इक्कीसवीं शताब्दी में बिरसा

बिरसा भगवान की मृत्यु से उनके आंदोलन का अन्त नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जिन प्रयोजनों से यह आंदोलन प्रारम्भ हुआ, उनकी आंशिक पूर्ति ही हो सकी। यह सही है कि बिरसा भगवान के आंदोलन का प्रभाव बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में ही शुरू हो गया था। बहुत शीघ्र, उनके निधन के तत्काल बाद ही, ब्रिटिश सरकार ने यह अनुभव किया था कि इस आंदोलन के मूल में भूमि-समस्या है। भूमि के स्वामित्व की आदिवासी धारणा वह नहीं है, जो ईस्ट इंडिया कम्पनी और बरतानिया सरकार द्वारा निर्धारित भूमि कानून बताते हैं। आदिवासी पूर्वजों ने जंगल काट कर खेती योग्य जमीन तैयार की थी। इस तरह तैयार की गयी जमीन का मालिक जंगल काटने वाला होता था। मुंडाओं ने परती जमीन को जोत-जमीन में पलट दिया था, जो कानूनी भाषा में ‘कोड़कर’ जमीन कहलाती थी। जमींदार काल और नागवंशी राजाओं की हुकूमत से भी पहले। झारखंड में ‘खूंटकट्टी’ जमीन सारी की सारी आदिवासियों के हाथों में थी। ऐसे जमीन मालिक 'खूंटकट्टीदार' या 'भुंइहार' कहे जाने लगे थे। नागवंशियों के प्रवेश तक खूंटकट्टीदारी प्रथा स्वत: नियमबद्ध हो चुकी थी।

नये-नये गाँव बसने लगे और जहां तक बन पड़ा नये गांव के लोग पैतृकग्राम ही में पूजा-पाठ करते रहे, उनके 'ससनदिरी' (कब्र-शिला / पत्थरगड़ी) और सरना भी वे ही थे। उस जमाने में न खतियान, न खेसरा, न खेवट था, लेकिन अनपढ़ आदिवासी 'ससनदिरी / कब्र-शिला / पत्थरगड़ी’ के आधार पर ही अपना अधिकार जताते थे। इन खूंटकट्टी अथवा भुंइहारी जमीनों पर लगान लगाने वाला कोई नहीं था, उन्हें कोई 'कर' देना नहीं पड़ता था। यह व्यवस्था बहुत दिनों तक निर्बाध गति से चलती रही। राजा और प्रजा के संबंध सामान्य थे। लेकिन जब-जब बाहरी आक्रमण हुए, तब-तब राजा पर विशेष दबाव पड़ता गया, परिणामत: जमीन पर विशेष कर लगते गये। सबसे पाले मुगल काल मे, सामंती प्रथा के प्रारम्भ के साथ ही परंपरागत भूमि-व्यवस्था को चोट पहुंचायी गयी।

छोटानागपुर के राजा द्वारा कर वसूलने की सुविधा के लिये जागीरदारी प्रथा का चलन हुआ। सैनिक सहायता पाने के लिये बड़ाइकों, घटवारों, दिगवारों, परगनाइतों और इलाकादारों को जागीरें दी जाने लगीं। परन्तु जब कुछ स्थानीय जागीरदार विद्रोह करने लगे, तो उन पर नियन्त्रण रखने के लिये बाहर से दबंग लोगों को बुला कर बसाया जाने लगा, इस तरह जमींदारी प्रथा का आरम्भ यहां पर हुआ।

भूमि के स्वामित्व की आदिवासी धारणा अर्थात खूंटकट्टी अथवा भुंइहारी हक व हकूक एवं आदिवासी भाषाओँं से अनभिज्ञ अंग्रेज भूमि-संबंधी मुकदमों में आदिवासियों के साथ न्याय नहीं कर पाते थे। जमींदार और अदालतों ने छल-प्रपंव एवं कूटनीति का सहारा लेकर खूंटकट्टीदारी छीन ली और मुण्डा लोगों को रैयतों और आसामियों में बदल दिया। अंग्रेजी अदालतों की खर्चीली न्याय-व्यवस्था के कारण भी स्वत: प्राचीन भूमि-व्यवस्था नष्ट होती चली गयी। अपनी जमीन से बेदखल किये जाने और अपने विरुद्ध अदालती फैसलों की वृद्धि देखने के बाद, आदिवासियों को ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों पर संदेह होने लगा और वे उनका विरोध करने लगे।

