जल संरक्षण व्यवस्था और प्रासंगिकता (Water conservation system and relevance)


इतिहास हमें भविष्य में सम्भलकर चलने की शिक्षा देता है। साथ ही यह भी बतलाता है कि पूर्वकाल में हमने क्या गलतियाँ कीं और भविष्य में दोबारा उस गलती को न दोहराएँ जिससे मानव जाति को कष्ट उठाना पड़े। भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करने पर यह बात सहज ही में प्रत्यक्ष हो जाती है कि अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतवासी जल के महत्त्व से भलीभाँति परिचित थे और जल संरक्षण की एक गौरवपूर्ण परम्परा थी। औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि और व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण हम जल को प्रदूषित और उसके स्रोतों का विनाश कर रहे हैं।

प्रकृति ने इस धरातल को विविध आधारभूत चीजें प्रदान की हैं। वायु, जल, भू, अग्नि, आकाश के साथ ही जीव और वनस्पतियों का भी निर्माण कर प्रकृति ने जैव-विविधता प्रदान की। पृथ्वी के चारों ओर जीवनदायी एक ऐसे आवरण का निर्माण किया जा पृथ्वी के सभी जीव-धारियों के लिये परमावश्यक हैं। शचीन्द्र भटनागर की पंक्तियाँ प्रकृति की इस देन को बखूबी निरूपित करती हैं:

प्राणदायी है प्रकृति, हर साँस उसकी देन है,
वायु, जल, भू, अग्नि और आकाश उसकी देन है।
व्यर्थ, जीवन की हरेक है कल्पना उसके बिना,
आज जो कुछ है हमारे पास, उसकी देन है।


जैवविविधता का मानव जीवन के साथ ही समस्त पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों के अस्तित्व को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण योगदान हैं जीवन की तीन आधारभूत आवश्यकताएँ- शुद्ध हवा, उर्वर भूमि और स्वच्छ जल में स्वच्छ जल का विशेष महत्त्व है। तभी तो जल को पृथ्वी पर ‘जीवन-का नियंत्रक एवं कारक’ माना गया है। मानव, पशु, पक्षी व वनस्पति सभी के जीवन अस्तित्व एवं संवर्द्धन के लिये जल अपरिहार्य है। अत्यन्त आवश्यक एवं उपयोगी वस्तु होने के कारण ही जल को जीवन या अमृत भी कहा गया है। यहाँ तक कि मानव शरीर में ही लगभग 70 प्रतिशत जल विद्यमान रहता है जीवन के लिये जल इतना महत्त्वपूर्ण है कि जीवन जल में ही पैदा होता और फलता-फूलता है। न केवल मानव वरन जैवविविधता और जलवायु परिवर्तन के लिये भी जल परमावश्यक है। प्राचीन काल में अधिकांश सभ्यताओं का विकास नदी घाटी में हुआ जो इस बात को इंगित करता है कि जल मानव की अपरिहार्य आवश्यकता रही है। भारत में प्राचीन काल से ही पर्यावरण विशेषकर उसके प्रमुख घटक जल के महत्त्व एवं उसके संरक्षण के प्रति जागरुकता दिखाई पड़ती है। भारतीय परम्परा में मानव जीवन को प्रकृति के विविध अंगों के साहचर्य के रूप में देखा गया है। इसी कारण हमारे त्योहारों, धार्मिक आयोजनों, परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों में सूर्य की अर्घ्य देना, वृक्षों को पूजना, नदी की पूजा आदि अनेक परम्पराएँ सृजित की गईं, जो हमें प्रकृति के संसाधनों का सम्मान करना सिखाती हैं। भारतीय ऋषियों ने मानव एवं पर्यावरण के सम्बन्ध को बड़ी गहराई से समझा था और वन-पर्वतों और नदी तटों पर बैठकर विविध धर्मशास्त्रों एवं दर्शन ग्रंथों की रचना की और जल के महत्त्व एवं उसके संरक्षण को हृदय से स्वीकारा और यहाँ तक कि तीर्थ स्थलों का भी चयन ऐसे स्थानों पर किया जहाँ जल की प्रचुर उपलब्धता हो।

