होली पर विशेष: कैसे होली पर बचाएँ पानी और जंगल

16 Mar 2022
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फोटो:writers.com
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एक तरफ हमारे जंगल तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। जंगल खत्म होते जाने का सीधा असर बारिश कम होने तथा पर्यावरण तंत्र के नुकसान के रूप में सामने है, दूसरी तरफ लकड़ी जलाने से वायुमण्डल दूषित होता है। इसका बड़ा खामियाजा हमारे स्वास्थ्य को भुगतना पड़ता है और कई गम्भीर बीमारियों का कारण भी बनता है। हमें अपने पर्यावरणीय सरोकारों के प्रति गम्भीरता से सोचने और इस दिशा में काम करने का। अब भी यदि हम कुछ नहीं कर सकें तो नई पीढ़ी के लिये हम कौन-सी और किस तरह की दुनिया छोड़ जाएँगे, कहना मुश्किल है। होली उमंग, उत्साह और खुशियों का त्योहार है। हर बार की तरह इस बार भी आप होली खूब उत्साह से मनाएँ पर दो खास बातों का ध्यान रखेंगे तो आगे की हमारी कई पीढ़ियाँ भी इसी उत्साह से यह त्योहार मना सकेंगी। यदि हमने आज ध्यान नहीं रखा तो आने वाली पीढ़ी के लिये न तो पानी बचेगा और न ही जंगल।

हम सब जानते हैं कि भूजल भण्डार खत्म होते जाने से हम साल-दर-साल पानी के संकट से जूझते जा रहे हैं। हर साल गर्मियों की आहट आते ही हर शहर, कस्बों और गाँवों तक में पानी के लिये हाहाकार शुरू हो जाता है। ऐसे में यह सवाल मौजूं है कि परम्परा के नाम पर लाखों गैलन पानी की फिजूलखर्ची और बर्बादी कहाँ तक उचित है। होली को सूखे रंगों और कम-से-कम पानी का इस्तेमाल करते हुए भी मनाई जा सकती है।

 

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बात सिर्फ पानी की ही नहीं है, होली जलाने की परम्परा का सबसे बड़ा खामियाजा हमारे जंगलों को उजाड़कर भुगतना पड़ता है। होली जलाने के नाम पर करोड़ों टन लकड़ी इस्तेमाल की जाती है। इससे एक तरफ हमारे जंगल खत्म होते जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इससे बड़ी तादाद में प्रदूषण भी फैलता है। रसायन विज्ञान के शोधार्थी प्रद्युम्न सिंह राठौर कहते हैं– 'एक टन लकड़ी जलाने पर करीब 85 किलो प्रदूषित तत्व निकलते हैं, जिनमें कार्बन डाइऑक्साइड और कार्बन मोनो ऑक्साइड गैसों सहित अन्य हानिकारक तत्व मिलते हैं। इस तरह ये गैसें लकड़ी के धुएँ के साथ मिलकर साँस के जरिए हमारे ही स्वास्थ्य के लिये नुकसानदेह है और साँस की गम्भीर बीमारियों का कारण बन सकती है।'

हमारे पूर्वज हमेशा इस बात का ध्यान रखते थे कि कोई भी परम्परा पर्यावरण के लिये संकट का पर्याय न बन जाये। इसलिये होली जलाने के लिये भी लकड़ी की जगह गाय के गोबर से बने कंडों का उपयोग ही करते थे। कंडों के जलने से प्रदूषण नहीं फैलता है।

पहले गाँवों में एक कस्बों में अधिकतम दो और शहरों में चार-पाँच स्थानों पर ही होलिका दहन हुआ करता था लेकिन अब बढ़ते चलन और लोगों के आपसी प्रेम कम होते जाने से शहरों में पाँच से बीस हजार स्थानों, कस्बों में बीस से पचास स्थानों और गाँवों तक में आठ से पन्द्रह तक स्थानों पर होलिका दहन किया जाता है। अकेले इन्दौर शहर में 20 हजार से ज्यादा होलिका स्थान हैं।

इनके दहन में अमूमन 300 टन लकड़ी जलाई जाती है और इतनी लकड़ी के लिये औसत चार हजार पेड़ काटने होते हैं। सोचिए, इतनी बड़ी तादाद में करीब-करीब हर चौराहे-मोहल्ले में होलिका दहन के लिये कितनी बड़ी तादाद में लकड़ी की जरूरत होती है और इतनी लकड़ी जलेगी तो उससे कितना प्रदूषण हम हमारे ही परिवेश को दे रहे हैं।

