जल विज्ञान का मुगल कालीन साक्ष्य


मूल भंडारे और चिन्ताहरण भंडारे का पानी, आपस में मिलने के बाद, खूनी भंडारे की ओर जाता है। खूनी भंडारे में जमा पानी जाली करंज में जमा होता है। जाली करंज में पहुँचने के पहले, उसमें सुख भंडारे से बहकर आने वाला पानी मिलता है। ग़ौरतलब है कि सभी भंडारों का पानी, गुरुत्व बल की मदद से प्रवाहित हो जाली करंज में जमा होता है। जाली करंज मुख्य स्टोरेज टैंक है। इससे पानी का वितरण किया जाता है। मुगलकाल में जाली करंज में जमा पानी को मिट्टी के पाइपों की मदद से बुरहानपुर नगर के विभिन्न इलाकों में पहुँचाया जाता था। इस अध्याय में मुगलकाल में बनी, बुरहानपुर शहर को स्वच्छ और निरापद पानी देने वाली कनात प्रणाली का विवरण दिया गया है। यह प्रणाली, भूमिगत जल के दोहन पर आधारित और मध्य प्रदेश में पाई जाने वाली एकमात्र विरासत है। यह विरासत कई मायनों में बेजोड़ है। इसकी कहानी बुरहानपुर नगर के इतिहास से प्रारम्भ हो प्रणाली के विभिन्न पक्षों पर खत्म होती है।

कहानी के अन्तिम भाग में दिया विवरण, काफी हद तक उसके निर्माण की गुत्थी को सुलझाता है। विदित हो, बूँदों की इस विरासत ने बुरहानपुर नगर और तत्कालीन मुगल छावनी की पेयजल आवश्यकता की न केवल पूर्ति की थी वरन उसे निरापद भी बनाया था। इस अध्याय में दिया संक्षिप्त विवरण मुगलकालीन प्रणाली के पीछे छुपे किन्तु आयातित भूजल विज्ञान को समझने के लिये दृष्टिबोध प्रदान करता है।

बुरहानपुर नगर, मध्य प्रदेश के दक्षिण-पश्चिम में मुम्बई-इलाहाबाद रेल मार्ग पर स्थित है। इसे खानदेश के पहले स्वतंत्र शासक नासिर खान फारूखी ने बसाया था और इसका नाम प्रसिद्ध सनत शेख बुरहानुद्दीन दौलताबादी के नाम पर रखा गया था। सन 1600 में मुगलों ने खानदेश पर कब्ज़ा कर बुरहानपुर को उसकी राजधानी बनाया था।

मुगलकाल में यह नगर, सूरत होकर उत्तर की ओर जाने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने के कारण व्यापारिक गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इसके अतिरिक्त, मुगल साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित होने के कारण इसका सामरिक महत्त्व था। मुगलकाल में यहाँ दो लाख सैनिकों की छावनी थी।

बुरहानपुर नगर, वर्तमान मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के मुलताई कस्बे से निकलकर पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित होने वाली ताप्ती नदी के तट पर बसा है। विदेशी यात्रियों के यात्रा विवरणों से पता चलता है कि पुराने समय में ताप्ती नदी का पानी साफ नहीं था। ताप्ती नदी के कगार काफी ऊँचे थे इसलिये उसके पानी को ऊपर चढ़ाकर, बुरहानपुर नगर तथा बहादुरपुर स्थित सैनिक छावनी की आवश्यकताओं को पूरा करना कठिन तथा महंगा था।

गुजरात, मालवा, अहमदनगर तथा दक्कन जैसे शत्रु राज्यों से घिरा होने के कारण बुरहानपुर नगर काफी असुरक्षित था। असुरक्षा की भावना के कारण बुरहानपुर के शासकों को हमेशा डर बना रहता था कि यदि दुश्मनों ने ताप्ती नदी के पानी में जहर मिला दिया तो परिणाम अत्यन्त घातक होंगे। इस सम्भावित खतरे से बचने के लिये बुरहानपुर के मुगल शासकों ने ऐसी स्वतंत्र जल प्रणाली के बारे में सोचा जो पर्याप्त जल उपलब्ध कराने के साथ-साथ सुरक्षित तथा ताप्ती नदी के पानी पर आश्रित नहीं हो।

अब्दुल रहीम खानखाना खानदेश के सूबेदार थे। उन्होंने बुरहानपुर नगर और सैनिक छावनी की जल समस्या को स्थायी रूप से हल करने के लिये ईरान (फारस) में प्रचलित कनात (भूुमिगत सुरंग) प्रणाली को अपनाने का निर्णय लिया। इस प्रणाली के अन्तर्गत, ऊँचाई पर स्थित भूभाग में मिलने वाले भूमिगत जल को भूमिगत सुरंग के मार्फत, निचले स्थानों पर, पहुँचाया जाता है। यह प्रणाली गुरुत्व बल के सिद्धान्त पर काम करती है। कनात प्रणाली की निर्माण अवधि लम्बी निर्माण कष्ट साध्य तथा महंगा है पर उसका रखरखाव तथा संचालन व्यय बहुत कम है। यह प्रणाली सामान्यतः प्रदूषण रहित है।

कनात प्रणाली का परिचय


बुरहानपुर में कनात प्रणाली का निर्माण फारस के भूजलवेत्ता तब्कुतुल अर्ज ने किया था। तब्कुतुल अर्ज ने बुरहानपुर के उत्तर में स्थित सतपुड़ा की पहाड़ियों में समृद्ध एवं भरोसेमन्द भूजल भंडारों की खोज की। सन 1615 में कनात प्रणाली का निर्माण प्रारम्भ हुआ। माना जाता है कि इस प्रणाली का निर्माण कार्य शाहजहाँ तथा औरंगजेब के शासनकाल में पूरा हुआ।

प्रणाली के अन्तर्गत चार क्षेत्रों से पानी प्राप्त किया गया। ग़ौरतलब है कि सतपुड़ा की पहाड़ियाँ ऊँचाई पर स्थित हैं तथा पहाड़ियों का ढाल बुरहानपुर नगर की ओर है। यह भौगोलिक स्थिति कनात प्रणाली के निर्माण के लिये उपयुक्त है। चित्र बीस में बुरहानपुर क्षेत्र में चारों भंडारे (जल भंडारण टांके), उनके भूमिगत जलमार्ग, जाली करंज, बुरहानपुर रेलवे स्टेशन और मुम्बई-इटारसी रेल मार्ग दिखाया गया है।

तब्कुतुल अर्ज ने बुरहानपुर और बहादुरपुर छावनी को पानी मुहैया कराने की दृष्टि से आठ प्रणालियाँ स्थापित की थीं। मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के गजेटियर में इनका संक्षिप्त विवरण उपलब्ध है। इस प्रणाली का अध्ययन इंडियन हेरिटेज सोसाइटी और गोविन्दराम सेक्सरिया इंजीनियरिंग कॉलेज इन्दौर के प्रो. सीहोरवाला ने किया है। बूँदों की संस्कृति में इस प्रणाली का विशद विवरण उपलब्ध है।

1. Suryanarayan G. and Saleem Romain (1994), Ancient System of Groundwater Utilization through infiltration Galleries in Burhanpur Town of Khandwa District, MP, Page 1-3 Bhujal News, CGWB

2. D’cruz, Asraf Javed and kambo D.P. (1994), Report on Conservation and revival of Medieval Water Suply Systems for Burhapur Town (MP), Page 1-17 Indian Haritage Society, New Delhi

3. Prof. Sihorwala T.A. Govindram Saksaria institute of Tecknology and Science Indor and Raghuvanshi S.S., Cheif Engineer, PHED, Gomp. Report on Conservation of Monumental Water Suply of Burhanpur Town from Khuni Bhandara. Copy of Report Personally collected by Auther.

बूँदों की संस्कृति (1998), पेज 168-169, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली।

खूनी भंडारे के नामकरण के बारे में बुरहानपुर के मूल निवासी प्रो. सुधाकर नारायण राव विपट ने व्यक्तिगत चर्चा के दौरान लेखक को बताया था कि यह नाम वे बचपन से सुनते आ रहे हैं। खूनी भंडारे की दीवारों का रंग खून के रंग से मिलता-जुलता है इसलिये स्थानीय लोग उसे खूनी भंडारा कहते हैं। नाम सटीक लगता है इसलिये कालान्तर में वह प्रचलित हो गया। अब सभी लोग उसे इसी नाम से पुकारते हैं।तब्कुतुल अर्ज ने सतपुड़ा की पहाड़ियों में संचित भूजल, जिसका प्रवाह ताप्ती की ओर था, को ताप्ती तक पहुँचने के पहले, बुरहानपुर नगर के उत्तर-पश्चिम में अपेक्षाकृत ऊँचे स्थानों पर स्थित चार जलाशयों या भंडारों में जमा किया। इन भंडारों को खूनी भंडारा, मूल भंडारा, सुख भंडारा (तिरखुटी) और चिन्ताहरण भंडारा कहते हैं। ये सभी भंडारे (जलाशय) सुरंग द्वारा एक दूसरे से जुड़े हैं।

