इस तरह गुमराह कर बढ़ाया जा रहा भारत में वन क्षेत्र

7 Feb 2020
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इस तरह गुमराह कर बढ़ाया जा रहा भारत में वन क्षेत्र
इस तरह गुमराह कर बढ़ाया जा रहा भारत में वन क्षेत्र

ऋषिका पारडीकर, इंडिया स्पेंड

इंडिया स्टेट ऑफ फाॅरेस्ट रिपोर्ट (आईएसएफआर) 2019 के अनुसार भारत सरकार के रिकाॅर्ड में जंगल के रूप में वर्गीकृत किए गए 29.5 प्रतिशत क्षेत्र में वनावरण नहीं है। इसमें से कुछ भूमि को सड़क निर्माण और खनन के लिए दे दिया गया है, जबकि कुछ भूमि खेती की है।

फाॅरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) द्वारा 30 दिसंबर 2019 को जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार सरकारी रिकाॅर्ड में दर्ज 767,419 वर्ग किमी वन क्षेत्र में से 226,542 वर्ग किमी क्षेत्र में वन आवरण (Forest Cover) नहीं है। ऐसे में वन आवरण विहीन क्षेत्र को लगातार वन क्षेत्र दिखाकर सरकार द्वारा दिखाया जा रहा है।

वन क्षेत्र का मतलब है एक हेक्टेयर का 10% हिस्सा पेड़ों की छांव से घिरा हो, चाहे उस ज़मीन की क़ानूनी स्थिति कुछ भी हो। एफएसआई द्वारा दर्ज फाॅरेस्ट एरिया (Recorded Forest Area) में चंदवा घनत्व (पेड़ों की छांव से घिरा हिस्सा) के आधार पर नहीं बल्कि कानूनी रूप से सरकारी रिकाॅर्ड में दर्ज भूमि को ही शामिल किया गया है।

नई दिल्ली स्थित सेंटर फाॅर पाॅलिसी रिसर्च की वरिष्ठ शोधकर्ता कांची कोहली ने बताया कि वन विभाग के अभिलेखों में अधिकारिक रूप से दर्ज वन क्षेत्र को ही ‘वन’ कहा जाता है और इसी के अनुसार वन विभाग कार्य करता है। संक्षेप में कहें तो रिकाॅर्ड में दर्ज वन क्षेत्र ही वन विभाग के अधिकार क्षेत्र को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि, उदाहरण के तौर पर देखें तो दर्ज वन क्षेत्र में स्थानीय वन विभाग से संबंधित भूमि शामिल हो सकती है, लेकिन भूमि को सड़क निर्माण और खनन जैसे विकास संबंधी कार्यों के लिए देने या खेती के उपयोग में होने के कारण इस भूमि पर वन आवरण नहीं है।

इंडिया स्टेट ऑफ फाॅरेस्ट रिपोर्ट 2019 में दर्शाया गया फाॅरेस्ट कवर और रिकाॅर्डेड फाॅरेस्ट एरिया।।

वर्गीकृत भूमि (Diverted Land) कैसे कानूनी तौर पर वन भूमि रह सकती है

वन भूमि में किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए वन विभाग से मंजूरी लेनी होती है। मंजूरी देने के लिए वन विभाग एक पत्र जारी करता है। पत्र में एक धारा का उल्लेख किया जाता है, जिसके अनुसार जंगल को काटने के बाद भी वन भूमि की स्थिति पर क़ानूनी रूप से कोई बदलाव नहीं आएगा। यानी वो क्षेत्र कानूनी तौर पर वन विभाग के अधीन ही रहेगा।

वर्गीकृत भूमि की कानूनी स्थिति को नहीं बदलने के संभावित कारणों की समझाते हुए कांची कोहली ने कहा कि खनन करने के बाद उस भूमि के गड्ढ़ों को भर दिया जाता है और भूमि वापिस वन विभाग को सौंप दी जाती है। बांध के जलाशयों का इस्तेमाल वन विभाग मछली पकड़ने और पर्यटन के लिए निरंतर करता रहता है। कांची कोहली ने कहा कि उन वन आवरण विहीन क्षेत्रों को भी वन क्षेत्रों के रूप में दर्ज किया जा सकता है, जो भूमि स्थानांतरण कृषि (Shifting Cultivation) के अधीन है, वनों पर जिनके दावे वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत लंबित हैं और जहां मूलनिवासी आदिवासी ऐतिहासिक रूप से रहते आए हैं। 