ऐतिहासिक कालक्रम को संज्ञान में लेते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत में प्राचीन काल से ही जल की महत्ता, उसकी सफाई और संरक्षण के प्रति जागरुकता थी। विश्व की प्राचीनतम और श्रेष्ठतम सिंधु सभ्यता के लोग भी जल के महत्त्व एवं संरक्षण के प्रति जागरुक थे। वे लोग जल को पवित्र मानते थे तथा धार्मिक समारोहों के अवसर पर सामूहिक स्नान आदि का महत्त्व था। सिंधु सभ्यता में नगरीय जीवन का सूत्रपात हो चुका था और नगर प्रबन्धन, स्वास्थ्य और स्वच्छता को दृष्टि में रखते हुए नालियों का जैसा श्रेष्ठतम उदाहरण दिखाई देता है वैसा किसी अन्य तत्कालीन सभ्यता में नहीं दिखता। सिंधु सभ्यता के अधिकांश भवनों में निजी कुएँ और स्नानागार होते थे जो जल प्रबन्धन का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। यहाँ तक कि इस सभ्यता के विनाश के पीछे भी जलवायु परिवर्तन खासकर भूजल का सूख जाना कई ख्याति प्राप्त विद्वानों ने स्वीकार किया है।

भारतीय इतिहास के प्रथम युग में, जहाँ से लिखित साक्ष्य मिलता है, वैदिक धर्म प्रचलित था और वैदिक देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी। वैदिक काल से ही सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को देवता माना गया और उनमें मानवोचित गुणों को आरोपित कर दिया गया। वैदिक कालीन लोग जल के महत्त्व से भलीभाँति परिचित थे तभी तो जल को देवपद और नदियों को जीवनदायिनी माता कहकर सम्बोधित किया गया है। वैदिक काल में इन्द्र, अग्नि और वरुण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देवता थे। ऋग्वेद में ही जल के देवता वरुण को ‘‘जगत का नियन्ता, देवताओं का पोषक तथा ऋतु नियामक कहा गया है। ये आकाश, पृथ्वी तथा सूर्य के भी नियामक थे। ‘वायु’ उनका स्वांस था। ये सभी मनुष्यों के कार्यों का निरीक्षण सूर्य रूपी नेत्र से करते हैं तथा पापियों को अपने पाश में आबद्ध कर लेते हैं।’’ ऋग्वेद में ही एक स्थान पर सूर्य को जल चढ़ाते हुए प्राथना की है कि हे सूर्य भगवान! मैं आभारी हूँ कि मुझ पर ऊर्जा, हवा और जल की कृपा हुई। मैं आप तीनों का आभारी हूँ’ जल के महत्त्व को रेखांकित करता है। अथर्ववेद के ‘भूमिसूक्त’ में भी जल से प्रार्थना की गई है कि यह हमारे शरीर को सदैव पवित्र बनाए रहे। न केवल वेदों वरन स्मृतियों, महाकाव्यों और पुराणों तक में पर्यावरण के प्रति संचेतना और जल के महत्त्व और उसके संरक्षण को विधिवत प्रतिपादित किया गया है।

मनुस्मृति में जल संरक्षण को रेखांकित करते हुए निर्देशन किया गया है कि जल में मल-मूत्र त्याग न करें, थूकें नहीं, अन्य दूषित पदार्थ न डालें। रामायण और महाभारत दोनों ही महाकाव्यों में सरोवर और जल संचय की बात कहीं गई है। पुराणों में सर्वाधिक प्राचीन मत्स्य पुराण में जल के महत्त्व और उसके संचय स्रोतों का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब है, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष। इस प्रकार भारतीय धर्मग्रंथों में पर्यावरण और जल संरक्षण की जो व्यवस्था मिलती है वह संसार के किसी अन्य धर्मग्रंथों में नहीं मिलती।

