जितना बचाएंगे उतना ही पाएंगे

बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सिडी के कारण पानी की कीमत बेहद कम है। इससे लोगों को लगता है कि पानी बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि हकीकत उलटी है।

पिछली आधी सदी में विश्व ने जमीन की उत्पादकता तीन गुना बढ़ाने में सफलता हासिल की है। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की भी ठीक वैसी ही जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है, इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का कौशल बढ़ाया जाए। यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए।

अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है, जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है। जल नीति के विश्लेषक सैंड्रा पोस्टल और एमी वाइकर्स ने पाया कि भारत, पाकिस्तान, मैक्सिको, फिलीपींस और थाइलैंड में सिंचाई के लिए नियत पानी में से 25-40 प्रतिशत ही वास्तव में सिंचाई के काम आता है। मलेशिया और मोरक्को में सिंचाई का 40-45 प्रतिशत जल इस्तेमाल हो पाता है, जबकि इजराइल, जापान और ताइवान में यह आंकड़ा 50-60 प्रतिशत है। सिंचाई जल की क्षमता व उत्पादकता सिंचाई प्रणाली और परिस्थितियों से तो तय होती ही है, साथ ही तापमान, आर्द्रता और मिट्टी के प्रकार पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। गर्म इलाकों में पानी ज्यादा भाप बनकर उड़ जाता है।

मई 2004 में मैं चीन के जल संसाधन मंत्री वांग शूचेंग से मिला। उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे उन्होंने सिंचाई जल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए मुकम्मल योजना लागू की। 2000 में वहां खेतों के लिए छोड़ा गया केवल 43 प्रतिशत पानी ही सिंचाई के काम आता था। इसे बढ़ाकर 2010 तक वे 51 प्रतिशत पर ले आए हैं। 2030 तक और बढ़ाकर 55 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य है। इसके लिए पहले तो उन्होंने पानी का दाम बढ़ाया। साथ ही ऐसी योजनाएं चलाई गईं, जिनसे किसान पानी की बर्बादी रोकने वाली टेक्नोलॉजी अपनाने को प्रोत्साहित हों। इस प्रक्रिया के संचालन के लिए उन्होंने स्थानीय संस्थाएं विकसित कीं।

सिंचाई का पारंपरिक तरीका यह है कि खेतों में बड़े-बड़े पाइपों से बड़ी मात्रा में पानी एक साथ छोड़ा जाता है। ज्यादातर देशों में यही तरीका प्रचलित है। लेकिन सिंचाई के पानी के अधिकतम इस्तेमाल के लिए ड्रिप या फव्वारा प्रणाली बेहतर है। फव्वारा प्रणाली में खेतों के बीच पतले पाइपों का जाल बिछाकर छोटे-छोटे फव्वारे लगाए जाते हैं, जिनसे जरूरत के हिसाब से पानी छोड़ा जाता है। ड्रिप प्रणाली में रबर के पाइपों से खेतों में पानी दिया जाता है। कम दबाव के स्प्रिंकलर या फव्वारों से 30 फीसदी पानी की बचत होती है, जबकि ड्रिप प्रणाली से 50 फीसदी पानी की बचत होती है। ड्रिप सिस्टम उन देशों के लिए लाभकारी है, जहां श्रमिक ज्यादा हैं और पानी कम। साइप्रस, इजराइल और जॉर्डन जैसे छोटे देश ड्रिप सिंचाई पर ही निर्भर हैं। भारत और चीन में मात्र एक से तीन और अमेरिका में मात्र चार फीसदी सिंचाई ही इन तरीकों से होती है, जबकि ये तीनों सबसे बड़े कृषि उत्पादक देश हैं। सैंड्रा पोस्टल का अनुमान है कि भारत में कुल कृषि क्षेत्र के करीब दसवें हिस्से यानी एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के लिए सिंचाई की ड्रिप प्रणाली कारगर और मुफीद हो सकती है।

सिंचाई के पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप सोच-विचार कर बदलाव लाए जा सकते हैं। इसका अच्छा उदाहरण भारत का पंजाब राज्य है। वहां गेहूं और चावल की दोहरी फसल बड़े पैमाने पर उगाई जाती है। जब भूजल स्तर बुरी तरह गिरने लगा, तब 2007 में राज्य किसान आयोग ने सलाह दी कि दोहरी खेती करने वाले किसान अपनी दो फसलों के बीच का अंतर थोड़ा बढ़ा दें। वे चावल की बुआई मई के बजाय जून के आखिर या जुलाई में करें। विशेषज्ञों का अनुमान था कि इससे सिंचाई के पानी का खर्च लगभग एक तिहाई घट जाएगा, क्योंकि बुआई और मानसून का समय लगभग साथ होगा। इससे किसानों को भूजल निकालने की जरूरत नहीं पड़ेगी, जो राज्य के कुछ इलाकों में घटकर 30 मीटर तक नीचे चला गया था।

सिंचाई प्रणाली के प्रबंधन और देखरेख की जिम्मेदारी सरकारी तंत्र के बजाय पानी का इस्तेमाल करने वाले किसानों की स्थानीय संस्था को सौंपी जाए, तो सिंचाई जल की उत्पादकता बढ़ाई जा सकती है। कई देशों में किसान अपनी संस्थाओं के जरिए इस जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं। पानी का इस्तेमाल करने वाले किसानों की संस्थाएं विकसित करने में मैक्सिको सबसे आगे है। 2008 में यहां 99 फीसदी सिंचाई क्षेत्र का प्रबंधन स्थानीय किसान संघों के हाथों में था।

बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सिडी के कारण पानी की कीमत बेहद कम है। इससे लोगों को लगता है कि पानी बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि हकीकत बिल्कुल उलटी है। चूंकि अब पानी बहुत ही दुर्लभ वस्तु हो गई है और लगातार होती जा रही है, इसलिए इसकी कीमत भी इसी हिसाब से तय होनी चाहिए। आज पानी के इस्तेमाल को लेकर नई सोच के बगैर काम नहीं चलेगा। ऐसी फसलों को अपनाना होगा, जिन्हें उगाने में कम पानी खर्च होता है। साथ ही पानी की उत्पादकता बढ़ाने के हरसंभव प्रयास करने होंगे। चीन में बीजिंग के आस-पास चावल की पैदावार को धीरे-धीरे लगातार कम किया जा रहा है, क्योंकि इसके लिए बहुत ज्यादा पानी खर्च होता है। मिस्र भी चावल की बजाय गेहूं उगाने पर जोर दे रहा है। अमेरिका में भोजन और पेय पदार्थों के रूप में प्रति व्यक्ति अनाज की वार्षिक खपत लगभग 800 किलोग्राम है। मांस, दूध और अंडे के प्रयोग में मामूली कमी करके प्रति व्यक्ति अनाज की खपत 100 किलोग्राम तक कम की जा सकती है।

नदियों और जलस्रोतों में जितना पानी एकत्र होता है, हम सिर्फ उतना ही पानी इस्तेमाल करें। इसके लिए खेती ही नहीं, समूची अर्थव्यवस्था में बदलाव लाने होंगे। खेतों के साथ उद्योगों में भी पानी की उत्पादकता बढ़ानी होगी। घरों में भी ऐसी प्रणालियों का इस्तेमाल बढ़ाना पड़ेगा, जिनमें कम पानी का इस्तेमाल होता है।

लेखक विश्व पर्यावरण के शीर्षस्थ चिंतक और अर्थ पॉलिसी इंस्टीट्यूट के प्रमुख हैं।
E-mail:- lesterbrown@earthpolicy.com

 

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