जैविक खेती समय की जरूरत

राजस्थान के शेखावाटी इलाके के किसान कुछ साल पहले पानी की समस्या से परेशान थे। खेती में खर्च इतना ज्यादा बढ़ गया था कि फसल उपजाने में उनकी हालत दिन-प्रतिदिन खराब होती चली गई, लेकिन कृषि के क्षेत्र में यहां एक ऐसी क्रांति आई, जिससे यह इलाका आज भारत के दूसरे इलाकों से कहीं पीछे नहीं है। शेखावाटी में आए इस बदलाव के पीछे मोरारका फाउंडेशन की वर्षों की मेहनत है। फाउंडेशन के इस सपने को पूरा करने का भागीरथ प्रयास किया है संस्था के कार्यकारी अध्यक्ष मुकेश गुप्ता ने। शेखावाटी में जैविक खेती से जुड़े तमाम मसलों पर चौथी दुनिया के समन्वय संपादक डॉ. मनीष कुमार ने उनसे विस्तार से बातचीत की। पेश हैं प्रमुख अंश…

इस इलाके में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है, आखिर यह परिवर्तन कैसे संभव हो पाया?
अगर इलाके की फिजा बदल गई है तो उसमें बहुत बड़ा योगदान किसानों का रहा है। इस इलाके की एक विशेषता यह है कि यहां किसी नए विचार को स्वीकार करने की क्षमता शायद भारत के दूसरे इलाकों से ज्यादा है। 15-16 साल पहले यहां मुख्यत: दो प्रकार की खेती होती थी। एक बरसात पर निर्भर रहने वाली और दूसरी एरीगेशन बेसिस पर होने वाली। उसका रकबा लगभग 8-9 प्रतिशत था। दोनों ही प्रकार की खेती में कई समस्याएं थीं। उसके अंदर इनपुट यानी केमिकल फर्टिलाइजर की बात कहें या कुछ थोड़े-बहुत पेस्टिसाइड जिनका प्रयोग होता था, से किसानों की उपज की लागत बढ़ती जा रही थी, लेकिन उन्हें बाजार में मिलने वाली कीमत का परपोशनेट या रिटर्न नहीं मिल रहा था। जो बाराने खेती थी, उसमें दो समस्याएं थीं, जैसे बरसात का कम होना। यह इलाका 500 मिलीमीटर से कम बारिश वाले क्षेत्रों में आता है। यहां बाराने खेती करने वाले किसानों को एक नई तकनीक से परिचित कराया गया। विशेष तौर पर बाजरे की जो देसी किस्म की खेती होती थी, उसका प्रतिशत बहुत था। अब सिर्फ 10-12 फीसदी बाजरा ही देसी रह गया है। उसकी जगह 70 से 90 फीसदी तथाकथित हाईब्रिड हो गया। हम लोगों ने फाउंडेशन की ओर से किसानों से बातचीत शुरू की, उनकी समस्याएं सुनीं और कैसे उनका समाधान किया जा सकता है, इस पर काम करना शुरू किया। हमने दो प्रमुख उपाय अपनी ओर से शुरू किए। एक तो पशुओं के गोबर और खेतों से निकलने वाले खर-पतवार से बढ़िया किस्म की खाद बनानी शुरू की, क्योंकि इसमें पानी सोखने की क्षमता अधिक होती है।

शुरुआत में जब फाउंडेशन ने काम करना शुरू किया तो किसानों ने उसे किस रूप में स्वीकार किया?
पहली बात तो यह कि जितने भी किसान इस क्षेत्र में हैं, जिनसे हम बातचीत करते थे, वे अपने खेतों में खुद के खाने के लिए नॉन केमिकल स्वरूप में गोबर की खाद डालकर देसी बीज से खेती करते थे। इसका मतलब उन्हें समझ में आता था कि देसी मामला जरा बेहतर है। दूसरी बात यह कि हमने जो तकनीक यहां इंट्रोड्यूज की, खासकर वर्मी कल्चर तकनीक, उसे यहीं विकसित किया गया। उससे तत्काल उत्पादन लागत कम हो गई। तीसरे स्तर पर हमने देखा कि यह काफी प्रचलन में आ गया है। उसी समय संपूर्ण विश्व में 1995 से 2005 के बीच फूड विदाउट केमिकल्स (रसायन रहित खाद्य पदार्थ) का आर्गेनिक फार्मिंग के रूप में प्रचलन शुरू हुआ था।