प्राचीन काल से ही जल की महत्ता, उसकी सफाई और उसके स्रोतों-कूप, तालाब, नहर, बावड़ी इत्यादि का निर्माण कार्य प्रजा पालन समझा जाता था। तभी तो भारतीय राजाओं द्वारा इस तरह का कार्य करवाना अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व समझा जाता था, भले ही इसके पीछे धर्म अथवा समाजसेवा का ही भाव क्यों न रहा हो। उन्हीं के पदचिन्हों पर चलते हुए धनी मानी और व्यापारी लोग भी ऐसा ही लोकोपकारी कार्य करवाते थे। शक क्षत्रप रुद्रदामन के ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने सुराष्ट्र तक का प्रवेश जीतकर अपने प्रत्यक्ष शासन में कर लिया तथा प्रजा को जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये सुराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने गिरनार पर्वत के समीप रैवतक तथा ऊर्जयत पर्वत के जलसोतों के ऊपर कृत्रिम बाँध बनाकर ‘सुदर्शन झील’ का निर्माण करवाया था। जूनागढ़ अभिलेख से ही ज्ञात होता है कि अशोक के समय सुराष्ट्र के राज्यपाल तुशास्प ने झील से पानी निकालने के लिये मार्ग का निर्माण करवाया था ताकि जनता का हित हो सके।

मौर्यकाल में लोग जल के महत्त्व से भलीभाँति परिचित थे और जल प्रबन्धन की तो अत्यन्त ही उत्तम व्यवस्था थी। मेगस्थनीज ने ‘इंडिका’ में लिखा है कि भूमि के अधिकतर भागों में सिंचाई प्रचुर मात्रा में होती है और इसी कारण से साल में दो फसलें पैदा होती हैं। राज्य के कुछ कर्मचारियों के जिम्मे यह कार्य है कि वे भूमि की नाप-जोख और नदियों का निरीक्ष्ण करें। वे उन नालियों और छोटी-छोटी शाखा नहरों की देखभाल किया करते हैं जिनके द्वारा प्रधान नहरों का जल अन्य छोटी-छोटी नहरों में भी जा सके।

सम्राट अशोक ने भी बहुत लोकोपकारी कार्य धर्म के नाम पर ही सही किये, जिनसे जल संरक्षण की भी जानकारी मिलती है। सातवें अभिलेख में अशोक ने लिखवाया है कि मार्गों में मेरे द्वारा वट-वृक्ष लगवाए गए। वे पशु एवं मनुष्य को छाया प्रदान करेंगे। आम्रवाटिकाएँ लगाई गईं। आधे-आधे कोस की दूरी पर कुएँ खुदवाए गए तथा विश्रामगृह बनवाए गए। मनुष्य तथा पशु के उपयोग के लिये प्याऊ चलाए गए। मैंने यह कार्य इस अभिप्राय से किया कि लोग धर्म का आचरण करें। एक अन्य समकालीन प्रामाणिक ग्रंथ ‘संयुक्त निकाय’ में भी, ‘फलदार वृक्ष लगवाने, पुल बन्धवाने, कुएँ खुदवाने, प्याऊ चलवाने आदि को महान पुण्य का कार्य बताया गया है।

मौर्योत्तर काल में भी शक, कुषाण, आन्ध्र-सातवाहन और गुप्त शासकों द्वारा जल के संरक्षण का महान कार्य किया गया, परन्तु फिर भी इस क्षेत्र में सर्वाधिक कीर्ति अर्जित की-शक क्षत्रप रुद्रदामन और स्कन्दगुप्त ने! ‘जूनागढ़ अभिलेख’ से ज्ञात होता है कि शक क्षत्रप रुद्रदामन के समय सुदर्शन झील में चौबीस हाथ लम्बी, उतनी ही चौड़ी और पचहत्तर हाथ गहरी दरार पड़ गई जिसके फलस्वरूप झील का सारा पानी बह गया। इस विपत्ति के कारण जनता का जीवन अत्यन्त कष्टमय हो गया तथा चारों ओर हाहाकार मच गया। चूँकि इसकी मरम्मत में बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी, अतः मंत्रिपरिषद ने इस कार्य के लिये धन व्यय किये जाने की स्वीकृति नहीं प्रदान की, किन्तु रुद्रदामन ने जनता पर बिना कोई अतिरिक्त कर लगाए अपने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बाँध की फिर से मरम्मत करवाई तथा उससे मजबूत बाँध बनवा दिया। इसी प्रकार जब गुप्त सम्राट स्कन्द गुप्त के समय यह इतिहास प्रसिद्ध झील क्षतिग्रस्त हुई थी तो स्कन्दगुप्त ने सुदर्शन झील के पुनरुद्धार का कार्य अपने सुराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था।

