जल विद्युत परियोजनाओं से त्रस्त किसान

उत्तराखंड में बन रही 558 जल-विद्युत परियोजनाओं के बारे में बहुत सारी अफवाहें हैं। सबसे बड़ी अफवाह यह है कि इन परियोजनाओं के लिये सरकार और उसके अफसर निजी कंपनियों से पैसा ले रहे हैं। जल-विद्युत बनाने और बेचने में बहुत अधिक फायदा है, जिसका एक छोटा सा भाग यदि योजना की स्वीकृति पाने के लिए नेता-अफसरों को दिया जाये तो वह फायदे का ही सौदा है। नदी का पानी, जिससे बिजली बनती है, लगातार मुफ्त मिलता रहता है और बिजली बेच कर पैसा आता रहता है। कमाई ही कमाई और खर्च कुछ बहुत अधिक नहीं। इसलिए निजी कंपनियाँ इन परियोजनाओं को पाने की होड़ में लगी रहती हैं।

पिछले मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूरी के समय की बहुत सारी कम्पनियों के पते ही फर्जी निकले। तभी पहले पहल अफवाह उड़ी कि योजनाओं के लिये नेता-अफसरों द्वारा धन लिया जा रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा भाजपा के चुनाव-कोष में जा रहा है। ऐसा ही अब नये मुख्यमंत्री के काल में भी कहा जा रहा है। लेकिन नए मुख्यमंत्री के कहने के अनुसार जिन कंपनियों के पास स्वीकृतियाँ हैं, किन्तु सरकार के साथ किया समझौता नहीं है, उनको मान्य नहीं समझा जाएगा। इसका यह अर्थ हुआ कि जिन कंपनियों को खंडूरी सरकार ने स्वीकृति दी थी और कुछ जिन्हें वह बाद में मिली, को जल से बिजली बनाने की आज्ञा नहीं होगी।

देहरादून में, जहाँ धन का लेन-देन होता है, में सुना जाता है कि कुछ कंपनियाँ जिन्होंने योजना स्वीकृति के लिए नेता-अफसरों को धन दिया था, अपना काम आरम्भ करने को तैयार बैठी हैं। योजना-स्वीकृति हो या न हो। अब देखना यह है कि क्या वे सचमुच काम शुरू करेंगी ? इन योजनाओं के लिए वन विभाग की स्वीकृति भी चाहिए। योजनाओं से लगी भूमि वन विभाग की है। वहाँ सड़क बनाने या और भी कुछ काम करने के लिए वन विभाग की आज्ञा चाहिए। वन विभाग का कहना है कि पहले राज्य सरकार की स्वीकृति दिखाओ। जिसके पास वह नहीं है उसे वन भूमि में काम नहीं करने दिया जाता है।

सुना है मुख्यमंत्री ने कहा है कि एक मेगावाट तक की छोटी योजनाएँ वे स्थानीय लोगों को देंगे। एक मेगावाट बिजली बनाने पर आरम्भ में दस करोड़ रुपए तक का खर्च आता है। क्या किसी स्थानीय पहाड़ी के पास दस करोड़ रुपया होगा कि वह उसे बिजली बनाने के काम पर लगाएगा ? अंत में यह हो सकता है कि योजना किसी स्थानीय व्यक्ति के नाम पर होगी और धन लगाने वाला उसका असली मालिक बाहर का कोई और होगा।

इन निर्माणाधीन योजनाओं से पहाड़ी किसानों का बड़ा नुकसान हो रहा है। उनकी जमीनें सड़कें, बाँध-जलाशय, सुरंग तथा कर्मचारी आवास बनाने के लिये ले ली गई हैं। किसानों को जो पैसा मिला वह उसे अपने दैनिक जीवन पर खर्च कर रहे हैं और खेती के बिक जाने पर आमदनी का कोई दूसरा उपाय उनके पास नहीं बचा है। नीचे सुरंगें बनने पर ऊपर गाँवों-बस्तियों के जल स्रोत सूख गए हैं और पीने का पानी नहीं रह गया है। जिन बस्तियों के नीचे सुरंगें बनी हैं, वहाँ भूमि-धँसाव के कारण दरारें पड़ गई हैं और वहाँ के मकान रहने लायक नहीं रह गए हैं। उनके लोग रहने अब कहाँ जाएँगे ? भूमि के लिए मिले मुआवज़े से वे न कहीं और ज़मीन ले पाएँगे और न घर बना सकेंगे!

मुआवज़ा भी सब जगह एक सा नहीं दिया गया है। उत्तरकाशी के ज्ञानसू, पोखरी, डांग, कसेण, दिलसौड़, जोशियाड़ा आदि गाँवों में किसानों को 2,800 रुपए प्रति नाली (200 वर्ग मीटर) दिया गया, जबकि तपोवन-विष्णुगाड़ योजना के गाँवों में यह एक लाख रुपया प्रति नाली मिला है। यह केवल एक बार मिलने वाला मुआवजा है और उसके बाद, ज़मीन-मकान धँसने या पुनर्वास के लिए कुछ नहीं दिया जाने वाला है। जिसकी भूमि ले ली गई है और जिसका मकान टूटने के कगार पर है वह कहाँ रहने जाएगा ? योजना प्रभावित गाँवों के लोगों को रोज़गार देने का भी प्रावधान नहीं है। यहाँ ग्रामीण इस बात के लिए लड़ रहे हैं कि प्रभावित गाँव के एक परिवार के एक सदस्य को कम्पनी काम दे। अभी सभी कंपनियाँ अधिकतर काम करने वाले बाहर से ही ला रही हैं, जिनमें अधिकतर झारखंड, छत्तीसगढ़ तथा उड़ीसा से हैं।
 

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