जल स्वराज : मुमकिन है

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पानी के प्रबंध की फिलासफी का अंतिम लक्ष्य जल स्वराज है। जलस्वराज, हकीकत में पानी के प्रबंध की वह आदर्श व्यवस्था है जिसमें हर बसाहट, हर खेत-खलिहान तथा हर जगह जीवन को आधार प्रदान करती पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित होती है।

जल स्वराज, हकीकत में पानी का ऐसा सुशासन है जो जीवधारियों की इष्टतम आवश्यकता के साथ-साथ पानी चाहने वाले प्राकृतिक घटकों की पर्यावरणी जरूरतों को बिना व्यवधान, पूरा करता है।

वह, जीवधारियों को जल जनित कष्टों से मुक्त करता है। उन्हें आरोग्य प्रदान करता है। स्वचालित एवं स्वनियंत्रित प्राकृतिक व्यवस्था की मदद से पानी को खराब होने से बचाता है। खारे पानी को शुद्ध करने के लिए वाष्पीकरण को मदद करता है।

वर्षा की मदद से उसे पृथ्वी पर लौटाता है। जल स्रोतों को टिकाऊ बनाता है। वह संस्कृतियों का आधार है। उसमें संस्कार पलते हैं। वह पर्यावरण हितैषी है। वह ऊंच-नीच, गरीबी-अमीरी, जाति-धर्म और भेद-भाव इत्यादि से मुक्त है। वह, प्रकृति का अनमोल वरदान है। वह सबको सहज ही उपलब्ध है।

जल स्वराज की फिलासफी का मानना है कि पानी को धरती पर उतरने के बाद जीवधारियों की मूलभूत जरूरतों तथा योगक्षेम को पूरा करना चाहिए। उसे समस्त प्राकृतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद ही समुद्र में मिलना चाहिए।

धरती पर यात्रा करते समय, किसी के हक की अनदेखी, अवहेलना या चोरी नहीं करना चाहिए। उसे, लोगों को तोड़ना नहीं जोड़ना चाहिए। उसे युद्ध का कारण नहीं बनना चाहिए। वह जीवधारियों के लिए अमृत के समान है। उसने आज तक जीवमात्र को अमृत ही बांटा है। अतः उसे आगे भी, अमृत ही बांटना चाहिए।

सब जानते हैं, उसका स्पर्श पाकर ही धरती, अपनी मनोहारी छटा बिखेरती है। सब जानते हैं, पानी का रूठना फिजा बदल देता है। उसकी लम्बी बेरुखी धरती को रेगिस्तान बनाकर मानव सभ्यताओं तथा जीव-जंतुओं की बसाहटों को अल्पकाल में इतिहास बना देती है।

भारत में जल प्रबंध के दो मॉडल प्रचलन में हैं। पहला मॉडल पाश्चात्य जल विज्ञान पर आधारित पानी का केन्द्रीकृत मॉडल है। इस मॉडल में कैचमेंट के पानी को जलाशय में जमा कर कमांड में वितरित किया जाता है। इस मॉडल में, जलाशय, जलसंचय का केन्द्र होता है।

कैचमेंट पानी मुहैया कराने वाला इलाका तथा कमांड, पानी का उपयोग करने वाला हितग्राही होता है। इस मॉडल को मुख्यतः अंग्रेजों ने लागू किया था किंतु आजाद भारत के खाद्यान्न संकट, हरित क्रांति तथा अकालों ने उसे मुख्यधारा में पहुंचाया। इस मॉडल को भारत का जल संसाधन विभाग क्रियान्वित करता है। उसका नियंत्रण सरकारी अमले के हाथ में होता है।

दूसरा मॉडल पानी के स्वस्थाने जल संग्रह का मॉडल है। इस मॉडल में जहां पानी बरसता है उसे वहीं संचित कर उपयोग में लाया जाता है। यदि उपयोग के बाद कुछ पानी बचता है तो उसे आगे जाने दिया जाता है। इस मॉडल का क्रियान्वयन कृषि विभाग तथा ग्रामीण विकास विभाग करता है। इन विभागों के अतिरिक्त अनेक संस्थान पानी के कामों को वित्तीय सहयोग प्रदान करते हैं। उनके वित्तपोषण से संचालित योजनाएं भी उपर्युक्त दोनों मॉडलों में से किसी एक मॉडल की मार्गदर्शिका का पालन करती हैं।

सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों (टाप-डाउन और बाटम-अप अवधारणा) का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है।

1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था। इसी दौर में ग्रामीण विकास विभाग द्वारा जलग्रहण कार्यक्रम के अंतर्गत जल संरक्षण की छोटी-छोटी योजनाओं की प्लानिंग, क्रियान्वयन, संचालन और रखरखाव में समाज की भागीदारी की कोशिश हो रही थी।

