जल नहीं जीवन निधियाँ हैं ये

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भले ही रोज के अखबार मुल्क में पानी के भीषण संकट की खबरें छापतें हों, लेकिन हकीकत यह है कि भारत जल निकायों के मामले में दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक है। तालाब, कुएं, बावड़ी, नदी, झरने, सरिताएं, नाले...ना जाने कितने आकार-प्रकार के जल-स्रोत यहां हर गांव-कस्बे में पटे पड़े हैं। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे।प्रायः पुण्य के लोभ के कारण, सिंचाई एवं जल की अन्य आवश्यकताओं तथा कीर्ति की आकांक्षाओं के कारण पोखर खुदवाने की परंपरा बहुत प्रचलित थी। पर पोखर के रूप में पोखर की मान्यता तभी होती थी जब उसका यज्ञ हो जाए। इसलिए यज्ञ और उत्सर्ग का विधान पेाखर खुदवाने का अत्यंत आवश्यक अंग बन गया।

यज्ञ के पश्चात पूरे समाज को उस पोखर के जल, मछली, मखाना, घोंघा, सितुआ जैसी जल की वस्तुओं के स्वच्छंद उपयोग का अधिकार हो जाता है। राजनेता व प्रख्यात लेखक जाबिर हुसैन के संपादकत्व में बिहार विधान परिषद की पत्रिका ‘साक्ष्य’ का अक्तूबर-2004 अंक नदियों पर केंद्रित था। कुल 1178 पेज की इस पत्रिका में वैसे तो प्रत्येक आलेख नदी पर था लेकिन एक आलेख प्राचीन मिथिला में पोखरों पर भी है और ‘विरासत’ खंड के प्रारंभ में ये वाक्य दर्ज हैं। यह अकेले मिथिला के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए सटीक वाक्य हैं।

बारिश की हर बूंद को सहेज कर रखने के लिए कुएं, बावड़ी, ताल-तलैया बनवाने की परंपरा भारत में मानव सभ्यता के विकास की महत्वपूर्ण सहयात्री रही है। ईसा से कोई 800 से 300 साल पहले लिखे गए ग्रंथ गृहसूत्र व धर्मसूत्र में तालाबों के निर्माण का उल्लेख है।

इन सूत्रों में लिखा है कि किसी भी वर्ण या जाति का कोई भी पुरूष या स्त्री तालाब खुदवा कर उसका यज्ञ करवा कर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण हेतु उसका उत्सर्ग कर सकते हैं। सातवीं शताब्दी में संस्कृत रचनाकार वाण की कृति ‘कादम्बरी’ में तालाब बनवाने के कार्य के महत्व का उल्लेख है।

हमारे देश का जबसे इतिहास उपलब्ध है, तभी से जल प्रबंधन के लिए जलाशय, पेाखर, बावड़ी आदि बनवाने के प्रमाण मिलते हैं। मत्स्य पुराण (58/53, 54)

दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हदः।
दशहृदसमः पुत्रो दसपुत्रोसम द्रुमः।


यह श्लोक बताता है कि कूप यानी कुआं कितना पावन होता है। कच्छ जिले के धौलावरी नामक सैंधव स्थल के उत्खनन से पता चलता है कि उस काल में 36 प्रतिशत क्षेत्रफल का इस्तेमाल केवल तालाब बनाने में किया गया था। शक शासक रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख में सौराष्ट्र के सुदर्शन तड़ाग के निर्माण का उल्लेख है। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी जिक्र आता है,

सिमट-सिमट जल भरहिं तलावा,
जिम सद्गुण सज्ज्न पहिं आवा।


लाला का तालाबइन तालाबों की वजह से किसानों को सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था और वह समय पर खेतों की सिंचाई कर लिया करता था। तालाबों के बारे में पर्यावरणविद अनुपम मिश्र अपनी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब में कहते हैं, ये सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की तो दहाई थी बनाने वालों की, यह इकाई, दहाई मिलकर, सैकड़ा, हजार बनता था। पिछले दो सौ वर्षों में नए किस्म की थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्य बना दिया।

दुर्भाग्य है कि जैसे-जैसे समाज ज्यादा उन्नत, विकसित और तकनीकी-प्रेमी होता गया, अपनी परंपराओं को बिसरा बैठा। पहले-पहल तो लगा कि पानी पाईप के जरिए घर तक नल से आएगा, खेत में जमीन को छेद कर रोपे गए नलकूप से आएगा, लेकिन जब ये सब ‘चमत्कारी उपाय’(?) फीके होते गए तो मजबूरी में पीछे पलट कर देखना पड़ा।

शायद समाज इतनी दूर निकल आया था कि अतीत की समृद्ध परंपराओं के पद-चिन्ह भी नहीं मिल रहे थे। तभी तो अब पूरे मुल्क में पूरे साल, भले ही बाढ़ वाली बारिश गिर रही हो, पानी के लिए दैया-दैया होती दिखती है। भले ही रोज के अखबार मुल्क में पानी के भीषण संकट की खबरें छापतें हों, लेकिन हकीकत यह है कि भारत जल निकायों के मामले में दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक है।