मूल भंडारे और चिन्ताहरण भंडारे का पानी, आपस में मिलने के बाद, खूनी भंडारे की ओर जाता है। खूनी भंडारे में जमा पानी जाली करंज में जमा होता है। जाली करंज (चित्र इक्कीस) में पहुँचने के पहले, उसमें सुख भंडारे से बहकर आने वाला पानी मिलता है। ग़ौरतलब है कि सभी भंडारों का पानी, गुरुत्व बल की मदद से प्रवाहित हो जाली करंज में जमा होता है। जाली करंज मुख्य स्टोरेज टैंक है। इससे पानी का वितरण किया जाता है। मुगलकाल में जाली करंज में जमा पानी को मिट्टी के पाइपों की मदद से बुरहानपुर नगर के विभिन्न इलाकों में पहुँचाया जाता था।

सन 1890 में मिट्टी के पाइपों के स्थान पर 228.6 मिलीमीटर (9 इंच) से 304.8 मिलीमीटर (12 इंच) व्यास की ढलवा लोहे की पाइप लाइन डाली गई। मुगलकाल में आठ जल प्रणालियाँ थीं। दो प्रणालियाँ समय की भेंट चढ़ गई। वर्तमान में, छह जल प्रणालियाँ शेष बची हैं। तीन प्रणालियों से बुरहानपुर नगर को और बाकी तीन से बहादुरपुर और रावरतन महल को पानी पहुँचाया जाता है। बूँदों की संस्कृति (पेज 168) के अनुसार सुख भंडारा ज़मीन से 30 मीटर नीचे बनाया गया है। इस भंडारे की चट्टानी दीवारों को सहारा देने के लिये चूने के गारे की लगभग एक मीटर मोटी दीवाल बनाई गई है। भूजल के प्रवेश के लिये चूने की दीवाल में सुराख छोड़े गए हैं। मुगलकाल में, सुख भंडारे का पानी पनवाड़ियों, लालबाग के बगीचों या मुगल सूबेदार के बगीचों की सिंचाई के काम आता था। मूल भंडारा, नगर से लगभग 10 किलोमीटर दूर एक झरने के पास स्थित है। इसकी आकृति खुले हौज की तरह है। इसकी गहराई 15 मीटर है। इसकी दीवारें ईंट और पत्थर से बनी हैं। इसके चारों तरफ 10 मीटर ऊँची दीवार है। चिन्ताहरण भंडारा भी प्राकृतिक सोते के निकट स्थित है। इसकी गहराई 20 मीटर है। खूनी भंडारा, नगर से लगभग 5 किलोमीटर दूर, लालबाग के पास स्थित है। इसकी गहराई लगभग 10 मीटर है। खूनी भंडारे की तलहटी का निर्माण पत्थरों से किया गया है और लगभग 3.5 मीटर की ऊँचाई तक पत्थरों की और उसके ऊपर पतली ईंटों की पक्की चिनाई की गई है। सम्भवतः ये प्रणालियाँ अलग-अलग काल खंडों में बनवाई गई थीं।

खूनी भंडारे के नामकरण के बारे में बुरहानपुर के मूल निवासी प्रो. सुधाकर नारायण राव विपट ने व्यक्तिगत चर्चा के दौरान लेखक को बताया था कि यह नाम वे बचपन से सुनते आ रहे हैं। खूनी भंडारे की दीवारों का रंग खून के रंग से मिलता-जुलता है इसलिये स्थानीय लोग उसे खूनी भंडारा कहते हैं। नाम सटीक लगता है इसलिये कालान्तर में वह प्रचलित हो गया। अब सभी लोग उसे इसी नाम से पुकारते हैं।

चित्र बाईस में, कनात प्रणाली को वैज्ञानिक नजरिए से दर्शाया है। चित्र बाईस को देखने से समझ में आता है कि बरसाती पानी का कुछ हिस्सा सतपुड़ा पर्वतमाला की बेसाल्ट और इंटर-ट्रेपियन चट्टानों के छिद्रों में संचित हो भूजल भंडारों का निर्माण करता है इन छिद्रों का विकास, चट्टानों के निर्माण के समय तथा बाद में मौसम के असर से हुआ है। भूवैज्ञानिक बताते हैं कि बरसात का पानी जब बेसाल्ट और इंटर-ट्रेपियन चट्टानों से गुजरात है तो वह, धीरे-धीरे खनिजों के घुलनशील भाग को हटा देता है। तापमान का अन्तर चट्टानों में भौतिक बदलाव लाता है। उनमें टूटन पनपती है। भूजल भंडारों में जमा पानी, गुरुत्व बल के कारण नीचे चलकर, सुरंगों के मार्फत जाली करंज (जलाशय) में पहुँचता है। सुरंगों में निश्चित अन्तराल पर बने कुएँ (वायु कूपक), रखरखाव के साथ-साथ हवा और रोशनी का प्राकृतिक तरीके से इन्तजाम करते हैं। चित्र बाईस में सतपुड़ा पर्वतमाला की तली में बना स्टापडैम दर्शाया गया है। यह स्टापडैम आधुनिक युग में बनाया गया है।

चित्र बाईस में कनात प्रणाली से सम्बद्ध सभी महत्त्वपूर्ण घटक यथा सतपुड़ा पर्वतमाला, बेसाल्ट, इंटर-ट्रेपियन चट्टान, वायु कूपक, जाली करंज, सुख भंडारा और ताप्ती नदी इत्यादि दिखाई देते हैं। यह चित्र कनात प्रणाली के सिद्धान्त को दिखाता है जिसके अनुसार, सतपुड़ा पर्वत पर बरसा पानी रिसकर इंटर-ट्रेपियन चट्टान में पहुँचता है। इंटर-ट्रेपियन चट्टान में बनी ढालू सुरंग उसे ग्रहण कर परस्पर जुड़ी जल प्रणालियों की मदद से जाली करंज में पहुँचाती है। चित्र में ताप्ती नदी भी दर्शाई गई है जो जाली करंज के आगे स्थित है। प्रणाली से बचा भूजल ताप्ती को मिलता है। चित्र तेईस में कनात प्रणाली का सहजता से समझ में आने वाला पक्ष दिया गया है। अन्य विवरणों के साथ-साथ यह चित्र दर्शाता है कि वह ताप्ती के पानी के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त है।

चित्र बाईस और तेईस दर्शाते हैं कि पानी का स्रोत सतपुड़ा पर्वतमाला में है। सतपुड़ा की पहाड़ियों में प्राकृतिक तरीके से सहेजा जल, सुरंगों से प्रवाहित हो बुरहानपुर को मिलता है।

चित्र चौबीस में बुरहानपुर की कनात प्रणाली के अन्तर्गत निश्चित अन्तराल पर बनाए कुओं को दर्शाया गया है जो लगभग बीस-बीस मीटर की दूरी पर बने हैं। वे सामान्यतः गोलाकार हैं और उनका व्यास 1.2 मीटर से लेकर 1.8 मीटर तक है।

कुछ जगह चौकोर कुएँ भी बनाए गए हैं। ये कुएँ, खड़े स्तम्भों की तरह हैं। इन कुओं या खड़े स्तम्भों को कुंडियाँ या वायु-कूपक भी कहते हैं। ये ज़मीन की सतह से लगभग एक मीटर ऊँचे हैं। वे दूर से कुएँ जैसे दिखाई देते हैं। इनकी दीवारों की जुड़ाई सामान्यतः पतली ईटों से की गई है। इनमें झाँकने से बहता हुआ पानी दिखाई देता है। वे सुरंगों की मरम्मत तथा उसमें बहने वाले पानी को हवा तथा रोशनी उपलब्ध कराते हैं।

कनात प्रणाली का तकनीकी पक्ष


अगले पन्नों में बुरहानपुर स्थित बूँदों की विरासत के महत्त्वपूर्ण घटकों के तकनीकी पक्षों का विवरण दिया गया है। इस विवरण में कुओं और भूमिगत सुरंगों के निर्माण का आधार, पानी देने वाली चट्टानों के भूजलीय गुण, सुरंग में रसायनों का जमाव, प्रणाली के पानी में बढ़ता प्रदूषण, प्रणाली पर गहराता संकट और उसकी बहाली की सम्भावनाओं को सम्मिलित किया गया है।

