जल बिन कल

31 Jul 2016
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पिछली कुछ सभ्यताओं ने दुरुपयोग करने के स्थान पर पानी का तरह-तरह से इस्तेमाल करना ही सीखा है। माना जाता है कि मानव सभ्यता के अब तक के इतिहास में तीन बड़ी जलक्रान्तियाँ हुई हैं। सबसे पहले रोमन सभ्यताओं ने पानी को कुओं के भीतर से खींचने और उसे ऊँचाई वाले स्थानों तक चढ़ाने या पहुँचाने (प्लम्बिंग) की तकनीकें विकसित कीं। इससे नदियों, झीलों, कुओं का पानी सहजता से मानव बस्तियों तक पहुँचने लगा और पानी की खोज में समय और ऊर्जा नष्ट करने की बजाय मनुष्य का ध्यान दूसरे आविष्कारों की तरफ जाने लगा। जल के बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। पृथ्वी पर जल नहीं होता, तो जो सभ्यता आज हम देख रहें हैं, वह हरगिज नहीं होती। सिर्फ पृथ्वी पर ही नहीं, पूरे ब्रह्माण्ड में जिन ग्रहों पर जीवन की खोज हो रही है, वहाँ खगोल वैज्ञानिकों का ज्यादा ध्यान पानी की खोज करने पर है। परन्तु क्या हो अगर हमारी पृथ्वी से पानी गायब हो जाये, या प्रदूषित हो जाये, उसके स्रोत सूख जाएँ और वर्षा में कमी हो जाये, तो भी हमारे लिये संकट पैदा हो सकता है।

कहाँ से आया पानी


ऐसा माना जाता है कि काफी पहले पृथ्वी बहुत सूखी और बंजर रही होगी। ठीक वैसी ही, जैसा आज मंगल ग्रह दिखता है लाखों वर्ष पहले पृथ्वी की टक्कर किसी पानी से भरे क्षुद्रग्रह से हुई होगी, जिससे उसका पानी पृथ्वी पर आया होगा। वैज्ञानिकों के मतानुसार हमारी आकाशगंगा में कई ऐसे क्षुद्रग्रह होते हैं जिनमें काफी ज्यादा पानी है। अतीत में इन्हीं क्षुद्रग्रहों का पानी दूसरे ग्रहों पर पानी की आपूर्ति करता रहा होगा, जिससे जीवन पनपने और आगे बढ़ने की सम्भावना बनी। यह विचार कम-से-कम पृथ्वी के बारे में तो सही लगता है।

अब तक की जल क्रान्तियाँ


असल में, पिछली कुछ सभ्यताओं ने दुरुपयोग करने के स्थान पर पानी का तरह-तरह से इस्तेमाल करना ही सीखा है। माना जाता है कि मानव सभ्यता के अब तक के इतिहास में तीन बड़ी जलक्रान्तियाँ (वॉटर रिवॉल्यूशन) हुई हैं। सबसे पहले रोमन सभ्यताओं ने पानी को कुओं के भीतर से खींचने और उसे ऊँचाई वाले स्थानों तक चढ़ाने या पहुँचाने (प्लम्बिंग) की तकनीकें विकसित कीं। इससे नदियों, झीलों, कुओं का पानी सहजता से मानव बस्तियों तक पहुँचने लगा और पानी की खोज में समय और ऊर्जा नष्ट करने की बजाय मनुष्य का ध्यान दूसरे आविष्कारों की तरफ जाने लगा। इसके बाद दूसरी बड़ी जल क्रान्ति पानी के उपचार यानी वॉटर ट्रीटमेंट की हुई।

विज्ञान के विकास के साथ-साथ इंसान ने वे तकनीकें ईजाद कर लीं, जिनकी मदद से दूषित पानी साफ करके उसे पीने योग्य बनाया जा सकता था। आज यदि शहरों-कस्बों में लोगों को रिवर्स, ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक से घर-घर साफ पानी मिल पा रहा है, तो उसमें ऐसे ही तकनीकी विकास का योगदान है।

