जलवायु के बैरोमीटर हैं ग्लेशियर

हिमालय के ग्लेशियरों में हो रहे यह परिवर्तन न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की कहानी कहते हैं बल्कि तमाम तरह की चेतावनी देते हैं। शायद इस बीच हिमालय को सबसे ज्यादा घेरने वाले भारत-चीन, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों के तीव्र आधुनिक औद्योगिक विकास के चलते तापमान बढ़ रहा है। उन सबसे होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो होना ही चाहिए लेकिन इस नकारात्मक पर्यावरणीय बदलाव को कम करने के लिये नई सोच और कार्रवाई की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन हकीकत है या अवधारणा, यह बहस जारी है। पर्यावरण विज्ञानी अगर इसे साबित करते रहते हैं, तो उद्योग और विकास के सिद्धान्तकार इसे खारिज करते रहते हैं। वजह साफ है-एक कहता है अन्धाधुन्ध विकास हानिकारक है तो दूसरा कहता है कि उसके बिना सभ्यता की गति नहीं है।

ऐसे में जलवायु परिवर्तन के एक प्रमाण के तौर पर ग्लेशियरों की स्थिति को पेश किया जा सकता है। ग्लेशियर के मास-बैलेंस, लम्बाई, बर्फ का पिघलना और बर्फीली चट्टानों का खिसकना यह सब जलवायु में होने वाले बदलाव का संकेत देते हैं।

ग्लेशियर गर्मियों में सिकुड़ते हैं और जाड़ों में फैलते हैं। यह क्रियाएँ तो सामान्य तौर पर होती हैं। लेकिन जब वे जाड़ों में कम फैलते हैं और गर्मियों में ज्यादा सिकुड़ते हैं तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन हो रहा है और उसका प्रत्यक्ष प्रभाव इन ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। जब यह प्रभाव सिलसिलेवार पड़े तो कहा जा सकता है कि जलवायु परिवर्तन का एक क्रम है जिसे एक नियम के तौर पर दर्ज किया जा सकता है और उसके कार्य- कारण का अध्ययन भी किया जा सकता है।

शायद ग्लेशियर प्रकृति की सबसे नाजुक कड़ी है। ध्रुवीय प्रदेशों से लेकर हिमालय तक उनकी मौजूदगी प्रकृति के रक्त संचार का कारण है। हिमालय दुनिया की सबसे ऊँची और युवा चोटी है और यहाँ ध्रुवीय प्रदेशों के बाद सबसे ज्यादा ग्लेशियर है, जिनका क्षेत्रफल 33,000 वर्ग किलोमीटर है। ऐसे में माना जा सकता है कि हिमालय के ग्लेशियर बच्चे की त्वचा हैं तो सर्दी और गर्मी से सर्वाधिक प्रभावित होती है।

अगर तापमान बढ़ता है तो यह प्रभावित होता है और अगर घटता है तो भी उसका प्रभाव इन पर पड़ता है। भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के अनुसार हिमालयी क्षेत्र में हर दस साल पर 0.05 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ रहा है। यह सर्वेक्षण 1901 से 2003 तक के वर्षों पर किये गए अध्ययन से निकला है। पिछले तीन दशकों में तापमान में वृद्धि की यह गति बढ़ी है। इस दौरान तापमान बढ़ने की गति 0.22 डिग्री प्रति दस वर्ष रही है।

लेकिन उत्तर पश्चिमी हिमालय का तापमान दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। यहाँ 1985 से 2008 के बीच न्यूनतम तापमान में भी वृद्धि हुई है। यहाँ अब जाड़ों में कम हिमपात होता है और गर्मियों में ज्यादा तापमान होने के कारण ग्लेशियर ज्यादा पिघल रहे हैं। जीएसआई की तरफ से किये गए सर्वेक्षण के अनुसार गारा गोरांग, शाउने गरांग, नागपो टोकपो के ग्लेशियर एक साल में 4.22 से 6.8 मीटर पिघले हैं।

