जल : आध्यात्मिक महत्त्व श्रावणी मेला

18 Jul 2015
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Shravani fair
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पवित्र जल हमें बाजार से दूर पुराण कथाओं, कहानियों, विश्वासों और श्रद्धा, संस्कृति तथा उत्सव की एक अभिभूत दुनिया में ले जाता है। इसी तरह की दुनिया का साक्षात्कार कराता है विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेला। भागलपुर के सुल्तानगंज से कांवर लेकर चलते कांवरियों की संख्या करोड़ के आस-पास पहुँच गयी है। अनास्था की सदी में यह आस्था का मेला है। साथ ही पवित्र गंगाजल और शिव के प्रति समर्पण का अनुष्ठान है। क्योंकि कोई भी बाजार अर्थव्यवस्था इतनी बड़ी संख्या में लोगों को पैदल नहीं चलवा सकती है। वे जल के मूल्य का आंकलन उसके बाजार भाव से नहीं, बल्कि इसके आध्यात्मिक आधार पर करते हैं। कोई भी राज्य श्रद्धालुओं को जल के बाजार की आराधना के लिए विवश नहीं कर सकता है।

शिवपुराण में भगवान भोले शंकर के महात्म्य की चर्चा करते हुए उल्लखित है कि जैसे नदियों में गंगा, सम्पूर्ण नदी में शोणभद्र, क्षमा में पृथ्वी, गहराई में समुद्र और समस्त ग्रहों में सूर्यदेव का विशिष्ट स्थान है, उसी प्रकार समस्त देवताओं में भगवान शिव श्रेष्ठ माने गये हैं। प्रत्येक वर्ष श्रावण के पावन महीने में लगने वाले विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेला अवधि में सुल्तानगंज की महिमामयी उत्तर वाहिनी गंगा तट पर स्थित अजगैबीनाथ धाम से लेकर देवघर के द्वादश ज्योतिर्लिंग बाबा बैद्यनाथ धाम के करीब 110 कि.मी. के विस्तार में मानों शिव का विराट लोक मंगलकारी स्वरूप साकार हो उठता है और समस्त वातावरण कांवरियां शिव भक्तों के जयकारे से गूंजायमान रहता है।

भगवान शंकर, जो देवों के देव महादेव कहलाते हैं, के बारे में धार्मिक मान्यता है कि श्रावण मास में जब समस्त देवी-देवतागण विश्राम पर चले जाते हैं, वहीं भगवान भूतनाथ गौरा पार्वती के साथ पृथ्वी-लोक पर विराजमान रहकर अपने भक्तों के कष्ट-कलेश हरते हैं और उनकी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। ऐसी लोक-आस्था है कि श्रावण मास के दिनों में भगवान शंकर बैधनाथ धाम और अजगैबीनाथ धाम में साक्षात विद्यमान रहते हैं जहाँ उनकी अर्चना द्वादश ज्योतिर्लिंग और अजगैबीनाथ महादेव के रूप में होती है। यही कारण है कि औघड़दानी शिव के पूजन हेतु लाखों भक्त सुल्तानगंज अजगैबीनाथ धाम और देवघर बैद्यनाथ की ओर उमड़ पड़ते हैं। सुल्तानगंज में गंगा उत्तरवाहिनी है, जिसका विशेष महात्म्य है। भगवान शंकर को गंगा का जल अत्यन्त प्रिय है। यदि यह जल उत्तरवाहिनी का हुआ तो अति उत्तम। पौराणिक कथा के अनुसार यहां ऋषि जह्नु का आश्रम था। जब भगीरथ गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर ला रहे थे, तो कोलाहल से क्रोधित होकर ऋषि जह्नु ने गंगा का आचमन कर पी लिया। किन्तु बाद में भगीरथ के अनुनय विनय करने पर अपनी जंघा से गंगा को प्रवाहित किया जिसके कारण पतित पावनी गंगा जाह्नवी कहलायी।