सुरंगों और कुओं का निर्माण


सुरंग में बेसाल्ट की दो परतों के बीच मुख्यतः कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित इंटरट्रेपियन चट्टानें पाई जाती हैं। इन चट्टानों में चूना पत्थर के साथ अशुद्धि के रूप में लगभग ठोस चिकनी मिट्टी मिलती है। विदित है कि बरसाती पानी में अल्प मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड घुली रहती है। कार्बन डाइऑक्साइड के घुले होने के कारण बरसाती पानी हल्का अम्लीय होता है। यह अम्लीय पानी, जब इंटरट्रेपियन चट्टानों में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट के सम्पर्क में आता है तो रासायनिक क्रिया कर उसे कहीं-कहीं हटाता है।अनुमान है कि सबसे पहले तब्कुतुल अर्ज ने सतपुड़ा की पहाड़ियों की तली में स्थित समृद्ध एक्वीफर की खोज की। एक्वीफर की खोज के बाद, उसने एक्वीफर को जाली करंज से जोड़ने वाली भूमिगत सुरंग (कनात) का निर्माण किया। कनात निर्माण के सिद्धान्त के अनुसार सबसे पहले नीचे के दो कुएँ खोदे गए फिर उनको जोड़ने वाली सुरंग बनाई गई होगी। तब्कुतुल अर्ज ने यही क्रम क्रमशः उत्तरोत्तर ऊपर प्रस्तावित कुओं और सुरंगों के निर्माण के लिये अपनाया होगा। कुओं और सुरंगों को मजबूती देने के लिये, कमजोर हिस्सों में चिनाई की। भूमिगत जल के प्रवेश के लिये सुरंगों और कुओं की दीवालों में छेद छोड़े। सुरंगों का निर्माण एक्वीफर में किया। सुरंग को भूजल के प्रवाह की दिशा के जहाँ-जहाँ सम्भव हुआ वहाँ लम्बवत बनाया। एक्वीफर की मोटाई के आधार पर सुरंग का ढाल निर्धारित किया। इस कारण सुरंग मार्ग ने एक्वीफर की सीमाएँ नहीं लाँघी। भूमिगत सुरंगों की चौड़ाई लगभग 80 सेंटीमीटर और ऊँचाई इतनी रखी है कि औसत ऊँचाई वाला सामान्य आदमी निरीक्षण और रखरखाव के लिये उसमें आसानी से चल-फिर सके।

चित्र पच्चीस में कनात प्रणाली का वायुकूपक दर्शाया गया है। यह कुएँ का ऊपर से लिया चित्र है। इस चित्र को देखने से कुएँ की गहराई का अनुमान लगता है। उसकी दीवाल और पानी दिखता है। दीवाल की ईंटों में की गई चिनाई दर्शाती है कि ईंटों के पीछे का स्ट्राटा कमजोर है।

सुरंग का भूविज्ञान


सुरंग में बेसाल्ट की दो परतों के बीच मुख्यतः कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित इंटरट्रेपियन चट्टानें पाई जाती हैं। इन चट्टानों में चूना पत्थर के साथ अशुद्धि के रूप में लगभग ठोस चिकनी मिट्टी मिलती है। विदित है कि बरसाती पानी में अल्प मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड घुली रहती है। कार्बन डाइऑक्साइड के घुले होने के कारण बरसाती पानी हल्का अम्लीय होता है। यह अम्लीय पानी, जब इंटरट्रेपियन चट्टानों में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट के सम्पर्क में आता है तो रासायनिक क्रिया कर उसे कहीं-कहीं हटाता है। यह रासायनिक क्रिया लाखों करोड़ों साल से चल रही है इसलिये इंटरट्रेपियन चट्टान में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट हट गया है। उसके हटने से एक दूसरे से जुड़े लाखों खाली स्थान विकसित हो गए हैं। ये पस्पर जुड़े खाली स्थान भूजल रीचार्ज, संचय और परिवहन के लिये आदर्श परिस्थितियाँ उपलब्ध कराते हैं। यही आदर्श स्थितियाँ बुरहानपुर की भूमिगत सुरंग के चारों ओर स्थित इंटरट्रेपियन चट्टान में मौजूद हैं। इन्हीं आदर्श परिस्थितियों ने कनात प्रणाली को भरपूर पानी से नवाज कर उसे मध्य प्रदेश में बूँदों की विरासत की इकलौती प्रणाली बनाया है।

चित्र छब्बीस में भूमिगत सुरंग को दर्शाया गया है। यह सुरंग का सामने से लिया चित्र है। इस चित्र में सुरंग की आकृति दिखाई देती है और ऊँचाई का अनुमान लगता है। इन सुरंगों की ऊँचाई लगभग 2.8 मीटर और अधिकतम चौड़ाई 0.8 मीटर है। इस आकार की सुरंग में औसत ऊँचाई का आदमी आसानी से प्रवेश कर सकता है, सुरंग की मरम्मत कर सकता है और मरम्मत करने के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान तक आ-जा सकता है।

सुरंग में रसायनों का जमाव


बुरहानपुर की भूमिगत सुरंगों में पिछले लगभग 500 सालों से बहने वाला भूजल, बेसाल्ट की पहाड़ियों, इंटरट्रेपियन चट्टानों और कछारी मिट्टी की परतों से रिसकर आता है। इस यात्रा में वह, घुलनशील यौगिकों को समेटता हुआ आगे बढ़ता है। जैसे ही उसे उपयुक्त परिस्थितियाँ मिलती हैं, उसमें मौजूद कुछ यौगिक सुरंग की दीवालों पर जमा हो जाते हैं। इसी कारण सुरंगों की दीवाल पर यौगिकों (रसायनों) का जमाव दिखाई देता है। यह जमाव पपड़ी और लटकनों के रूप में है। पपड़ियों के रूप में जमा रसायन मुख्यतः कैल्शियम और मैगनीशियम के बाई-कार्बोनेट हैं। इन रसायनों ने सुरंग के अनेक छेदों को बन्द या छोटा कर पानी की आवक घटा दी है। कई जगह, रसायनों की परत की मोटाई 10 से 15 सेंटीमीटर तक है। सुरंग की छत से टपकते पानी के कारण, कई स्थानों पर छत से लटकती, लटकनों का निर्माण हुआ है। ये लटकनें चित्र पच्चीस में दिखाई देती हैं।

प्रदूषण


मुगलकाल में कनात प्रणाली के पानी की गुणवत्ता बहुत अच्छी रही होगी। हाल के सालों में पानी की गुणवत्ता में अन्तर आना प्रारम्भ हुआ है। पहला कारण जल प्रणाली के कैचमेंट में की जा रही आधुनिक खेती है। आधुनिक खेती के कारण फर्टिलाइजरों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के अंश, प्रणाली के पानी में मिलकर, उसकी गुणवत्ता को हानिकारक बना रहे हैं। सेंटर फॉर सांइस एंड एनवायरनमेंट, नई दिल्ली के अनुसार दूसरा कारण वायु कूपकों के पास बना चूने का कारखाना है। इस कारखाने की धूल, कुओं के मार्फत, सुरंग के पानी से मिलकर, उसे प्रदूषित कर रही है। तीसरे, वायुकूपकों के निकट बसाहटें है। इन बसाहटों के लोग वायुकूपकों के चबूतरों पर नहाते और कपड़े धोते हैं।

बुरहानपुर रेलवे स्टेशन के पास दो वायुकूपक टूट गए हैं। गन्दा पानी ज़मीन में रिसकर सीधे-सीधे या टूटे वायुकुपकों के मार्फत, भूमिगत प्रणाली में मिल रहा है। इसके अतिरिक्त, बुरहानपुर ताप्ती मिल का हानिकारक तरल कचरा, नालियों का गन्दा पानी और बरसाती पानी, टूटी-फूटी कुून्डियों के मार्फत, सुरंगों में पहुँच रहा है। इन सब के मिले-जुले असर से प्राचीन प्रणाली का पानी प्रदूषित हो रहा है।

कनात प्रणाली पर संकट


बरसात में बाढ़ का पानी, टूटे-फूटे वायु कूपकों के मार्फत सुरंग में प्रवेश कर हानिकारक पदार्थों और गाद को जमा करता है। यह प्रक्रिया कई सालों से चल रही है। इस प्रक्रिया के कारण कई जगह सुरंगों में आंशिक अवरोध पनप गए हैं। आंशिक अवरोधों के कारण जल प्रदाय क्षमता घट रही है। ग़ौरतलब है कि मुगलकाल में इस प्रणाली की जल प्रदाय क्षमता लगभग एक करोड़ लीटर प्रतिदिन थी जो घटकर 13.5 लाख लीटर प्रतिदिन से भी कम हो गई है।

सुरंग में बेसाल्ट की दो परतों के बीच मुख्यतः कैल्शियम कार्बोनेट से निर्मित इंटरट्रेपियन चट्टानें पाई जाती हैं। इन चट्टानों में चूना पत्थर के साथ अशुद्धि के रूप में लगभग ठोस चिकनी मिट्टी मिलती है। विदित है कि बरसाती पानी में अल्प मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड घुली रहती है। कार्बन डाइऑक्साइड के घुले होने के कारण बरसाती पानी हल्का अम्लीय होता है। यह अम्लीय पानी, जब इंटरट्रेपियन चट्टानों में मौजूद कैल्शियम कार्बोनेट के सम्पर्क में आता है तो रासायनिक क्रिया कर उसे कहीं-कहीं हटाता है।बुरहानपुर जिले की भूजल आकलन रिपोर्ट बताती है कि बुरहानपुर जिले में मानसूनी औसत बरसात 788.1 मिलीमीटर और गैर-मानसूनी औसत बरसात 95.7 मिली मीटर है। बुरहानपुर विकासखण्ड के इकाई क्षेत्र में जल रिसाव दर 0.133 है।

