जलवायु परिवर्तन और भारतीय कृषि


वर्तमान विश्व में बढ़ते औद्योगिकरण एवं बढ़ते वाहनों की संख्या से ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा हुआ है । बढ़ती ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन से वैश्विक तापमान में वृद्धि एवं जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाओं ने समस्त विश्व का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । विश्व मौसम विज्ञान संगठन के अनुसार वर्ष 2001 इतिहास का पांचवा सबसे गर्म वर्ष रहा । गर्माति धरती का सबसे ज्यादा प्रभाव कृषि क्षेत्र पर पड़ रहा है ।

भारत के संदर्भ में यह चेतावनी इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला कृषि है । डेनमार्क की राजधानी कोपेहेगन मेंदिसम्बर 2009 में आयोजित सम्मेलन में ग्लोबल क्लामेट रिस्क इन्डेक्स 2010 द्वारा जारी सूची में भारत उन प्रथम 10 देशों में है जो जलवायु परितर्वन से सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे ।

एक अध्ययन के अनुसार सन् 2050 तक शीतकाल का तापमान लगभग ३से 4 डिग्री तक बढ़ सकता है । इससे मानसूनी वर्षा में 10 से 20 प्रतिशत तक की कमी होने का अनुमान है । वर्षा की मात्रा के परिवर्तन होने से फसलों की उत्पादकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । जलवायु में होने वाला परिवर्तन हमारी राष्ट्रीय आय को प्रभावित कर रहा है । राष्ट्रीय आय में कृषि का हिस्सा पिछले तीन सालों मे 1.5 प्रतिशत तक कम हुआ है । 2009 का वर्ष हमारे लिए एक चेतावनी भरा वर्ष रहा है । इस वर्ष 23 से 24 प्रतिशत तक वर्षा कम हुई जिससे देश के बहुत से भागों में खड़ी फसलें सूख गई जिससे न केवलखाद्यान्नों का उत्पादन कम हुआ बल्कि उनकी कीमतों में भी तेजी से वृद्धि हुई । एक अनुमान के अनुसार 2009 में सूखे की वजह से 20000 करोड़ रूपये के खाद्यान्नों का नुकसान हुआ है ।

कोपेनहेगन में आयोजित सम्मेलन में कृषि वैज्ञानिक डॉ.एम.एस. स्वामीनाथन ने भारतीय कृषि पर जलवायु परितर्वन के पड़ने वाले प्रभावों के बारे में कहा कि इससे लगभग 64 प्रतिशत लोगों पर प्रभाव पड़ेगा जिनके जीवनयापन का साधन कृषि है और सबसे बड़ा डर खाद्य सुरक्षा को लेकर है । कृषि एवं जलवायु परिवर्तन सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव सर्वहारा वर्ग पर पड़ रहा है जिनकी कुल आय का 50 प्रशित से भी ज्यादा हिस्सा अन्न, जल एवं स्वास्थ्य सम्बन्धित मदोंपर खर्च होता है । ऐसा अनुमान है कि सूखे के कारण खरीफ की मुख्य फसलों चावल व दलहन तथा तिलहन में 20 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। देश में खाद्य उत्पादन में ५ प्रतिशत कमी की संभावना जी.डी.पी. को एक प्रतिशत तक प्रभावित करेगी । वर्ष 2001 में मानसून के समय में बदलाव की वजह से 51 प्रतिशत तक कृषि भूमि प्रभावित हुई है । तापमान के बढ़ने से रबी की फसलों के पकने का समय आया है तापमान मेंतीव्र वृद्धि से फसलों में एकदम बालियां आ गई जिससे गेहूँ व चने की फसलों के दाने बहुत पतले हो गए व उत्पादकता घट गई । प्रो.स्वामीनाथन ने कहा है कि तापमान में 10 सैल्सियस की वृद्धि से भारत में 70 लाख टन गेहूँ के उत्पादन मे कमी आएगी ।