'वन आवरण विहीन वन क्षेत्र के अंतर्गत क्या आता है', इस सवाल के जवाब में एफएसआई के महानिदेशक सुभाष आशुतोष ने कहा कि, ''ये ऐसे क्षेत्र हैं जो पारिस्थितिक महत्व के हो सकते हैं, लेकिन इनमें रेगिस्तान की तरह वन आवरण नहीं हो सकता। साथ ही अधिक ऊंचाई वाले इलाके जहां पेड़ नहीं उगते, दलदली भूमि और घास के मैदान नहीं हो सकते। आशुतोष ने कहा कि स्थानांतरण खेती के अधीन वाला क्षेत्र रिकाॅर्डेड वन क्षेत्र का हिस्सा नहीं है। गौर करने वाली बात है कि पूर्वात्तर में भूमि काफी हद तक समुदाय के स्वामित्व वाली है। उन्होंने कहा कि स्थानांतरण कृषि की भूमि पर यदि वन आवरण है, तो ये देश में कुल वन आवरण के रूप में वर्गीकृत हो सकता है। नागालैंड में सतत विकास की दिशा में कार्य करने वाले एनजीओ सस्टेनेबल डेवलपमेंट फोरम के नीति विश्लेषक अंबा जमीर ने कहा कि ये वो भूमि है, जिस पर  समुदाय पीढ़ियों से स्थानांतरित खेती करते आए हैं।  आममौर पर समुदाय प्राथमिक जंगलों (ऐसे प्राचीन वन जो मानवीय गतिविधियों से दूर अपनी मूल स्थिति में मौजूद हैं।) को नुकसान पहुंचाए बिना जमीन का उपयोग करते हैं। 

वर्तमान में इस तरह की कई ज़मीनों को स्थानांतरण कृषि (यानी ज़मीन जब खेती के लायक नहीं रहती तो किसान खेती की जगह बदल लेते हैं) के रूप में उपयोग नहीं किया जा रहा है और इसे परती भूमि (ऐसी कृषि भूमि, जिसकी उर्वरता को वापिस लाने के लिए उस पर करीब एक साल तक कोई फसल नहीं उगाई जाती) के रूप में छोड़ दिया गया है। इस भूमि पर अब माध्यमिक जंगल (माध्यमिक जंगल ऐसे जंगलों को कहा जाता है, जिनके प्राकृतिक परिवेश के साथ प्राकृतिक और अप्राकृतिक तौर पर छेड़छाड़ की गई हो।) उग चुका है। उन्होंने कहा कि शायद यही फाॅरेस्ट कवर आईएसएफआर में दर्ज किया गया है। वहीं, स्थानांतरित कृषि के अंतर्गत आने वाली भूमि और कम से कम 10 प्रतिशत चंदवा घनत्व वाली भूमि को फाॅरेस्ट कवर में शामिल किया जा सकता था। क्या इन जमीनों को दर्ज वन क्षेत्र के हिस्से के रूप में शामिल किया जा सकता है, के जवाब में जमीर ने कहा कि स्थानांतरण कृषि की जमीन का कभी भी सांख्यिकीय सर्वेक्षण नहीं किया गया है। इसलिए सर्वेक्षण के आंकड़ों की कमी के चलते हम सुनिश्चित करने के लिए ये नहीं कह सकते कि स्थानांतरण कृषि की जमीन को सरकारी रिकाॅर्ड में वन क्षेत्र के रूप में शामिल किया गया है।

वनों के बिना वन क्षेत्र के खतरे

वर्गीकृत भूमि को वन क्षेत्र के रूप में श्रेणीबद्ध करने से यह सवाल उठता है कि वनों की कटाई का हिसाब कैसे लगाया जा रहा है।