शेखावाटी में कितने किसान फाउंडेशन से जुड़े हैं और राष्ट्रीय स्तर पर कितने लोग जुड़े हुए हैं?
सबसे पहले हम लोगों ने करीब 10 हजार स्थानीय किसानों को फाउंडेशन से जोड़ा। उसके बाद लगातार लोग हमसे जुड़ते गए और उनकी संख्या करीब 70 हजार हो गई। शेखावाटी क्षेत्र में मुख्य तौर पर सीकर, झुंझुनू और चुरू जिले आते हैं। अब 10-11 वर्ष के बाद पूरे राष्ट्रीय स्तर करीब ढाई-पौने तीन लाख किसान हमसे जुड़ चुके हैं।

आगे की योजना क्या है, जिन राज्यों में आप नहीं जा सके, वहां क्या संदेश लेकर जाएंगे?
पूरे राजस्थान और देश के अंदर हमने बड़ी संख्या में किसानों को जोड़ लिया है और अब उन्हें मार्केट लिंकेज भी प्रोवाइड करने लगे हैं। किसानों की उपज को उपभोक्ताओं ने खूब सराहा। हालांकि उपभोक्ताओं ने हमारे सामने कुछ समस्याएं रखीं। उन्होंने कहा कि हमारी रसोई में अगर आप बीस आइटम ऑर्गेनिक देंगे और पचास नॉन आर्गेनिक, तो हमारे साथ पूरा न्याय नहीं होगा। लिहाजा हमारी पहली प्राथमिकता यह रही कि सामान्य भारतीय रसोई में कितने प्रतिशत आइटम हम आर्गेनिक रूप में उपलब्ध करा सकते हैं। हम सिक्किम गए, क्योंकि अदरक वहीं होती है सबसे अच्छी। हम गुजरात गए, क्योंकि केसर वहां होता है। महाराष्ट्र जाना पड़ा, क्योंकि वहां सोयाबीन, उड़द और अरहर की दाल अच्छी होती है। इस प्रकार हमारे कार्यक्रम का विस्तार होता गया।

जो लोग अपने खेतों को ऑर्गेनिक खेती के लिए तैयार करना चाहें तो उनका पहला कदम क्या होगा?
अब इस तरह की मांग लगातार बढ़ रही है। इसीलिए हमने तय किया है कि अब अपना ऑनलाइन पोर्टल क्रिएट करेंगे। इस बाबत हमने टेक्नोलॉजी ट्रांसफर सर्विस डिवीजन अलग से बना दिया है। इसका काम होगा कि पूरे देश में कहीं से भी किसान हमसे संपर्क करें और चाहें कि वे जैविक खेती करना चाहते हैं और उन्हें तकनीकी सहायता की जरूरत है तो यह उन्हें ऑनलाइन सपोर्ट उपलब्ध कराए।

आपने ऑनलाइन सपोर्ट तो उपलब्ध करा दिया, लेकिन उसके लिए प्रशिक्षण की जरूरत होगी, शेखावाटी के किसानों को प्रशिक्षित करने की दिशा में आप क्या कर रहे हैं?
यह सही है कि किसानों का इंटरनेट पर जाना संभव नहीं है। जहां भी हम अपने कार्यक्रम की शुरुआत करें, वहां हमारा कोई न कोई प्रतिनिधि होना चाहिए। चाहे वे हमारे फील्ड वर्कर हों या हम ऐसे प्रगतिशील किसानों को चिन्हित करें, जो हमारी बात सुनकर, हमसे प्रेरित होकर काम करें। हमने जो ऑनलाइन सर्विस शुरू की है, यह टोल फ्री टेलीफोन नंबर है। इसमें किसानों के सवालों का जवाब हम उन्हीं की भाषा में देंगे। इसके सपोर्ट बैकअप में हमने देश के 19 राज्यों में अपने कदम बढ़ाए हैं। कुछ ही राज्य बचे हैं, उनके लिए भी हम प्रयास कर रहे हैं।

