जलसंकट के भंवर में भारत

जल संकट
जल संकट


लिओनार्दो दा विंची की एक उक्ति है-
पानी पूरी प्रकृति की संचालक शक्ति है।

लिओनार्दो कोई वैज्ञानिक नहीं थे। न ही वह कोई पर्यावरण विशेषज्ञ थे। वह पानी को लेकर काम करने वाले एक्सपर्ट भी नहीं थे।

वह इटली के विश्व विख्यात चित्रकार थे। उन्हें इतालवी नवजागरण का महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर माना जाता है।

लिओनार्दो का पानी से उतना ही सम्बन्ध था, जितना आम लोगों का होता है। मतलब नहाने-धोने व खाने-पीने का। हाँ, उनका पानी से एक और सम्बन्ध था। वह पेंटिंग्स करते थे तो रंगों को पानी में घोलकर कैनवास पर एक मायावी संसार रच देते थे।

यानी कि कैनवास पर सजने वाली उनकी बहुरंगी दुनिया में पानी एक महत्त्वपूर्ण तत्व था। इसके बिना उनकी पेंटिंग्स पूरी नहीं होती थी।

यह दीगर बात है कि उनकी पेंटिंग्स में प्रकृति का जितना कुछ चित्रण हुआ था, उसमें पानी की मौजूदगी नहीं के बराबर रही। ‘अर्नो वैली’ नाम की उनकी एक पेंटिंग, जो उन्होंने 21 साल की उम्र में बनाई थी में पेड़-पौधों के साथ पानी भी दिख जाता है। उनकी बाकी पेंटिंग्स में पानी का चित्रण शायद ही हो।

उनकी पेंटिंग्स में पानी की गैर-मौजूदगी के बावजूद इस बात को भला कौन झुठला सकता है कि पानी बिना वह कैनवास पर एक लकीर भी नहीं खींच पाते।

सम्भव है कि वहीं से उनमें यह विचार आया होगा कि पानी ही प्रकृति की संचालक शक्ति है।

यह एक अवैज्ञानिक व्यक्ति का मानना था जिसने न तो पानी को लेकर कोई शोध किया था और न ही जीवन विज्ञान की पढ़ाई की थी। लेकिन, पानी को लेकर उनका विचार विज्ञान की धरातल पर भी खरा उतरता है।

सचमुच, पानी के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। प्यास बुझाने से लेकर तमाम तरह की जरूरतें पूरी करने में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पानी की भूमिका होती है। पूरे ब्रह्मांड का वजूद ही पानी पर टिका हुआ है।

हम-आप और पशु-पक्षी जिस ऑक्सीजन के सहारे जिन्दा रहते हैं, वह ऑक्सीजन भी हमें पानी से मिलता है। पेड़-पौधे जैव रासायनिक प्रक्रिया से पानी में मौजूद हाइड्रोजन व ऑक्सीजन को लेकर ऑक्सीजन का निर्माण करते हैं।

हम लोग रोज जो कुछ खाते हैं, वे अनाज से ही तैयार किये जाते हैं। अनाज खेत में ही उगाया जाता है और पानी बिना तो अनाज उग ही नहीं सकता है। जैसे हमें भोजन की जरूरत पड़ती है उसी तरह फसलों को पानी की जरूरत पड़ती है। सूखा पड़ने पर फसलें बर्बाद हो जाती हैं।

अपने देश में तो हाल के वर्षों में बुन्देलखण्ड, मराठवाड़ा समेत कई इलाकों में सूखे के चलते फसल खराब हो चुकी है और रोजी-रोटी के लिये किसानों का शहरों की तरफ पलायन बढ़ा है।

खेती के साथ ही मौसम में बदलाव भी पानी पर निर्भर है। पानी की उपलब्धता और उसकी हरकत से मौसम में बदलाव आता है। पानी वाष्प बनकर न केवल तापमान में फेरबदल करता है बल्कि हवा के बनने में भी मददगार होता है। पानी की वजह से ही मौसम में वैसी तब्दीली आती है, जो मानव जीवन के लिये जरूरी है।

मछली समेत दूसरे जलीय जीवों के लिये पानी जीवनरेखा है। रोचक तथ्य यह है कि ये जलीय जीव पानी के बिना जी नहीं पाते हैं और पानी मिलता है तो उसकी सफाई भी प्राकृतिक तरीके से कर दिया करते हैं।

पानी की किल्लत और अकाल (सूखा) ने बार-बार साबित किया है कि पानी का समुचित प्रबन्धन बेहद अहम है। दुनिया के इतिहास में अब तक 150 से ज्यादा बार सूखा पड़ चुका है जिसमें करोड़ों लोगों की मौत हो चुकी है।

ईसा पूर्व 26 में रोम में भीषण अकाल पड़ा था जिसमें 20 हजार लोगों की मौत हुई थी। सन 1097 में फ्रांस में आये अकाल ने 10 हजार लोगों को मौत की नींद सुला दी थी।