चूँकि हिमालय के ग्लेशियर इस क्षेत्र की तमाम नदियों के जीवन आधार हैं इसलिये इन्हें एशिया का वाटर टावर भी कहा जाता है। यहाँ से निकलने वाली नदियों की लम्बी सूची है जिनमें गंगा, आमू दरिया, सिंधु, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, सलवीन, मीकांग, यांगत्जी, येलो और तारिम प्रमुख हैं। इसलिये ग्लेशियरों के पिघलने, सिकुड़ने और खिसकने का तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव इन नदियों और उनसे जुड़े क्षेत्रों पर पड़ता है। उसके कारण बाढ़, सूखा और देशों के विवाद भी पैदा होते हैं।

ग्लेशियरों के पिघलने और सिकुड़ने का यह क्रम पश्चिमी विक्षेप के कारण उत्तर पश्चिमी हिमालय में ज्यादा साफ दिखाई पड़ रहा है। यहाँ के 466 ग्लेशियरों के पीछे हटने की रपटें हैं। विशेषतौर पर प्रसिद्ध गंगोत्री ग्लेशियर में भारी बदलाव आए हैं। यह ग्लेशियर 1780 से 2001 के बीच तकरीबन दो किलोमीटर तक खिसका है। इसी प्रकार हिमाचल के चेनाब नदी की घाटी में स्थित छोटा सिंगड़ी ग्लेशियर 1962 से 2008 के बीच 950 मीटर खिसका है।

यह क्रम जलवायु परिवर्तन और बर्फ की मात्रा में होने वाले परिवर्तन के बीच सीधे रिश्ते को कायम करता है। छोटा सिंगड़ी ग्लेशियर शुष्क क्षेत्र में है और पश्चिमी विक्षेप और तामपान बढ़ने के सीधे चपेट में आ रहा है। अध्ययन के अनुसार छोटा सिंगड़ी 1988 से 2003 के दरम्यान यानी 26 सालों में 800 मीटर खिसका है। बल्कि ज्यादा बारीकी में जाने से पता चलता है कि 1962 से 1989 के बीच यह ग्लेशियर हर साल खिसक रहा है।

सिर्फ 1987 ऐसा वर्ष है जब इसका आकार 17.5 मीटर बढ़ा है वरना हर साल यह 7.5 मीटर की दर से सरक रहा है। यह सारे अध्ययन रिमोट सेंसिंग के किये गए हैं। इसलिये इनकी अपनी प्रामाणिकता है। क्योंकि उन्हें मैनुअल तरीके के नापना न तो सम्भव है और अगर सम्भव भी हो तो वह सटीक नहीं बैठता। हालांकि छोटा सिंगड़ी में जो प्रभाव देखा गया है वह जरूरी नहीं कि सभी ग्लेशियरों के लिये वैसा ही हो।

इसके बावजूद हिमालय के सभी ग्लेशियरों में इस तरह का एक क्रम है जिसका प्रतिनिधित्व छोटा सिंगड़ी ग्लेशियर कर सकता है। सम्भव है यह परिवर्तन पश्चिमोत्तर इलाके में लगातार चलने वाली युद्ध की गतिविधियों के कारण हो या प्रकृति के किसी और रूप के कारण। वैज्ञानिकों के अध्ययन में इस बारीकी को नहीं दर्शाया गया है। इसके लिये अतिरिक्त शोध और अध्ययन की आवश्यकता बनती है।

हिमालय के ग्लेशियरों में हो रहे यह परिवर्तन न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की कहानी कहते हैं बल्कि तमाम तरह की चेतावनी देते हैं। शायद इस बीच हिमालय को सबसे ज्यादा घेरने वाले भारत-चीन, नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों के तीव्र आधुनिक औद्योगिक विकास के चलते तापमान बढ़ रहा है। उन सबसे होने वाले प्रभावों का अध्ययन तो होना ही चाहिए लेकिन इस नकारात्मक पर्यावरणीय बदलाव को कम करने के लिये नई सोच और कार्रवाई की जरूरत है।

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