अपने कलेक्शन सेंटर और उसकी मार्केट चेन के बारे में कुछ जानकारी दें।
इसकी शुरुआत से लेकर अंत तक, जिसे हम वैल्यू चेन मैनेजमेंट कहते हैं, सबसे पहले किसान और हमारा संपर्क होता है। उसके बाद एक-दूसरे के बीच भरोसा कायम होता है। किसान वास्तव में जैविक खेती करने को इच्छुक है। तीसरी कड़ी होती है उसके सर्टिफिकेशन का, जिसका सारा रिकॉर्ड अब हम टेलीफोन के जरिए रखते हैं। एक बार जब किसान सर्टिफाइड हो जाता है, जिसमें अधिकतम तीन वर्ष लगते हैं। उसके बाद हमें पता चलता है कि कौन-कौन से किसान हैं, कहां उनका खेत है और क्या-क्या फसलें उन्होंने बोई हैं। उसी के अनुसार हम अपनी योजना बनाते हैं। अगर किसी एक कलस्टर के अंदर लगे कि यहां पर एक ट्रक अनाज मिल सकता है तो हमारी टीम क्षेत्र के किसानों से उनकी उपज खरीद लेती है। इससे किसानों को दो फायदे होते हैं। एक तो उन्हें मंडी नहीं जाना पड़ता, दूसरे खर्च भी नहीं लगता। छोटे किसानों के लिए यह काफी फायदेमंद है। कोई आढ़त नहीं लगती और न कोई कमीशन। मंडी में थोड़ी-बहुत लूटपाट होती है, उससे भी वे बच जाते हैं। पहले नकदी ले जाने में जरूर हमें दिक्कत होती थी, लेकिन अब हम उनके लिए आरटीजीएस खाते खोल रहे हैं। किसानों से खरीदी गई उपज हमारे केंद्रीय गोदाम में आ जाती है। फिर हम उसकी प्रोसेसिंग करते हैं, उससे जरूरत की चीजें बनाते हैं। किसानों की उपज की हम ब्रांडिंग करते हैं। इसके लिए हमने डाउन टू अर्थ बनाया है, जहां सभी जैविक खाद्य पदार्थ उपलब्ध हैं। इसका हमने काफी विस्तार किया है। हमारी कोशिश यही है कि उपभोक्ताओं को इसके प्रति जागरूक किया जाए कि जैविक खाद्य पदार्थ में क्या अच्छाइयां हैं और उसे क्यों खाना चाहिए।

आम लोगों के बीच एक भ्रम है कि जैविक पदार्थ महंगे होते हैं, आपका क्या कहना है?
यदि आप किसी भी शहर की ऐसी दुकान पर जाएं, जिसे अच्छी क्वालिटी का सामान बेचने के लिए जाना जाता हो। अगर उसके और हमारे ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्‌स की मार्केट प्राइस देखें तो आप पाएंगे कि हम शायद उसके मुकाबले काफी सस्ता सामान बेच रहे हैं। यह अलग बात है कि कोई अगर ए ग्रेड के माल की तुलना सी ग्रेड के माल से करे तो उसे महंगा लगेगा।

आपकी ग्रेडिंग प्रणाली क्या है?
पहले हर शहर और हर परिवार के अंदर हमें हर प्रकार के भोजन के आइटम की जानकारी होती थी। जब हमारे घरों में पापड़ बनता था तो कहा जाता था कि मूंग की दाल वहीं की होनी चाहिए। उत्तर भारत के अंदर अगर किसी को अरहर की दाल पसंद थी तो वह दुकानदार से कहता था कि मुझे कानपुर की अरहर की दाल दीजिए। इसी तरह गेहूं किसी और क्षेत्र का है, चावल किसी और क्षेत्र का। मसलन उनकी जो प्रसिद्धि थी, वह उनकी क्वालिटी को लेकर थी लेकिन हमने देखा कि 1970 के बाद जिस प्रकार कृषि वैज्ञानिकों ने हाईब्रिड को इंट्रोड्यूज किया, उसी का परिणाम है कि अब रिटेल काउंटरों पर जो आम उपभोक्ता आते हैं, उन्हें सुंदर दिखने वाली चीजें अच्छी लगती हैं और जो सुंदर न दिखे, वह उनके हिसाब से खराब है। लिहाजा हम यह जागरूकता भी लोगों में पैदा कर रहे हैं कि यदि उन्हें बाजरे की रोटी खानी है तो हाईब्रिड बाजरे की जगह वह देसी बाजरे की रोटी खाएं तो उन्हें स्वाद भी पसंद आएगा और सेहत भी सही रहेगी। फर्ज करें, आप किसी शहर के रेस्तरां में जाते हैं, वहां परिवार के कुल खाने का खर्च 500- 600 रुपए के बीच आता है। मुझे नहीं लगता कि 100 रुपए बचाने के लिए कोई कम स्वाद वाला भोजन पसंद करेगा। यही बात हम उपभोक्ताओं को बताते हैं कि आप ऊपरी चमक-दमक के बजाय गुणवत्ता देखिए।