गुप्तोत्तर काल में भी भारतीय राजाओं द्वारा प्रजा के हित और पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते हुए कुओं, इतिहास प्रसिद्ध जलाशयों और नहरों के साथ ही झीलों का निर्माण करवाया जाना जल के महत्त्व को सूचित करता है। उदाहरण के लिये चंदेल शासक कीर्तिवर्मा द्वारा महोबा में ‘कीरत सागर झील’, मालवा के परमार शासक भोज द्वारा ‘भोजसेन तालाब’ और चोल शासक राजेंद्र प्रथम द्वारा ‘चोलगंगम तालाब’ का निर्माण करवाया गया। इस प्रकार प्राचीन भारतीय शासकों में जल के महत्त्व और संरक्षण के प्रति जागरुकता दिखलाई पड़ती है।

भारत पर विदेशी मुस्लिम आक्रमण के बाद यहाँ मुस्लिम शासन स्थापित हुआ। यद्यपि मुस्लिम शासक भारत के लिये विदेशी थे परन्तु उन लोगों ने भी जल प्रबन्धन और उसके संरक्षण को प्रोत्साहन दिया और अनेक जनोपयोगी कार्य किये। अलाउद्दीन खिलजी ने सीरी नगर के बाहर ‘हौज-ए-खास’ तालाब बनवाया। गयासुद्दीन तुगलक ने सल्तनतकाल में सर्वप्रथम नहर का निर्माण करवाया। फिरोज तुगलक द्वारा 100 स्नानगृह, 15 पुल, अनेक कुएँ, तालाब एवं बावड़ियों के साथ ही 5 बड़ी नहरों का भी निर्माण करवाया जिनमें राजवाही और उलूगखनी प्रमुख थीं। विजयनगर शासक देवराय प्रथम ने तुंगभद्रा नदी पर बाँध बनवाकर नहर का निर्माण करवाया, वहीं मालवा के मुस्लिम शासकों द्वारा मांडू में इतिहास प्रसिद्ध कपूर तालाब एवं मुंजे तालाब का निर्माण करवाया गया।

मुगल-मराठा काल के भी राजे-रजवाड़े, चाहे वे किसी भी कौम या जाति-धर्म के रहे हों, जल के संरक्षण के प्रति श्रद्धावान थे। जनता की सुविधा एवं कल्याण के लिये तो अनेक जनोपयोगी कार्य तो किये ही जाते थे साथ ही साधन सम्पन्न होने के कारण अकबर, जहाँगीर, औरंगजेब एवं पेशवाओं द्वारा स्वयं के प्रयोग के लिये गंगाजल का उपयोग जल के महत्त्व और गंगा के प्रति श्रद्धा को प्रदर्शित करता है। इस प्रकार भारतीय इतिहास के हर कालखण्ड में शासकों द्वारा जल के महत्त्व को स्वीकारा गया और उसे संरक्षण प्रदान किया गया।

परन्तु विगत कुछ सौ वर्षों में विश्व के देशों और भारत में भी औद्योगीकरण और संसाधनों के अत्यधिक दोहन के कारण प्राकृतिक संसाधनों पर अत्यधिक दबाव बढ़ा। जिसके कारण जल का अत्यधिक दोहन तो हुआ ही साथ ही औद्योगीकरण और जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप हो रहे अवशिष्टों के निस्तारण एवं अवशिष्ट पदार्थों के जल में मिलने से जल प्रदूषित होता जा रहा है। जिसके कारण उसकी उपयोगिता तो अपरिहार्य है परन्तु गुणवत्ता में कमी आती जा रही है। प्रदूषण का ही परिणाम है कि आज हमारी नदियाँ प्रदूषण से युक्त हो चुकी हैं।