बुरहानपुर विकासखण्ड में भूजल दोहन का मार्च 2009 की स्थिति का स्तर 85.00 प्रतिशत है। भूजल दोहन की दृष्टि से यह विकासखण्ड सेमी-क्रिटिकल श्रेणी में आता सतपुड़ा की पहाड़ियों का विरल होता जंगल, बदलता भूमि उपयोग और घटता जल रिसाव, भूजल प्राप्ति की सम्भावनाओं को कम कर रहा है। यह संकेत शुभ नहीं है। इस संकेत का अर्थ है कि आने वाले दिनों में मुगलकालीन जल प्रणाली की जल प्रदाय क्षमता और घटेगी तथा गुणवत्ता का संकट बढ़ेगा।

आशा की किरण


बुरहानपुर की प्राचीन जल प्रणाली की जल प्रदाय क्षमता घटी है पर विरासत अभी जिन्दा है। वह अभी कोमा में या वेन्टीलेटर पर नहीं है। उसकी जल प्रदाय क्षमता में अपेक्षित सुधार सम्भव है। पिछले कुछ सालों में इस विरासत या जल प्रणाली में सुधार करने के लिये अनेक व्यक्तियों और संस्थाओं ने सुझाव दिये हैं।

कुछ महत्वपूर्ण सुझाव निम्नानुसार हैं-

इंडियन हेरीटेज सोसाइटी के मुख्य सुझाव


1. कनात मार्ग की कच्ची सड़कों पर भारी वाहनों के आवागमन पर प्रतिबन्ध- कनात प्रणाली को सम्भावित नुकसान से बचाने के लिये उस पर से भारी वाहनों के यातायात के दबाव को कम करना चाहिए।

2. भूजल के अत्यधिक दोहन पर प्रतिबन्ध- कनात प्रणाली की पानी देने वाली प्रकृतिक व्यवस्था को सामान्य बनाए रखने के लिये रीचार्ज एरिया में भूजल का अत्यधिक दोहन वाले नलकूपों पर दूरी सम्बन्धी प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

3. खेती में पानी का बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग- भूजल के रीचार्ज एरिया में गन्ना और केला जैसी अधिक पानी चाहने वाली फसलों को हतोत्साहित करना चाहिए।

4. जन सहयोग- जलप्रणाली के सांस्कृतिक पक्ष से समाज को अवगत कराकर उसकी निरन्तरता के लिये जन समर्थन प्राप्त करना चाहिए।

5. प्रणाली की बहाली- प्राचीन अस्मिता की पुनः बहाली।

केन्द्रीय भूजल परिषद के प्रमुख सुझाव


1. वैज्ञानिको सर्वे- भूमिगत जल प्रदाय प्रणाली की बारीकियों और प्रणाली पर स्थानीय चट्टानों के नियंत्रण को समझने के लिये 1:10,000 पैमाने पर 16 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र का गहन टोपोग्राफिक सर्वेक्षण और 150 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (20 डिग्री 15 मिनट से 21 डिग्री 22 मिनट उत्तर अक्षांश और 76 डिग्री 8 मिनट से 76 डिग्री 15 मिनट देशांश) में, इंटरट्रेपियन चट्टानों के विस्तार और उसकी गहराई जानने के लिये रेसिस्टीविटी सर्वे किया जाना चाहिए।
2. सुरंगों के जल अवरोधों को दूर करना- जलमार्गों पर कहीं-कहीं रसायनों की पपड़ी के जमा होने के कारण जलमार्ग (छिद्र) अवरुद्ध हो गए हैं। उन्हें 50 से 70 मिलीमीटर व्यास का आड़ा वेधन कर सक्रिय बनाया जाये। यह आड़ा वेधन 2 से 3 मीटर गहरा होगा। भूमिगत जलमार्गो में पीवीसी पाइप स्थापित कर उनके मुँह पर स्टेनलेस स्टील/प्लास्टिक की जाली लगाई जाये।

.3. कनात प्रणाली के क्षतिग्रस्त हिस्सों की मरम्मत- प्रणाली के क्षतिग्रस्त हिस्सों की मरम्मत की जाये। वायुकूपकों का उपयोग रखरखाव के लिये ही हो। उनमें हैण्डपम्प या पानी निकालने वाला साधन नहीं लगाया जाये। उनकी ऊँचाई एक मीटर तक बढ़ाई जाये। उनके मुँह पर जालीदार ढक्कन लगाए जाएँ।
4. भूजल स्तर और गुणवत्ता की मानीटरिंग की व्यवस्था कायम की जाये।
5. कनात क्षेत्र के प्रभाव क्षेत्र का आकलन- प्रणाली के प्रभाव क्षेत्र का आकलन कर उसमें मानवीय गतिविधियों को रोका जाये। प्रभाव क्षेत्र को बगीचे या संरक्षित क्षेत्र के तौर पर विकसित किया जाये।
6. प्रणाली की क्षमता में वृद्धि- रीचार्ज क्षेत्र से अधिकतम सुरक्षित रीचार्ज हासिल करने के लिये उपयुक्त रीचार्ज संरचना का विकल्प तय किया जाये। उतावली नदी के पानी का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिये पारगम्य इंटरट्रेपियन चट्टानों पर जल संग्रह किया जाये।

प्रो. सीहोरवाला टी. ए. एवं एस. एस. रघुवंशी के मुख्य सुझाव


1. वायु-कूपकों और सुरंग के टूटे-फूटे हिस्सों की मरम्मत की जाये। घनी बस्ती में कुंडियों की ऊँचाई बढ़ाई जाये। उन पर हैण्डपम्प स्थापित किये जाएँ। शौचालयों और वायु-कूपकों के बीच की न्यूनतम दूरी 30 मीटर रखी जाये। निस्तारी अशुद्ध पानी के प्रवेश से कुंडियों को सुरक्षित किया जाये।

2. भूमिगत जल सुरंगों में जमा पपड़ी की सफाई की जाये।
3. ताप्ती मिल के आसपास के प्रदूषण को पूरी तरह नियंत्रित करने के लिये आवश्यक संयंत्र स्थापित किये जाएँ।
4. जल प्रणाली के आसपास बैलगाड़ियों के आवागमन पर रोक लगाई जाये।
5. जल सुरंगों से कम-से-कम 30 मीटर दूर ही भवन निर्माण और औद्योगिक गतिविधियाँ संचालित की जाएँ।
6. निश्चित अन्तराल पर पानी की मात्रा का आकलन, गुणवत्ता का परीक्षण और स्रोत की मानीटरिंग की जाये।
7. जल प्रणाली का संरक्षण आर्कियालॉजिकल सर्वे विभाग द्वारा किया जाये और प्रणाली को प्राचीन धरोहर का सम्मान दिलाया जाये।
8. नलकूपों का खनन, सुरंगों के प्रभाव क्षेत्र से, न्यूनतम 300 मीटर दूर किया जाये।
9. भूजल रीचार्ज की सम्भावना ज्ञात करने के लिये सर्वे किया जाये और सर्वे परिणामों के आधार पर उपयुक्त संरचनाओं का निर्माण किया जाये।
10. कैचमेंट में वनीकरण और वन संरक्षण की गतिविधियाँ प्रारम्भ की जाएँ।
11. जल को प्रदूषित करने वाली चूना फ़ैक्टरी को उसके वर्तमान स्थान से हटाया जाये।
12. गहरे नलकूपों और माइनिंग गतिविधियों पर रोक लगाई जाये।
13. समग्र मरम्मत के लिये प्रणाली की विडियो फिल्म बनाई जाये।
14. रीचार्ज एरिया में अधिकतम रिसाव के लिये कन्टूर बंडिंग और ढालू पहाड़ी ज़मीन पर सीढ़ीदार खेती प्रणाली अपनाई जाये।
15. भूजल रीचार्ज की स्थिति की नियमित मानिटरिंग की जाये ताकि सही क्रियान्वयन हो सके।
16. रेनवाटर हारवेस्टिंग की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये कदम उठाए जाएँ।
17. नगर और औद्योगिक इकाइयों के प्रदूषित जल को उपचारोपरान्त ही ताप्ती में छोड़ा जाये।

भारतीय उदाहरण


मेगस्थनीज ने अपने यात्रा विवरणों में उत्तर भारत में जल-सुरंगों का जिक्र किया है। मेगस्थनीज के विवरणों से पता चलता है कि राजा द्वारा नियुक्त ओवरसियरों द्वारा जल-सुरंगों का रखरखाव और जल वितरण व्यवस्था का नियंत्रण किया जाता था। यह उल्लेख ओमिद एसफन्डारी के शोध पत्र में उपलब्ध है जो इंगित करता है कि कनात प्रणाली भारत में विद्यमान थी।

