इंडो-इज़राईल संयुक्त कार्यक्रम : बदली किसानों की तकदीर

23 Sep 2014
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राजस्थान के रेतीले धोरों में जहां खेती के बारे में सोचा नहीं जा सकता वहां अब स्ट्राबेरी, फूल और शिमला मिर्च पैदा की जा रही है। इतना ही नहीं यहां फलों, सब्जियों के साथ ही फूलों की खेती के जरिए किसानों को आत्मनिर्भर बनाया जा रहा है। किसानों को यह गुर सिखाया जा रहा है कि किस तरह वे कम पानी, छोटे खेत और कम लागत में अधिक मुनाफा कमा सकते हैं। इसके लिए यहां शिमला मिर्च की 14 किस्में विकसित की जा रही हैं। बस्सी के ढिंढ़ोल गांव में देश का तीसरा सेंटर फॉर एक्सीलेंस तैयार हो रहा है, जिस पर केंद्र सरकार ने 30 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। बस्सी समेत दो दर्जन से अधिक गांवों में खेती की नई बयार चल पड़ी है।राजधानी जयपुर से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित बस्सी गांव और उसके आसपास के दो दर्जन गांव खेती में नई इबारत लिख रहे हैं। इस क्षेत्र के किसान न सिर्फ आत्मनिर्भर बन रहे हैं बल्कि राज्य ने उस मिथक को भी तोड़ दिया है जिसमें यह कहा जाता है कि राजस्थानी मिट्टी में फल, सब्जी और फूल उगाना असंभव है, लेकिन यहां के किसानों ने उचित प्रशिक्षण प्राप्त कर यह संभव कर दिखाया है और इसका श्रेय जाता है इंडो-इज़राईल संयुक्त कार्यक्रम को। चूंकि इस कार्यक्रम की शुरुआत निर्धारित क्षेत्रफल में की गई, लेकिन इसका असर पूरे इलाके में दिख रहा है। बस्सी सहित आसपास के दो दर्जन गांवों के किसान इस कार्यक्रम का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लाभ प्राप्त कर रहे हैं और वे न सिर्फ कृषि की नई तकनीकी के जरिए आत्मनिर्भर बन रहे हैं बल्कि नई-नई फसलों की खेती से यहां की उत्पादकता भी बढ़ा रहे हैं। स्थिति यह है कि अब यहां स्ट्राबेरी की खेती शुरू हो गई है। इसके अलावा यहां विदेशी फूलों व अन्य फलों की किस्में भी तैयार की जा रही हैं। फूलों के प्रसार के लिए नीदरलैंड से फूल के पौधे मंगाए गए हैं।

राजधानी जयपुर के पूर्वी इलाके में स्थित बस्सी के आसपास का इलाका बलुई मिट्टी से आच्छादित है। इस इलाके में सरसों, गेहूं की परंपरागत खेती होती रही है, लेकिन इसी दौरान केंद्र सरकार की ओर से राज्य में इंडो-इज़राईल संयुक्त कार्यक्रम को मंजूरी दी गई। बस्ती के पिछड़ेपन को दूर करने और इलाके के किसानों को विपरीत परिस्थितियों में खेती के प्रति उत्साहित करने के लिए सरकार ने इस क्षेत्र को कार्यक्रम के लिए उपयुक्त समझा और बस्सी के ढिंढोल गांव में इंडो-इज़राईल संयुक्त कार्यक्रम की नींव रखी गई।

करीब 30 करोड़ रुपये खर्च कर सेंटर फॉर एक्सीलेंसी तैयार किया गया, जिसका ज्यादातर काम पूरा हो चुका है। कुछ काम बचा है जो अंतिम चरण में चल रहा है। ढिंढ़ोल गांव में करीब 826 बीघा भूमि में कम पानी, कम जमीन पर कम लागत से ज्यादा फसलें उगाने का कार्यक्रम चलाया जा रहा है। यह पूरे देश में तीसरा सेंटर फॉर एक्सीलेंसी है। इससे पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में यह केंद्र बनाए जा चुके हैं।

उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में फल, सब्जी और फूल उत्पादन के मामले में बस्सी राजस्थान ही नहीं पूरे देश का आपूर्तिकर्ता इलाका बन जाएगा हाल ही में इज़राईल से दो सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल बस्सी के दौरे पर आया। यहां पहुंचने वाले दल ने किसानों से बातचीत कर स्थिति की जानकारी ली। दल के सदस्यों का कहना था कि जिस तरह से इस पूरे इलाके के किसान उत्साहित हैं, उससे इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि राजस्थान जल्द ही फल, सब्जी उत्पादक राज्यों में अग्रणी होगा। चूंकि यहां यह कार्यक्रम निर्धारित क्षेत्रफल में चलाया जा रहा है, लेकिन उसका असर दूसरे गांवों में भी है। दूसरे गांव के किसान यहां की वैज्ञानिक खेती को अपने खेत में प्रयोग कर रहे हैं। इज़राईल प्रतिनिधिमंडल की चीफ एक्सपर्ट एग्रीकल्चर शैली कहती हैं कि कम पानी, कम लागत, कम जमीन पर इज़राईली तकनीक से अधिक उत्पादन व स्वयं आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जा रहा है। यहां के किसान इस कार्यक्रम में पूरी सक्रियता दिखा रहे हैं। इससे उम्मीद है कि जल्द ही राजस्थान खेती के मामले में कई मिथक तोड़ता नजर आएगा।

खीरे की नई प्रजाति


बीकानेर के स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने खीरे की नई किस्म तैयार की है। इस नई किस्म का नाम रखा गया है नूरी। यह किस्म राजस्थान की मिट्टी में अधिक उपज देने योग्य है। साथ ही इसमें सामान्य किस्म से अघिक मात्रा में पोषक तत्व पाए गए हैं। कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि ये पोषक तत्व पेट की बीमारियों से परेशान लोगों के लिए गुणकारी दवा का काम करेंगे। वैज्ञानिकों की मानें तो यह खीरा पूरी तरह से बीजरहित है और गैस, कब्ज और पेट से जुड़ी अन्य बीमारियों में लाभकारी भी है।


कृषि अनुसंधान केंद्र, मंडोर के वैज्ञानिक डॉ. बीआर चैधरी कहते हैं कि इस नई किस्म को तैयार करने के लिए काफी मेहनत की गई। वैज्ञानिकों ने इसे पॉली हाउस में तैयार किया। यह नूरी खीरा पूरी तरह से शुद्ध जैविक उत्पाद है। इस रेशेयुक्त खीरे की किस्म में पोषक तत्व अधिक और गुणकारी हैं। स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर के बागवानी विशेषज्ञ डॉ. इंद्र मोहन वर्मा कहते हैं कि तीन साल की मेहनत के बाद नूरी खीरे की नई किस्म विकसित करने में सफलता मिली है। अगले दो सालों में पूरे प्रदेश में इसका बीज बुवाई के लिए उपलब्ध हो जाएगा। निश्चित रूप से यह किसानों के लिए काफी मुनाफेदार साबित होगा क्योंकि यह लोगों के लिए उपयोगी साबित होगा। इससे इसकी डिमांड बढे़गी। साथ ही इसका उत्पादन भी अधिक है। ऐसे में किसान इस खीरे को अधिक से अधिक बुवाई करके मुनाफा कमा सकेंगे।


नूरी की खासियत- कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक नूरी किस्म के खीरे को छिलके सहित खाया जा सकता है। इसमें छिलके की परत बहुत पतली है। इसे उतारने की जरूरत नहीं होगी। इस खीरे में सामान्य खीरे के मुकाबले कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन और जल की मात्रा कहीं अघिक है। सलाद या सीधे ही खाया जाने वाला यह खीरा पेट के विकारों को दूर करेगा। साथ ही त्वचा के लिए भी फायदेमंद होगा।



