जैविक रोग नियंत्रक द्वारा पौधा रोग निदान-एक उभरता समाधान


झारखण्ड की अम्लीय मिट्टी तथा जलवायु, ट्राइकोडर्मा आधारित जैव फफूंदनाशी के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं। यह मृदा में पाई जाने वाली हरे रंग की एक फफूंदी है जो पौधों में बीमारी करने वाले रोग कारकों जैसे राइजोक्टोनिया, पीथियम, स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना, स्कलरोटिनिया, फाइटोफ्थोरा, मिलाइडोगाइन, हर्समनिएला इत्यादि का पूर्ण रूपेण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके इनके द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे आर्द्रगलन, बीज सड़न, उकठा, मूल विगलन एवं सूत्रकृमि का मूलग्रंथि रोग इत्यादि के नियंत्रण में सहायक होता है।

हाल में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष 29 हजार करोड़ रुपए तक का नुकसान फसलों पर लगने वाले कीटों एवं बीमारियों से होता है, एवं इसके नियंत्रण हेतु साधारणतया जहरीले रसायनों का प्रयोग किया जाता है। अनुमानतः प्रतिवर्ष कृषि रसायनों की खपत 17.4 करोड़ डाॅलर है, जिसका 90 प्रतिशत भाग कीट, खरपतवार एवं रोगों के रासायनिक नियंत्रण में इस्तेमाल होता है। एक अनुमान के मुताबिक हजारों करोड़ रुपए की कृषि पैदावार इन रसायनों के इस्तेमाल के कारण बाजार में अस्वीकार कर दिये गए हैं।

रासायनिक दुष्प्रभाव में रसायन का खाद्य शृंखला में चला जाना, मृदा में शामिल होकर भूजल को प्रदूषित करना तथा रोग कारकों में रसायन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता का विकसित होना प्रमुख है। इसके अतिरिक्त कुछ मृदाजनित रोगों का नियंत्रण भी रसायनों द्वारा कठिन होता है। अतः रासायनिक नियंत्रण के बढ़ते हुए दुष्प्रभावों को कम करने के लिये एक विकल्प के रूप में जैविक पादप रोग नियंत्रण की महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।

जैविक रोग नियंत्रण


सामान्यतः पादप रोग कारकों के नियंत्रण के लिये दूसरे जीवों का उपयोग ही जैविक नियंत्रण कहलाता है। जैविक नियंत्रण वह प्रक्रिया है जिसमें एक से अधिक सूक्ष्मजीवियों का उपयोग रोग कम करने या रोकने के लिये किया जाता है। वे सूक्ष्म जीव जो कारकों के नियंत्रण के लिये प्रयुक्त होते हैं, जैविक रोगनाशक कहलाते हैं। ये सूक्ष्म जीव रोग कारकों की संख्या को कम कर, रोग कारकों द्वारा रोग उत्पन्न करने में रोक लगाकर एवं संक्रमण के बाद रोग विकास को रोककर पादप रोगों को नियंत्रित करते हैं। जैविक नियंत्रण में कवकों एवं जीवाणुओं दोनों प्रकार के जैविक रोग नाशक सूक्ष्मजीव प्रयोग में लाये जा रहें हैं। इनमें ट्राइकोडर्मा हारजिएनम, ट्राइकोडर्मा विरिडि, एसपरजिलस नाइजर, बैसिलस सबटिलिस एवं स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स प्रमुख रूप से इन दिनों उपयोग में लाये जा रहे हैं।

झारखण्ड की अम्लीय मिट्टी तथा जलवायु, ट्राइकोडर्मा आधारित जैव फफूंदनाशी के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं। यह मृदा में पाई जाने वाली हरे रंग की एक फफूंदी है जो पौधों में बीमारी करने वाले रोग कारकों जैसे राइजोक्टोनिया, पीथियम, स्केलेरोशियम, मैक्रोफोमिना, स्कलरोटिनिया, फाइटोफ्थोरा, मिलाइडोगाइन, हर्समनिएला इत्यादि का पूर्ण रूपेण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके इनके द्वारा होने वाली बीमारियों जैसे आर्द्रगलन, बीज सड़न, उकठा, मूल विगलन एवं सूत्रकृमि का मूलग्रंथि रोग इत्यादि के नियंत्रण में सहायक होता है।

