इस आपदा ने विकास की असलियत बतायी

सितंबर के तीसरे सप्ताह भर की अखंड बारिश ने पूरे उत्तराखंड को जाम करके रख दिया था। उसने सोर-पिथौरागढ़ से लेकर रामा-सिनाई, बंगाण तथा बद्रीनाथ से हरिद्वार, कपकोट से नैनीताल तक के बीच के क्षेत्र को झिंझोड़ कर रख दिया। लगभग दो सौ लोग तथा नौ सौ पशु मारे गये। एक हजार मकान और फसल से भरे खेत नष्ट हो गये थे। एक गणना के अनुसार राष्ट्रीय राजमार्गों सहित गाँवों को जोड़ने वाले नौ सौ मोटर मार्ग भी ध्वस्त हो गये। यहाँ से उद्गमित अलकनन्दा-भागीरथी, यमुना, रामगंगा और कोसी सहित सभी नदी-नालों में बाढ़ ने विकराल रूप धारण कर लिया। इसकी चपेट में मैदानी क्षेत्र भी आये और जलप्लावित हो गये, जिससे इन क्षेत्रों में भी भयंकर तबाही हुई।

सन 1956, 1970 एवं 1978 में भी इसी प्रकार की बारिश हुई थी। तब तबाही तो हुई थी, लेकिन इस प्रकार की नहीं। मुझे बचपन की याद है कि हमारे गाँव गोपेश्वर में भारी बारिश के बाद भी न जल भराव एवं न ही भूस्खलन की भयंकरता कभी दिखी। तब गोपेश्वर की आबादी मुश्किल से पाँच सौ के आसपास थी, जो आज बढ़कर पन्द्रह हजार से अधिक हो गयी है।

आज के फैले हुए गोपेश्वर में वर्षा के दिनों में टूट-फूट एवं जल भराव की घटना यदा-कदा होती रहती है, लेकिन जो पुराना गाँव है उसमें अभी तक इस प्रकार की गड़बड़ी नहीं के बराबर है। गोपेश्वर मंदिर के दक्षिण दिशा की ओर पूर्व में भूमिगत नाली पानी के निकास के लिये बनी थी, जिसमें जलभराव की नौबत ही नहीं आती थी। बचपन में यदा-कदा बड़े-बूढ़ों की गपशप में गोपेश्वर को थानी-मानी गाँव कहते हुए सुनते थे। गोपेश्वर ही नहीं, कई और गाँवों को भी थानी-मानी गाँव कह कर सम्बोधित किया जाता था और ऐसे गाँवों में रिश्तेदारी करने में सकुचाते नहीं थे। इसका अर्थ पूछने की हमें अपने बड़ों से हिम्मत ही नहीं होती थी। लेकिन जहाँ तक मैं समझा, इन गाँवों की बसावट में भूमि की स्थिरता, भूमि पर भार वहन क्षमता, पानी एवं जंगल का पूरा ध्यान रखा जाता था। इसके आधार पर ही गाँव की रचना की जाती थी।

हिमालयी क्षेत्रों में गाँव की रचना के साथ-साथ मकानों के निर्माणस्थल पर भी बहुत सावधानी बरती जाती थी। स्थल की मिट्टी को आधार मान कर निर्माण की सहमति होती थी। उसका निर्माण आरम्भ करने में सात सौंण की कहावत प्रचलित थी। बुनियाद डालते समय श्रावण के महीने के सात दिन की बरसात के बाद जब जमीन बैठ जाती तो उससे फिर आगे कार्य किया जाता। भवन सामग्री अधिकांश स्थानीय होती थी। इसमें दीवार बनाते समय पत्थरों के जोड़-तोड़, धँसाव एवं भूकम्प को सहने का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। दरवाजों के ऊपर लकड़ी या पत्थर को बीचों-बीच कस कर रखा जाता था। मकान के तीनों ओर से गैड़ा (पानी के प्रवाह की नाली) निकाला जाता था और उसकी सफाई का पूरा ध्यान रखा जाता था। बरसात से पूर्व डांडा-गूल की सफाई की जाती थी, जिससे बारिश का पानी गाँव के बीच न बहे, गाँव का नुकसान न हो। जहाँ गाँव ढाल पर बसे हैं, वहाँ ऊपरी भाग में ये डांडा-गूल इस प्रकार बनायी जाती थी कि वर्षा का पानी दोनों छोरों से बाहर की ओर बिना अवरोध के प्रवाहित हो जाये।