यही नहीं, रूस में सन 1601-03 में रूस में आये अकाल ने करीब 20 लाख लोगों की जान ले ली थी।

चीन ने तो कई बार अकाल का सामना किया। इतिहास बताता है कि सन 1810 से 1849 के बीच चीन में चार बार सूखा पड़ा था जिसने 4.5 करोड़ लोगों की जिन्दगी छीन ली थी।

इसी तरह सन 1850 से 1873 तक चीन में पड़े अकाल ने 6 करोड़ लोगों की जिन्दगी छीन ली थी। इसके बाद सन 1901 और सन 1911 में आये अकाल में 2.5 करोड़ लोगों को मौत हो गई थी।

उत्तर कोरिया में 1996 में आये अकाल में 2 लाख से अधिक लोगों की जान गई थी।

सूखा व अकाल ने भारत को बख्श दिया था, ऐसा नहीं है। सन 1344 से लेकर अब तक डेढ़ दर्जन से अधिक बार भारत सूखे का सामना कर चुका है। इनमें से सबसे भयावह अकाल सन 1896-1902 व सन 1943 में आया था जिनमें एक करोड़ से अधिक लोगों की मौत हो गई थी।

ये तो खैर हुई इतिहास की बातें। अब सवाल उठता है कि इन घटनाओं से हमनें क्या सीख ली है। शायद कुछ भी नहीं। पिछले दो-तीन दशकों में हमने पानी को बचाने की जगह उसे बर्बाद ही किया है।

संयुक्त राष्ट्र ने पानी की बर्बादी से उभरने वाले संकट को महसूस करते हुए 25 साल पहले यानी वर्ष 1992 में हर साल 22 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाने का निर्णय लिया था।

इसके अन्तर्गत हर साल अलग-अलग थीम के साथ अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस मनाया जाता है। इस साल का थीम है- पानी के लिए प्रकृति।

इससे पहले वर्ष 2017 में ‘पानी क्यों बर्बाद करें’, वर्ष 2016 में ‘बेहतर पानी, बेहतर काम’, वर्ष 2015 में ‘पानी व दीर्घकालिक विकास’ और वर्ष 2014 में ‘पानी व ऊर्जा’ के थीम पर अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस का पालन किया गया था।

अन्तरराष्ट्रीय जल दिवस पालन करने का मुख्य उद्देश्य पानी को लेकर लोगों को जागरूक करना था ताकि पानी की बर्बादी रोकी जा सके। साथ ही यह भी लक्ष्य था कि हर व्यक्ति तक साफ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की जा सके।

भारत के सन्दर्भ में अगर देखें, तो पानी से सम्बन्धित तमाम तरह की समस्याएँ अभी भी मुँह बाये खड़ी हैं। करोड़ों लोग जहाँ साफ पानी से वंचित हैं, तो वहीं एक बड़ी आबादी गन्दा पानी पीकर बीमार हो रही है।

दूसरी तरफ, एक बड़े तबके तक पानी पहुँच ही नहीं रहा है। इन सबके बीच मौसम की अपनी गति है, जो कभी सूखा लेकर आती है तो कभी बाढ़। दोनों ही कारणों का सबसे ज्यादा असर गरीब लोगों पर पड़ रहा है।

द वाटर प्रोजेक्ट नामक संस्था की वेबसाइट पर छपे एक लेख के अनुसार भारत के करीब 10 करोड़ घरों में रहने वाले बच्चों को पानी नहीं मिल पाता है और हर दो में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।

एक अनुमान के अनुसार देश की 7.6 करोड़ आबादी साफ पानी की पहुँच से दूर है। सरकारी आँकड़ों की मानें तो वर्ष 2013 तक देश की महज 30 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को साफ पानी मिल पाता था।

वहीं, वाटरएड की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत उन देशों की सूची में शामिल है, जहाँ रहने वाली एक बड़ी आबादी को साफ पानी नहीं मिलता है।

पानी की किल्लत को लेकर एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने भी चिन्ता जाहिर की है। एडीबी के अनुमान के मुताबिक वर्ष 2030 तक जल की कमी 50 प्रतिशत तक पहुँच जाएगी।

केन्द्र सरकार के आँकड़े भी बताते हैं कि भारत में जलसंकट विकराल रूप ले सकता है। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के अनुसार भारत को साल में 1100 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ती है।

मंत्रालय के अनुसार वर्ष 2025 तक पानी की जरूरत 1200 बिलियन क्यूबिक मीटर और वर्ष 2050 तक 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर के आँकड़े को छू लेगा। यानी वर्ष 2050 तक भारत के लोगों की प्यास बुझाने के लिये 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत पड़ेगी क्योंकि तब तक देश की आबादी बढ़कर 140 करोड़ पर पहुँच जाएगी।

सवाल यह है कि भारत 1447 बिलियन क्यूबिक मीटर पानी की व्यवस्था कैसे करेगा।

दो वर्ष पहले यही महीना था जब महाराष्ट्र के लातूर में जलसंकट गहरा गया था। खेत में सिंचाई के लिये तो दूर लोगों को पीने के पानी के लाले पड़ गए थे। समस्या इतनी विकराल हो गई थी कि केन्द्र को वाटर ट्रेन भेजनी पड़ी थी।