सच तो यह है कि बिरसा राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद का अर्थ तक नहीं समझते थे। उस समय अपने ‘मुंडा देश, मुंडा राज्य' के लिये लड़ना, अपने लोगों को हर तरह के शोषाण से मुक्त करना और उन्हें आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। बिरसा की यह एक ऐसी महानता है, जिसको इक्कीसवीं सदी में नये सिरे से पहचानने और महत्व देने की जरूरत है।

सन् 1811, 1818, 1820 और 1831 और 32 के वर्ष, आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह के वर्ष सिद्ध हुए। भूमि-समस्या से उत्पन्न कोल-विद्रोह, संताल-विद्रोह के बाद रैयतों के नेतृत्व में लम्बे समय तक ‘सरदार लड़ाई या सरदारआंदोलन' चलता रहा, जो आगे चलकर 'बिरसा आंदोलन' का आधार बना। ईसाई मिशनरियों ने भी आर्थिक और कानूनी सहायता देकर आदिवासियों के भूमि संबंधी अधिकारों की लड़ाई में साथ दिया था। कई मिशनरियों ने रैयतों के अन्दर बढ़ रहे असंतोष का लाभ उठाया। उन्होंने न्याय दिलाने के नाम पर बहुतों को ईसाई बनाया। लेकिन शीघ्र ही यह स्पष्ट दो गया कि सभी मिशन आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिये लड़ने वाले मिशन नहीं है। उनकी रुचि ईसाई धर्म के प्रचार में अधिक थी और आदिवासियों के विस्थापन और विपन्नता के निवारण में कम। यही कारण था कि कुछ सरदारों में मिशनरियों के कामों की अलग ही प्रतिक्रिया हुई। वे गोरे अफसरों और गोरे मिशनरियों में कोई अन्तर नहीं समझते थे। 'सरदार आंदोलन' सभी यूरोपियनों, मिशनरियों और अधिकारियों के विरुद्ध हो गया था।

सरदारों ने बिरसा के विद्रोही मन को परख लिया था, इसीलिये अपने आंदोलन को नया रूप देने के लिये नये नेता के रूप में उन्हें तैयार किया। सरदार आंदोलन की असफलता के बाद बिरसा मुंडा के नेतृत्व में 'बिरसा आंदोलन' ने एक बात साफ कर दी कि आदिवासी उन्हें ही अपना मान सकते थे, जो उनके पक्षधर हों और उन्नीसवीं शताब्दी की ब्रिटिश भूमि-व्यवस्था तथा बाहर से आये तत्कालीन भू-माफिया से उनकी रक्षा कर सके। एक गहरी हताशा के बीच इस आंदोलन के बीज फूटे थे। लेकिन बिरसा के संघर्ष के कारण आंदोलन के बड़े निष्कर्ष के रूप में यह बात सामने आयी कि आदिवासी भूमि-समस्या का जब तक निदान नहीँ होगा, तब तक छोटानागपुर में शांति स्थापित नहीं हो पायेगी।

इसलिये स्वंय ईसाई मिशनरियों ने भी इस समस्या के निदान की दिशा में पहल की। इन मिशनरियों में फादर हॉफमैन और फादर लीवन्स प्रमुख थे। ये आदिवासियों के हित के लिये पूर्णत: समर्पित मिशनरी थे। ‘सर्वे सेटलमेंट' एवं 'छोटानागपुर टेनेन्सी ऐक्ट' को तो फादर हॉफमैन के ही अथक प्रयास का परिणाम कहा जा सकता है। लेकिन 'छोटानागपुर टेनेन्सी ऐक्ट’ क्या आदिवासियों के विस्थापन और भूमिहरण तथा शोषण की समस्या का हल कर पाया?

इस अधिनियम के भीतर भू-माफिया ने ऐसे दरवाजे खोज निकाले, जिनसे होकर कानूनी तौर पर आया-जाया जा सकता था। कई मामलों में तो आदिवासी स्वंय ही दोषी हैं। ये भोले-भाले आदिवासी अपनी अज्ञानता के कारण तब से लेकर आज तक अपनी जमीन लुटाते जा रहे हैं। बाहरी लोगों को अपनी जमीन पर बसाते जा रहे हैं और स्वयं विस्थापित होते जा रहे हैं। यही कारण है कि न तो बीसवीं शताब्दी इस समस्या क्रो निदान तक पहुंचा सकी और न इक्कीसवीं सदी ही कोई आश्वस्ति उत्पन्न करने में समर्थ है। और जब तक इस समस्या का निदान नहीं होगा तब तक 'बिरसा आंदोलन' के भीतर से फूटने वाली आग नहीं बुझेगी।