शेखावाटी में अभी और कितने किसानों को आप अपने साथ जोड़ना चाहेंगे?
हम पूरे देश में 270 आर्गेनिक आइटम, जो अमूमन रसोई के अंदर इस्तेमाल किए जाते हैं, उन्हें मुहैय्या कराने की स्थिति में हैं। तकरीबन 95 से 98 फीसदी रसोई के आइटम हम देने की क्षमता रखते हैं। जैसे-जैसे बाजार में हम इसका विस्तार कर रहे हैं, इसकी मांग बढ़ रही है। लिहाजा हमारा प्रयास है कि हम उन फसलों को उन क्षेत्रों में बढ़ावा दें, जिनकी मांग बहुत अधिक है। मसलन, शेखावाटी का गेहूं हमने सात साल पहले यहां के बाजार में ही लांच किया और जानबूझ कर उसकी कीमत मध्य प्रदेश के गेहूं से अधिक रखी थी। शुरू में हमें काफी परेशानी हुई। ग्राहकों ने यह कहा कि यह शेखावाटी का गेहूं क्या चीज है। हमने तो पहली बार इसका नाम सुना है, लेकिन धीरे-धीरे उसकी बनी रोटी, बाटी, पूड़ी और पराठे जब लोगों ने खाना शुरू किया तो उन्हें अच्छा लगा। कहने का मतलब यह कि शेखावाटी के गेहूं को हमने नई पहचान दी और इसकी मांग बढ़ती जा रही है। शेखावाटी में हमारी योजना है कि यहां हम 10 लाख टन गेहूं का उत्पादन करें।

बाजार में मिलने वाली हरी सब्जियों और आपके द्वारा बेची जाने वाली सब्जियों में क्या फर्क है?
भारत के संदर्भ में अगर हम खाद्य पदार्थों में मिलावट की बात करें तो पहले हमारे यहां इसकी गुंजाइश नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान तरक्की कर रहा है, मिलावट करने के तरीकों में नित्य बढ़ोतरी हो रही है। कहीं दूध की जगह सिंथेटिक दूध मिल रहा है तो कहीं घी में तेल की मिलावट की जा रही है। बाजार में विक्रेताओं की दलील है कि ग्राहकों को सस्ती चीजें चाहिए, इसी वजह से मिलावटखोरी का धंधा फल-फूल रहा है। हम शुद्ध मूंग और मसाले का पापड़ बनाते हैं। हमारी लागत 180-190 रुपए प्रति किलो आती है। वहीं हम देखते हैं कि बाजार में 100 रुपए प्रति किलो की दर से पापड़ बिक रहा है। आखिर कीमत में इतने अंतर की वजह क्या है। करेला, तोरई, टिंडा और लौकी में ऑक्सीटॉक्सिन का इंजेक्शन लगाकर रातोंरात उसे बड़ा कर दिया जाता है। लौकी का जूस आप पी रहे हैं सेहत के लिए, लेकिन आपके शरीर में ऑक्सीटॉक्सिन भी जा रहा है, जिससे न जाने कितनी बीमारियों का खतरा बना रहता है। आज बड़े पैमाने पर किडनी, लीवर और पेट की बीमारियां हो रही हैं। उसकी वजह ऐसी दूषित सब्जियां हैं, जिन्हें तैयार करने में बड़े पैमाने पर रासायनिक दवाओं का इस्तेमाल किया जाता है। फूड एडेलट्रेशन रोकने के लिए हमारे देश में जो प्रशासनिक और कानूनी तंत्र है, वह काफी लचर है। मैं मीडिया को धन्यवाद देना चाहूंगा कि पिछले 5-10 वर्षों में उसने लोगों के अंदर एडेलट्रेशन को लेकर काफी जागरूकता पैदा की। सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किया गया है। हालांकि हाल में खाद्य सुरक्षा अधिनियम बनाया गया है। इस एक्ट से हमें काफी उम्मीदें हैं। अब तक किसी रिटेल स्टोर पर मिलावट पकड़े जाने पर कंपनी पर कार्रवाई होती थी, लेकिन नए कानून के मुताबिक, मिलावटखोरी के आरोप में अब रिटेलर भी दोषी माने जाएंगे। इसके अलावा डिस्ट्रीब्यूटर और कंपनी पर भी कार्रवाई की जाएगी।
 

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