आधुनिक भूजल विज्ञानियों के अनुसार एक्वीफर को जोड़ने वाली कृत्रिम भूमिगत सुरंग को रिसाव-गैलरी या कनात कहा जाता है। इस सुरंग से भूमिगत जल, गुरुत्व बल की सहायता से प्रवाहित करा कर, सतह पर या कृत्रिम टैंक में जमा किया जा सकता है। सुरंग समतल, सीढ़ीदार या ढालू हो सकती है। उसकी लम्बाई कुछ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक सम्भव है। इसका निर्माण चट्टानी कछारी या मिले-जुले क्षेत्र में किया जा सकता है।भारत में कनात पद्धति का दूसरा उदाहरण मौजूद नहीं है। उल्लेखनीय है कि मलिक अम्बर ने सन 1617 में औरंगाबाद नगर के उत्तर में स्थित पहाड़ियों में मिलने वाले भूजल का दोहन करने के लिये खैर-ए-जारी नाम का एक्वाडक्ट बनवाया था। इस व्यवस्था में पहाड़ों की तलहटी और नदियों के किनारे मिलने वाली रेतीली ज़मीन से भूजल प्राप्त कर नहरों के माध्यम से गन्तव्य तक ले जाया जाता था। यह व्यवस्था गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त पर काम करती थी। भूमिगत जल का परिवहन, सुरंग के स्थान पर नहरों के माध्यम से करने के कारण, वह, कनात व्यवस्था नहीं है। इसका विवरण पी. ए. सदगिर इत्यादि के आलेख में उपलब्ध है।

बूँदों की संस्कृति (पेज 222-223) में केरल के मध्यवर्ती पहाड़ी इलाके में बसे उत्तरी मलाबार के कसारगोड इलाके में भूजल संचय की सुरंगम नामक अद्भूत प्रणाली का उल्लेख है। इस प्रणाली में पहाड़ के अन्दर सुरंग खोदी जाती है जिसे सुरंगम कहा जाता है। सुरंगम में हवा का दबाव सामान्य रखने के लिये लगभग 2 मीटर व्यास के कुएँ बनाए जाते हैं। दो कुओं के बीच की दूरी 50 से 60 मीटर होती है। खड़े सुरंग की ऊँचाई 1.8 मीटर से 2.0 मीटर और चौड़ाई सामान्यतः 0.45 से 0.70 मीटर रखी जाती है। चट्टानों से रिसा पानी, सुरंगम के मार्फत कुएँ या तालाब में इकट्ठा कर उपयोग में लाया जाता है। यह विधि कनात प्रणाली से मिलती-जुलती है। इस प्रणाली का विकास ईसा से 700 साल पहले हुआ था।

आधुनिक भूजल विज्ञान में कनात


आधुनिक भूजल विज्ञानियों के अनुसार एक्वीफर को जोड़ने वाली कृत्रिम भूमिगत सुरंग को रिसाव-गैलरी या कनात कहा जाता है। इस सुरंग से भूमिगत जल, गुरुत्व बल की सहायता से प्रवाहित करा कर, सतह पर या कृत्रिम टैंक में जमा किया जा सकता है। सुरंग समतल, सीढ़ीदार या ढालू हो सकती है। उसकी लम्बाई कुछ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक सम्भव है। इसका निर्माण चट्टानी कछारी या मिले-जुले क्षेत्र में किया जा सकता है। चट्टानी क्षेत्र में बनाई जाने वाली सुरंग से अधिकतम पानी हासिल करने के लिये उसे, चट्टानों में मिलने वाले अधिकतम जोड़ों या सनधिस्थलों को काटना चाहिए वहीं कछारी इलाकों में उसकी दिशा, भूमिगत जलप्रवाह के यथासम्भव लम्बवत होना चाहिए। रिसाव गैलरी का निर्माण वाटर टेबिल के ढाल और दिशा पर निर्भर होता है। भूमिगत जल हानि से बचने के लिये रिसाव गैलरी को एक्वीफर के पानी देने वाले हिस्से से ही गुजरना चाहिए। भूमिगत सुरंगों की लम्बाई, वाटर टेबिल के ढाल पर निर्भर होती है इसलिये चट्टानी क्षेत्रों में जहाँ वाटर टेबिल का ढाल सामान्यतः अधिक (10 मी. से 30 मी. प्रति किलोमीटर) होता है, सुरंग की लम्बाई कम और कछारी क्षेत्रों में जहाँ वाटर टेबिल के ढाल सामान्यतः कम होता है, अधिक रखी जाती है।

इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, भूजलविदों और तकनीकी लोगों ने बुरहानपुर की मुगलकालीन जल प्रणाली का अध्ययन कर उसके बारे में सामान्य जानकारियाँ दी हैं। इन जानकारियों के कारण भले ही, उसकी ओर, बहुत से लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है लेकिन अभी भी वह विवरण, कई अर्थों में अधूरा है। उपर्युक्त विरासत के बारे में अनेक जानकारियों का अभाव है। उसके अनेक पक्षों पर रहस्य की धुंध है। अधूरे अध्ययनों के कारण अनेक लोगों को अभी भी वह किसी अबूझ पहेली की तरह लगती है। कई लोगों को लगता है कि बुरहानपुर की मुगलकालीन जल प्रणाली का प्रतिरूप या प्रतिकृति बनाना असम्भव है।

आज के युग में, उस वातावरण और आवश्यकता का अभाव है जो कनात की परिकल्पना करने वाले भूजलविदों और कुशल शिल्पियों को उनके निर्माण के लिये अवसर प्रदान करती है। यह अभाव, आधुनिक युग में जल प्रदाय के विकल्पों की भीड़ के कारण है। यह सही है कि विकल्पों की भीड़ में कनात प्रणाली गुमनाम है पर उसकी उपादेयता को प्रमाणित करने वाली आशा की किरण, आज भी मौजूद है। मौजूदा परिस्थितियों में रख-रखाव और ऊर्जा का व्यय उठाने में कठिनाइयों का अनुभव करने वाले स्थानीय निकायों के लिये यह प्रणाली आशा की किरण एवं ऑक्सीजन देने वाली ताजी हवा का झोंका है। न्यूनतम संचालन व्यय और ऊर्जा की बचत की विशेषता के कारण, यह बेहतर विकल्प है। उपर्युक्त तथ्यों को ध्यान में रखकर अगले पन्नों में कनात प्रणाली के इतिहास, निर्माण से सम्बद्ध विभिन्न तकनीकी और पर्यावरणी पक्षों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। यह विवरण बुरहानपुर की मुगल कालीन प्रणाली की फिलासफी को बेहतर तरीके से समझने में मदद देता है। निर्माण सम्बन्धी प्रचलित असम्भाव्यता का भ्रम तोड़ता है तथा नई सम्भावनाओं को तलाशने में मदद देता है।

कनात की निर्माण कला


भूजलवेत्ता टालमेन के अनुसार कनात तकनीक का जन्म ईसा से लगभग 800 साल पहले ईरान में हुआ है। ईरान का इलाक़ा रेगिस्तानी है। वहाँ की सालाना बरसात का औसत 250 मिलीमीटर है। वाष्पीकरण की दर बहुत अधिक है। उष्ण जलवायु के कारण बाँधों में जल संचय कठिन है। अतएव ईरानी लोगों का ध्यान अन्य विकल्पों पर केन्द्रित हुआ होगा। उन्होंने खदानों में मिलने वाले पानी को देखा होगा। गहराई पर मिलने वाले पानी को देखकर उन्होंने उसका उपयोग करने तथा उसे अन्य इलाकों में ले जाने के बारे में सेाचा होगा। एतदअर्थ धरती के नीचे की चट्टानों के जलीय गुणों को जाँचा-परखा होगा। पानी देने वाली चट्टानों (एक्वीफरों) को पहचाना होगा। लम्बी जद्दोजहद के बाद भूजल दोहन की कनात तकनीक विकसित की होगी। उल्लेखनीय है कि मोहम्मद इब्न-अल-हसन अल हसीब काराजी ने कनात के बारे में एक किताब लिखी थी। यह किताब आज भी मौजूद है। यह किताब सम्भवतः सन 1000 में लिखी गई थी। इस किताब में भूगर्भीय जलस्तर के सर्वेक्षण के काम में आने वाले उपकरणों के अलावा कनात की खुदाई के बारे में निर्देश, रखरखाव और साफ-सफाई के बारे में जानकारी उपलब्ध है। कारजी ने अपने किताब में पूर्ववर्ती लेखकों की किताबों का जिक्र किया है। दुर्भाग्यवश वे किताबें अनुपलब्ध हैं। इस किताब का उल्लेख ओमिद एसफंडारी के शोध पत्र में उपलब्ध है।

ईरान के पूर्वी भाग में कनातों को कहरिज (कह अर्थात भुसा और रिज अर्थात फेंकना) कहते हैं। उनका यह नाम इसलिये प्रचलित हुआ क्योंकि ईरान के लोग कनात स्तंभ (वायु कूपक) में भूसे के टुकड़े फेंक कर पानी की गति का अनुमान लगाते थे और कनात की मरम्मत में भूसे काम में लेते थे। ईरान के पश्चिमी भाग में कहरिज को कनात कहते हैं। पर्शियन, अरबी और अन्य भाषाओं में कनात (हाईड्रालिक जल संरचना) के 27 से अधिक नाम हैं जिनमें कनात, कारिज और केनिट अधिक प्रचलित हैं।कनात को विभिन्न वैज्ञानिकों ने अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया है। गाबलाट के अनुसार यह भूजल दोहन का ऐसा तरीका है जिसमें रिसते गलियारे का उपयोग किया जाता है। बेहनिया के अनुसार वह व्यवस्था जिसमें कई कुओं और एक या एक से अधिक भूमिगत सुरंगों से बहने वाला पानी, जिसका संग्रह ऊँचाई पर स्थित भूमिगत एक्वीफर, तालाब, नदी या पोखर में हुआ हो और जिसका ढाल, भूसतह के ढाल से कम हो, को बिना किसी यांत्रिक या विद्युत ऊर्जा को उपयोग में लाये, केवल गुरुत्व बल की मदद से कम ऊँचाई पर स्थित भूमि की ओर प्रवाहित कराया जाता हो, कनात कहलाता है। एस. जहाद के अनुसार कनात, वास्तव में भूमिगत गलियारा है। यह गलियारा रिसते भूजल का संग्रह कर उसे सिंचाई और पेयजल की पूर्ति के लिये भूसतह पर पहुँचाता है। एक अन्य परिभाषा के अनुसार कनात को ऐसा भूमिगत जलमार्ग भी कहा जा सकता है जिसका निर्माण पहाड़ की तलहटी में जमा कछारी मिट्टी में से ढाल की दिशा में किया गया है।