रोगजनित पौधे उगाने का प्रशिक्षण


कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि खेती के दौरान उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न रोगों के कारण प्रभावित होता है। इसलिए किसानों को रोगजनित पौधे उगाने की जानकारी दिया जाना जरूरी है। अभी तक ग्रामीण स्तर पर ऐसी व्यवस्था नहीं है। इसलिए इंडो-इज़राईल कार्यक्रम में प्रशिक्षण को विशेष तवज्जो दिया जा रहा है।

ढिंढ़ोल गांव में रिसर्च एंड डेमोस्टेशन तकनीक के तहत प्रदेश के किसानों को रोगजनित पौधे उगाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। हालांकि अभी तक यहां होने वाले प्रशिक्षण में राज्य के हर हिस्से के किसान नहीं पहुंच पा रहे हैं। अभी तक बस्सी के आसपास के इलाके के किसानों को ही प्रशिक्षण मिल पा रहा है लेकिन इस प्रशिक्षण कार्यक्रम को विस्तारित करने के लिए लैंड हाउस और पॉली हाउस तैयार किए गए हैं। हालांकि अभी तक निर्माण कार्य चल ही रहा है। लैंड हाउस और पॉली हाउस के तैयार हो जाने के बाद राजस्थान के हर गांव के किसान को यहां बुलाया जाएगा और उन्हें निर्धारित कार्यक्रम के तहत प्रशिक्षण दिया जाएगा।

खो नागोरियान के किसान विक्रम शर्मा कहते हैं कि वे पहले टमाटर की खेती करते थे। जैसे ही बारिश होती, पौधों में रोग लग जाता था और फल आने से पहले ही पौधे रोगग्रसित हो जाते हैं, लेकिन जब से ढिंढ़ोल में यह कार्यक्रम शुरू हुआ है, उन्हें बहुत लाभ हुआ। इस वर्ष बारिश भी हुई और पाला भी पड़ा। फिर भी उनकी फसल को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ। उत्पादन भी गत वर्ष की अपेक्षा दुगुना हुआ। इसके लिए बस इतना करना पड़ा कि सेंटर पर दो-चार घंटे का समय देकर कृषि वैज्ञानिकों की बात सुननी पड़ी और जिस फार्म में सेंटर की ओर से तकनीकी खेती की जा रही है वहां जाकर यह देखना पड़ा कि किस तरह से दवाओं का प्रयोग किया जा रहा है और किस तरह से खाद का। विक्रम बताते हैं कि इस कार्यक्रम ने उनकी तकदीर बदल दी है। उनके पड़ोसी जो किसान पहले सरसों बोने के बाद खेत को खाली छोड़ देते थे, अब वे भी विभिन्न तरह की सब्जियां उगा रहे हैं। लोगों में खेती के प्रति काफी जोश दिख रहा है।

फल एवं सब्जी की नर्सरी


खेती से जुड़े लोगों के सामने नर्सरी तैयार करना एक चुनौती होती है। कई बार बीजों का सही चयन न होने के कारण फल एवं सब्जी की खेती तो किसान करते हैं, लेकिन उत्पादन नहीं ले पाते हैं। इसलिए इस कार्यक्रम के तहत नर्सरी तैयार की जाती है और यहां तैयार होने वाले पौधे किसानों को मुहैया कराए जाते हैं। ढिंढ़ोल गांव में दो नर्सरी भी बनाई गई हैं। इसमें एक नर्सरी में सब्जियां और दूसरी में फलदार वृक्षों की पौध तैयार की जाती है। इतना ही नहीं यहां पर विदेशी फूल व सब्जियों की भी विभिन्न किस्मों को उगाने की तैयारियां चल रही हैं। इसके लिए यहां ग्रीन हाउस भी बनाया जा रहा है। ग्रीन हाउस बनने के बाद यहां उन फूलों और सब्जियों की भी खेती हो सकेगी, जिसके बारे में अभी तक किसान जानते भी नहीं हैं।

