्यकाल 1961 में इस चेतावनी के साथ समाप्त हुआ कि ‘हमें एक बहुत बड़े पैमाने पर स्थाई युद्ध उद्योग के निर्माण पर मजबूर कर दिया गया था।’अमेरिका ने 1950 में इस धातु का संग्रह करना शुरू किया था। एक अमरीकी अल्युमिनियम विशेषज्ञ ने एक पैम्पफलेट में 1951 में लिखा था, ‘आधुनिक युद्ध कला में अल्युमिनियम अकेला सबसे महत्वपूर्ण पदार्थ है। भारी मात्रा में अल्युमिनियम के उपयोग और उसको नष्ट किए बिना आज न तो कोई युद्ध संभव है और न ही उसे सफलतापूर्वक उसके अंजाम तक पहुंचाया जा सकता है… अल्युमिनियम युद्ध में सुरक्षा के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है। इसकी मदद से लड़ाकू और परिवहन के लिए जहाजों का निर्माण होता है। आणविक हथियारों के निर्माण और उनके प्रयोग में अल्युमिनियम का उपयोग होता है। अल्युमिनियम और उसके महत्वपूर्ण गुणों की वजह से ही हार-जीत का अंतर पता लगता है।’

ईराक या अफगानिस्तान में दागी जाने वाली हर अमरीकी मिसाइल में विस्फुरण प्रक्रिया में शेल के खोखों और धमाकों में अल्युमिनियम का इस्तेमाल होता है। कार्पेट बॉम्बिंग में इस्तेमाल होने वाला डेजीकटर बम अल्युमिनियम की विस्फोटक क्षमता पर काम करता है। यही उपयोग आणविक मिसाइलों और अमेरिका के 30,000 आणविक विस्फोटक शीर्षों में होता है। दोनों विश्व युद्धों के बीच परदे के पीछे से युद्ध को उकसाने में हथियार बनाने वाली कंपनियों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। 1927 में लीग ऑफ नेशंस ने यह घोषणा की थी कि ‘निजी उद्योगों द्वारा हथियारों और युद्ध में प्रयुक्त होने वाली वस्तुओं का निर्माण घोर आपत्तिजनक है।‘ लेकिन इससे जुड़े निहित स्वार्थ कहीं ज्यादा मजबूत थे। 1927 में ही जेनेवा में लीग के निरस्त्रीकरण अधिवेशन में एक अमरीकी पैरवीकार को 27,000 डॉलर इसलिए दिए गए थे कि वह छह सप्ताह तक हथियार बनाने वाली कंपनियों की तरफ से माहौल बनाने का काम करे ताकि ऐसा कोई समझौता होने ही न पाए। आज की ही तरह तब भी बहुत से शक्तिशाली देशों की अर्थव्यवस्था इसी शस्त्र उद्योग पर आधारित थी। इस सम्मेलन की असफलता के बाद एक ब्रितानी समीक्षाकार ने टिप्पणी की थी कि ‘युद्ध न केवल बहुत बुरी चीज है वरन यह बुरी तरह से फायदमेंद चीज भी है।‘ इन हथियार बनाने वाली कंपनियों के पीछे खनन कम्पनियां और धातुओं के विक्रेता समर्थन में खड़े रहते हैं। अमरीका द्वारा शुरू किए गए किसी भी युद्ध में दागे गए हर गोले की खाली जगह पर नया गोला लगता है और इसका निर्माण नए निकाले गए खनिजों से ही होता है।

 

 

 

 

रजामंदी का निर्माण


अगर कोई टिकाऊपन का सवाल उठाता है तो इसमें कोई शक नहीं है कि विस्थापित होने वाले आदिवासी समुदायों के पास अधिकांश प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा। वह प्रकृति से बहुत कम ग्रहण करते हैं और लगभग कुछ भी बरबाद नहीं करते। इसलिए अगर भगवान मांझी और उस तरह के कई लोग यह पूछते हैं कि स्थानीय आबादी और पर्यावरण की इतनी बड़ी कीमत पर खनन उद्यमों की कोई योजना बनती है तब क्या वह सचमुच विकास की योजना होती है? इस पर किसी को कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

ऐसे सम्मेलनों में जहां अल्युमिनियम के गुणों का बखान होता है, ये विचार प्रगट किए जाते हैं कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है क्योंकि यहां प्रति व्यक्ति अल्युमिनियम की सालाना खपत एक किलोग्राम से भी कम है जबकि ‘विकसित’ देशों में यह खपत 15.30 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष तक होती है। अल्युमिनियम उत्पादन की ऊंची लागत और उससे होने वाले मौसम परिवर्तन के दुष्प्रभावों को देखते हुए कहा यह जाना चाहिए था कि भारत में अल्युमिनियम की कम खपत बेहतर विकसित विकल्प का सूचक है। इसके अलावा चिकित्सा के क्षेत्र में होने वाले शोध बताते हैं कि भले ही थोड़ी मात्रा में हो मगर अल्युमिनियम की एक चिंताजनक मात्रा मानव शरीर मंा पैकेजिंग और जल-प्रदाय माध्यमों से लगातार प्रवेश कर रही है। इसका मानव शरीर से उत्सर्जन नहीं हो पाता और यह मस्तिष्क में जाकर इकट्ठा होने लगता है और कहा तो यहां तक जाता है कि इससे अल्जाइमर (भूलने) की बीमारी का खतरा रहता है।