बिरसा को चाईबासा के स्कूल में ईसाई धर्म की विशेष शिक्षा मिली, लेकिन अपने धर्म पर बाहरी धर्म का प्रभाव उन्हें अच्छा नहीं लगा। बिरसा ने धर्म और संस्कृति का स्वदेशी मॉडल सामने रखा। वे आदिवासियों के परंपरागत जीवन और संस्कृति में हस्तक्षेप के विरोधी थे, अत: उन्होंने ईसाई धर्म का विरोध किया और अपने ढंग से एक स्वदेशी आदिवासी धर्म की परिकल्पना की। उनके अनुयायी 'बिरसइत' कहे जाने लगे। वे बिरसा को भगवान, युग महापुरुष, धर्मगुरु, धरती बाबा आदि के रूप में पूजते हैं।

आज के बिरसइत मानते हैं कि 14-15 वर्ष पूर्व बिरसा भगवान के कर्मक्षेत्र के देवां (सोनुवा प्रखंड) नामक स्थान में ‘टीकाराम मुंडा' को दिव्य ज्योति के दर्शन हुए और उन्हें अलौकिक शक्ति मिली, तबसे अन्य बिरसइत उन्हें अति सम्मानीय धर्मगुरु मानते हैं, 'बिरसा आबा’ कहकर पुकारते हैं और प्रत्येक नववर्ष में वहां मिलते हैं। धर्मगुरु ही बिरसा के प्रतिनिधि के रूप में अपने समुदाय की अगुवाई करते हैं। बिरसा आबा के अनुयायी पश्चिमी सिंहभूम के चक्रधरपुर अनुमंडल के बंदगांव, गोयलकेरा, मनोहरपुर, खूंटी अनुमंडल के मुरहू अड़की आदि प्रखंडों में यत्र-तत्र पाये जाते हैं।

बंदगांव प्रखंड के टेबो पंचायत के संकरा, रोगोद, हलमत आदि गाँवों में तथा सोनुवा प्रखंड के देवां, लोड़ोई लामडर, सारुदा आदि सुदूर गाँवों में इनका समूह पाया जाता है। बिरसा आबा के घर की दीवारों पर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है - अंधविश्वास छोड़ दो, गन्दे विचार छोड़ दो, हम सुधरेंगे, समाज सुधरेगा, डायन-भूत झूठ है आदि- आदि। जंगल में रहने वाले इन बिरसइतों ने अब जंगल साफ कर खेत बना लिया है और वे इन्हीं खेतों की उपज से अपना जीवन-यापन करते हैं। जंगल से प्राप्त कंद-मूल और फल-फूल भी इनके आहार हैं। ये सप्ताह मेँ एक दिन 'बृहस्पतिवार' को पवित्र और विश्राम का दिन मानते हैं। इस दिन निर्धारित समय पर सामूहिक प्रार्थना करते हैं। अन्य दिनों में भी वे सुबह, दोपहर और शाम को प्रार्थना करते हैं।

.भगवान बिरसा के उपदेशों और निर्धारित नियमों के अनुसार जीवन व्यतीत करने का यथासंभव प्रयास वे करते हैं। आदि बिरसइतों के समान ही आधुनिक बिरसइत पहनने- ओढ़ने के लिये सूती वस्त्र का ही प्रयोग करते हैं, अत्यंत सादा जीवन जीते हैं, खाली पांव चलते हैं, सिर पर पगड़ी होती है और कमर मेँ खादी धोती होती है। ये मृदुभाषी, शांतिप्रिय और सत्यवादी होते हैं। इनके समुदाय में अपशब्दों का प्रयोग सख्त वर्जित है, क्योंकि यह अपराध माना जाता है। वे किसी भी प्रकार का नशा नहीं करते हैं और शुद्ध शाकाहारी भोजन करते हैं। शुद्ध शाकाहारी भोजन करने के नियम और सीमित साधनों से भोजन जुटाने के कारण ये कुपोषण के शिकार हैं और कई प्रकार के रोगों से ग्रस्त रहते हैं। लेकिन चिकित्सा विज्ञान पर इन्हें विश्वास नहीं है। बाहरी दुनिया से अलग-थलग रहने के कारण इनमें बहुत अधिक पिछड़ापन है। राज्य सरकार या केन्द्र सरकार की ओर से इनके समग्र विकास के लिये ठोस पहल न किये जाने के कारण भी ये पिछड़े हुए हैं।

