जीवन और पर्यावरण (Life and environment)


पर्यावरण वह आवरण है जिसमें हम सभी धरती के प्राणी रहते हैं। हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु एवं दृश्य-अदृश्य जीवन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं। पर्यावरण के संकुचित अर्थ में जल, ताप, वायु, पेड़, पौधे आदि आते हैं, किन्तु विस्तृत अर्थों में इसके अतिरिक्त हमारे आचार-विचार एवं कर्म-व्यवहार भी समाहित हैं। यदि ऐसा न होता तो आज वैज्ञानिकों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की मुरली की मधुर आवाज वातावरण (अनंत) में नहीं ढूंढी जाती।

जगत के समस्त प्राणियों में मानव सबसे ज्यादा प्रज्ञ और चिन्तनशील प्राणी है। आदिकाल में आद्यावधि वह अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण प्रगति पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर है। कभी बादल की गरज और बिजली की चमक को ईश्वरीय प्रकोप समझकर डर जाने वाला, नंग-धड़ंग, खाना-बदोश मानव एक ओर आज बिना पंख के उड़ रहा है, घर बैठे देश-विदेश की खबरें ले रहा है, चाँद के बाद मंगल पर उतर चुका है। वहीं दूसरी ओर सुख-सुविधाओं के चक्कर में वह कुछ ऐसी गलतियाँ भी करता जा रहा है, जो उसके स्वयं के साथ-साथ सम्पूर्ण भू-जीवन के लिये अभिशाप बनती जा रही हैं। मानव द्वारा की जाने वाली उन गलतियों में सबसे बड़ी गलती है- पर्यावरण को प्रदूषित किया जाना है, जिसे पर्यावरण प्रदूषण कहते हैं।

इसमें दो राय नहीं कि जब तक हमारा पर्यावरण स्वच्छ नहीं होगा तब तक सर्वांगीण विकास की बात बेमानी होगी। जीवन का उद्देश्य अत्यधिक धन नहीं अत्यधिक सुख और शांति प्राप्त करना है। धन के द्वारा न तो सुख-शांति खरीदी जा सकती है और न ही निर्भय-नैरोग्य जीवन। ‘स्वास्थ्य ही जीवन है’ के सिद्धांत पर संकल्प पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। अच्छे स्वास्थ्य का निर्माण अच्छे वातावरण में ही सम्भव है जिसे हम पर्यावरण कहते हैं।

पर्यावरण वह आवरण है जिसमें हम सभी धरती के प्राणी रहते हैं। हमारे आस-पास की प्रत्येक वस्तु एवं दृश्य-अदृश्य जीवन एक दूसरे को प्रभावित करते हैं तथा पर्यावरण को सन्तुलित रखते हैं। पर्यावरण के संकुचित अर्थ में जल, ताप, वायु, पेड़, पौधे आदि आते हैं, किन्तु विस्तृत अर्थों में इसके अतिरिक्त हमारे आचार-विचार एवं कर्म-व्यवहार भी समाहित हैं। यदि ऐसा न होता तो आज वैज्ञानिकों द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की मुरली की मधुर आवाज वातावरण (अनंत) में नहीं ढूंढी जाती।

प्रदूषण का अर्थ जल, वायु, पृथ्वी आदि में भौतिक-अभौतिक एवं जैविकीय गुणों में होने वाले अवांछनीय परिवर्तन से हैं। जीवन का निर्माण पाँच प्रमुख तत्वों के योग से होता है-

क्षिति, जल, पावक, गगन समीरा।
पंच रचित यह अधम शरीरा।। - (रामचरित मानस)


यदि इन पाँचों तत्वों में से कोई भी एक तत्व प्रदूषित होगा तो निश्चय ही हमारा जीवन भी प्रदूषित होगा। हमारी आने वाली सन्ततियाँ प्रदूषित होंगी। अतः प्रदूषण को रोकने के लिये उन कारकों पर विचार करना होगा, जिससे प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। इन कारकों में प्रमुख रूप से औद्योगीकरण, नगरीकरण, रासायनिक उर्वरकों द्वारा भूमि का अत्यधिक दोहन, नदियों-झरनों इत्यादि के पानी को प्रदूषित करना, प्रकृति के स्वतंत्र प्रवाह में बाधा यानी बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण, वन एवं वन्य जीवन का विनाश, विज्ञान का अनुचित प्रयोग एवं जनसंख्या में तीव्र वृद्धि है।