तालाब, कुएं, बावड़ी, नदी, झरने, सरिताएं, नाले...ना जाने कितने आकार-प्रकार के जल-स्रोत यहां हर गांव-कस्बे में पटे पड़े हैं। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे।

एक आंकड़े के अनुसार, मुल्क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। अकेले मद्रास प्रेसीडेंसी में ही पचास हजार तालाब और मैसूर राज्य में 39 हजार होने की बात अंग्रेजों का रेवेन्यू रिकार्ड दर्शाता है। दुखद है कि अब हमारी तालाब-संपदा अस्सी हजार पर सिमट गई है।

बक्शी का तालाबउत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अंग्रेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्त ही कर दिया।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है।

अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा। गुजरते वक्त के साथ तालाबों को दम तोड़ते देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि आखिर यह कैसा विकास है, जो हमारे पर्यावरण के साथ खुलेआम खिलवाड़ कर रहा है और भावी पीढ़ी के जीवन के लिए संकट पैदा कर रहा है।

जहां तालाब होते हैं, वहां का भूजल स्तर बेहतर होता है और फसलों को भी पर्याप्त पानी मिलता रहता है। लेकिन अब न तो वह दौर है, न ही तालाब बनवाने वाले वे लोग। बेशक अब वह दौर नहीं लौट सकता, पर तालाबों के संरक्षण और निर्माण को फिर शुरू तो कर सकते हैं।

दुनियाभर के जल-स्रोतों में आयतन के लिहाज से नदी व झीलों का जल संग्रह महज एक फीसदी है। फिर भी मानव जीवन के लिए इसका सबसे ज्यादा महत्व है।ऐसा आकलन है कि झीलों में नदियों की तुलना में चार गुणा ज्यादा शुद्ध जल है, फिर भी झीलों का पानी ज्यादा दूषित है।

तालाब मानव संस्कृति का नैसर्गिक केंद्र है। एक झील अपने क्षेत्र के जलीय, पर्यावरण तथा सामाजिक-अार्थिक संतुलन को संवारने में अहम् भूमिका अदा करती है। दूर देश से आने वाले पंक्षी हो या फिर झील के इर्दगिर्द के पर्यावास के जीव-जंतु, सभी का जीवन इसके पानी पर निर्भर होता हैं।

तालाबअक्सर सवाल होता है कि झील कहते किसे हैं? “बारिश या अन्य किसी स्रोत से उत्पन्न पानी समुद्र में मिलने से पहले किसी ऐसी जगह संचित हो जाता है, जो प्राकृतिक भी हो सकती है और मानव-निर्मित भी। कई बार इसमें जल की आवक किसी नदी से होती है, तो कभी भूजल का कोई सोता इसे सिंचित करता है। कभी-कभी झरने या सरिताएं भी इसमें आवक का जरिया बनती हैं। भारत में पाई गई झीलों को कुछ इस तरह वर्गीकृत किया जा सकता है।
 

क्रम

झील का प्रकार

परिभाषा

1.

भूकंप के कारण बनी झीलें

ऐसी झीलें धरती के जल संग्रहण क्षेत्र में उभरती हैं।

2.

लावा झील

हजारों साल पहले फटे किसी ज्वालामुखी से निकले लावा के बहाव सेनिर्मित बांध पर बनी झील।

3.

भूस्खलन झील

आमतौर पर हिमालय क्षेत्र में होने वाले बड़े भूस्खलन के बाद कहीं एक हो गएमलबे के कारण भी तालाब/झील बन जाती हैं। जून-2013 की केदारनाथत्रासदी में ऐसी ही झील की भूमिका सामने आई है और इस दौरान हुए भुस्खलन से कई झील भी बनी हैं।

4.

हिम झील

ग्लेशियर के कारण बनी विशाल झीलें कई बार पहाड़ों पर तबाही ला चुकीहैं।

5.

लाईम संरचना की झील

सदियों तक चूने के पानी से संसर्ग में रहने के कारण कई बार गुफाओं मेंझीलें बन जाती हैं।

6.

नदी-झील

नदियों के बीच या धारा से कट कर बनी झीलें।

7.

बालू-झील

तेज हवाओं के कारण उड़ी रेत के बड़े टीले के कारण बनी झीलें।ऐसी संरचनाएं आमतौर पर समुद्र में नदियों के मिलने केस्थान पर देखी जाती हैं। कुछ नखलिस्तान रेगिस्तान में भी ऐसे

ही बनते हैं।

8.

तटीय संरचना

कई बार समुद्र या नदी के किनारों पर तरंगों के कारण झील उभरआती हैं।

9.

प्राकृतिक झील

कई स्थानों पर पहाड़ों से बहने वाले जल का संचयन झील केरूप में हो जाता है।

10.

उल्का झील

अंतरिक्ष से गिरने वाले उल्का पिंड कई बार धरती पर बहुत विशाल वगहरा गड्ढा बना देते हैं जिसमें पानी भरता रहता है।

 

 


प्रस्तुत लेख लेखक की रचना “दफन होते दरिया” से लिया गया है
 

 

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