जैविक खेती की राह आसान नहीं, सरकारी प्रयास बेदम

14 Nov 2019
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जैविक खेती की राह आसान नहीं, सरकारी प्रयास बेदम
जैविक खेती की राह आसान नहीं, सरकारी प्रयास बेदम

अभी हाल ही में (23 अक्टूबर को) बिहार के एक गांव ने पूर्ण रूप से जैविक खेती को अपनाने का जश्न मनाया।  जमुई ज़िले का केड़िया गांव पिछले 3-4 सालों से काफ़ी चर्चित रहा है। इसकी एकमात्र वजह यहां के किसानों द्वारा परंपरागत खेती के मॉडल को विकसित करना रहा है। क़रीब 100 परिवारों वाले इस छोटे गांव ने पिछले साल नवंबर में आधिकारिक रूप से 'जैविक गांव' का दर्जा पा लिया। यानी यहां शत प्रतिशत जैविक खेती होती है, हालांकि सच्चाई सिर्फ़ इतना नहीं है। इसकी चर्चा आगे होगी, अभी जैविक खेती की ज़रूरतों और इसके प्रोत्साहन के लिए सरकारी प्रयासों को समझने की कोशिश करते हैं।
 
खेती-किसानी की जब बात आती है तो हम किताबों या हर जगह हरित क्रांति की चर्चा अवश्य पाते हैं। 1960 के दशक के मध्य में शुरू हुई हरित क्रांति ने देश की बढ़ती आबादी का पेट भरने का लक्ष्य रखा। इसका फ़ायदा यह हुआ कि हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर ज़रूर बने। लेकिन रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से जैवविविधता और मिट्टी व फसलों की गुणवत्ता पर धीरे-धीरे व्यापक असर पड़ा। पर्यावरण के साथ-साथ हमारा स्वास्थ्य भी बिगड़ता चला गया।
 
पिछले साल 'डाउन टू अर्थ' पत्रिका में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, 120 से अधिक वैज्ञानिकों ने भारत में नाइट्रोजन की स्थिति का मूल्यांकन किया। इसके मुताबिक भारतीय किसान पिछले 5 दशकों में औसतन 6,610 किलोग्राम यूरिया का इस्तेमाल कर चुके हैं क्योंकि यह सस्ता पड़ता है। 67 फ़ीसदी यूरिया मिट्टी, जल और पर्यावरण में पहुंच जाता है। क़रीब 33 फ़ीसदी यूरिया का इस्तेमाल ही फसल कर पाती है। 3 लाख टन नाइट्रस ऑक्साइड भारत के खेत छोड़ते हैं जो पर्यावरण में पहुंच कर वैश्विक तापमान में वृद्धि करते हैं।
 
खेतों में रसायनों के इस्तेमाल से मिट्टी में प्राकृतिक सूक्ष्म पोषक तत्वों की लगातार कमी हुई है और हो रही है। जिसके कारण पिछले एक दशक में जैविक खेती को अपनाने की दिशा में चर्चा तेज हुई। 3 साल पहले सिक्किम देश का पहला जैविक राज्य घोषित हो चुका है। बाकी राज्य अभी इस पहल से काफ़ी दूर नज़र आते हैं। जिन राज्यों में जैविक खेती हो भी रही है, वहां सरकारी प्रयास काफ़ी कम नज़र आ रहे हैं। हालाकि सरकार का दावा है कि इस दिशा में तेज़ी से प्रयास किए जा रहे हैं। पर्यावरण संरक्षण और मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बनाए रखने के लिए जैविक खेती आज ज़रूरी हो गयी है।
 
केंद्र सरकार मुख्य रूप से पूर्वोत्तर क्षेत्र जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन (MOVCDNER), परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (NFSM) के ज़रिये जैविक खेती को बढ़ावा देने का काम कर रही है। संसद के मानसून सत्र में लोकसभा में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने जैविक खेती को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि PKVY के अंतर्गत 3 वर्षों में प्रति हेक्टेयर 50,000 रुपये की सहायता दी जाती है। इसमें से किसानों को आदानों (जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, वर्मी कम्पोस्ट वनस्पतिक, अर्क आदि) के उत्पादन/खरीद, फसलोपरांत अवसंरचना आदि के लिए डीबीटी के माध्यम से 31,000 रुपये (61 फ़ीसदी) की वित्तीय सहायता की जाती है। इसके अलावा पूर्वोत्तर क्षेत्र जैविक मूल्य श्रृंखला विकास मिशन के तहत किसानों को ऑन फार्म और ऑफ़ फार्म जैविक आदानों के उत्पादन/खरीद के लिए 3 वर्षों में प्रति हेक्टेयर 7,500 रुपये की वित्तीय सहायता की जाती है। वहीं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के अंतर्गत जैव उर्वरक (राइजोबियम/पीएसबी-फास्फेट घुलनशील बैक्टीरिया) के संवर्धन के लिए प्रति हेक्टेयर 300 रुपये की लागत सीमा के 50 फ़ीसदी की दर से वित्तीय सहायता की जाती है। 
 