इस भागीदारी की मदद से प्राकृतिक संसाधनों को समृद्ध कर जल संकट और ग्रामीण आजीविका के संकट का हल खोजा जा रहा था। इसी दौर में देश के कुछ ग्रामों में समाज की सक्रिय भागीदारी के आधार पर क्रियान्वित मॉडलों ने आशा की किरण जगाई और जलग्रहण क्षेत्र विकास कार्यक्रम को पहचान मिली। बारानी खेती वाले इलाकों के अनेक ग्रामों में जल संकट के हल की सस्ती तथा समाज नियंत्रित इबारत लिखी जाने लगी। चूंकि स्थानीय स्तर पर जल संकट में कमी आ रही थी इसलिए उसे जल स्वराज का संकेतक या उसका उषाकाल कहा जा सकता था। इसी दौर में स्वयं सेवी संस्थाओं की सक्रियता तथा भागीदारी बढ़ी।

1990 के दशक में बाटम-अप कार्यप्रणाली और छोटी संरचनाओं के समावेशी निर्माण के बावजूद टाप-डाउन कार्यप्रणाली अस्तित्व में थी। उसकी निरंतरता पर कोई संकट नहीं था। यही वह दौर था जब भारत में वैश्वीकरण का युग प्रारंभ हुआ। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के सहयोग (कर्ज) से बड़ी संरचनाओं (बांधों) की वापसी हो रही थी।

सन् 1987 में अस्तित्व में आई पहली राष्ट्रीय जल नीति का झुकाव समाजवादी नीतियों से हटकर पूंजीवादी व्यवस्था की ओर हो रहा था। इसी अवधारणा के चलते बड़ी संरचनाओं (बांधों) को आर्थिक विकास तथा गरीबी उन्मूलन का कारगर हथियार माना जा रहा था। इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकारी नीतियां व्यवस्था को बदलने पर आमादा थीं। धन की कमी का रोना, बीते युग की कहानी रह गया।

विश्व बैंक सहित अनेक वित्तीय संस्थाओं ने भारत के जलक्षेत्र का कायाकल्प करना प्रारंभ कर दिया। धन की सहज उपलब्धता के कारण अनेक भूली बिसरी योजनाओं के दिन फिरने लगे। बड़ी परियोजनाओं के सिंचाई प्रबंधन में कसावट लाने तथा उत्तरदायित्वों में किसानों का सहयोग लिया जाने लगा। सरकार ने अपनी जिम्मेदारी नियामक आयोगों को सौंपना प्रारंभ कर दिया था।

सरकार सहयोगी की भूमिका में खड़ी नजर आ रही थी। बाजार ने पानी को अपने मोहपाश में लेने के लिए शब्दावली गढ़ ली थी। इस पूरी कसरत में जल स्वराज खो गया था। अनेक अंतर विरोधी धाराओं के कारण उसका समाज से रिश्ता बेमानी हो रहा था। जल स्वराज का सपना, चर्चा का केंद्र बिंदु नहीं था। यह पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल का उषाकाल था।

जलप्रबंध का केन्द्रीकृत मॉडल और जल उपलब्धता


सन् 1990 के दशक में जल क्षेत्र की कार्यप्रणाली में दो धुरविरोधी कार्यप्रणालियों का उदय हुआ। टाप-डाउन कार्यप्रणाली में सरकार और उसका अमला नियंत्रक होता है वहीं बाटम-अप कार्यप्रणाली में सभी कामों की बागडोर समाज के हाथों में होती है। बाटम-अप कार्यप्रणाली में सरकार की भूमिका सहयोगी और विघ्नहर्ता की होती है। 1990 के दशक में दोनों कार्यप्रणालियों की मदद से काम संपन्न हुए पर टाप-डाउन कार्यप्रणाली के उलट बाटम-अप कार्यप्रणाली को अधिक सराहा गया। इस सराहना का दायरा छोटी तथा कम लागत की योजनाओं तक सीमित था।जल प्रबंध के केन्द्रीकृत मॉडल की मदद से भारत की नदियों में प्रवाहित लगभग 1869 लाख क्यूबिक मीटर पानी में से अधिकतम 690 लाख हेक्टेयर मीटर पानी का ही उपयोग किया जा सकता है। इस गणना में भूजल के योगदान को सम्मिलित नहीं किया है। यदि इसमें नदी जोड़ परियोजना के माध्यम से मिलने वाले ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के अतिरिक्त पानी को भी जोड़ लिया जाए तो भी लगभग 1123 लाख क्यूबिक मीटर (लगभग 28 प्रतिशत) पानी को ही उपयोग में लाया जा सकता है। इसके आधार पर परियोजनाओं के पूरा होने के बाद भी प्यासे कैचमेंटों की समस्या का हल नहीं निकलेगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पानी का केन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के केवल 28 प्रतिशत हिस्से का ही उपयोग करने में सक्षम है। उसकी मदद से केवल कमाण्ड को ही सरसब्ज बनाया जा सकता है। उसकी मदद से कमाण्ड के बाहर के इलाकों में पानी पहुंचाना कठिन है। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि केन्द्रीकृत मॉडल द्वारा देश के हर अंचल में पानी पहुंचाना और आवश्यकताओं को पूरा करना संभव नहीं है।