आनंद रामायण में वर्णित है कि भगवान श्रीराम ने सुल्तानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा के जल से बैद्यनाथ महादेव का जलभिषेक किया था। और, चल पड़ा परिपाटी सुल्तानगंज से उत्तरवाहिनी गंगा का जल कांवर में लेकर बाबा बैद्यनाथ पर अर्पित करने। श्रावण के महीने में सुल्तानगंज से देवघर तक करीब 100 कि.मी. के विस्तार में कांवरिया तीर्थयात्रियों के कांवरों में लचकती मचलती गंगा मानों बहती-सी जाती हैं- जैसे दो -दो गंगा बहती है श्रावण में- एक कांवरों में सवार होकर देवघर की ओर और दूसरी अविरल बहती हुई बंगाल की खाड़ी की ओर। ऐसा चमत्कार तो सिर्फ भगवान भोले शंकर ही कर सकते हैं। इतना ही नहीं, श्रावण मास में बारिश की रिम-झिम फुहारो के साथ-साथ बसंत ऋतु की अलौकिक छटा भी अजगैबीनाथ सुल्तानगंज और सम्पूर्ण कावंरियां-पथ पर देखने को मिलती है। सुल्तानगंज के मेले में लगी दूकानों में कांवरों में लगे प्लास्टिक के लाल, पीले, हरे, गुलाबी खिले-खिले फूल अनुपम दृश्य उपस्थित करते हैं- लगता है मानों सावन में बसंत का आगमन हो गया हैं। ऐसा तो सिर्फ शिव की कृपा से ही सम्भव है। श्रावण मास में सुल्तानगंज से बैद्यानाथ की कांवर-यात्रा मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं, वरन इसके पीछे हमारी सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक मान्यताएं भी छिपी हुई हैं। यदि हम पौराणिक संदर्भ लें तो वह कांवड़-यात्रा आर्य और अनार्य संस्कृतियों के मेल और संगम को दर्शाता है। कहाँ आर्य मान्यताओं की देवी गंगा और कहाँ अनार्यों के देव महादेव पर गंगा-जल का अर्पण आर्य और अनार्य संस्कृतियों के काल क्रम में हुए समागम को दर्शाता है। इसी तरह आर्यों के देव श्रीराम के द्वारा सुल्तानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा को कांवर में लेकर बैद्यनाथ महादेव का पूजन इसी भाव को इंगित करता है।

सुल्तानगंज से देवघर की कांवर-यात्रा मात्र एक धार्मिक यात्रा ही नहीं वरन शिव और प्रकृति के साहचर्य की यात्रा है। कांवर-मार्ग में हरे-भरे खेत, पर्वत, पहाड़, घने जंगल, नदी, झरना, विस्तृत मैदान-सभी कुछ पड़ते हैं। रास्ते में जब बारिश की बौछारें चलती हैं तो बोल बम का निनाद करते हुए कांवरिया भक्तगण मानों भगवान शंकर के साथ एकाकार हो उठते हैं। देवघर में जल अर्पण करके लौटते समय न सिर्फ धार्मिक और आध्यात्मिक रूप से अपने को परिपूर्ण पाता है, वरन प्रकृति के सीधे साहचर्य में रहने के कारण वह अपने अंदर एक नयी उर्जा और उत्फूल्लता महसूस करता है। आज के प्रदूषण के युग में अभी भी प्रकृति के पास मनुष्य को देने के लिये बहुत कुछ है- यह संदेश श्रावणी मेला की कांवर यात्रा देता है जो इसमें शामिल होकर ही महसूस किया जा सकता है। जल शांति, स्वच्छता और जीवन का प्रतीक है- शीतलता से भरा हुआ। भगवान शंकर पर जल का अर्पण हमें शांति और शीतलता का ही तो संदेश देता प्रतीत होता है। इस धार्मिक उन्माद के युग में आज निहित स्वार्थी तत्वों ने आडंबर और वृहत अनुष्ठानों की आड़ लेकर धर्म को धन-बल प्रदर्शन का साधन बना लिया है। वहीं श्रावण में शिव यह संदेश देते हैं कि मुझपर सिर्फ गंगा जल और बेलपत्र चढ़ाओ और वरदान में मुझसे जीवन की सारी ख़ुशियाँ ले जाओ। आज के मार-काट के दौर में भी बैद्यनाथ-धाम मंदिर से सटी दूकानों में हमारे मुसलमान भाई सुहाग की चूड़ियाँ बेचते हैं बाबा के रंग में रंगकर।