रोग नियंत्रण की क्रिया विधि परजीविता


ट्राइकोडर्मा रोग कारक जीव के शरीर (माइसिलियम तथा स्केलेरोसियम) से चिपककर उसकी बाहरी परत को कुछ प्रतिजैविक पदार्थों द्वारा गलाकर उसके अन्दर का सारा पदार्थ उपयोग में लेता है, जिससे रोग कारक जीव नष्ट हो जाता है।

प्रतिजैविकता


इस प्रक्रिया में ट्राइकोडर्मा विभिन्न प्रकार के प्रतिजैविक पदार्थों को उत्पन्न करता है जो रोग कारकों के लिये विष का काम करता है।

प्रतिस्पर्धा


इस क्रिया में जैव नियंत्रक वातावरण में उपलब्ध पोषक पदार्थों, जल एवं स्थान के उपयोग के लिये रोगकारकों से स्पर्धा करते हैं।

प्रयोग विधि


बीज उपचारण - 5 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से बीजों का उपचारित करते हैं।

प्रयोग विधि


बीजोपचार के पश्चात बीज को छायादार जगह में सुखाकर बुआई की जाती है।

ग्लैडिओलस के कार्म के उपचार


10 ग्राम पाउडर प्रति किलोग्राम कार्म बीज उपचारण के लिये उपयोग होता है। सबसे पहले जैव नियंत्रक के पाउडर का पानी में घोल बना लेते हैं, फिर बीज को इस घोल में डाल देते हैं, जिससे पूरा बीज अच्छी तरह से पाउडर द्वारा उपचारित हो जाये। पानी की इतनी मात्रा रखते हैं। जिससे बीज उपचारण के बाद घोल न बचे। चिकने बीजों जैसे मटर, अरहर, सोयाबीन आदि के उपचारण के लिये घोल में कुछ चिपकने वाला पदार्थ जैसे गोंद, कार्वोक्सी मिथाइल सेलुलोज आदि मिला देते हैं, जिससे जैव नियंत्रक बीज से अच्छी तरह चिपक जाये। इसके बाद उपचारित बीज को छाया में फैलाकर एक रात के लिये रख देते है और अगले दिन इनकी बुआई करते है।

पौध उपचारण


पौधों को खेतों में लगाने के पहले जड़ को जैव नियंत्रक के घोल में उपचारित करते हैं। इसके लिये पौधे को पौधशाला के उखाड़कर उसकी जड़ को पानी से अच्छी तरह साफ कर लेते हैं। फिर इसको जैव नियंत्रक घोल में आधा घंटा के लिये रख देते हैं। पौधा उपचारण मुख्यतः धान, टमाटर, बैगन, गोभी, मिर्च, शिमला मिर्च इत्यादि के लिये करते हैं।

मृदा उपचारण


इस हेतु जैव नियंत्रक का पाउडर उपयोग में लाते हैं। इसके लिये 1 किलोग्राम पाउडर को 100 किलोग्राम कम्पोस्ट या गोबर की खाद में मिलाकर एक एकड़ खेत में बिखेरते हैं।

छिड़काव


5-10 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी के हिसाब से घोल बना लेते हैं और मशीन (स्प्रेयर) द्वारा छिड़काव करते हैं। जैव नियंत्रकों का छिड़काव अगर बीमारी आने से पहले किया जाता है तो ये ज्यादा प्रभावी होते हैं।

जैव नियंत्रक के प्रमुख गुण


1. ट्राइकोडर्मा में रोग नियंत्रक की अत्यधिक विस्तृत क्षमता होती हैं।
2. इसके जैव उत्पाद की क्षमता बहुत विस्तृत, स्थिर और सरल होती है। विकसित प्रजातियाँ 10-45 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान एवं 8 प्रतिशत नमी पर स्थिर रहती है।
3. मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।
4. मृदा में कोई प्रदूषण नहीं होता है, मृदा में रहने वाले अन्य लाभदायक जीवों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है।

सावधानियाँ


1. अम्लीय मिट्टी में ट्राइकोडर्मा पाउडर का उपयोग करें तथा क्षारीय मिट्टी में स्यूडोमोनस पाउडर का उपयोग करें।
2. उपचारित बीज बोने से पहले ये सुनिश्चित कर लें कि मृदा में उचित आर्द्रता हो।
3. छिड़काव हमेशा शाम के समय करें।
4. जैव नियंत्रक का उपयोग सेल्फ लाइफ के अन्दर ही करें।