वर्ल्ड ऑफ आर्गेनिक एग्रीकल्चर रिपोर्ट 2018 के अनुसार, भारत में प्रमाणित ऑर्गेनिक उत्पादकों की संख्या पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। पूरे विश्व के क़रीब 27 लाख जैविक उत्पादकों में 30 फ़ीसदी यानी 8.35 लाख उत्पादक भारत में हैं। हालांकि इसके बावजूद भारत की कुल कृषि में जैविक खेती की साझेदारी मात्र 0.8 फ़ीसदी ही है। भारत में जैविक खेती की दिशा में किए जा रहे कामों को लेकर कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, "अभी इसके संक्रमण में समय लगेगा क्योंकि इसके लिए रिसर्च और नीतियों की जरूरत है। इसकी तरफ़ संयुक्त राष्ट्र का भी ज़ोर है। भारत में भी कोशिशें जारी हैं। किसानों के पास विकल्प नहीं हैं। उन्हें प्रमाण दिखाने की ज़रूरत है। सरकार की तरफ से आधा-अधूरा खेल चल रहा है। इसको लेकर जो प्रयास होना चाहिए, वो अभी तक नज़र नहीं आ रहा है। इसके लिए अच्छी मार्केटिंग की ज़रूरत है। एक माहौल बनाने की ज़रूरत है, क्योंकि कंज़्यूमर भी जैविक उत्पादों की मांग कर रहे हैं।"
 
केंद्र या राज्य सरकारें जैविक खेती को लेकर जितना प्रचार कर रही है, वो ज़मीन पर नज़र नहीं आता है। केंद्र सरकार जैविक खेती की बात आने पर सिक्किम का उदाहरण ज़रूर देती है। लेकिन सिक्किम की पूर्व सरकार ने जैविक खेती को प्रोत्साहन देने के साथ रासायनिक खेती पर नियमन भी लागू किया था। बाद में रासायनिक खेती पर प्रतिबंध लगाने के लिए वहां कड़े क़ानून भी बनाए गए। दूसरी ओर, जो ग़लत और अपोषणीय प्रैक्टिस है उसे रोकने की भी ज़रूरत है। अगर हम सिक्किम का उदाहरण लें, तो वहां एक तरफ़ जैविक खेती की कार्यप्रणाली का प्रचार होता है और दूसरी तरफ़ रासायनिक खेती पर रेगुलेशन भी काम करता है।
 
जैविक खेती की मौजूदा चुनौतियों को लेकर अलायंस फॉर सस्टेनेबल एंड हॉलिस्टिक एग्रीकल्चर (ASHA) की संयोजक कविता कुरुगंती कहती हैं, "इसके लिए किसानों को संगठित करने की ज़रूरत है। जो भी जैविक खेती का कार्यक्रम आता है, वो अगर 3-4 साल के लिए आता है तो वो कुछ किसानों को ही साथ लाकर प्रैक्टिस करता है। कृषि विभाग के लोग एक ही गांव में जाकर कुछ किसानों को जैविक खेती अपनाने को कहते हैं और कई किसानों को रासायनिक खेती के लिए भी कहते हैं। बड़े पैमाने पर दूसरा ढांचा ही चलता है। ये नहीं चलेगा।" 
वो कहती हैं, "दूसरी चीज़ यह है कि आपने अपने कृषि विश्वविद्यालयों में और कृषि शिक्षा में बदलाव लाया है कि नहीं। क्या आज भी कृषि वैज्ञानिक किताबों में अमेरिका की मिट्टी के बारे में पढ़ते हैं या यहां की स्थिति को पढ़ रहे हैं। अगर ये ढांचागत बदलाव नहीं होता है तो सिर्फ़ स्कीम लाकर क्या होगा?"
 
एक तो देश में कृषि शिक्षा पहले से हाशिये पर है और किसानी की ज़रूरत से काफ़ी दूर नज़र आती है। उसमें भी जैविक खेती की दिशा में ज़्यादा प्रयास विश्वविद्यालयों के अनुसंधान में शामिल नहीं है। ये सच है कि सरकार जैविक खेती को लेकर विरोधाभास में नज़र आती है। एक तरफ़ प्राकृतिक खेती को लेकर प्रचार कर रही है, तो दूसरी तरफ़ यूरिया पर सब्सिडी की बड़ी रकम भी जारी करती है। इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी इस पर हावी है।
 