आज के इस अपहरण-अपराध के दौर में भी देवघर के कैदी प्रतिदिन बाबा बैद्यनाथ पर अर्पित होनेवाले फूलों के श्रृंगार बनाते हैं और जेल से बाबा मंदिर तक बम भोले का जयकारा करते हुए प्रतिदिन आते हैं। कांवर-मार्ग पर कोई छोटा-बड़ा नहीं-सिर्फ बम है- बड़ा बम, छोटा बम, मोटा बम, माता बम,! न अमीर-न गरीब, न उच-न नीच! बस बम शंकर के भक्त बम! बोल बम। शिव का स्वरूप विराट है दृश्य इसका कोई आर-पार नहीं। और उनका यह विराट स्वरूप मानों श्रावणी मेला में साकार हो जाता है।

श्रावणी मेले के दिन करीब आते ही शिवभक्तों के मन में बाबा के दर्शन की उमंगें हिलोरे लेने लगी हैं। आषाढ़ पूर्णिमा के अगले दिन से ही यह मेला प्रारम्भ हो जाता है। जलाभिषेक के लिए देशभर से शिवभक्तों की भीड़ उमड़ती है। वैसे कुछ वर्ष पहले तक सोमवार को जल चढ़ाने की जो होड़ रहती थी, वह अब उतनी नहीं है। सवा महीने तक चलने वाले इस मेले में अब हर रोज कांवड़ियों की भीड़ लाख की संख्या पार कर जाती है। इस अर्थ में यह किसी महाकुंभ से कम नहीं है। झारखंड के देवघर में लगने वाले इस मेले का सीधा सरोकार बिहार के सुल्तानगंज से है। यहीं गंगा नदी से जल लेने के बाद बोल बम के जयकारे के साथ कांवड़िये नंगे पाँव देवघर की यात्रा आरम्भ करते हैं।

आज के बदले परिवेश में संतोषम परम सुखम जैसी अवधारणा ध्वस्त हो गई है। सुख-सुविधा के प्रति सबकी लालसा बढ़ी है। इसे हासिल करने के उपायों में देवी-देवताओं की पूर्जा-अर्चना को भी महत्त्व प्राप्त हुआ है। आस्थावान लोगों की संख्या में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी के पीछे मनोकामना पूर्ति की यही लिप्सा काम कर रही है। ऐसे में देवघर स्थित शिवलिंग का अपना खास महत्त्व है क्योंकि शास्त्रों में इसे मनोकामना लिंग कहा गया है। यह देश के 12 अतिविशिष्ट ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। यह वैद्यनाथ धाम के नाम से भी जाना जाता है। दरभंगा कमतौल के मूल निवासी अनिल ठाकुर पिछले 25 वर्षों से कांवड़ लेकर देवघर जाते हैं और इस बार भी वह अभी से तैयारी में जुट गए हैं और ऐसे शिवभक्तों की संख्या हजारों में है जो बीस-पचीस वर्षों से हर वर्ष कांवड़ लेकर बाबा के दरबार पहुँचते हैं। ऐसे शिवभक्त अपनी तमाम कामयाबी का श्रेय शिव को देते हैं।