उगाने की तैयारी


ढिंढ़ोल गांव के सेंटर में वर्तमान में शिमला मिर्च की खेती वरीयता के आधार पर की जा रही है। आमतौर पर जहां शिमला मिर्च का वजन 20 से 50 ग्राम तक होता है वहीं यहां तैयार किए गए फार्म में पैदा होने वाली शिमला मिर्च सौ से ढ़ाई सौ ग्राम की है। इतना ही नहीं शिमला मिर्च के पौधे में फलों का झोपा लगा हुआ है, जबकि सामान्य पेड़ों में दो-तीन फल ही लगते हैं। इस तरह उन्नत किस्म की शिमला मिर्च होने की वजह से किसानों को खूब लाभ मिल रहा है। यहां शिमला मिर्च की 14 किस्मों को विकसित किया जा रहा है।

इसके अलावा यहां पर गुलाब, खीरा की खेती की जा रही है। फलदार पेड़ों की आठ प्रकार की किस्में यहां तैयार की जा रही हैं। इसमें आम, अमरूद, बीलपत्र, चीकू, नींबू और शहतूत प्रमुख हैं। इसके अलावा यहां जैतून, जोजोबा और बिजली बनाने के लिए उपयोग में आने वाले बायोमास की खेती करने की तैयारी है। इसे औद्योगिक खेती के रूप में शामिल किया गया है। अभी इसके लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यहां के किसानों को इस औद्योगिक खेती के प्रति मानसिक रूप से तैयार किया जा रहा है।

नीदरलैंड से मंगाए फूल


ढिंढ़ोल में बने फार्म पर विदेशी फूलों की किस्म विकसित करने के तहत नीदरलैंड से ग्लेडिया फूल के पौधे भी मंगाए गए हैं, जिसे आगामी समय में विकसित किया जाना प्रस्तावित है। इसके अलावा प्रमुख रूप से ठंडे भूभाग में पैदा होने वाली स्ट्राबेरी की खेती पर भी प्रयोग किया जा रहा है। चूंकि स्ट्राबेरी की खेती ठंडे भूभाग में होती है ऐसी स्थिति में रेतीले इलाके में इसकी खेती अभी तक असंभव मानी जा रही थी, लेकिन प्रयोग के तौर पर यह खेती दो वर्ष से की जा रही है। वैज्ञानिक विभिन्न तरह के प्रयोगों के जरिए इसे आम किसानों के लिए विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं।

जैतून का तेल भी निकालेंगे


बस्सी के ग्राम ढिंढ़ोल में वर्ष 2008 में जैतून की खेती शुरू की जा चुकी है। अब इस खेती को पूरी तरह से विकसित किया जा चुका है। अगले छह माह में इसमें फल आएंगे, जिसका तेल निकाला जाएगा। इसके लिए तेल निकालने का प्लांट भी बस्सी में ही लगाए जाने का प्रस्ताव है।

कृषि का सबसे बड़ा केंद्र बनाने की तैयारी


इस पूरे कार्यक्रम के चीफ ऑपरेशन अधिकारी सुरेंद्र सिंह शेखावत कहते हैं कि जब इस कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी तब इस कदर सफलता की उम्मीद कम थी, लेकिन इस इलाके के किसानों ने इस कार्यक्रम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। वे अपनी हर छोटी से छोटी शंकाओं के समाधान के लिए केंद्र पहुंच जाते हैं। साथ ही वैज्ञानिकों की ओर से बताई गई तकनीकी को अपनाने में किसी तरह की चूक नहीं रखते। यही वजह है कि किसानों को भरपूर फायदा मिल रहा है। सेंटर पर विकसित की जा रही प्रजातियों को तमाम किसान अपना रहे हैं और इससे मुनाफा कमा रहे हैं। उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में फल, सब्जी और फूल उत्पादन के मामले में बस्सी राजस्थान ही नहीं पूरे देश का आपूर्तिकर्ता इलाका बन जाएगा।

