इंसानी जिन्दगियाँ महज आँकड़ा नहीं

7 Oct 2018
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सीवर साफ करता सफाईकर्मी
सीवर साफ करता सफाईकर्मी

हम में से बहुत से लोगों के लिये इंसानी जिन्दगियों का सीवर में समाते जाना कोई मुद्दा ही नहीं है। यही वजह है कि सुई से लेकर सेटेलाइट तक बनाने वाला देश इस अमानवीय काम में तकनीक का इस्तेमाल न के बराबर करता है। बात सिर्फ उनकी नहीं है जो उनमें उतरने के बाद घर लौटकर नहीं आते, जिन्हें मुआवजा थमाकर व घटना पर बयान देकर फाइल बन्द कर दी जाती है, उनकी भी है जो जिन्दा होते हुए भी बार-बार नर्क में उतरने को मजबूर हैं।

गाँधी जयन्ती पर बापू की प्रतिमा पर फूल-माला चढ़ाकर हमने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। हम में से कई ने यह टीवी पर रिचर्ड एटनबरो की ‘गाँधी’, रजत कपूर की ‘द मेकिंग अॉफ द महात्मा’ या संजय दत्त की ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ देखकर पूरा किया। जो यह नहीं कर सके उन्होंने फेसबुक, ट्विटर व व्हाट्सप्प पर महात्मा गाँधी को याद किया। कई ने स्वच्छ भारत अभियान के बहाने ही सही झाड़ू के साथ सेल्फी ही ले ली। पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों से परेशान लोगों से इससे अधिक की उम्मीद करना भी बेमानी है।

वैसे भी जिनके विचारों से दूरी बनानी होती है हम उनकी मूर्तियाँ लगा देते हैं। उन्हें भगवान बना देते हैं। मौका पड़ने पर यह कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं कि हम इंसान हैं। सड़क पर खुले पड़े मैनहोल के बगल से बचकर निकलते हमें ‘इंसानियत’ का ख्याल नहीं आता है उन चेहरों की भी याद नहीं आती जिन्हें अक्सर हम बिना किसी सुरक्षा उपकरण नंगे बदन सीवर साफ करने के लिये उनके भीतर उतरते देखते हैं। हमें तब गाँधी भी याद नहीं आते जिन्होंने कहा था कि जो समाज की गन्दगी साफ करता है उसका स्थान माँ की तरह होता है। बहरहाल, हकीकत में जो इस काम को अन्जाम देते हैं। हम उन्हें इंसान भी नहीं समझते। काश, हम और हमारा सिस्टम आँकड़ों की ही जुबान समझता। जनवरी 2017 से अब तक हर पाँचवे दिन सीवर या सेप्टिक टैंक साफ करने उतरा कोई-न-कोई इंसान लाश में तब्दील होकर घर लोटा है। अकेले दिल्ली में महीने भर के भीतर छह लोगों ने इस तरह जान गंवाई है।

सफाई कर्मचारी आन्दोलन के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच 1268 लोगों की मौत इस तरह हुई है। उनके लिये न तो मोमबत्ती जली न ही वह प्राइम टाइम डिबेट का मुद्दा बने इसलिये क्योंकि वह हमारी जिन्दगी का अहम हिस्सा होते हुए भी हमारे लिये नहीं के बराबर हैं। हम में से बहुत से लोगों के लिये इंसानी जिन्दगियों का इस तरह सीवर में समाते जाना कोई मुद्दा ही नहीं है। यही वजह है कि सुई से लेकर सेटेलाइट तक बनाने वाला देश इस अमानवीय काम में तकनीक का इस्तेमाल न के बराबर करता है। बात सिर्फ उनकी नहीं है जो उनमें उतरने के बाद घर लौटकर नहीं आते, जिन्हें मुआवजा थमाकर व घटना पर बयान देकर फाइल बन्द कर दी जाती है, उनकी भी है जो जिन्दा होते हुए भी बार-बार नर्क में उतरने को मजबूर हैं। पैसों के लिये कितने लोग इस काम को करना चाहेंगे। इंसानी गरिमा भी कोई चीज होती है। जब तक समाज इस बात को नहीं समझेगा हल निकलना मुश्किल है।

