इक्कीसवीं सदी के डायनासोर की कथा

pollution by vehicle
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भारत के ऑटोमोबाइल उद्योग भी अमेरिकी उद्योगों की तरह सरकार के सामने कटोरा लेकर खड़े होने की स्थिति में आ पहुंचे हैं। पर वे कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि वे कुछ सुनते नहीं, लेकिन क्या यही कारण नहीं है कि परिवर्तन के खिलाफ अपनी लड़ाई डायनासोर हार गए? क्या आज हमारे सामने 21वीं सदी के मशीनी डायनासोर के विलुप्त होने की महागाथा दोहराई नहीं जा रही है?क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है कि अमेरिका का ऑटोमोबाइल उद्योग आजकल उसी तरह की दलील दे रहा है जिस तरह की दलील तंबाकू उद्योग अपने पतन के समय पर दे रहा था? अपनी अक्षमता और अनुपयुक्तता को सही साबित करने के लिए तब तंबाकू उद्योग अपने कर्मचारियों की आड़ ले रहा था। अपने दोषी पाए जाने के आखिरी दिनों में जब यह स्पष्ट हो चला कि तंबाकू के पत्ते का विष विज्ञान वास्तविक है, यह उद्योग इसे पैदा करने वाले किसानों के पीछे छूपने लगा। जैसा कि भारत में तर्क दिया जाता है आज वहां भी कहा जा रहा है कि अगर सिगरेट बंद हो गई तो उन हजारों लोगों की आजीविका छिन जाएगी जो इसे उगाने के लिए खेतों में श्रम करते हैं, साथ ही उसकी सहायक इकाइयां और उनमें काम करने वाले मजदूर भी बेरोजगार हो जाएंगे। वास्तव में वैसा कुछ नहीं हुआ और किसान दूसरी फसल उगाने लगे।

आज डेट्रॉयट के तीन महारथी- जनरल मोटर्स, फोर्ड और क्राईस्लर अमेरिकी कांग्रेस से 30 अरब डालर के राहत पैकेज के लिए झगड़ रहे हैं। हालांकि उन्हें इस भारी राहत पैकेज का औचित्य साबित करने बड़ी दिक्कत आ रही है और वे अपने इस व्यवसाय को ईंधन दक्ष बनाने के बारे में भी कुछ कर नहीं पा रहे हैं। ऐसे में प्रभावशाली सीनेटरों ने दलील दी है कि “अब उन्हें दिवालिया होने के लिए तो नहीं छोड़ा जा सकता।” इसके पीछे कार संयंत्र में काम कर रहे कर्मचारियों की बेरोज़गारी का डर, कार डीलरों के नेटवर्क और गतिशीलता के इस धंधे से जुड़े अन्य लोगों का चिंता है। हालांकि अब यह उद्योग अपने उद्देश्य से भटक चुका है।

ज्यादा समय नहीं बीता जब अमेरिका के सिगरेट उत्पादक पुरुषवादी विकास का प्रतीक रच रहे थे। उसके बाद यह काम कार ने ले लिया। मार्लबोरो के घुड़सवार पुरुष और जनरल मोटर्स की स्पोर्ट्स वाली गाड़ी के सवार में इस तरह की तुलना सहज ही देखी जा सकती है। एक तरफ सिगरेट का प्रचार करने वाला वह घुड़सवार तमाम ऊबड़-खाबड़ रास्तों का शहंशाह दिखता है तो यह गाड़ी चालक भी जंगली रास्तों से रोमांस करता है। इन प्रतीकों के चक्कर में हम यह भूल जाते हैं कि वाहन महज एक मशीन है जिसका इस्तेमाल एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए होता है।

अब ऑटोमोबाइल कंपनियां परेशानी में हैं। ब्यूक और कैडीलाक जैसे ब्रांडों के लिए मशहूर जीएम मोटर्स ने अमेरिकी कांग्रेस से यहां तक कह दिया है कि वह दिवालिया होने के कगार पर है और अपने सप्लायर्स को अगले महीने से भुगतान नहीं कर पाएगा। यह कार संकट अमेरिका तक ही सीमित नहीं है। यूरोप के भी कार निर्माताओं ने अपने लिए 50 अरब अमेरिकी डॉलर के पैकेज की मांग की है। आस्ट्रेलिया ने 2.3 अरब डॉलर का पैकेज मंज़ूर कर दिया है और अब चीन के कार निर्माता भी सरकार से ऐसी ही मांग कर रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि हम अलग-अलग देशों की बात कर रहे हैं पर कंपनियां वही हैं। सन 2005 में जीएम, फोर्ड, टोयोटा, वोल्क्सवैगन और डैमलर क्राईस्लर जैसी पांच बहु-राष्ट्रीय कार कंपनियां पूरी दुनिया की आधी मोटरगाड़ियां बनाती थीं।