मजे की बात यह है कि अल्युमिनियम दो कारणों से ‘पर्यावरण के लिए नुकसानदेह नहीं’ होने का दावा करता है। पहला यह कि इसका दुबारा-तिबारा उपयोग संभव है और दूसरा यह कि इसके उपयोग से मोटर गाडिय़ों का वजन अपेक्षाकृत कम होता है जिससे ईंधन की खपत कम होती है। लेकिन यह फायदे गुमराह करने वाले हैं और वास्तव में बेमानी हैं क्योंकि इसकी पर्यावरणीय लागत और ऐसे कारखानों में ईंधन की जिस मात्रा की जरूरत पड़ती है उसको अगर ध्यान में रखा जाए तो यह जाहिर होता है कि इस धातु के शोधन और खपत दोनों में कितना अधिक ईंधन लगता है। ध्यान देने लायक एक महत्वपूर्ण बात है कि आदिवासी लोग, जिन्हें टुकड़े-टुकड़ों में किसी चीज को देखने की आदत नहीं है, बापला माली के बॉक्साइट तथा बम और युद्ध जिनमें ‘भारी मात्रा में अल्युमिनियम की खपत होती है’, के बीच के संबंध को तुरंत भांप लेते हैं। जिस तरह के सवाल भगवान मांझी और उस तरह के लोग खड़ा करते हैं उनका उत्तर मिलना चाहिए और अल्युमिनियम परियोजनाओं के लाभ और लागत का विश्लेषण होना चाहिए। नाल्को की उड़ीसा की मौजूदा परियोजनाओं की सामाजिक और पर्यावरणीय लागत क्या है? अगर एक टन धातु का उत्पादन करने में 1,378 टन पानी की खपत होती है तब दामनजुड़ी के आस-पास की जमीन किस हद तक बंजर बनेगी? इन सवालों के जवाब कंपनियों द्वारा अल्युमिनियम के निर्यात से होने वाले मुनाफे के दूसरे पक्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं।

यह हमें सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न की ओर ले जाता है- औद्योगीकरण की नीति का असली नियंत्रण किसके हाथ में है? राज्य में विभिन्न संरचनात्मक परियोजनाओं के लिए विश्व बैंक और दूसरी संस्थाओं ने जो पैसा दिया है, उसके फलस्वरूप उड़ीसा पूरे भारत में सबसे ज्यादा कर्ज में डूबा हुआ प्रांत है। इन कर्जों से सरकार पर बेवजह दबाव पड़ता है क्योंकि इनका भुगतान विदेशी मुद्रा में किया जाना है। इतना ही नहीं, कंपनियों की ताकत को कम करने वाले सारे नियम-कानूनों को ढीला करने की बात को भी मानना पड़ता है। परिणामस्वरूप एसईजेड तैयार किए जा रहे हैं ताकि ‘विदेशी निवेश के लिए माहौल बनाया जा सके’ और भारतीय कानून और संविधान में जमीन के अधिकार, श्रमिक अधिकार और पर्यावरण सुरक्षा के जो प्रावधान किए गए हैं उन्हें बिखेर देने की कोशिश हो रही है।

उड़ीसा की राजनीति और अर्थनीति के फैसले अब लंदन या वाशिंगटन में एक ऐसी व्यवस्था से किए जाते हैं जिनके बारे में परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोगों को कोई जानकारी ही नहीं है। ब्रिटिश सरकार के डिपार्टमेंट फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (डीएफआइडी) के नीति निर्देशक अधिकारी द्वारा 2003 के एक्सट्रैक्टिव इंडस्ट्रीज रिव्यू का काम देखने वाले व्यक्ति को लिखे गए एक पत्र से इस बात का खुलासा होता है कि इन अधिकारों का किस तरह का उपयोग होता है। निर्देशक ने पत्र में इस बात की चेतावनी दी थी कि अगर रिपोर्ट में कुछ बुनियादी परिवर्तन नहीं किए गए तो रिपोर्ट को विश्व बैंक बोर्ड द्वारा खारिज कर दिए जाने का ‘सचमुच खतरा’ है (यह हुआ भी)। पत्र में लिखा है कि ‘पहले से पूरी सूचना के साथ रजामंदी (कृपया नोट करें कि इसमें रजामंदी के साथ किसी भी बंधन से मुक्त रजामंदी शब्दों का उपयोग नहीं किया गया है) पर कुछ सफाई जरूरी है। यह स्पष्ट नहीं होता है कि रजामंदी पूरी परियोजना के बारे में एकमुश्त आवश्यकता है… अगर कोई एक व्यक्ति राष्ट्रीय विकास पैकेज से सहमत नहीं होता है तो बैंक या सरकार किस हद तक इसे खारिज करने के लिए तैयार है?’ अंतिम प्रश्न पूरी तरह से आदिवासी समुदायों के भूमि संबंधी अधिकार को व्यक्तिगत अधिकारों के साथ घालमेल कर के गलत तरीके से पेश करता है। यहां ब्रिटिश सरकार का एक अधिकारी इस बात पर आक्रोश जताता है कि भारत या किसी दूसरे देश के आदिवासी लोगों के हाथ में अभी जमीन पर कोई भी खनन परियोजना हाथ में लेने पर वीटो करने का अधिकार होगा। यह वही औपनिवेशिक मनोवृत्ति है जो भारत की आजादी के पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यवहार में झलकती थी।