कनात की सुरंग की लम्बाई का सम्बन्ध भूजल के टिकाऊ स्रोत और उपयोग स्थल के बीच की दूरी से है। मोटे तौर पर, अधिक बरसात वाले इलाके में सुरंग की लम्बाई कम और कम बरसात वाले इलाकों में अधिक होगी। रेगिस्तानी इलाकों में गहरी और सामान्य वर्षा वाले इलाकों में कम गहरी या उथली सुरंगें बनाई जाती थीं। इनको पूरा करने में बहुत समय लगता है। इनको खोदने वाले शिल्पकार कार्य कुशल और बेहद मेहनती होते हैं। उनके पास पीढ़ियों का अनुभव होता है।ईरान में इस तकनीक की मदद से ज़मीन के नीचे के भूमिगत जल को मुख्य कुएँ या उसके नीचे कतार में बने एक से अधिक कुओं द्वारा प्राप्त किया जाता था। भूजल की प्राप्ति सामान्यतः 1.54 मीटर से 95.52 मीटर (5 से 300 फुट) की गहराई से की जाती थी और सुरंग का ढाल सतह के ढाल की तुलना में कम रखा जाता है। छोटी कनात एक या दो मील लम्बी होती थी। ईरान में बनी पुरानी कनातों की लम्बाई सामान्यतः 10 मील होती थी। ईरान के उत्तरी भाग में स्थित गोनावद क्षेत्र (खुरासान प्रान्त) में बनी कीखोसरो कनात के मुख्य कुएँ की गहराई 400 मीटर है। गाबलाट के अनुसार इस कनात का निर्माण, ईसा से 13 सदी पहले हुआ था। इसी क्षेत्र में बनी दूसरी कनात की लम्बाई 70 किलोमीटर है। ईरान के ही याज्द शहर के निकट बनी दौलत-आबाद कनात की कुल लम्बाई लगभग 54 किलोमीटर है। इस क्षेत्र में बनी सबसे लम्बी कनात लगभग 120 किलोमीटर लम्बी है। इस कनात के मुख्य कुएँ की गहराई 116 मीटर है। बाम इलाके की पायेकम कनात में भूजल प्रवाह की दर 312 लीटर प्रति सेकेंड (सर्वाधिक) है। मून कनात में पानी ले जाने वाली दो सुरंगें हैं जो ईरान के भूजलविदों और शिल्पकारों के अद्भूत कौशल, ज्ञान और निर्माण कला की निपुणता का प्रतीक हैं।

बिजन फरहंगी के अनुसार ईरान में 37,588 से अधिक कनातों का निर्माण किया गया है। कनातों की संख्या सिद्ध करती है कि यह तकनीक सुरक्षित, समयसिद्ध और समाज को स्वीयकार्य व्यवस्था थी। कनात विशेषज्ञ डब्ल्यू बेनीसन के अनुसार भुजल का विकास करने वाली यह सर्वाधिक बेजोड़ विधि है। सुरंग और वायु कूपकों के निर्माण में ईरान के शिल्पियों द्वारा अपनाई ईरानी तकनीक के बारे में आगे विवरण दिया गया है। यह विवरण भले ही ईरान से है पर वह कनात निर्माण की बारीकियों और उसके जल विज्ञान के सिद्धान्त को समझने में मदद करता है। उसे भलीभाँति समझकर किसी भी देश में समान या मिलती-जुलती परिस्थितियों में नई कनात का निर्माण किया जा सकता है।

कनात की सुरंग की लम्बाई का सम्बन्ध भूजल के टिकाऊ स्रोत और उपयोग स्थल के बीच की दूरी से है। मोटे तौर पर, अधिक बरसात वाले इलाके में सुरंग की लम्बाई कम और कम बरसात वाले इलाकों में अधिक होगी। रेगिस्तानी इलाकों में गहरी और सामान्य वर्षा वाले इलाकों में कम गहरी या उथली सुरंगें बनाई जाती थीं। इनको पूरा करने में बहुत समय लगता है। इनको खोदने वाले शिल्पकार कार्य कुशल और बेहद मेहनती होते हैं। उनके पास पीढ़ियों का अनुभव होता है। वे कम रोशनी और ठंडे वातावरण में काम करने के अभ्यस्त होते हैं। उनके औजारों में मुख्यतः कुदाली, बेलचा, चमड़े की बाल्टी, लम्बी रस्सी से बाँधकर उठाने वाला लकड़ी का उपकरण, रोशनी के लिये लैम्प और गोलक होता है।

ईरानी भाषा में एक्वीफर को अब-देह, आड़ी सुरंग को पुस्तेह और कनात खोदने वाले व्यक्ति को मुघानिस कहते हैं। इसी भाषा में कनात के गीले क्षेत्र में भूजल की आवक बढ़ाने के लिये की गई खुदाई को पिश-कर, दो कुओं के बीच की दूरी को पाश-तेह कहते हैं। भूजल स्तर घटने के कारण, कई बार गैलरी में गहरी खुदाई करनी होती है। इस खुदाई को काफ-शेकानी और कनात मार्ग का वह अवरुद्ध भाग जिसका उद्धार/सुधार सम्भव नहीं है बाघल-बोर कहलाता है। यह प्रणाली सिद्ध करती है कि मानवीय प्रयासों से रेगिस्तानी परिस्थितियों (रेतीली ज़मीन, उच्च तापमान, अत्यधिक वाष्पीकरण और अल्प वर्षा) में भी धरती के गर्भ में पैठे पानी को हासिल किया जा सकता है। इस तकनीक का विस्तार 34 से अधिक देशों में हुआ है। ईरान के रेगिस्तानी इलाके में अनेक ग्रामों की बसाहट का आधार ही कनात प्रणाली है। सन 1960 तक, इस तकनीक की मदद से ईरान के मध्य भाग के अधिकांश इलाके की सिंचाई ज़रूरतों की पूर्ति होती थी।

कुओं के बीच की दूरी और गहराई


ईरान में एक दूसरे से जुड़े दो कुओं के बीच की दूरी सामान्यतः 15 से 20 मीटर रखी जाती थी। कई बार, प्राकृतिक कारणों या खुदाई में आ रही कठिनाइयों के कारण इसमें बदलाव किया जाता था। अपवाद स्वरूप यह दूरी 200 मीटर तक पाई गई है। जहाँ तक कनात कुओं की गहराई का प्रश्न है तो वह भूजल निकासी या निर्गम स्थल पर न्यूनतम और अधिकतम ऊँचाई पर अधिकतम होती है। ईरान में अधिकतम गहरे कुएँ की गहराई 400 मीटर है। यह गहराई असामान्य है।

कुओं के मानक


कनात के खड़े कुओं का व्यास 80 से 90 सेंटीमीटर और सुरंग की चौड़ाई 60 सेंटीमीटर और ऊँचाई 120 सेंटीमीटर रखी जाती है। इन मानकों के आधार पर कहा जा सकता है कि उनके मानकों के निर्धारण को आधार मुख्यतः काम करने की सुविधा है। दो कुओं के बीच की दूरी सामान्यतः 15 से 20 मीटर होती है।

सुदृढ़ीकरण


जल प्रदाय प्रणाली के सुचारू रूप से संचालन के लिये जरूरी है कि व्यवस्था के घटक (कुएँ और सुरंग) टिकाऊ और दीर्घायु हों। जाहिर है इनका दीर्घकालीन स्थायित्व और उनकी मजबूती का प्रश्न, उनके आसपास मिलने वाली चट्टानों मिट्टी के गुणों से नियंत्रित होगा। चट्टानों मिट्टी के गुणों के आधार पर कनात की सतह को मजबूती प्रदान करने की रणनीति तय की जाती है। चट्टानी क्षेत्रों में कुओं और सुरंग को सामान्यतः मजबूती प्रदान करने की आवश्यकता नहीं होती। प्रकृति में, हर स्थान पर वांछित परिस्थितियाँ नहीं मिलती इसलिये जिन सुरंगों और कुओं में रेत, मिट्टी या कच्चा पत्थर मिलता है, उनका सुदृढ़ीकरण अनिवार्य होता है। ईरान में, विपरीत परिस्थितियों के मिलने की स्थिति में खास प्रकार की स्थानीय मिट्टी से सुरंगों कुओं की दीवारों पर, अस्तर चढ़ाया जाता है। अस्तर चढ़ाने के बाद सुरंगों कुओं की दीवारें मजबूत हो जाती हैं।