वन अधिकारी भी मानते हैं कि हमारे जंगल तेजी से कम होते जा रहे हैं। नए जंगल उगाना बड़ा ही श्रमसाध्य काम है। यह कभी-कभी तो इतना मुश्किल होता है कि 200 पौधे लगाने पर इनमें से महज दो पौधे ही पेड़ का आकार ले पाते हैं। एक पौधे को पेड़ बनने में पाँच से बीस साल तक का समय लगा जाता है। मध्य प्रदेश में तो अब वन अधिकारियों ने अपील की है कि होली के लिये लकड़ियों की जगह कंडो का ही शास्त्र सम्मत उपयोग करें।

 

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इन्दौर के वन संरक्षक वीके वर्मा कहते हैं- 'होली से एक महीने पहले वन विभाग की चौकसी बढ़ जाती है, हमारे लिये यह बड़ा चुनौतीपूर्ण होता है। इसके बावजूद बड़ी तादाद में हर साल लकड़ियाँ होली के नाम पर जला दी जाती हैं। इसका खतरा जंगलों से लगे इलाकों में ज्यादा होता है। होलिका दहन समितियाँ इस बार कंडो की होली जलाकर आदर्श प्रस्तुत करें ताकि पेड़ बच सकें और जंगल आबाद रह सकें।'

धर्म के जानकार भी बताते हैं कि परम्परा तो कंडों की होली जलाने की ही रही है। मध्य प्रदेश गौपालन और पशु संवर्धन बोर्ड की कार्य परिषद के अध्यक्ष स्वामी अखिलेश्वरानंद कहते हैं- 'गाय के गोबर से बने कंडों में ऐसे कोई तत्व नहीं होते जो वायुमण्डल को दूषित कर सकें, बल्कि इसका धुआँ तो वातावरण को शुद्ध करता है। पहले के समय में रिवाज था कि हर घर से कुछ कंडे और गोबर से बने अलग-अलग आकार प्रकार के बड्बुलों की मालाएँ महिलाएँ होलिका की पूजन के समय लाती थीं और उन्हें होलिका के डाँडों पर सजाया जाता था। धार्मिक महत्त्व में कहीं लकड़ी का उल्लेख नहीं मिलता है। यदि होलिका दहन में कंडों का चलन बढ़ता है तो इससे गौ संवर्धन और गोबर के उपयोग पर भी सकारात्मक असर होगा। सबसे बड़ी बात तो यहाँ कि हमारे बेशकीमती जंगल बच सकेंगे। जंगल खत्म होंगे तो बारिश कम होगी और पानी का संकट और भी बढ़ जाएगा।'

 

 

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एक मोटे अनुमान के मुताबिक मध्य प्रदेश में सरकारी रूप से अधिकृत ही करीब 664 गौशालाएँ हैं, जिनमें करीब सवा लाख के आसपास गाएँ हैं। इतनी गाएँ होने से बड़ी संख्या में यहाँ से कंडे खरीदे जा सकते हैं। यदि होली में कंडे का चलन बढ़ता है तो इसका फायदा सीधे तौर पर इन गौशालाओं को भी मिल सकता है। इससे उनकी माली हालत भी सुधर सकती है। एक अनुमान के मुताबिक इन गौशालाओं से ही करीब साढ़े बारह लाख किलो गोबर निकलता है और इनके कंडे बिकने पर दो करोड़ रुपए तक का फायदा हो सकता है। इससे बिना किसी सरकारी मदद के गौशालाओं को करीब बारह से तेरह लाख रुपए तक का फायदा हो सकता है।

आज जब तेजी से एक तरफ हमारे जंगल खत्म होते जा रहे हैं। जंगल खत्म होते जाने का सीधा असर बारिश कम होने तथा पर्यावरण तंत्र के नुकसान के रूप में सामने है, दूसरी तरफ लकड़ी जलाने से वायुमण्डल दूषित होता है। इसका बड़ा खामियाजा हमारे स्वास्थ्य को भुगतना पड़ता है और कई गम्भीर बीमारियों का कारण भी बनता है।

एक तरफ दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ता जा रहा है तो दूसरी तरफ हम अब भी अपनी परम्पराओं को वैज्ञानिक और पर्यावरणीय चेतना के साथ नहीं देख-समझ पा रहे हैं। अब भी समय है, हमें अपने पर्यावरणीय सरोकारों के प्रति गम्भीरता से सोचने और इस दिशा में काम करने का। अब भी यदि हम कुछ नहीं कर सकें तो नई पीढ़ी के लिये हम कौन-सी और किस तरह की दुनिया छोड़ जाएँगे, कहना मुश्किल है।

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