आज संसार के समक्ष सबसे बड़ा संकट जल के संरक्षण का है। वायु में लगातार मिश्रित हो रही कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरो कार्बन और सल्फर के कारण पृथ्वी से ताप का उत्सर्जन नहीं हो पा रहा है और पृथ्वी का ताप बढ़ रहा है, जिससे ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या पैदा हो गई है। वर्षा होने पर ये गैसें जल में घुल जाती हैं जिसके कारण सूर्य के प्रकाश में अपघटन के फलस्वरूप जल, सल्फ्यूरस एसिड और नाइट्रस एसिड में बदल जाता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ही धरती पर साढ़े तीन अरब लोगों के समक्ष पेयजल और कितनी ही प्रजातियों पर लुप्त होने का संकट मँडरा रहा है। पर्यावरण मेें इन गैसों में कमी के लिये और पर्यावरण संरक्षण के लिये यह आवश्यक है कि पृथ्वी के कम-से-कम तिहाई भाग पर वन विद्यमान हों। परन्तु, वर्तमान में वनों की अन्धाधुन्ध कटाई हो रही है और वृक्षों की मृतदेह (लकड़ी) के लिये जिन्दा वृक्षों की हत्या हो रही है जबकि प्रसिद्ध वन विशेषज्ञ प्रो. तारक मोहनदास शोध द्वारा पहले ही सिद्ध कर चुके हैं कि मध्यम आकार के एक वृक्ष (वजन 50 टन) से प्राप्त होने वाले सभी लाभों की कीमत उसके 50 साल के जीवन में चीजों और सुविधाओं को जोड़कर 15 लाख, 70 हजार रुपए होती है, जबकि लकड़ी की कीमत पेड़ की कुल कीमत का मात्र 0.3 प्रतिशत ही होती है। वर्षा के लिये बहुत वृक्ष ही जिम्मेदार हैं और हमारे देश में तो अति प्राचीन काल से ही यह मान्यता है कि वन अपने ऊपर स्तूप बनाकर वर्षा के मेघों को अपनी ओर खींचते हैं’, यह बात जानते हुए भी पृथ्वी का सबसे विवेकशील जीव ‘मानव’ वृक्षों को काटकर अपने ही विनाश को आमंत्रित कर रहा है।

आज भारत के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती जलस्रोतों को बचाने की है। 1960 में भारत में जितने कुएँ और तालाब थे आज उनमें से तिहाई से भी कम बचे हैं और जो बचे भी हैं उनका जल प्रदूषित हो चुका है। आज भारत में गंगा सफाई का प्रश्न सबसे बड़ी समस्या और चर्चा का विषय बना हुआ है जिस पर संसद से लेकर सड़क तक बहस चल रही है। यदि हमारे देश के नागरिकों की यही प्रक्रिया रही और जल की गुणवत्ता एवं भूजल का स्तर इसी प्रकार गिरता रहा तो शचीन्द्र भटनागर की ये पंक्तियाँ शीघ्र ही सत्य साबित होती दिखाई देंगी।

एक जल की बूँद को इंसान तरसेंगे यहाँ,
अनगिनत साधन न कोई साफ फिर देंगे यहाँ।

कुछ सरोवर भी लगेंगे मरघटों जैसे यहाँ,और मौसम मृत्यु की घबराहटों जैसे यहाँ।


इतिहास हमें भविष्य में सम्भलकर चलने की शिक्षा देता है। साथ ही यह भी बतलाता है कि पूर्वकाल में हमने क्या गलतियाँ कीं और भविष्य में दोबारा उस गलती को न दोहराएँ जिससे मानव जाति को कष्ट उठाना पड़े। भारतीय इतिहास पर दृष्टिपात करने पर यह बात सहज ही में प्रत्यक्ष हो जाती है कि अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतवासी जल के महत्त्व से भलीभाँति परिचित थे और जल संरक्षण की एक गौरवपूर्ण परम्परा थी। औद्योगीकरण, जनसंख्या वृद्धि और व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण हम जल को प्रदूषित और उसके स्रोतों का विनाश कर रहे हैं। जो जाति अपने इतिहास से प्रेरणा नहीं लेती और भूल जाती है उस जाति का विनाश भी अवश्यम्भावी होता है। आज आवश्यकता है कि हमारे पूर्वजों ने जो स्वच्छ विधान किया है उसमें विश्वास रखते हुए उसे चलाते जाना ही हमारा कर्तव्य और लक्ष्य दोनों होना चाहिए। इन प्रयासों के द्वारा ही हम अपने पूर्वजों की स्वस्थ परम्पराओं को तो सफल बना ही पाएँगे, साथ ही सरकार और नागरिकों के बीच बेहतर तालमेल एवं समन्वय के बल पर ही हम अपने जल को संरक्षित और उसके स्रोतों को सुरक्षित रख पाएँगे।, तभी वह दिन आएगा जब गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और कावेरी नदियों के इस देश का कोई भी नागरिक भविष्य में प्यासा न रहेगा।

-मकान नं.- 68, नेहिया,
शाखा डाकघर के पास,
वाराणसी-221202
उत्तर प्रदेश


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