देश और समाज के लिए केन्द्रीकृत मॉडल की उपयोगिता सीमित है। उसके लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को नहीं मिल सकते। उसमें समाज की भागीदारी के लिए स्थान नहीं होता। वह जल सुशासन या जल स्वराज का पर्याय नहीं है। वह कमांड में रहने वाले लोगों की लाटरी की तरह है। वह सबको नहीं किसी खास इलाके को उपकृत करता है।

जल प्रबंध के विकेन्द्रीकृत मॉडल की सहायता से लगभग 2259 लाख हेक्टेयर मीटर पानी को उपयोग में लाया जा सकता है। इसमें भूजल का हिस्सा (390 लाख हेक्टेयर मीटर) सम्मिलित है। विकेन्द्रीकृत मॉडल, बरसात के लगभग 56 प्रतिशत हिस्से को उपयोग में ला सकता है। यह मात्रा केन्द्रीकृत मॉडल की मात्रा की तुलना में लगभग दो गुनी अधिक है।

दो गुनी अधिक उपलब्धता के कारण, पानी की इष्टतम मात्रा को देश के हर हिस्से में उपलब्ध कराया जा सकता है। इसलिए उसकी पहुंच बेहतर है। विकेन्द्रीकृत मॉडल का लाभ भारत की पूरी धरती तथा देश की पूरी आबादी को मिलना संभव है। इस क्रम में कहा जा सकता कि विकेन्द्रीकृत मॉडल की मदद से हर बसाहट में जल कष्ट को समाप्त और समाज की अनिवार्य जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।

विकेन्द्रीकृत मॉडल में उपयोग में लाई इंजीनियरिंग सरल होती है। वह आसानी से समझ में आ जाती है इसलिए कहा जा सकता है कि वह, समाज की भागीदारी की राह में रोड़ा नहीं है। विकेन्द्रीकृत मॉडल को अपना कर जल प्रबंध को मानवीय चेहरा प्रदान किया जा सकता है।

जल स्वराज के लिए संविधान और राष्ट्रीय जलनीति 2012 में कतिपय परिवर्तन करने होंगे। पानी को समाज की धरोहर बनाना होगा। जलनीति में पानी के आवंटन में समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं को पहला स्थान देना होगा।

अनिवार्य आवश्यकताओं में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित होगा। उसके बाद नदियों में पर्यावरणी प्रवाह के लिए पानी का आवंटन किया जाना चाहिए। उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचे पानी के उपयोग के लिए राष्ट्रीय जलनीति 2002 में उल्लेखित प्राथमिकता क्रम अपनाया जाना चाहिए।

जल स्वराज की सुनिश्चितता के लिए प्रत्येक प्राथमिकता के लिए आवंटित मात्रा का उल्लेख आवश्यक है। पहली प्राथमिकता में पीने का पानी, अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पानी तथा जीवनयापन के लिए पानी सम्मिलित है। इसकी गणना के लिए नेशनल वाटरशेड एटलस में दर्शाई इकाईयों को काम में लाया जा सकता है।

तालाबसुझाव है, नेशनल वाटरशेड एटलस में परिभाषित सबसे छोटी इकाई में निवास करने वाली आबादी की मूलभूत आवश्यकता तथा पर्यावरणी प्रवाह की पूर्ति के लिए आवश्यक पानी को छोड़ने के बाद, अगली इकाई के लिए पानी छोड़ा जाए। यही व्यवस्था उत्तरोत्तर बढ़ती इकाइयों के लिए अपनाई जाए। इस व्यवस्था के अनुसार जल आवंटन करने से जल स्वराज लाना मुमकिन है।

देश में जल विपन्न इलाकों की हमेशा-हमेशा के लिए समाप्ति ही जल स्वराज है। वही जल प्रबंध की समावेशी मंजिल है जो मौजूदा व्यवस्था, समाज तथा योजना बनाने वालों के बीच के सोच के अंतर को समाप्त कर पानी की इष्टतम उपलब्धता सुनिश्चित करती है। इसलिए कहा जा सकता है कि जलप्रबंध की अंतिम मंजिल जल स्वराज है।

समाज की अपेक्षा का आईना ही समग्र जल स्वराज है। वही सही जल प्रबंध है। वही जल स्वालम्बन है। वही जल जनित मानवीय विफलताओं को सफलता में बदलने का जरिया, समाज की अपेक्षाओं के अनुरुप रणनीति विकसित करने एवं तदनुरूप योजनाएं जमीन पर उतारने का सशक्त जरिया है।

अंग्रेजों के भारत पर कब्जा करने के पहले इसी विकेन्द्रीकृत देशज मॉडल ने भारत में जल स्वराज की इबारत लिखी थी। वही इबारत, आज भी समाज, धरती की सहमति, भारतीय जलवायु और भूगोल से तालमेल तथा सहयोग से लिखी जा सकती है। अवधारणा को पुनः प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इसलिए कहा जा सकता है कि भारत में जल स्वराज मुमकिन है।

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