लातूर में जलसंकट की मुख्य रूप से दो वजहें थीं - पहली वजह थी कमजोर मानसून और दूसरी वजह थी भूजल का बेइन्तहा दोहन। बुन्देलखण्ड को भी ऐसी ही समस्या से जूझना पड़ा था।अनुमान है कि वर्ष 2030 तक 40 फीसदी आबादी को पीने का पानी नहीं मिल पाएगा। इसका मतलब है कि भूजल का और ज्यादा दोहन किया जाएगा।

ग्राउंड वाटर रिसोर्सेज असेसमेंट की मानें, तो भारत के हर छठवें भूजल स्रोत का क्षमता से अधिक दोहन किया जा रहा है। ऐसे में और अधिक दोहन किये जाने से भूजल स्तर और भी नीचे जाएगा।

जलस्तर नीचे जाने से एक्वीफर में मौजूद हानिकारक तत्व मसलन आर्सेनिक और फ्लोराइड पानी के साथ बाहर आएँगे जिसे पीकर लोग बीमार पड़ेंगे।

जलसंकट होने की सूरत में सबसे पहले लोग पीने के पानी का जुगाड़ करेंगे, फिर सिंचाई के लिये पानी की तरफ ध्यान देंगे। इससे प्रत्यक्ष तौर पर खेती पर असर पड़ेगा जिससे उत्पादन घटेगा।

विश्व बैंक ने एक आकलन कर जलसंकट से सकल घरेलू उत्पाद पर पड़ने वाले असर को रेखांकित किया है।

विश्व बैंक ने कहा है कि जलसंकट बढ़ने से वर्ष 2050 तक मध्य अफ्रीका व पूर्वी एशिया का विकास दर 6 प्रतिशत तक घट सकता है।

विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जलसंकट बढ़ने से झड़प की घटनाएँ भी बढ़ेंगी और साथ ही खाद्यान्न के दाम में इजाफा होगा जिससे लोगों को आर्थिक मोर्चे पर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

इस सम्बन्ध में विश्व बैंक के अध्यक्ष जिम योंग किम ने कहा है, ‘जलसंकट आर्थिक विकास व स्थायित्व के लिये बड़ा खतरा है और जलवायु परिवर्तन समस्या को और बढ़ा रहा है।’

इस संकट के मद्देनजर केन्द्र सरकार की ओर से कुछेक कदम जरूर उठाए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उसका असर देखने को नहीं मिल रहा है। वर्ष 2013 में केन्द्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में जलापूर्ति के लिये 166000 करोड़ रुपए खर्च करने की योजना बनाई थी, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी जलसंकट बरकरार है।

पिछले साल नवम्बर में केन्द्र सरकार ने अगले तीन महीने में सिंचाई परियोजनाओं पर 80 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा की थी। इस योजना का जमीन पर आना अभी बाकी है।

इन सबके बीच कहीं-कहीं लोगों ने खुद पहल कर अपने और अपने आसपास की आबादी के लिये पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की है और लोग उनसे प्रेरित भी हो रहे हैं। लेकिन, भारत जैसे विशाल देश में सरकार की सक्रिय भूमिका के बिना जलसंकट से मुक्ति सम्भव नहीं है।

जलसंकट के सन्दर्भ में आज से करीब 16 साल पहले डेवलपमेंट रिसर्च एंड कम्युनिकेशंस ग्रुप ने वाटर पॉलिसी एंड एक्शन प्लान 2020 तैयार किया था। इसमें जलसंकट से निपटने के लिये कई उपाय सुझाए गए थे। मसलन मौजूदा जलस्रोतों का समुचित प्रबन्धन, नदियों व जलाशयों का रख-रखाव, पानी की रिसाइकिलिंग व दोबारा इस्तेमाल, पानी की उपलब्धता और भविष्य में उसकी जरूरतों से सम्बन्धित ताजातरीन डेटा संग्रह, सतही व भूजल का प्रबन्धन आदि।

उक्त रिपोर्ट में पानी के घरेलू इस्तेमाल के लिये भी कई तरह के सुझाव दिये गए हैं, जिन्हें अमल में लाकर बेहतर जल प्रबन्धन किया जा सकता है।

इन सबके अलावा जो सबसे अहम बात है, वो यह है कि आम लोगों को खुद भी जागरूक होना होगा। उन्हें यह महसूस करना होगा कि पानी का इस्तेमाल वे ही कर रहे हैं, इसलिये इसका प्रबन्धन भी वे खुद करें और ईमानदारी से करें, ताकि इसकी बर्बादी न हो।

इसके अलावा बारिश के पानी को संग्रह कर उसका इस्तेमाल करने के लिये भी पहल करनी होगी, तभी जलसंकट से निपटा जा सकता है।

पानी हमें जीवन देता है, तो इसे बचाना भी हमारा दायित्व है।
 

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