आज के वैज्ञानिक एवं भौतिकवादी युग में इसे रोकना सम्भव नहीं किन्तु विज्ञान के अनुचित प्रयोगों को तो रोका ही जा सकता है। विज्ञान का प्रयोग जीवन की सफलता हेतु होना चाहिए, विनाश के लिये नहीं। अत्यधिक आग्नेय अस्त्रों, अणु एवं परमाणु बमों के निर्माण की आखिर आवश्यकता क्या है? यह निर्माण है या विनाश? विज्ञान के अनुचित प्रयोग की तरफ इशारा करते हुए राष्ट्र कवि दिनकर ने कहा था-

सावधान मनुष्य यदि विज्ञान है तलवार।
तो इसे दे फेंक, तज मोह स्मृति के पार।।


हिंसा के सन्दर्भ में युग पुरुष महात्मा गाँधी ने कहा था- हमारे मन, कर्म एवं वचन से किसी को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से पीड़ा पहुँचती है तो वह हिंसा है। यह सत्य है कि हमारे प्रत्येक कार्य व्यवहार एवं आचरण का प्रभाव वातावरण पर पड़ता है। हमने वर्तमान को मद्देनजर रखते हुए अपनी तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु निर्ममता पूर्वक बाग, बगीचों जंगलों का पहले तो निर्ममतापूर्वक दोहन किया और जब वे स्रोत दोहन के योग्य न रहे तो उनको निर्मूल कर दिया। उस समय मानव खुश हो रहा था कि जंगलों को काटकर वह अपनी सम्पन्नता में इजाफा कर रहा है। चूँकि प्रकृति बहुधा तुरन्त अपनी प्रतिक्रिया नहीं देती इसलिये मानव अपने को ज्ञानी मान बैठता है। परन्तु जब कालांतर में वर्षा जल चक्र प्रभावित होता है तो पता चलता है कि पूरा-का-पूरा या कभी-कभी कुछ हिस्सा बरसात के दर्शन नहीं कर पाता और फिर हम धार्मिक अनुष्ठान, यज्ञों आदि का सहारा लेते हैं और ईश्वर के प्रकोप को कम करने के उपाय तलाशते नजर आते हैं। परन्तु विवेक पूर्वक यह नहीं सोचते कि ऐसा किन कारणों से हुआ है, इस समस्या का कारण और निवारण क्या है। यदि इस पर ध्यान दिया जाये तो पता चलेगा कि अन्धाधुंध वृक्षों की कटाई और धन-लोलुपता के कारण पर्यावरण ने मानव से विमुख होकर अपना कड़ा रुख अपनाया है।

आपसी प्रेम, सद्भाव, आचरण की पवित्रता, अहिंसा एवं सत्य यही तो गाँधी जी के रामराज्य का आधार था।

रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य की एक झलक दिखाई है-

फूलहि फलहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक संग गज पंचानन।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्वधर्म सदा श्रुति नीति।


यही कारण था कि राम के राज्य में-

दैहिक, दैविक, भौतिक तापा। राम-राज्य काहहुँ नहीं व्यापा।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।


रामराज्य पर ध्यान केवल इतना करते हैं कि उस समय वृक्ष मुँह माँगा पदार्थ स्वतः दे देते थे। परन्तु उसके प्रकारांतर में यह कभी ध्यान नहीं दिया कि लोग अकारण वृक्षों को नहीं काटते थे। अवसरवादी रुख नहीं, अख्तियार करते थे, कि यदि वृक्ष फलदायी नहीं है तो उसे फिर क्या सींचना उसकी रक्षा क्यों की जाये। हमारे पूर्वजों ने भी यदि ऐसा ही सोचा होता तो शायद हमें आज जंगलों की यह थाती, जिसका निर्ममतापूर्वक दोहन कर रहे हैं, नसीब न होती। यदि उन्होंने हमारे लिये अपना फर्ज निभाया है तो हमें भी आगामी पीढ़ी के बचपन को उसका पूरा प्यार-दुलार, पूरी हरियाली, लबालब भरे जलस्रोत स्वच्छ, सुंदर जल और वायु उपलब्ध कराने के लिये कटिबद्ध प्रयास करने चाहिए हमें अपने लिये निर्धारित की गई नीति और पुरखों द्वारा जनश्रुति के आधार पर बताए गए कर्तव्यों का पालन स्वयंमेव स्वविवेक से करना चाहिए। इसके लिये नियमों के आरोपण का इंतजार नहीं करना चाहिए। राम-राज्य कहीं से आरोपित या स्वर्गीय उपलब्धि इस धरा पर नहीं है। यह एक विवेकपूर्ण राज्य की कल्पना और कामना है जहाँ पर व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तु अपने उपयोग हेतु नहीं लेता, वह उसे, दूसरे का हिस्सा जबरदस्ती ग्रहण करना मानता है और दूसरे का हिस्सा जब्त करना धार्मिक रूप से पाप माना जाता है। रघुवंश महाकाव्य की पंक्तियाँ याद आती है जहाँ पर एक शिष्य गुरु दक्षिणा प्राप्ति की कामना से राजा के पास जाता है राजा पहले गुरु की कुशल क्षेम पूछते हैं पुनश्च आने का कारण जानना चाहते हैं। शिष्य गुरु दक्षिणा हेतु एक सौ स्वर्ण मुद्राओं की माँग करता है, राजा उसे मनवांछित राशि लेने के लिये कहता है, परन्तु याचक आवश्यकता से अधिक एक स्वर्णमुद्रा भी लेना पाप समझता है क्योंकि इस धन में उसका अपना कोई अधिकार नहीं है, वह याचना केवल गुरु हेतु कर रहा है।