इस पर कविता कहती हैं, "यहां पर (जैविक खेती) आप पूरे देश के लिए 250-300 करोड़ रुपये की स्कीम चला रहे हैं और फर्टिलाइजर पर 80,000 करोड़ रुपये का सब्सिडी दे रहे हैं। ये बहुत बड़े मुद्दे हैं, इसको लेकर आपकी राजनीतिक इच्छाशक्ति कितनी है, आपने इसे सस्टेनेबल बनाने के लिए प्रोग्राम को डिजाइन किया है या नहीं, क्या 3-4 साल स्कीम चलाकर भाग जाते हैं, क्या आपकी कृषि नीतियां रसायनों और जीएम फसलों को बढ़ावा दे रही है या प्राकृतिक खेती को प्रोमोट कर रही है। ये सब पर निर्भर करता है।" PKVY के कार्यान्वयन को लेकर 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, त्रिपुरा, ओडिशा और कर्नाटक को छोड़कर सभी राज्यों ने इस योजना के तहत अपने फंड का 50 फ़ीसदी भी ख़र्च नहीं किया। जबकि केंद्र सरकार ने इसी साल के लिए योजना में आवंटन की राशि 44 फ़ीसदी बढ़ा दी थी। 
देविंदर शर्मा भी कहते हैं, "किसान के लिए, पर्यावरण के लिए, देश के लिए, कंज़्यूमर के लिए, सबके लिए जैविक खेती ही फ़ायदेमंद होगी। अभी जितने राष्ट्रीय और स्थानीय प्रमाण मौजूद हैं, उससे यही पता चलता है कि नीतियों पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। राज्य सरकारों और केंद्र को भी अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति दिखानी पड़ेगी।"
 
शुरू में बिहार के केड़िया गांव के शत प्रतिशत जैविक होने की अधूरी सच्चाई का ज़िक्र किया था। केड़िया के 'जीवित माटी किसान समिति' नामक संगठन का दावा है कि गांव में सभी किसान जैविक खेती करते हैं। सच यह है कि गांव के कई किसान अब भी रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं। बहुत सारे किसान जैविक खाद का ही उपयोग करते हैं, लेकिन कई किसान जैविक खाद के साथ यूरिया का भी इस्तेमाल करते हैं। जिन किसानों के पास मवेशी नहीं है या कम है, वे ख़ुद से वर्मी कम्पोस्ट बनाने में सक्षम नहीं हैं। गांव के 15-20 किसानों से बातचीत करने पर पता चला कि सरकार ने 'जैविक गांव' घोषित करने में जल्दबाजी की है। जिन किसानों से बात हुई, उनके घरों में उज्ज्वला योजना के तहत गैस सिलेंडर भी नहीं मिला है। लेकिन सरकारी दावा ठीक इन सबके उलट है।
 
कई राज्य अभी तक जैविक खेती को अपनी प्राथमिकता में ही नहीं ला पाई है। कुछ राज्य इसे प्रदर्शनी के तौर पर ही इसे देख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन के व्यापक प्रभावों को कम करने के लिए प्राकृतिक खेती ही विकल्प है। ग्रीनपीस इंडिया के द्वारा कराए गए एक सर्वे के अनुसार, 69.7 फीसदी किसानों ने बताया कि उनके पास कीटनाशकों और रासायनिक खादों का इस्तेमाल करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. जब किसानों से पूछा गया कि वे पर्यावरणीय खादों का इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं, तो 72.9 फीसदी किसानों ने इसकी अनुपलब्धता को कारण बताया। पंजाब में खेती विरासत मिशन के कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त कहते हैं कि पंजाब सरकार जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए वैसा कुछ नहीं कर रही है। सरकार के एजेंडे में अभी जैविक खेती है ही नहीं। "सरकारी प्रचार-प्रसार सेवा जैविक खेती को लेकर प्रशिक्षित ही नहीं हैं। कृषि विकास केंद्र और कृषि विश्वविद्यालय रसायन को ही प्रोमोट कर रहे हैं। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर जो किसानी के कार्यक्रम होते हैं उनका झुकाव भी केमिकल की ओर है। हम पंजाब में अपने संगठन की तरफ़ से कुछ जगहों पर जैविक खेती अपनाने के लिए मदद कर रहे हैं", दत्त कहते हैं। केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों को भी कोशिश करनी चाहिए कि जैविक खेती के लिए योजना बनाने के साथ कृषि विश्वविद्यालयों में रिसर्च को बढ़ाया जाय। साथ ही कृषि अधिकारियों को जैव उर्वरकों, जैव कीटनाशकों, वर्मी कम्पोस्ट बेड आदि उपलब्ध कराने के लिए और प्रत्यक्ष रूप से किसानों की मदद के लिए ज़मीन पर भेजने की आवश्यकता है। साथ ही हरित क्रांति की तरह ही देश में एक व्यापक जैविक क्रांति का माहौल बनाने की सख़्त ज़रूरत है।

 

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