तीसरी जलक्रान्ति है सीवेज का सुरक्षित प्रबन्धन। लेकिन अब पूरी दुनिया में जरूरत चौथी जलक्रान्ति की है, क्योंकि इसके बिना भविष्य में जल का मौजूद रहना सम्भव नहीं है। यह जलक्रान्ति है दुनिया के घटते जलस्रोतों से मिलने वाले पानी का सोच-समझकर ऐसा इस्तेमाल करने की, ताकि वह भविष्य की पीढ़ियों के इस्तेमाल के लिये भी बचा रह सके।

क्यों घट रहा है साफ पानी


इसमें सन्देह नहीं है कि पृथ्वी पर आज भी वही पानी लगभग उसी मात्रा में विद्यमान है, जितना कई लाख साल पहले था और आगे भी इतनी ही मात्रा में बचा रहेगा। वह बेशक कहीं बाहर नहीं जाएगा, परन्तु तय है कि इस ग्रह पर पानी अब अन्तरिक्ष से भी नहीं आएगा। लेकिन पानी को लेकर जो मुश्किलें दुनिया के सामने हैं, उनकी वजह से यह सबसे कीमती और जल्दी विलुप्त होने वाले प्राकृतिक संसाधन में बदल गया है।

असल में, पृथ्वी पर मौजूद पानी लगातार प्रदूषित किया जा रहा है, उसके स्रोत घट रहे हैं और बढ़ती आबादी के कारण उसकी खपत में इजाफा हो रहा है। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि जिस समुद्र से हमारी दो तिहाई पृथ्वी घिरी हुई है, उसका ज्यादातर पानी खारा (नमकीन) है और पीने योग्य नहीं है।

भारत जैसे देशों के लिये पानी एक बड़ा संकट इसलिये है क्योंकि हमारे देश की आबादी काफी ज्यादा है। दुनिया के मुकाबले भारत की आबादी 17 प्रतिशत है, लेकिन इसकी तुलना में साफ पानी सिर्फ 4 प्रतिशत उपलब्ध है। इस पर समस्या यह है कि देश में जल का असमान वितरण होता है। यानी कहीं इसका ज्यादा इस्तेमाल हो रहा है, जिससे जरूरत वाले इलाकों में पानी की कमी पड़ जाती है। खेती के साथ-साथ घरेलू इस्तेमाल के लिये आम जनता भूजल यानी बोरवेल और ट्यूबवेल से खींचे गए पानी पर निर्भर हो गई है।

फिलहाल इस जरूरत के लिये 80 प्रतिशत पानी जमीन के नीचे से निकाला जा रहा है। जिस तेजी से शहरों-कस्बों की आबादी बढ़ रही है, ज्यादा भूजल खींचने की जरूरत पैदा होगी जिससे जलस्तर और नीचे जाना तय है। भूजल की भरपाई यानी उसे रीचार्ज करने की नीतियों (वाटर हार्वेस्टिंग) पर गम्भीरता से अमल नहीं होने की सूरत में पानी का यह भविष्य अन्धकारमय ही लगता है। यही नहीं, अब जिस तरह से उत्तर भारत में भी ज्यादा पानी खींचने वाली धान और गेहूँ की फसलों की पैदावार बढ़ाने पर जोर दिया जा रहा है, उसका असर पानी की उपलब्धता पर पड़ना निश्चित है।

किन उपायों से बचेगा पानी का भविष्य


भारत के सम्बन्ध में बात करें, तो इसके कुछ तरीकों की चर्चा होती रही है जिससे पानी न सिर्फ सूखाग्रस्त इलाकों तक पहुँचाया जा सकता है, बल्कि उसका बेहतर इस्तेमाल सुनिश्चित करके उसे भविष्य के लिये बचाया जा सकता है। देश के सूखे इलाकों को हरा-भरा रखने की नदी जोड़ परियोजना एक ऐसा ही प्रस्ताव है।