एक अध्ययन अनुसार यदि तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होती है तो खाद्य पदार्थों के उत्पादन में 24 से 30 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है । भारत में चावल के उत्पादन में तापमान बढ़ने से 2020 तक 6 से 7 प्रतिशत की कमी होगी जबकि गेहूँ के उत्पादन में 2020 तक 5 से 6 प्रतिशत, आलु के उत्पादन में 2020 तक तीन प्रतिशत तथा सोयाबीन के उत्पादन में 3 से 4 प्रतिशत की कमी होने का अनुमान है । जबकि भारत देश की जनसंख्या बढ़ने से सभी खाद्य पदार्थों की मांग में वृद्धि होगी परिणाम स्वरूप खाद्य संकट हमारे सामने एक भयंकर समस्या होगी । जलवायु परिवर्तन से न केवल फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी बल्कि उनकी पोष्टिकता पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । फल एवं सब्जियों वाली फसलों में फूल तो खिलेंगे लेकिन उनसे फल या तो बहुत कम बनेंगे या उनकी पोष्टिकता प्रभावित होगी । भारत देश का विश्व प्रसिद्ध चावल बासमती भी जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बच नहीं पाएगा तापमान वृद्धि से इसकी खुशबू प्रभावित होगी ।

तापमान वृद्धि से समुद्रों का जलस्तर बढ़ जाएगा जिससे तटीय इलाकों में रहने वाले करोड़ों लोगों की आजीविका प्रभावित होगी । जल स्तर बढ़ने से लोगों के खेतों व घरों को समुद्र निगल जाएगा, भूमि क्षारीय हो जाएगी व कृषि योग्य नहीं रहेगी । तापमान बढ़ने से हिमालय के हिमनद प्रतिवर्ष 30 मीटर की दर से घटने लगेगी जिससे उत्तर भारत के राज्यों में खेती के लिए पानी का अप्रत्यक्ष प्रभाव कृषि उत्पादन पर पड़ रहा है तो दूसरी और अप्रत्यक्ष रूप से आय की हानि और अनाजों की बढ़ती कीमतों के रूप में समस्याएं हमारे समक्ष मूँह बाएं खड़ी हैं ।

जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि के विभिन्न पहलू निम्न प्रकार से प्रभावित हो सकते हैं -
1. जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव:- अध्ययनों के आधार पर कृषि वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रत्येक १० सैल्सियस तापमान बढ़ने पर गेहूँ का उत्पादन 4-5 कराड़ टन कम होता जाएगा । इसी प्रकार २० सैल्सियस तापमान बढ़ने से धान का उत्पादन 0.75टन प्रति हैक्टेयर कम हो जाएगा । कृषि विभाग के अनुसार गेहूँ की पैदावार का अनुमान 82 मिलियन टन था जो अधिक तापमान की वजह से घटकर 81 टन मिलियन टन रह जायेगा । जलवायु परिवर्तन से फसलों की उत्पादकता ही प्रभावित नहीं होगी वरन् उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा । अनाज में पोषक तत्वों और प्रोटिन की कमी पाई जाएगी जिसके कारण संतुलित भोजन लेने पर भी मनुष्यों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ।

2. जलवायु परिवर्तन का मृदा पर प्रभाव:- भारत जैसे कृषि प्रदान देश के लिए मिट्टी की संरचना व उसकी उत्पादकता अहम स्थान रखती है। तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी । मिट्टी में लवणता बढ़ेगी और जैव विविधता घटती जाएगी । बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं से जहाँ एक और मिट्टी का क्षरण अधिक होगा वहीं दूसरी ओर सूखे की वजह से बंजरता बढ़ जाएगी ।

3. जलवायु परिवर्तन का कीट व रोगों पर प्रभाव :- जलवायु परिवर्तन से कीट व रोगों की मात्रा बढ़ेगी । गर्म जलवायु कीट पतंगों की प्रजनन क्षमता की वृद्धि में सहायक है । कीटों में वृद्धि के साथ ही उनके नियंत्रण हेतु अतधिक कीटनाशकों का प्रयोग किया जाएगा जो जानवरो व मनुष्यों में अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म देगा ।

4. जलवायु परिवर्तन का जल संसाधनों पर प्रभाव :- जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा प्रभाव जल संसाधनों पर पड़ेगा । जल आपूर्ति की भंयकर समस्या उत्पन्न होगी तथा सूखे व बाढ़ की बारम्बारता में इजाफा होगा । अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में शुष्क मौसम अधिक लम्बा होगा जिससे फसलों की उत्पादकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । वर्षा की अनिश्चितता भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करेगी तथा जल स्रोतों के अधिक दोहन से जल स्रोतों पर संकट के बादल मंडराने लगेंगे । अधिक तापमान व वर्षा की कमी से सिंचाई हेतु भू-जल संसाधनों का अधिक दोहन किया जाएगा । जिससे धीरे-धीरे भू-जल इतना ज्यादा नीचे चला जाएगा कि उसका दोहन करना आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी सिद्ध होगा जैसा पंजाब, हरियाणा व प.उत्तरप्रदेश के बहुत से विकास खण्डोंमें हो रहा है ।

भारतीय कृषि पर पड़ने वाले जलवायु परिवर्तन के प्रभावोंको कम करने के अनेक उपाय हैं जिनको अपनाकर हम कु छ हद तक जलवायु परितर्वन के प्रभावों से अपनी कृषि को बचा सकते हैं। प्रमुख उपाय इस प्रकार हैं –

5. खेतों में जल प्रबंधन :- तापमान वृद्धि के साथ फसलों में सिंचाई की अधिक आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में जमीन में नमी का संरक्षण व वर्षा जल को एकत्रित करके सिंचाई हेतु प्रयोग में लाना एक उपयोगी एवं सहयोगी कदम हो सकता है । वाटरशैड प्रबंधन के माध्यम से हम वर्षा के पानी को संचित कर सिंचाई के रूप में प्रयोग कर सकते हैं ।इस से जहाँ एक ओर हमें सिंचाई की सुविधा मिलेगी वहीं दूसरी ओर भूजल पूनर्भरण में भी मदद मिलेगी ।

2. जैविक एवं समग्रित खेती :- खेतों में रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल से जहाँ एक ओर मृदा की उत्पादकता घटती है वहीं दूसरी और इनकी मात्रा भोजन श्रृंखला के माध्यम से मानव के शरीर मेंपहूँच जाती है । जिससे अनेक प्रकार की बीमारियाँ होती हैं । रासायनिक खेती से हरित गैसों के उत्सर्जन में भी हिजाफा होता है । अत: हमें जैविक खेती करने की तकनिकों पर अधिक से अधिक जोर देना चाहिए । एकल कृषि की बजाय हमें समग्रित कृषि करनी चाहिए । एकल कृषि में जहाँ जोखिम अधिक होता है वहीं समग्रित कृषि में जोखिम कम होता है । समग्रित खेती में अनेकों फसलों का उत्पादन किया जाता है जिससे यदि एक फसल किसी प्रकोप से समाप्त् हो जाए तो दूसरी फसल से किसान की रोजी रोटी चल सकती है ।

3. फसल उत्पादन में नई तकनिकों का विकास :- जलवायु परिवर्तन के गम्भीर दूरगामी प्रभावों को मध्यनजर रखते हुए ऐसे बीजों की किस्मों का विकास करना पड़ेगा जो नये मौसम के अनुकूल हों । हमें ऐसी किस्मों का विकसित करना होगा जो अधिक तापमान, सूखे व बाढ़ की विभिषिकाओं को सहन करने में सक्षम हों । हमें लवणता एवं क्षारीयता को सहन करने वाली किस्मों को भी ईजाद करना होगा ।

4. फसली संयोजन में परिवर्तन :- जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ हमें फसलों के प्रारूप एवं उनके बोने के समय में भी परिवर्तन करना पड़ेगा । मिश्रित खेती व इंटरक्रापिंग करके जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटा जा सकता है । कृषि वानिकी अपनाकर भी हम जलवायु परितर्वन के खतरों से निजात पा सकते हैं ।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से भारतीय कृषि को बचाने के लिए हमें अपने संसाधनों का न्यायसंगत इस्तेमाल करना होगा व भारतीय जीवन दर्शन को अपनाकर हमें अपने पारम्परिक ज्ञान को अमल में लाना पड़ेगा । अब इस बात की सख्त जरूरत है कि हमें खेती में ऐसे पर्यावरण मित्र तरीकों को अहमियत देनी होगी जिनसे हम अपनी मृदा की उत्पादकता को बरकरार रख सकें व अपने प्राकृतिक संसाधनों को बचा सकें।
 

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