सफाई कर्मचारियों के बीच अपने काम के लिये रमन मैगसायसाय अवार्ड (Ramon Magsaysay Award) से सम्मानित हो चुके बेजवाड़ा विल्सन भी तकनीक की पैरवी करते हैं। बहरहाल कितने नगर निकाय हैं। जो इस काम में उसे अपनाने की सोच भी रहे हैं। जो सोचते भी हैं वो खर्च का बहाना बनाकर कन्नी काट लेते हैं। कितने स्टार्टअप हैं जो इस काम के लिये लो कॉस्ट टेक्नोलॉजी विकसित करने के काम में लगे हैं। गिनती उँगलियों पर है। कितने निवेशक हैं जो इस काम में लगे स्टार्ट अप की मदद को आगे आने को तैयार हैं। कितनी आईआईटी हैं जहाँ इस सवाल का जवाब खोजा जा रहा है कि इस काम के लिये सबसे बेहतर तकनीक क्या हो सकती है। सरकार व समाज इसकी जिम्मेदारी व्यक्ति व संगठनों पर छोड़कर चैन की नींद नहीं सो सकते। इस सबके बीच उम्मीद की किरणें भी हैं।

केरल में 9 युवा इंजीनियरों ने मिलकर स्टार्ट अप ‘जेनेरोबोटिक्स’ शुरू किया है। जिसने राज्य सरकार के इनक्यूबेटर केरल स्टार्टअप मिशन की मदद से इस काम के लिये रोबोट बैंडीकूट विकसित किया है। ट्रायल रन सफल होने के बाद केरल जल प्राधिकरण राजधानी तिरुवनन्तपुरम में सीवर सफाई का पूरा काम इसी के हवाले करने की तैयारी में है। स्टार्टअप सफाई कर्मियों को इन्हें चलाना सिखना है। वहीं तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद में 10 इंजीनियरों ने मिलकर छोटे आकार का रोबोट ‘सीवर क्रोक’ बनाया है। हैदराबाद मेट्रोपोलिटन वॉटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड 28 सीवर क्रोक का अॉर्डर दे चुका है। बहरहाल अभी भी यह प्रयास बेहद छोटे पैमाने पर व सीमित हैं। जिस तेजी से शहरीकरण हो रहा है इनका फलक बड़ा करना होगा। एक नहीं अनेक स्टार्ट अप की जरूरत है जो कम लागत में ऐसी तकनीक विकसित करें जिसका बड़े पैमाने पर उपयोग हो सके। इस काम में निवेश की भी जरूरत होगी। साथ ही अभी तक इस काम में लगे लोगों को तकनीक के उपयोग के लिये प्रशिक्षित भी करना होगा। इतना ही नहीं नगर निकायों को एक-दूसरे के अनुभवों से सीखने की भी जरूरत है। अगर कहीं कोई तकनीक कामयाब हो रही है तो उसे अपनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए।

बंगलुरु में दो साल पहले सीवर ट्रीटमेंट प्लांट की सफाई के दौरान तीन सफाई कर्मियों की मौत ने केरल के युवा इंजीनियरों को सोचने को मजबूर किया। हैदराबाद में भी इंजीनियर लगातार होने वाली इन घटनाओं के बाद साथ आये। अगर गटर में गिरकर कोई मरना नहीं चाहता तो हम इस बात की इजाजत कैसे दे सकते हैं कि कोई गटर में उतरकरमौत को गले लगाता रहे। यह जिम्मेदारी सरकार व समाज की है। मुँह फेर लेने से हकीकत बदल नहीं जाती। अभी जो हैं वह भयावह है। इंसानी जिन्दगियाँ महज आँकड़ा नहीं होती। जिनकी गिनती कर जिम्मेदारी पूरी समझ ली जाए। हालात बदलने की जिम्मेदारी भी किसी एक की नहीं बल्कि सब की है और इस बात को हम सभी को जल्द-से-जल्द समझ लेना चाहिए।

 

 

 

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