जैव नियंत्रक उत्पादन एवं उत्पादकों के नाम


बायोकाॅन (ट्राइकोडर्मा विरिडि)-टी रिसर्च एसोसिएशन, जोरहाट, आसाम
- बायोडर्मा (ट्राइकोडर्मा विरिडि + ट्राइकोडर्मा हारजिएनम)
- बायोटेक इन्टरनेशनल लिमिटेड, नई दिल्ली
- बायोगार्ड (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- कृषि रसायन एक्सपोर्ट प्रा. लि., सोलन, हिमाचल प्रदेश
- बायोशील्ड (स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स)
- अनु बायोटेक इन्टरनेशनल लि., फरीदाबाद
- बायोटैक (बैसिलस सबटाइलिस)
-टी रिसर्च एसोसिएशन, जोरहाट, आसाम
- डिफेन्स- एस. एफ. (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- वाॅकहार्ट लाइफ साइंस लि., मुम्बईइकोडर्मा (ट्राइकोडर्मा विरिडि + ट्राइकोडर्मा हारजिएनम)
- मार्गो बायोकन्ट्रोल प्रा. लि., बंगलोरइकोफिट (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- हेस्चर शैरिंग एग्रो इवो लि.,मुम्बई फन्जीनील (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- क्राप हेल्थ बायो प्रोडक्ट रिसर्च सेन्टर, गाजियाबाद
कालीसेना - एस.डी. (एसपरजिलस नाइजर)
- कैडिला फार्मास्यूटिकल लिमिटेड, अहमदाबादट्राइकागार्ड (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- अनु बायोटेक इन्टरनेशनल लि., फरीदाबादट्राइको - एक्स (ट्राइकोडर्मा विरिडि)
- एक्सल इंडस्ट्रीज लि., मुम्बई
पन्त बायोकन्ट्रोल एजेन्ट - 1 (ट्राइकोडर्मा हारजिएनम)
पन्त बायोकन्ट्रोल एजेन्ट - 2 (स्यूडोमोनस फ्लोरेसेन्स)
पन्त बायोकन्ट्रोल एजेन्ट - 3 (ट्राइकोडर्मा हारिजएनम + स्यूडोमोनस फ्लोरेसेन्स)
- जैव नियंत्रक प्रयोगशाला, गो. ब. पंत कृषि एवं प्रो. विश्वविद्यालय, पंतनगर
निसर्गा (ट्राइकोडर्मा विरिडि)स्पर्श (स्यूडोमोनास फ्लोरेसेन्स)
- मल्टीप्लेक्स बायोटेक प्रा. लि. बंगलुरु

किसानों के स्तर पर भी ट्राइकोडर्मा के अधिक मात्रा में उत्पादन के लिये एक नई पद्धति विकसित हो गई है, जिससे अन्य राज्यों के किसान भी लाभान्वित हो रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि झारखण्ड के किसान भी इस दिशा में पहले करें। उत्पादन विधि आसान है, अतः किसान इसे आसानी से उपयोगी कर सकते हैं।

विधि:


1. सबसे पहले 3 मी. लम्बे, 2 मी. चौड़े एवं 1.5 मी. गहरे गड्ढ़े बनाते हैं।

2. फिर इन गड्ढे में गोबर की खाद डालते हैं।
3. गोबर की खाद पर ट्राइकोडर्मा पाउडर 50 ग्राम/गड्ढे के हिसाब से डालते हैं।
4. फावड़े से अच्छी तरह पाउडर को गोबर में मिलाकर इसे धान के पुआल से ढँक देते हैं।

5. समय-समय पर पानी का छिड़काव करते हैं जिससे कि उचित नमी बनी रहे।
6. 7-10 दिन बाद नई गोबर की खाद मिलाकर फावड़े से अच्छी तरह मिला कर फिर पुआल से ढँक देते हैं।
7. पानी का छिड़काव करते रहते हैं।
8. इस प्रकार लगभग तीन महीने में ट्राइकोडर्मा से उपनिवेशित गोबर की सड़ी खाद तैयार हो जाती है।
9. इस खाद का उपयोग मृदा उपचारण के लिये करते हैं।

इस विधि से तैयार गोबर की खाद बहुत अच्छी गुणवता की होती है। तथा एक ग्राम खाद में ट्राइकोडर्मा की मात्रा 109सी.एफ.यू. तक हो सकती है।

अतः किसान भाइयों से अनुरोध है कि इस विधि को अवश्य अपनाएँ तथा अपने फसल की सुरक्षा करें।

 

पठारी कृषि (बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की त्रैमासिक पत्रिका) जनवरी-दिसम्बर, 2009


(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

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