यह ध्यान न केवल गाँव की बसावट में रखा जाता, अपितु जितने भी पुराने तीर्थ धाम हैं उनमें भी भूमि-भार वहन क्षमता और स्थिरता, नदी से दूरी आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था। बद्रीनाथ मंदिर इसका उदाहरण है, जिसमें दोनों ओर भूस्खलन होता रहा, किन्तु मंदिर भूस्खलन एवं भूकम्प आने के बाद भी सुरक्षित है। कहा जाता है कि बद्रीनाथ मंदिर नारायण पर्वत के ‘आँख की भौं’ वाले भाग के निचले भाग में स्थापित किया गया है, जिस कारण मंदिर हिमस्खलनों से सुरक्षित रहता आया है। यही ध्यान केदारनाथ मंदिर के स्थापत्य में रखा गया है।

गाँवों में खेतों का नुकसान कम हो, इसलिये एक खेत से नीचे के भाग में बीचों-बीच सेरा गूल निकाली जाती थी, जिससे वर्षा का पानी खेतों में फैले नहीं। खेतों एवं गूलों की मेड़ों पर कौणी और झंगोरा बोया जाता था, बीच में धान, तिल आदि। कौणी-झंगोरा आदि की जड़ कुछ मजबूत एवं ऊँची बढ़त वाली फसल थी, इसलिये इससे खेत की पगार-दीवार कम टूटती थी। गाँवों के आसपास के जंगल या भूमि में आग लगती तो उसे तुरन्त बुझाने की परम्परा थी। इसमें गाँव के सभी लोग भाग लेते थे। वर्षा के मौसम में कई गाँवों के लोग अपने पशुओं को लेकर ऊपरी स्थानों में चले जाते और उसके समापन होते ही फिर गाँव में आ जाते। इस बीच निचले क्षेत्र में नुकसान होता भी तो मानव हानि बच जाती थी। नदियों के किनारे बसावट नहीं होती थी। नदी से हमेशा दूरी का रिश्ता रखा जाता था। एक कहावत भी प्रचलित थी, ‘नदी तीर का रोखड़ा-जत कत सौरों पार’। नदी के किनारे की बसावट कभी भी नष्ट हो जाती है।

इसलिये नदियों के किनारे की बसावट एवं खेती नितान्त अस्थायी रहती। बारिश के मौसम में वहाँ रहना वर्जित जैसा था। यही कारण था कि गंगा की मुख्य धारा अलकनन्दा एवं उसकी सहायक धाराओं में सन 1970 से पूर्व कई बार प्रलयंकारी भूस्खलन हुए, इनसे नदियों में अस्थायी झीलें बनीं जिनके टूटने से प्रलयंकारी बाढ़ आई पर ऊपरी क्षेत्रों में इन बाढ़ों से जन-धन की हानि नहीं के बराबर हुई। सन् 1868 में अलकनन्दा की सहायक धारा- बिरही से आयी बाढ़ से लालसांगा (चमोली) में 73 यात्रियों के मारे जाने की जानकारी है। लेकिन इसके अलावा स्थानीय बस्तियों में मानव मृत्यु की जानकारी नहीं है। यही नहीं, सन् 1894 की अलकनन्दा की प्रलयंकारी बाढ़ में भी केवल एक साधु की मौत की जानकारी है, भले ही खेत और सम्पत्ति का नुकसान हुआ हो। उसमें भी अलकनन्दा के उद्गम से डेढ़ सौ किमी. दूर श्रीनगर गढ़वाल में ही ज्यादा नुकसान होना बताया गया। एक समय में श्रीनगर राजाओं की राजधानी के साथ ही गढ़वाल का केन्द्रीय स्थल था, इसलिये जनसंख्या के दबाव से नदी के विस्तार के अंदर आबादी फैलती गई। अलकनन्दा के स्वभाव की अनदेखी की गई।

सन् 1950 के बाद उत्तराखंड में स्थित तीर्थ स्थानों, पर्यटक केन्द्रों एवं सीमा सुरक्षा की दृष्टि से मोटर सड़कों का जाल बिछा। अधिकांश सड़कें यहाँ की प्रमुख नदियों के तटवर्ती क्षेत्रों से ले जायी गयीं। इसी आधार पर पुरानी चट्टियों का अस्तित्व समाप्त हो गया और नये-नये बाजार रातों रात खड़े हो गये। इनमें कई नये बाजार नदियों से सटकर खड़े हो गये। मोटर सड़क भी कई अस्थिर क्षेत्रों में खोदी गयी। कारतूसों के धमाकों से ये और अस्थिर हो गये। सड़कों के आसपास के जंगलों का भी बेतहाशा विनाश शुरू हुआ। ऊपर से नदियों द्वारा दो-कटिंग होता रहा। इस सबका एकीकृत प्रभाव मोटर सड़क के आसपास पड़ा और भूस्खलन की शुरूआत हुई।

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