क्या कहते हैं किसान


बस्सी के किसान हरी बरधानी बताते हैं कि पहले तो उन्हें भी उम्मीद नहीं थी कि रेत में यह सब संभव हो पाएगा। करीब पांच साल पहले जब इस प्रोजेक्ट को लेकर इलाके में चर्चा छिड़ी थी तो सब कुछ सपने जैसा लग रहा था, लेकिन वैज्ञानिकों के अथक प्रयास और सरकार की ओर से मुहैया कराए गए आर्थिक सहयोग के कारण अब बस्सी का इलाका खेती के मामले में नंबर वन होता नजर आ रहा है। इंडो-इज़राईल कार्यक्रम की शुरुआत होने के बाद तो किसानों का भाग्य ही बदल गया है। पहले परंपरागत खेती से बमुश्किल खाने भर का अनाज पैदा कर पाते थे। पानी के अभाव में खेत का तमाम हिस्सा खाली ही पड़ा रहता था, लेकिन इस कार्यक्रम के शुरू होने के बाद खाली पड़ी जमीन पौधों से आच्छादित है। मैंने खुद अपने खाली पड़े तीन बीघा खेत में अमरूद लगवा दिए हैं। बस कृषि वैज्ञानिकों से जरा-सा सहयोग मांगा। वे एक बार हमारी रुचि के बारे में जान गए तो फिर क्या था वे खुद समय-समय पर हमारे बाग में पहुंचने लगे और यह बताते कि कब क्या करना है। मसलन जब दवा छिड़काव की जरूरत पड़ी तो उसके बारे में भी बताया और निराई-गुड़ाई के बारे में भी। अब बाग तैयार हो रहा है। अगले वर्ष तक फल आने की संभावना जताई जा रही है।

वैज्ञानिक तकनीक से एक ही खेत में दो-दो फसलें ली जा रही हैं।इसी तरह जाटान के किसान शेरसिंह का कहना है कि वे सब्जी की खेती के बारे में सोचते भी नहीं थे। एक दिन पड़ोसी किसान ने ढिंढ़ोल गांव में चलने वाले कार्यक्रम के बारे में बताया। उसने जो देखा था, उसका आंखोंदेखा हाल मुझे सुना दिया। फिर क्या था मेरा भी मन वहां जाने के लिए लालायित हो गया। अगले दिन बस्सी में बनने वाले फार्म हाउस पर गया। वहां के केंद्र व्यवस्थापकों से मुलाकात की। अपनी इच्छा के बारे में बताया। बातचीत के दौरान अपनी समस्याएं भी गिनाई और वैज्ञानिकों का सुझाव भी सुना। फिर तय किया कि हम भी शिमला मिर्च की खेती करेंगे। केंद्र की ओर से उपलब्ध कराए गए पौधे ले आए और फिर उन्हें खेत में लगवा दिया। जैसे-जैसे सलाह मिली, उसी तरह से खेती के सभी पहलुओं को अपनाया। अब खेत में फसल तैयार है। शेरसिंह बताते हैं कि वैज्ञानिक तकनीक से की गई खेती का असर यह है कि शिमला मिर्च के फल इतने बड़े और हरे हैं कि इस तरह की शिमला मिर्च उन्होंने देखी ही नहीं थी। उन्नत किस्म के फल होने के कारण उनकी कीमत भी बाजार में अव्वल दर्जे की मिलती है। मंडी में ले जाते ही तुरंत उसके खरीददार मिल जाते हैं। करीब-करीब यही बात दूसरे किसान भी बताते हैं।

इस तरह देखा जाए तो ढिंढ़ोल गांव में शुरू किए गए इस इंडो-इज़राईल कार्यक्रम ने किसानों को नई राह दिखाई है। यहां के किसान कम पानी, कम खेत और कम लागत में अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। तमाम किसानों ने नींबू की भी खेती शुरू की है। जब तक नींबू के पेड़ छोटे रहते हैं, जब तक खेत में टमाटर, शिमला मिर्च आदि उगाते रहते हैं। इस तरह वैज्ञानिक तकनीक से एक ही खेत में दो-दो फसलें ली जा रही हैं।

(लेखिका शैक्षिक संस्थान से जुड़ी हैं)
ई-मेल: kusamalata.kathar@gmail.com

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