क्या नदीजोड़ से मिलेगा समाधान


विज्ञान के विकास के साथ-साथ इंसान ने वे तकनीकें ईजाद कर लीं, जिनकी मदद से दूषित पानी साफ करके उसे पीने योग्य बनाया जा सकता था। आज यदि शहरों-कस्बों में लोगों को रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) तकनीक से घर-घर साफ पानी मिल पा रहा है, तो उसमें ऐसे ही तकनीकी विकास का योगदान है।दावा किया जा रहा है कि देश की नदियाँ आपस में जोड़ने के बाद उनका अतिरिक्त पानी का रुख बाढ़ के समय सूखे इलाकों की तरफ मोड़ दिया जाएगा, जिससे बाढ़ और सूखे से भी निपटा जा सकेगा और पानी का बेहतर इस्तेमाल हो सकेगा। देश में मोटे तौर पर नदी जोड़ो परियोजना के तहत 30 नदियों को जोड़ने की योजना है। सरकार इस योजना के तहत पहली परियोजना का काम दो चरणों में सम्पन्न कराना चाहती है, जिसमें कम-से-कम सात साल लगेंगे। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार, 30 में से 16 परियोजनाएँ पर्वतीय क्षेत्र की हैं, जबकि शेष मैदानी क्षेत्र की हैं।

पाइप में बन्द करें ग्लेशियरों को


कुछ समय पहले विदर्भ के सीनियर इंजीनियर प्रशान्त जनबन्धु ने नदी जोड़ परियोजना का एक विकल्प पेश करते हुए हिमालय से पूरे देश में पानी पहुँचाने की योजना बनाई और इस पर एक शोध किया था। इस योजना के अनुसार, हिमालय क्षेत्र में आने वाले कुल 9575 ग्लेशियरों से 1292 घन किलोमीटर पानी उपलब्ध हो सकता है।

इस योजना का आकलन है कि हिमालय के ग्लेशियरों से गर्मी के मौसम में बर्फ पिघलने से आने वाले पानी को करीब 55 नए बाँध बनाकर सहेजा जाये और देश के सूखे इलाकों तक पाइप लाइनों का जाल बिछाकर उसका इस्तेमाल किया जाये, तो जल संकट का काफी हद तक सदियों तक के लिये समाधान हो सकता है।

समुद्र को छाना जाये


पूरी दुनिया पीने के पानी के विकल्प के रूप में समुद्रों को बड़ी हसरत से देखते आये हैं, बशर्ते उसके खारेपन को अलग किया जा सके।

समुद्र के खारे पानी को मीठे पानी में बदलने की प्रक्रिया आसान नहीं है। इसके लिये थर्मल डिसैलिनेशन तकनीक इस्तेमाल में लाई जाती है, जिसकी लागत काफी ज्यादा है। असल में डिसैलिनेशन की प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा का खर्च होता है, जो उससे मिलने वाले पानी को बेहद महंगा बना देता है। हालांकि आस्ट्रेलिया जैसे देश मुख्यतः इसी प्रक्रिया पर निर्भर हैं क्योंकि उनके अन्य जलस्रोतों से जरूरत के मुताबिक पानी नहीं मिल पाता है।

मध्य-पूर्व के देशों के अलावा स्पेन, चीन, ब्रिटेन, हवाई, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में भी ऐसे डिसैलिनेशन प्लांट लगाए जा रहे हैं। फिलहाल, भारत जैसे देश में इस तरह डिसैलिनेशन से मिलने वाले पानी की मौजूदा कीमत 50-55 रुपए प्रति लीटर बैठती है, जो बोतलबन्द पानी से कई गुना ज्यादा है। लेकिन वैज्ञानिकों का अनुमान है कि डिसैलिनेशन की लागत आगे चलकर कम हो सकती है।

इसे कम किया ही जाना होगा, क्योंकि आखिर में हमारे पास समुद्र ही होंगे, जहाँ पानी होगा। भारत के लिये अभी ये शुरुआती प्रयोग हैं, लेकिन भविष्य की जरूरतों के लिहाज से ऐसे प्रयोगों को अमल में लाते वक्त हमें बाकी दुनिया के अनुभवों पर गौर करना होगा।

सम्पर्क सूत्र :


डॉ. संजय वर्मा,
वरिष्ठ सहायक सम्पादक
नवभारत टाइम्स,
9-10, बहादुरशाह जफर मार्ग
एक्सप्रेस बिल्डिंग, दूसरा तल
नई दिल्ली 110 002

[मो. : 9958724629]



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