कनात प्रणाली की लम्बाई कुछ सौ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक होती है। ईरान के खुरासान प्रान्त में गोनाबाद नगर के निकट बनाई कनात की लम्बाई लगभग 120 किलोमीटर है। यह दुनिया की सबसे लम्बी कनात है। कनात की लम्बाई का सम्बन्ध ऊँचाई पर स्थित मुख्य कुएँ और भूजल निकासी के स्थान की ऊँचाइयों और पानी की आवश्यकता वाले स्थान की स्थिति से होता है। कई बार, ज़मीन की आकृति, ढाल और उसके गुणधर्म भी उसकी लम्बाई पर असर डालते हैं।भूजल के सतत प्रवाह के कारण कालान्तर में कुओं और सुरंग की दीवारों पर रासायनिक पदार्थों (मुख्यतः कैल्शियम कार्बोनेट) की परत जमा हो जाती है। अनेक बार, सुरंग की छत पर विभिन्न आकार प्रकार की कैल्शियम कार्बोनेट की लटकनें निर्मित हो जाती हैं। इन लटकनों को स्टैलेक्टाइट कहते हैं।

कनात की लम्बाई


कनात प्रणाली की लम्बाई कुछ सौ मीटर से लेकर कई किलोमीटर तक होती है। ईरान के खुरासान प्रान्त में गोनाबाद नगर के निकट बनाई कनात की लम्बाई लगभग 120 किलोमीटर है। यह दुनिया की सबसे लम्बी कनात है। कनात की लम्बाई का सम्बन्ध ऊँचाई पर स्थित मुख्य कुएँ और भूजल निकासी के स्थान की ऊँचाइयों और पानी की आवश्यकता वाले स्थान की स्थिति से होता है। कई बार, ज़मीन की आकृति, ढाल और उसके गुणधर्म भी उसकी लम्बाई पर असर डालते हैं। भौतिक कारणों में पानी देने वाली परतों की अनुपलब्धता, बसाहट और जल उपयोग का स्थान भी उसकी लम्बाई को प्रभावित करता है।

कनात की खुदाई


कनात की खुदाई प्रारम्भ करने के पहले, क्षेत्र में भूजल की टिकाऊ उपलब्धता का पुख्ता अनुमान लगाया जाता है। इसके लिये टोही कुएँ खोदे जाते हैं। इन टोही कुओं के परिणामों के आधार पर फैसला लिया जाता है। उसके बाद, भुजलविद और शिल्पियों की टीम, इलाके का गहन सर्वे कर ज़मीन के ढाल के आधार पर कुओं की संख्या का अनुमान लगाते हैं और साइट प्लान तैयार किया जाता है। साइट प्लान तैयार करते समय, खनन के दौरान आने वाली सम्भावित समस्याओं का अनुमान लगा कर आवश्यक तैयारी की जाती है।

कनात की खुदाई का काम बहुत सरल और सहज है। सारी खुदाई हथौड़े और छेनी की मदद से की जाती है। टूटे पत्थरों, मिट्टी इत्यादि को बाल्टी या अन्य साधन की मदद से बाहर निकाला जाता है। इस काम में ट्राईपेड, ट्राली और दो खम्बे लगी गरारी प्रयुक्त होती है। यह काम, कुएँ से पानी निकालने जैसा है।

कुओं और सुरंग (कनात) की खुदाई का काम नीचे से ऊपर की ओर किया जाता है। सबसे पहले वह कुआं, जिससे निकले पानी को वितरित किया जाता है, खोदा जाता है। इस कुएँ को खोदने के बाद, उसके ऊपर का दूसरा कुआं बनाया जाता है। कुओं का निर्माण क्रमशः ऊपर बढ़ते क्रम में किया जाता है। यह सिलसिला अंतिम कुएँ पर जाकर खत्म होता है। जैसे कुएँ बनते जाते हैं, उन्हें सुरंग की सहायता से जोड़ा जाता है। सबसे ऊपर के कुएँ की गहराई का निर्धारण एक्वीफर की अधिकतम गहराई और भूजल स्तर के हाईड्रोस्टेटिक प्रेसर के आधार पर किया जाता है। इस प्रक्रिया में सुरंग मार्ग में होने वाली भूजल हानि से बचा जाता हे। प्रयास किया जाता है कि सुरंग का पानी निचली परतों में नहीं रिसे। अंतिम कुएँ में पानी सतह पर या न्यूनतम गहराई पर मिले। ईरान में सारा काम अनुभवी भूजलविद की देखरेख में कुशल कारीगरों और शिल्पियों द्वारा पूरा किया जाता था।

च. शिल्पियों के वस्त्र


खुदाई का सारा काम जमीन के नीचे होने के कारण कुओं और सुरंग की छत से टपकते पानी के कारण शिल्पियों के भीगने और बीमार होने की सम्भावना होती है। इस कारण, पुराने समय में, शिल्पियों को भेड़ की खाल पर बैल की चर्बी के अस्तर चढ़े कपड़े पहनाए जाते थे। इसके अलावा, छत से टपकते पानी से बचाव के लिये उन्हे बड़े आकार का हेट भी पहनाया जाता था।

छ. प्राकृतिक समस्याएं


सुरंग की खुदाई का काम करते समय शिल्पियों को जमीन के नीचे मिलने वाली विभिन्न प्राकृतिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जमीन के नीचे मिलने वाली प्रमुख प्राकृतिक समस्याएं और उनके निदान निम्नानुसार हैं-

छ. (1) विशाल बोल्डरों द्वारा पैदा की गई समस्या और उसका निदान
सुरंग की खुदाई करते समय, कई बार, खुदाई मार्ग में बहुत बड़े बोल्डर के आ जाने को कारण रूकावट आ जाती थी। ऐसी हालत में शिल्पियों द्वारा बोल्डर को तोड़कर या मार्ग बदलकर खुदाई कर लक्ष्य प्राप्त किया जाता था।

छ. (2) शुद्ध हवा, रोशनी और प्रदूषण- समस्या और निदान
गहरे कुओं में काम करने वाले शिल्पियों को सांस लेने के लिये शुद्ध हवा की आवश्यकता होती थी। गहराई पर शुद्ध हवा की पूर्ति के लिये ईरानियों ने अनेक उपाय खोजे। इन उपायों में कुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी और लुहार की धोंकनी की तर्ज पर विकसित उपकरणों की मदद से शुद्ध हवा को कुओं की तली में पहुँचाने जैसे प्रयास प्रमुख थे।

सुरंगों में गहरा अंधेरा छाया रहता था इसलिये खुदाई करते समय कुओं और सुरंगों में रोशनी की व्यवस्था अनिवार्य थी। प्राचीन काल में रोशनी के लिये मशाल या तेल वाले लेम्पों का उपयोग किया जाता था। ईरानी जानते थे कि मशाल या लेम्प के जलाने से हानिकारक कार्बन-डाई-आक्साइड गैस पैंदा होती है, इसलिये उन्होंने लेम्प में जलाये जाने वाले तेल का चयन बहुत सावधानी से किया। हवा को जहरीली होने से बचाने के लिये उन्होंने लेम्पों में सुअर, गाय और भेड़ की चर्बी या जैतून के तेल का उपयोग किया। धुआं पैदा करने के कारण केरोसिन का उपयोग पूरी तरह वर्जित था।

भूमिगत कुओं में तीसरा खतरा प्रदूषण का होता था। प्रदूषण का कारण, गहराई पर अकसर मिलने वाली जहरीली हवा, सुरंग धंसने के कारण उपजे धूल कण इत्यादि था। ईरानियों ने शिल्पियों को प्रदूषण से बचाने के लिये अनेक उपाय खोजे। हानिकारक गैसों का पता लगाने के लिये उन्होंने जलते लेम्प को कुओं में उतार कर, हवा के गुणधर्म जाने और प्रदूषण मुक्त व्यवस्था को चाक-चौबन्द किया।ज. कमजोर भाग में कुओं का निर्माण

कनातों के बिगाड़ में प्राकृतिक और मानवीय कारणों की मुख्य भूमिका है। आंकड़े बताते हैं कि जलवायु बदलाव और सूखे की बढ़ती आवृत्ति जैसे प्राकृतिक कारणों तथा जंगलों के घटते रकबे, बढ़ते भूमि कटाव इत्यादि मानवीय कारण के कारण कनातों की दुर्दशा हो रही है। कनातों के बिगाड़ का दूसरा कारण व्याप्त उदासीनता है। उदासीनता और अनेदेखी के कारण कनातों में टूट-फूट का खतरा बढ़ रहा है। उनकी जल प्रदाय क्षमता घट रही है।कई बार धंसकने वाली रेत या कमजोर मट्टानों में कुएँ बनाने पड़ते हैं। ईरान वासियों ने इन परिस्थितियों से निपटने के लिये, कुओं की गोलाई से थोड़े अधिक व्यास के लकड़ी के ढाँचों को कुओं में उतारा। उनकी सहायता से खुदाई जारी रखी और कुओं का निर्माण पूरा किया। इस व्यवस्था में एक खामी थी। लकड़ी के सड़ने के कारण कालान्तर में कुआं धंसक जाता था। मेहनत दुबारा करनी पड़ती थी। लकड़ी के ढाँचे की उक्त खामी के कारण पहले पकी मिट्टी और बाद में लोहे के रिंग काम में लाये गए। यह तकनीक आधुनिक युग में रिंग-वेल बनाने में प्रयुक्त तकनीक जैसी है। इस तकनीक में खुदाई के साथ, ढाँचे, अपने वजन के कारण, नीचे बैठते जाते हैं। ईरानियों ने ढाँचों को खड़ी या ऊर्धाधर स्थिति में रखने के लिये गोलक (गुनिया) का उपयोग किया था।