जब ‘पूरी सूचना के साथ किसी भी बंधन से मुक्त सहमति’ को ही खारिज कर दिया जाता है तो उड़ीसा में जो कुछ भी हो रहा है, उस पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है जहां जन-सुनवाई में ‘सहमति’ का निर्माण पुलिस की धमकी और मौजूदगी में छलपूर्वक किया जाता है। यह भी एक कारण है कि क्यों उड़ीसा और पड़ोसी राज्यों में सैकड़ों परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले ग्रामीण ‘रजांमदी’ देने और अपनी जमीन छोडऩे के लिए मजबूर कर दिए जाते हैं हालांकि उन्हें अपनी जमीन से विरत न कर पाने का अधिकार भारत के संविधान के पांचवीं अनुसूची में बुनियादी अधिकार के रूप में प्राप्त है।

परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभाव का मूल्यांकन भी गंभीरता के साथ नहीं किया जाता, इसमें हमेशा देर की जाती है और इसके लिए जिस प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जाता है उसी पर सवालिया निशान लगे हुए हैं। सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन तो होता ही नहीं है और कभी अगर यह काम हुआ भी तो यह उन अधिकारियों द्वारा किया जाता है जिनकी इस काम के लिए कोई ट्रेनिंग ही नहीं होती। इस बात को कोई मान्यता नहीं मिलती कि ये परियोजनाएं भारत की सांस्कृतिक धरोहर के लिए बहुत मंहगी साबित होती हैं। भारतीय संस्कृति क्या है और यह कहां रहती है? भारतीय संगीत, परम्परागत धर्म और शिल्प का इस तरह से बाजारीकरण और राजनीतिकरण हुआ है कि उनकी मूल आत्मा ही मर गई है और उनका नकली रूप ही सामने आता है जो ग्रामीण समाजों की शाश्वत परम्पराओं के बिलकुल उल्टा पड़ता है। भारतीय संस्कृति वह है जिसे महात्मा गांधी ने समझा था। खेती करना और जंगलों से पौधे इकट्ठा करना आदिवासी संस्कृति के मूल में है और जब उनका विस्थापन होता है तब उनकी यह परम्परा भी समाप्त हो जाती है। इसके बावजूद सांस्कृतिक जनसंहार को और मजबूत करने के लिए एक अनवरत प्रक्रिया के तहत उनकी बातों पर सेंसर बैठाना, उनकी अवहेलना करना तथा आदिवासियों के ज्ञान को नकारने का काम चलता रहता है, ऐसा भगवान मांझी तथा दूसरे लोग इशारा करते हैं। उनका कहना है, ‘हम स्थाई विकास चाहते हैं। हमारी जमीनों को सिंचाई उपलब्ध करवा दीजिए। हमारे लिए अस्पताल और दवाइयों की व्यवस्था कर दीजिए। हमारे स्कूल बनवा दीजिए और अध्यापकों की व्यवस्था कर दें। हमें जंगल और जमीन दे दें। हमें कंपनी नहीं चाहिए। कंपनी का खात्म कर दीजिए। यह बात हम पिछले 13 सालों से लगातार कह रहे हैं मगर सरकार है कि सुनती ही नहीं है।’

भारत पहले से ही एक अति-विकसित देश है और इन यूरोपीय कंपनियों के यहां आने के पहले भी था। जनता के बुनियादी अधिकारों और आने वाली पीढिय़ों के लिए पर्यावरण की सुरक्षा किसी भी विकसित समाज का प्रमाण है। लेकिन उन कानूनों की, जो इन अधिकारों की रक्षा करते थे और जिनका विकास आजादी के बाद के 60 वर्षों में एक लंबी और कष्टप्रद प्रक्रिया के तहत हुआ, अब विदेशों के दबाव की वजह से धज्जियां उड़ रही हैं। जो उद्योग स्थानीय लोगों पर थोपे जा रहे हैं वे टिकाऊ नहीं हैं और इन उद्योगों के क्रियाकलाप निश्चित रूप से किसी भी मायने में विकास को सुनिश्चित नहीं कर रहे हैं।

 

 

 

 

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