देवघर के इस श्रावणी मेले के साथ बाजार का अर्थशास्त्र भी जुड़ा है। ऐसे कई उद्योग हैं जिन्हें जीवित रखने के लिए अकेले यह मेला काफी है। कांवड़ियों के लिए कुछ वस्तुएँ साथ ले जाना आवश्यक होता है। इसमें टॉर्च, नया कपड़ा मसलन गंजी और बनियान, तौलिया, चादर, दो जल पात्र, अगरबत्ती के आठ-दस पैकेट, मोमबत्ती, माचिस आदि। एक कांवड़िया कम से कम डेढ़ हजार रुपए की खरीदारी करता है। श्रावणी मेले में सुल्तानगंज से गंगा जल लेकर प्रस्थान करने वाले कांवड़ियों की संख्या सवा महीने में पचास लाख के करीब पहुँच जाती है। इसमें लगातार वृद्धि हो रही है। इस तरह सिर्फ श्रावणी मेले में सात सौ करोड़ की खरीदारी इन वस्तुओं की होती है। इसके अलावा रास्ते में चाय, ठंडे पेय, खाद्य आदि पर भी प्रति कांवड़िया चार से पाँच दिन में पाँच सौ रुपए खर्च कर आता है। देवघर में जलाभिषेक के बाद पेड़ा, चूड़ी, सिंदूर और अन्य सामग्री की कम से कम इतने की ही खरीदारी की जाती है यानी श्रावणी मेले का अर्थशास्त्र कुल मिलाकर करीब ग्यारह हजार करोड़ का है। सुल्तानगंज से देवघर की दूरी 98 किलोमीटर है। इसमें सुईया पहाड़ जैसे दुर्गम रास्ते भी शामिल हैं, जहाँ से नंगे पाँव गुजरने पर नुकीले पत्थर पाँव में चुभते हैं मगर मतवाले शिवभक्तों को इसकी परवाह कहाँ रहती है। धर्मशास्त्रों में शिव के जिस अलमस्त व्यक्तित्व का वर्णन है, कमोवेश उनके भक्त कांवड़ियों में भी श्रावणी मेले में यह नजर आता है। वैसे हठयोगी शिवभक्तों की भी कमी नहीं है।

इतनी लम्बी दूरी तक दंड प्रणाम करते पहुँचने वाले शिवभक्तों की कमी नहीं है। वहीं एक ही दिन में इस यात्रा को पूर्ण करने वाले भी हजारों में हैं। श्रावणी मेले में इधर के कुछ वर्षों में बड़ी तब्दीलियाँ आई हैं। बीस वर्ष पहले तक कांवड़ लेकर पदयात्रा करने वालों में मध्य आयु वर्ग के पुरुषों की संख्या ज्यादा होती थी लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं और नौजवानों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। धार्मिक आस्था और गहरी होने के अलावा इसमें एक अलग तरह के पर्यटन का आनंद भी है। घर-परिवार और इलाके से इतर प्राकृतिक सुंदरता से लैस रास्तों में चार-पाँच दिन पैदल चलने पर नौजवानों को पिकनिक का मजा भी मिल जाता है तो कुछ साहसपूर्ण करने की अनुभूति भी मिलती है। महिलाएँ जिस तरह अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं, उसी अनुपात में उनमें धर्म-कर्म के प्रति भी चेतना पैदा हुई है। अगर पुरुष शिव के दरबार में अपनी मन्नतें माँगने पहुँच सकते हैं तो औरतें क्यों नहीं? वैसे भक्तों की भीड़ में मनचले युवकों के शामिल होने से अराजकता की स्थिति भी पैदा होने लगी है। इसके अलावा सुल्तानगंज से देवघर तक भीड़ बढ़ने के कारण उसके संचालन की चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं। देवघर में श्रावणी मेले के दौरान कांवड़ियों की सात से आठ किलोमीटर लम्बी कतार लग जाती है। घंटों खड़ा रहने के बाद कुछ पल के लिए मंदिर में प्रवेश मिलता है। यह ऐसा उत्सव है जो हमें जल को बचाने तथा उसकी दुर्लभता को प्रचुरता में बदलने की शक्ति देता है।
 

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