झ. दिशाबोध


आड़ी खुदाई के समय खनन की दिशा को सही रखना आवश्यक होता है इसलिये शिल्पियों के सही दिशा की जानकारी होना आवश्यक होता है। इसके लिये प्राचीन काल में, प्राकृतिक चुम्बक जिन्हें लोडस्टोन कहा जाता है, उपयोग में लाये जाते थे। कहा जाता है कि कनात खोदने वाले शिल्पियों के पास भी लोडस्टोन या समान गुणों वाला पत्थर या यंत्र होता था। इस पत्थर की मदद से वे खुदाई की वांछित दिशा सुनिश्चित करते थे। प्राचीन काल में लोडस्टोन का प्रयोग नाविकों और खनिकों द्वारा भी किया जाता था। अब यह काम कम्पास की मदद से किया जाता है। कई बार खुदाई करते समय रास्ता बदल कर अगले कुएँ तक पहुँचना आवश्यक हो जाता है। इस स्थिति में दिशा भ्रम की सम्भावना होती है। इस समस्या से निपटने और न्यूनतम दूरी तय कर, अगले कुएँ तक पहुँचने के लिये तत्कालीन शिल्पियों ने बहुत ही सरल किन्तु व्यावहारिक तरीका अपनाया था। इस तरीके के अन्तर्गत कुएँ की तली में अनेक भुजाओं वाली आकृति बनाई जाती थी। भुजाओं के बीच के कोणों का माप लिया जाता था। तदुपरान्त, उस आकृति को जस-का-तस धरती की सतह पर उकेरा जाता था। उकेरी आकृति की मदद से सही मार्ग की दिशा और दूरी तय की जाती थी। कहा जाता है कि पीढ़ी अनुभव के कारण ईरान के शिल्पकार अपने काम में इतने माहिर हो चुके थे कि उनको खुदाई में कम्पास या अन्य किसी उपकरण की जरूरत अनुभव नहीं होती थी।

त्र. रासायनिक क्रिया


बरसाती पानी के चट्टानों से गुजरेने के कारण, कुछ रसायन घुलकर या रासायनिक क्रिया के परिणामस्वरूप पानी में मिल जाते हैं। यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है। घुलित रसायनों से समृद्ध भूजल जब कनात की दीवारों और फर्श के सम्पर्क में आता है तो उचित परिस्थितियों के मिले ही वे, सुरंग की दीवारों और छत पर जमा हो जाते हैं। इस क्रिया पर दाब और ताप का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। जमा होने वाले पदार्थो में सामान्यतः केल्सियम और मैगनीशियम के बाई-कार्बोनेट और या केल्सियम सल्फेट होता है। ईरान में यह पदार्थ जंगाबेह कहलाता है। यह पदार्थ कनात के संकरे स्थानों और पानी निकलने की जगहों पर जमा होता है।

ट. कनात में जीवन


कनात के पानी में जीवन का विकास सम्भव है। ईरानी विद्वान ओमिद एसफन्डारी ने कुछ कनातों के पानी में अंधी मंछलियाँ और ऊदबिलाव से मिलते जुलते प्राणियों की प्रजातियों के मिलने का जिक्र किया है।

गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में कुटुमसर नाम की भूमिगत गुफा है। इस गुफा की खोज प्रोफेसर शंकर तिवारी ने की थी। इस गुफा का विकास, चूनापत्थर पर भूमिगत जल द्वारा सम्पन्न रासायनिक क्रिया से हुआ है। इस भूमिगत गुफा में गहरा अंधेरा रहता है। इस गुफा के पानी में अंधी मछलियाँ मिली हैं।

ठ. कनात से लाभ और हानि


कनात विशेषज्ञ बी. घोरबानी ने कनातों के लाभ हानि का विवरण दिया है।

ठ. (1) कनात से लाभ
1. कनात की उम्र बहुत लम्बी होती है।
2. कनात के जलप्रवाह की मात्रा सामान्यतः सुनिश्चित होती है।
3. जल परिवहन के लिये बिजली या बाह्य ऊर्जा की आवश्यकता नहीं होती।
4. पर्यावरण के नजरीये से यह बेहतर व्यवस्था है।
5. इसका निर्माण स्थानीय मजदूरों और शिल्पियों की मदद से सम्भव है। यह व्यवस्था, स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर प्रदान करती है। इसको बनाने में देशी औजारों का प्रयोग होता है। उपकरणों के आयात पर व्यय नहीं होता।
6. इसके रख रखाव का खर्च बहुत कम है।
7. यह जलनिकासी की कारगर व्यवस्था है। इस व्यवस्था की मदद से वाटर लागिंग से प्रभावित क्षेत्र का स्थायी उपचार किया जा सकता है।

ठ (2) कनात से नुकसान
1. कनात की खुदाई का काम जोखिम भरा और असुरक्षित है।
2. कनात निर्माण में बहुत समय लगता है। जल प्रदाय में विलम्ब होता है जिसके कारण कई बार जन असन्तोष पनपता है।
3. कनात से प्रवाहित होने वाली पानी का नियंत्रण कठिन होता है। अनेक बार इसका पानी व्यर्थ नष्ट होता है।
4. प्राकृतिक आपदाओं यथा भूकम्प, भारी वर्षा, सुनामी इत्यादि से हुए नुकसान का पुनर्वास सामान्यतः चुनौतीपूर्ण है।
5. नगरों के निकट से गुजरने वाली कनातों में जल प्रदूषण की सम्भावनाएं उत्तरोत्तर वृद्धि पर हैं।
6. भूजल दोहन बढ़ने के कारण कई स्थानों पर भूजल का स्तर नीचे उतर गया है जिसके कारण कनात का जल प्रवाह घट रहा है। कहीं कहीं यह समस्या गंभीर हो चुकी है। गिरता भूजल स्तर उनके अस्तित्व के लिये खतरा बन रहा है। उनके प्रवाह पर मौसम का प्रभाव दिखाई देने लगा है।
7. इसके अतिरिक्त, स्थानीय कारणों से कुछ अन्य नुकसान सम्भव है।

पर्यावरण पर प्रभाव


आज के युग में, प्राकृतिक संसाधनों के विकास से जुड़ी समस्त परियोजनाओं में पर्यावरण का मुद्दा बहुत महत्पूर्ण होता जा रहा है इसलिये आवश्यक है कि कनात निर्माण और उससे भूजल प्राप्त करने के पर्यावरणी पक्ष पर विचार किया जाए।

कनात के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन में अविवेकी विकास, जलविज्ञान, प्रदूषण और सामाजिक-आर्थिक पैरामीटर बहुत महत्वपूर्ण हैं। हालिया अध्ययनों से पता चलता है कि कनात से पर्यावरण पर सामान्यतः बुरा प्रभाव नहीं पड़ता पर उन इलाकों में, जहाँ हानिकारक रसायन, कनात प्रणाली के पानी से मिल रहे हैं, प्रदूषण फैल रहा है। इस प्रदूषित पानी में फर्टीलाइजर, कीटनाशक, सीवेज का पानी, कारखानों, औद्योगिक क्षेत्रों एवं खनन उद्योग के अनुपचारित रसायन और स्थानीय स्तर पर उत्सर्जित हानिकारक घटक पाये जाते हैं।

अध्ययनों से यह भी पता चलात है कि इस तकनीक को अपनाने से मिट्टी के कटाव, इकालॉजी, समाज के आर्थिक ढाँचे पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। यह कनातों का उजला पक्ष है।

ण. बिगाड़ के कारण


कनातों के बिगाड़ में प्राकृतिक और मानवीय कारणों की मुख्य भूमिका है। आंकड़े बताते हैं कि जलवायु बदलाव और सूखे की बढ़ती आवृत्ति जैसे प्राकृतिक कारणों तथा जंगलों के घटते रकबे, बढ़ते भूमि कटाव इत्यादि मानवीय कारण के कारण कनातों की दुर्दशा हो रही है। कनातों के बिगाड़ का दूसरा कारण व्याप्त उदासीनता है। उदासीनता और अनेदेखी के कारण कनातों में टूट-फूट का खतरा बढ़ रहा है। उनकी जल प्रदाय क्षमता घट रही है। बढ़ता भूजल दोहन, समानुपातिक रीचार्ज कार्यक्रमों का अभाव और जल प्रदाय के दूसरे विकल्पों के प्रति बढ़ते रूझान के कारण उनकी अनदेखी हो रही है।

 

 

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