नेशनल बोर्ड फाॅर वाइल्डलाइफ के पूर्व सदस्य प्रवीण भार्गव ने पूछा कि वन भूमि को विकास कार्यों के लिए देने और बार बार जंगलों में लगने वाली आग से पहुंचने वाले नुकसान का हिसाब आईएसएफआर कैसे लगाता है। उन्होंने ये भी पूछा कि दर्ज वन भूमि पर जब एफआरए के दावों को स्वीकार किया गया था, तब कौन-सी पद्धति अपनाई गई थी। भार्गव ने कहा कि कटाई से वनों को नुक़सान हो रहा है, लेकिन इस पर ध्यान केंद्रित न करके आईएसएफआर देश को क्षति पहुंचा रहा है, जो कि वन आवरण के लिए बड़ी चुनौती है। आशुतोष ने कहा कि उन क्षेत्रों को भी दर्ज वन क्षेत्र में शामिल किया गया है, जहां जंगलों को काट दिया गया है और भूमि को वर्गीकृत कर विकासात्मक गतिविधियों के लिए दे दिया गया है। क्या यह वनों की कटाई पर नजर रखने और हतोत्साहित करने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न करेगा के प्रश्न पर उन्होंने कहा कि यह देश में एक प्रमुख मुद्दा नहीं है। वन आवरण को होने वाले नुकसान का ये प्रमुख कारण नहीं है। आशुतोष ने कहा कि वन कटाव एक बड़ी समस्या है, इसलिए वन संरक्षण अधिनियम के तहत वृक्षारोपण गतिविधियों से वनों की कटाई की भरपाई की जाती है।

वन भूमि को जब गैर वन उद्देश्यों के लिए खनन और सड़क निर्माण कार्यों के लिए दे दिया जाता है, तब वन संरक्षण अधिनियम गैर वन भूमि या निम्नीकृत भूमि पर वनीकरण के लिए कहता है। हालांकि वनों की अनदेखी और मोनोकल्चर (एक ही तरह के पेड़ लगाना) पौधारोपण को प्रोत्साहित करने के लिए इस नीति की आलोचना की जाती है, जो कि कार्बन को अवशोषित करने, भूजल स्तर को रिचार्ज करने में सहायता करने, वन्यजीवों का आश्रय देने के लिए उपयुक्त पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान नहीं करते या उपयुक्त नहीं हैं। वन आवरण के बिना कुछ क्षेत्रों को वन क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत करने से दूसरी चिंता ये है कि स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के ज्ञान के बिना ऐसी भूमि को निम्नीकृत करने और पौधारोपण करने का आधार बना सकते हैं।

एक स्वतंत्र शोधकर्ता एमडी मधुसूदन कहते हैं कि ये क्षेत्र घास के मैदान हो सकते हैं, लेकिन वन आवरण के बिना वन भूमि में श्रेणीबद्ध करना इसे खतरे में डाल सकता है, विशेषकर कि जब ये वन विभाग के अधीन है और जिसने गैर-वन बायोम को बेवक्त पौधोरोपण के माध्यम से नष्ट कर दिया है। उदाहरण के तौर पर, वर्ष 2019 में हुए एक शोध में पता चला कि पश्चिमी घाट में एक गलत धारणा के कारण शोला के जंगलों में घास के मैदानों को ऊसर भूमि समझा जाता था, जिसमें से उस दौरान कुछ भूमि पर वनीकरण ड्राइव (पौधारोपण मुहिम) चलाई गई थी। इसने क्षेत्र की पारिस्थितिकी ही  बदल गई। भले ही इस भूमि का वनाच्छादित परिदृश्य था, जो अपना वन आवरण खो चुका है, फिर भी पौधारोपण की गतिविधियां हानिकारक हो सकती हैं। भार्गव ने कहा कि ऐसे क्षेत्रों में हमेशा से अपना रूट स्टाॅक (Root Stock) होता है। आग, कटाई, चराई आदि से सुरक्षा के साथ प्राकृतिक रूप से दोबारा जंगल उगाना केवल आंकड़ों और पारिस्थितकी तंत्र के ज्ञान के साथ किया जा सकता है। आशुतोष ने कहा कि वन आवरण के बिना दर्ज वन क्षेत्र गलत विचारधारा से की जाने वाली वनीकरण गतिविधियों के लिए आधार बन सकता है और ऐसा पहले भी हो चुका है। उन्होंने कहा कि पर्यावरण मंत्रालय के पास अभी बेहतर गाइडलाइन्स हैं और हम जमीन तथा विभिन्न प्रजाति के पेड़-पौधों को समझने की कोशिश करते हैं।

(ऋषिका पारडीकर बेंगलुरु में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। आलेख की अंग्रेजी की मूल प्रति के लिये इंडिया स्पेंड पर जाएं। (IndiaSpend is a data-driven, public-interest journalism non-profit.))

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