हम कह सकते हैं कि बिरसइतों का अस्तित्व अथवा बिरसा धर्म की स्थापना ही, बिरसा आंदोलन नहीं है। वह उससे भी बड़ी, बल्कि बहुत बड़ी वस्तु है। खांटी आदिवासीपन और वर्जनाशील शुद्धता ही बिरसा आंदोलन का सब कुछ नहीं है। बीसवीं सदी में ही इस धर्म की सीमायें स्पष्ट होने लगी थीं और इक्कीसवीं सदी में यह अपेक्षा उत्पन्न हुई है कि बिरसा धर्म को बिरसा भगवान के आदर्शों की समग्रता में पुन: परिभाषित और सक्रिय किया जाये। वस्तुत: ‘बिरसा आंदोलन' या बिरसा का उलगुलान क्षेत्रीय नव जागरण का परिणाम है। इस नव जागरण का एक पक्ष भले ही 'खांटी आदिवासीपन' या क्षेत्रीय प्रतीत होता हो, बल्कि यह तो अखिल भारतीय और अखिल मानववादी है। इसकी अखिल भारतीयता इसके राष्टीय स्वर में मुखरित है। बिरसा भगवान और उनके अनुयायियों ने डोम्बारी के पास की सईल रकब की चोटी से अंग्रेजों के सिपाहियों का डटकर मुकाबला किया था।

एक दुभाषिये की मदद से हथियार डालने और आत्मसमर्पण करने के लिये समझाये जाने पर उत्तेजित आंदोलनकारियों ने जबाब में उन्हें गालियां दीं और ठहाके लगाये। वे अपनी कुंल्हाड़ियां भांजते हुए, पुलिस वालों के पास आकर लड़ने के लिये ललकार रहे थे। आंदोलनकारी किसी भी कीमत पर बिरसा को सरकार के हाथों सौंपने के लिये तैयार नहीं थे। सभी आंदोलनकारी निर्भय होकर नारे लगाते रहे और अपना-अपना हथियार संभाल कर लड़ते रहे। उन्हें अपने बिरसा भगवान की उन बातों पर पूरा विश्वास था कि अंग्रेजों की गोलियों का उन पर कोई असर नहीं होगा।

एक आंदोलनकारी नरसिंह मुंडा ने बिरसा की प्रेरणा से अंग्रेजों को ललकार कर कहा था - 'अब राज्य हम लोगों का है, अंग्रेजों का नहीं। अगर हथियार डालने का सवाल है तो मुंडाओँ को नहीं, अंग्रेजो को हथियार डाल देना चाहिये। अगर लड़ने की बात हो, तो मुंडा आखिरी साँस तक लड़ने के लिये तैयार हैं।' अपने एक आंदोलनकारी के मुख से मुखरित बिरसा का यह स्वर इसलिये बड़ा विलक्षण लगता है कि बिरसा भगवान के समय ही संगठित कांग्रेस पार्टी के सामने भी स्वशासन की ऐसी कोई धारणा नहीं थी। बीसवीं शताब्दी में जब तक पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव कांग्रेस ने पास नहीं किया तब तक कांग्रेस का भी लक्ष्य पूर्ण स्वशासन नहीं था।

1900 में बिरसा भगवान की शहादत के बाद सन 1916 में लखनऊ में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में लोकमान्य तिलक ने स्वराज्य की स्पष्ट माँग करते हुए कहा कि 'स्वराय मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा’। कांग्रेस का चरित्र प्रारम्भ में सुधारवादी रहा है, लेकिन बिरसा भगवान आरम्भ से ही पूर्ण स्वराजवादी थे और उन्होंने मात्र सुधारवाद का कभी समर्थन नहीं किया। 1875 से 1885 के दौरान भारत में जो नई राजनीतिक चेतना पनपी, वह मुख्यत: युवा वर्ग की देन थी। ये युवा लड़ाकू और राष्ट्रवादी थे।

लेकिन समकालीन बिरसा भगवान का उलगुलान मात्र राष्ट्रवादी नहीं है। वह तो साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद तथा स्वदेशी वर्ग-व्यवस्था के अन्तर्गत दुर्बल बहुसंख्यक समाज के शोषण मात्र का विरोधी था। सच तो यह है कि बिरसा राष्ट्र एवं राष्ट्रवाद का अर्थ तक नहीं समझते थे। उस समय अपने ‘मुंडा देश, मुंडा राज्य' के लिये लड़ना, अपने लोगों को हर तरह के शोषाण से मुक्त करना और उन्हें आजाद करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य था। बिरसा की यह एक ऐसी महानता है, जिसको इक्कीसवीं सदी में नये सिरे से पहचानने और महत्व देने की जरूरत है।

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