सामान्यतया दरिद्रता का अर्थ धन हीनता से लगाया जाता है किन्तु यह पूर्णतः गलत है। धनहीन व्यक्ति दरिद्र हो ही नहीं सकता। चरित्रहीन व्यक्ति सत् अर्थों में दरिद्र एवं निंदनीय होता है।

वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्तमायाति याति च।
अक्षीणो इव वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः।


इसी तरह धर्म की भी अलग-अलग परिभाषा दी जाती है। धर्म क्या है? जो धारणीय है वही धर्म है। हमारा सद्कर्म ही धर्म है। पहले और आज भी पृथ्वी, वायु, जल, गगन एवं पेड़-पौधों को देवता मानकर पूजा की जाती रही है। विज्ञान के बढ़ते चलन एवं पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण आज इन्हें देवी-देवता अथवा धर्म रूप में भले ही न माना जाय किन्तु इनकी उपयोगिता एवं आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इसकी महत्ता को स्वीकारा जाता है। दोनों में अन्तर बस स्वीकारने के आधार में है, जिसकी हम पूजनीय मानकर रक्षा करते हैं, वे उसे आवश्यक मानकर रक्षा करते हैं। आवश्यकता कर्म को प्रेरित करती है और कर्म ही धर्म है। उसी कर्म को धर्म रूप में स्वीकारा जा सकता है, जिसमें व्यक्तिगत हित ही नहीं अपितु सर्वजन हित और सर्वजन सुख की भावना हो।

धर्म केवल पूजा-पाठ, व्रत-उपवास की परिधि में सीमित नहीं होता। धर्म अतिव्यापक है इसलिये सब धर्मों से परे एक धर्म की बात कहीं जाती है और वह है मानव धर्म, अर्थात मानवता की भलाई के लिये किया गया काम भी धर्म की परिधि में आता है और अशिक्षा के कारण अकरणीय या वर्जित कार्य को धर्म से जोड़ कर पूर्वज सरल-सहज समाज की कल्पना को साकार रूप देने का प्रयास करते रहे हैं। अपने और अपनों के लिये संग्रह की प्रवृत्ति ही संसाधनों पर कुठाराघात करती है। अपनी आवश्यकता से अधिक संग्रह को, प्रश्रय नहीं देना चाहिए। इससे आने वाली पीढ़ी कामचोर और आलसी बनती है और इसका कारण भी हमी हैं। यदि किसी को संचित धन मिलता है तो वह इसके अर्जन का श्रम नहीं जानता और बेजा इस्तेमाल करता है। पीढ़ियों को सम्पन्न एवं सबल बनाने का मोह त्यागकर, कार्य करना होगा। पीढ़ियों को संस्कार माता-पिता से ही मिलते हैं उन्हें धनाढ्य बनाने के बजाये उन्हें विवेकी और सदाचारी बनाने का प्रयास किया जाये।