इन कंपनियों पर संकट के कई कारण हैं, पर इनमें से दो महत्वपूर्ण हैं। एक बात जो व्यापक तौर पर मानी जाती है कि इनकी उत्पादन क्षमता जरूरत से ज्यादा है। यानी कंपनियां वह उत्पादन कर रही हैं जिसकी जरूरत नहीं है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मंदी के इस दौर में लोगों ने बे-वजह की खरीददारी बंद कर दी है। खरीद पहले से ही गिरी हुई थी और 2007 के अक्तूबर की तुलना में इस साल के अक्तूबर में अमेरिका में गाड़ियों की बिक्री 32 फीसदी और यूरोप में 15 फीसदी गिर गई। बिज़नेस के जानकारों का कहना है कि सन् 2009 में अमेरिका में यह बिक्री 30 फीसदी और गिरेगी क्योंकि इन गाड़ियों को खरीदने के लिए लोगों ने जो कर्ज लिया था, बैंक उसका तुरंत भुगतान करने का दबाव डाल रहे हैं। इस स्थिति में सन् 2009 में बाजार को अतिरिक्त वाहनों से पाट देने की क्षमता 30 फीसदी प्रभावित होगी यानी करीब 2 करोड़ 90 लाख गाड़ियों पर असर पड़ेगा।

दूसरी खास बात यह है कि इन कंपनियों ने इस स्पष्ट चेतावनी की साफ अनदेखी की कि ईंधन दक्षता भविष्य का व्यापार है। दरअसल अमेरिका के कार उत्पादक दुनिया की सबसे ज्यादा तेल पीने वाली गाड़ियाँ बनाते रहे। वे हक़ीकत से इतने बे-खबर रहे कि तेल के दाम बढ़ने के बावजूद वे खरीददारों को कुछ समय के तेल के कूपन जैसे झुनझुने थमाते रहे। यह काम भारत में भी उनकी कंपनियों ने किया। तीन कंपनियों के प्रमुखों ने अमेरिकी कांग्रेस में अपनी बात रखने के लिए एक ही शहर से तीन जेट विमानों का जिस तरह से इस्तेमाल किया, उससे लगता है कि वे समय की नब्ज़ को किसी तरह पकड़ नहीं पा रहे। इसलिए इन महानायकों के खिलाफ अमेरिकी जनमत के हो जाने पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।

हमें यह समझ लेना चाहिए कि हमारे भारतीय नायक भी उसी क्लब के सदस्य हैं। दो साल पहले पर्यावरणीय संगठनों के दबाव में भारत सरकार ने ईंधन दक्षता पर रपट देने के लिए समिति बनाई थी, लेकिन उसके खिलाफ ऑटोमोबाइल कंपनियां एकजुट हो गई। उन्होंने अपने ईंधन दक्षता के बारे में आंकड़े देने से मना कर दिया और कहा कि बेस-लाइन तय करने के लिए दीर्घकालिक शोध की आवश्यकता है। उसके बाद जब ईंधन दक्षता ब्यूरो ने ऊर्जा संरक्षण के लिए आदेश दिया और एक मानक तय किया तो कंपनियों ने उस पर हमला बोल दिया । उनकी दलील थी कि वाहन कोई उपकरण नहीं है इसलिए ब्यूरो उसका मानक नहीं तय कर सकता। दो महीने पहले हुई एक बैठक में हथियार डाल दिए और यह काम भूतल परिवहन मंत्रालय के ज़िम्मे कर दिया। इससे उन कंपनियों के रसूख का पता लगता है। उनके ‘हितैषी’ मंत्रालय ने अपने आकाओं का काम कर दिया। ब्यूरो ने ईंधन दक्षता का जो मानक बनाया था उसे संशोधित कर कमजोर कर दिया गया और यह भी कह दिया कि यथास्थिति सन् 2015 तक बनी रहनी चाहिए।

जो बात हैरान करती है वो यह है कि भारत के ऑटोमोबाइल उद्योग भी अमेरिकी उद्योगों की तरह सरकार के सामने कटोरा लेकर खड़े होने की स्थिति में आ पहुंचे हैं। पर वे कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि वे कुछ सुनते नहीं, लेकिन क्या यही कारण नहीं है कि परिवर्तन के खिलाफ अपनी लड़ाई डायनासोर हार गए? क्या आज हमारे सामने 21वीं सदी के मशीनी डायनासोर के विलुप्त होने की महागाथा दोहराई नहीं जा रही है?

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