स्वास्थ्य ही जीवन है और स्वच्छता नैरोग्यता की जननी है। इस बात को ध्यान में रखते हुए हमें आगे बढ़ना है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, रहन-सहन की समस्या, गिरता जीवन स्तर, विभिन्न रोगों की जननी है। जनता को इस सम्बन्ध में शिक्षित किए जाने की आवश्यकता है। उसे यह बोध कराया जाना चाहिए कि आगे आने वाली पीढ़ी को यदि हम उचित सुख-सुविधा एवं स्वच्छ पर्यावरण नहीं दे सकते तो उन्हें उत्पन्न करने का हमें नैतिक अधिकार भी नहीं है। फिर भला पशुओं और हममें क्या अन्तर है? यह बात जबरन थोपने या लादने की नहीं बल्कि समझने और समझाने तथा भावी पीढ़ी को इससे युक्त करने की है।

वनों की निमर्म कटाई पर रोक एवं वन्य जीवन की जातियों-प्रजातियों के संरक्षण की अधिकाधिक आवश्यकता है। प्रकृति के स्वतंत्र प्रवाह में कम-से-कम हस्तेक्षप होना चाहिए। प्राकृतिक या अरण्यजीवों और गगन-विहारी परिंदों के अपने मकान नहीं हैं वे प्रकृति की गोद में ही साधु-सन्तों की तरह रहते हैं वे कल के लिये कुछ संचय नहीं करते वे हरी-भरी वादियों और पेड़-पौधों के फल-फूल आदि मिलजुलकर खाते हैं और समरसता में जीते हैं। यहाँ मानव पशु से भी गया गुजरा नजर आता है। वह अतिशय संग्रह के लोभ से अपने को बचा नहीं पा रहा है वह चाहता है कि वह और उसका परिवार बचा रहे बाकी से क्या लेना देना। परन्तु यदि इस धरा पर कोई अकेला बचेगा तो उसका बचना किस काम का। जीवन एकाकी या शून्य में सम्भव नहीं लगता है। पशु, पक्षी, लता, वृक्ष, गुल्म सभी प्रकृति की अमूल्य धरोहर हैं हमें इनके साथ ही रहना और जीना है। सहअस्तित्व का जीवन ही उत्तम जीवन है। जीवन पथ के पथगामियों के प्रति मानवीय और सहिष्णु व्यवहार रखना ही मानवता है।

विशाल बाँधों के स्थान पर छोटी-छोटी बन्धियों एवं तालाबों का निर्माण होना चाहिए। यथा सम्भव प्रदूषण फैलाने वाले बड़े उद्योगों की जगह लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन एवं संरक्षण मिलना चाहिए। रासायनिक उर्वरकों के द्वारा भूमि के अत्यधिक दोहन की पूर्ति देशी और घरेलू खादों के द्वारा की जानी चाहिए। गाय रूपी पृथ्वी से इंजेक्शन रूपी उर्वरक मारकर दूध निकलते रहें और उसके उचित भरण-पोषण की व्यवस्था न करें तो उसकी स्थिति क्या होगी, स्वतः कल्पना की जा सकती है। यद्यपि पर्यावरण सुरक्षा के लिये विश्व स्तर पर प्रयास किया जा रहा है। अनेक स्वयं सेवी संगठन एवं व्यक्ति भी पर्यावरण की सुरक्षा में निरन्तर योगदान कर रहे हैं किन्तु यह व्यक्ति-व्यक्तियों, संस्थाओं या अकेले सरकार के बस की बात नहीं है। इसके लिये सबको सम्मिलित प्रयास करना होगा। जन-जन में पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत करनी पड़ेगी।

पर्यावरण को विश्व धर्म के रूप में स्वीकारने की आवश्यकता है। किसी को सुधारने की नहीं बल्कि स्वयं सुधरने की जरूरत है। जन-जन को संकल्पित होना पड़ेगा कि हम अपनी तरफ से पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करेंगे, अन्यथा यह काल-रूप प्रदूषण समस्त जीवन के अस्तित्व को समाप्त कर देगा।

स्वच्छ वातावरण में स्वस्थ मन का विकास होता है। मन की शांति ही सुख है। सुख ही जीवन का उद्देश्य है। सुख लक्ष्य है और धन, साधन। साधन के वशीभूत होकर साध्य को नहीं भूला जाना चाहिए। जीवन का लक्ष्य है अत्यधिक सुख, अत्यधिक धन नहीं और हम अपने लक्ष्य (सुख) को स्वच्छ निर्मल और प्रदूषण मुक्त वातावरण में ही प्राप्त कर सकते हैं।

सम्पर्क
बी-99, एन.एच.4, पो.-बीजपुर, सोनभद्र, उ.प्र. दूरभाष- 05446-243247 मो.-09450818531

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading