जलवायु परिवर्तन और संपोषणीय विकास

16 Jan 2016
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जलवायु परिवर्तन संपोषणीय विकास के विविध आयामों में से एक है। सभी की इच्छा है कि जलवायु परिवर्तन को कम करके संपोषणीय विकास को प्राप्त किया जाए लेकिन इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये समाधान पर विचारों में भिन्नता है। इसके अलावा वैश्विक स्वीकार्य समाधान तैयार करने के लिये ज्ञान की कमी है और उनके कार्यान्वयन के लिये संसाधनों की भी कमी है। वैश्विक साझेदारी का लक्ष्य सभी को लाभ पहुँचाने के लिये सहयोग के अवसरों का लाभ उठाने के लिये जमीनी कार्य करना है।

विकास मानव को अपनी क्षमताओं की पहचान या उनमें वृद्धि कराने वाली और बेहतर जीवनशैली प्राप्त करने के लिये सक्षम बनाने वाली अनवरत प्रक्रिया है। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से मानव जीवन का भरण पोषण होता आया है लेकिन प्रकृति की पुनरुत्पादन क्षमता सीमित है। पिछली दो शताब्दियों में मानव जनसंख्या के फैलाव, प्राकृतिक संसाधनों की प्रति व्यक्ति मांग में वृद्धि और प्राकृतिक पर्यावरण में मानव आविष्कृत नए रसायनों (प्लास्टिक और कीटनाशक रसायन) के उपयोग के परिणामस्वरूप वैश्विक पर्यावरण और मानव जाति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। संपोषणीय विकास की धारणा 1980 के दशक में उस समय उभरकर आई जब कुछ क्षेत्रों में बेहतरी महसूस की गई (उदाहरण के लिये वातानुकूलित प्रौद्योगिकी, हरित क्रान्ति की तकनीकों से खाद्यान उत्पादन में तीव्र वृद्धि और तीव्र आर्थिक वृद्धि) प्राप्त की गई लेकिन इसके बदले जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता की हानि, जल संसाधनों एवं मृदा अवमल्यन जैसी नई समस्याएँ उत्पन्न हुई। साथ ही पहले से उपस्थित समस्याओं जैसे अपरिहार्य विकास, मानव के लिये आवश्यक उत्पादनों में प्राकृतिक अवरोध और भूकम्प ने और अधिक भयानक स्वरूप धारण कर लिया।

पर्यावरणीय विज्ञान में प्रगति ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि मानवीय गड़बड़ियों से उभर पाने की प्राकृतिक पर्यावरण की क्षमता सीमित है। सामाजिक विज्ञान ने न्याय संगत आर्थिक विकास के महत्त्व की ओर ध्यान आकर्षित किया। ज्ञान में प्रगति ने विकास को अंतर्विषयक दृष्टिकोण के मार्ग पर आगे बढ़ाया। पर्यावरण, आर्थिक और सामाजिक समस्याओं और सम्भावनाओं को स्थानिक (स्थानीय से वैश्विक) और कालिक (अल्पकालिन से दीर्घकालीन) पैमाने पर एक साथ देखना संपोषणीय विकास की आधारशिला बना। विभिन्न रूपों में परिभाषित, पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग ने संपोषणीय विकास की व्याख्या एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में की है जो भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति की क्षमताओं से कोई समझौता किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करे। वर्ष 1992 में रियो में आयोजित संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण और विकास सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) में बरूंडटलैंड आयोग को व्यापक रूप से स्वीकार कर इसकी सराहना की गई।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के रूपरेखा समझौते (यूएनएफसीसीसी) और जैव विविधता समझौते (सीबीडी) को औपचारिक रूप देने, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की क्षति से बढ़ते अपोषणीयता के खतरों से मानवता की रक्षा की वैश्विक रणनीति बनाई गई और नए वैश्विक पर्यावरण विकास निधिकरण प्रक्रियाएँ जैसे वैश्विक पर्यावरणीय सुविधा (जीईएफ) की स्थापना की गई। चूँकि जलवायु परिवर्तन जैवभौतिक पर्यावरण (वातावरण संरचना और भूमि उपयोग) में परिवर्तन, भूमि की उर्वरकता खत्म होना और जैविक हमले और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक पर्यावरण (जैसे वैश्वीकरण, मुक्त व्यापार, संस्कृति ग्राह्यता, नव बौद्धिक सम्पत्ति साम्राज्यों और द्विपक्षीय बहुपक्षीय सहयोग, गठबंधन) में अन्य परिवर्तनों के साथ गड़बड़ियाँ करता है। संपोषणीय विकास दृष्टिकोण बहु-समस्याओं के एक साथ समाधान के लिये इस क्षेत्र के महत्त्व को समझता है। वर्ष 2002 में संपोषणीय विकास पर संयुक्त राष्ट्र के जोहनसबर्ग सम्मेलन और संपोषणीय विकास के मूल, सामाजिक स्वीकार्य विकास, आर्थिक रूप से जीवनक्षम और पर्यावरणीय युक्तियुक्त मानव संसाधनों एवं आर्थिक संसाधनों में बहुत बड़े परिवर्तन से संपोषणीय विकास धारणा की वैश्विक स्वीकार्यता और अधिक सुदृढ़ हुई हैं।

चूँकि वातावरण में कार्बनडाईऑक्साइड की सघनता बढ़ना जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है, इसलिए इस गैस के उत्सर्जन में कमी और वातावरण से इसके पृथक्करण जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने की प्रमुख आवश्यकताएँ हैं। वर्तमान जलवायु परिवर्तन प्रवृत्तियों की अवस्थिति भविष्य में जैव विविधता संरक्षण के लिये खतरा है। तथापि जैव विविधता विशेषकर जंगल और वृक्ष आधारित जैविक कृषि जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम कर सकती है और इस चुनौती से निपटने के लिये मानव क्षमता को बढ़ा सकती है। जैव विविधता और पर्यावरण सेवाओं का अन्तरराष्ट्रीय मंच (आईपीबीईएस) और विकासशील देशों में वन कटाई एवं वन निम्नीकरण से उत्सर्जन की कमी की संयुक्त राष्ट्र की योजना (यूएन-आरईडीडी) इस दशक की दो बड़ी अन्तरराष्ट्रीय पहलें हैं। जिनका लक्ष्य वैश्विक जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों और विकासशील देशों में मानव कल्याण की कमजोर स्थिति से निपटने के लिये जैव विविधता प्रबंधन करना है।

तालिका 1: सहस्राब्दि विकास के उद्देश्य, लक्ष्य और उपलब्धियांहाल के समय में भूमंडलीय ताप की अभूतपूर्व दर निश्चित की गई है। भूमंडलीय ताप की दरों के आकलन में भारी भिन्नताएँ हैं। वैश्विक पैमाने पर 21वीं शताब्दी के दौरान भूमण्डलीय ताप की दरों का प्रक्षेपण 1.0 से 5.8 डिग्री सेल्सियस तक और भारत में 0.4 से 2.0 डिग्री सेल्सियस तक भिन्न है। भविष्य में इसी तरह अवक्षेपण में भी उच्च अनिश्चितता है, विशेषकर सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के सम्बन्ध में। वैश्विक परिदृश्य में जलवायु परिवर्तन के आकलन में उच्च श्रेणी की अनिश्चितता, परिवर्तन विश्लेषण के स्थानिक/कालिक पैमाने में विभिन्नता, कारकों के वैज्ञानिक ज्ञान में अन्तर और भूत/भविष्य जलवायु अनुमानों के बहुत से उपकरणों/तकनीकों एवं जलवायु का निर्धारण करने वाली प्रतिक्रियाओं का मिला-जुला परिणाम है। फिर भी सभी वैज्ञानिक अध्ययन जलवायु परिवर्तन की अनिवार्यता और एक साथ मिलकर इन परिवर्तनों को अनुकूल बनाने एवं इनके विस्तार को कम करने की आवश्यकता को सिद्ध करते हैं। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों के वैज्ञानिक आकलन की अनिश्चितता के सामने रखकर जलवायु परिवर्तन की गम्भीरता को कम करने एवं रुपांतरण के कार्यों को समझना चाहिए। वास्तव में, अनिश्चितता का तत्व लगभग सभी वैज्ञानिक पूर्वानुमानों के साथ जुड़ा हुआ है लेकिन जलवायु परिवर्तन के मामले में यह काफी प्रमुख है। जलवायु परिवर्तन स्थानीय स्तर/सूक्ष्म पैमाने पर लोगों की प्रमुख चिन्ता है।

पर्वतीय क्षेत्र और द्वीप ऐसे क्षेत्र हैं, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे ज्यादा संवेदनशील हैं। वनों से समृद्ध या वनों और जैविक कृषिवानिक व्यवस्था के विकास की सम्भावनाओं से जलवायु परिवर्तन को कम पाने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है। जैव विविधता में समृद्ध क्षेत्र इसीलिए महत्त्वपूर्ण है चूँकि ये फसलों की नई किस्मों को विकसित करने के लिये अनुवांशिक आधार प्रदान करते हैं और पशुधन नस्लें जलवायु परिवर्तन के प्रति प्रतिरोधक क्षमता रखती हैं। इस प्रकार जलवायु परिवर्तन में खाद्य सुरक्षा होती है।

अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की बजाय हिमालय जैसे पर्वतीय क्षेत्र वैश्विक ध्यानाकर्षण का केन्द्र बनते हैं। चूँकि -(1) यह जलवायु परिवर्तन के महत्त्व को प्रदर्शित करता है और क्षेत्रीय जलवायु को नियन्त्रित करता है। (2) यह वैश्विक जैव विविधता के 34 उत्तेजनशील क्षेत्रों में से एक है और यह फसल विविधता के उन 8 केन्द्रों में से एक है। इस प्रकार यह विश्व समुदाय के लिये लाभकारी जैविक संसाधनों को आश्रय देता है। (3) ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद यहाँ के बर्फीले क्षेत्र में सबसे बड़ी जनसंख्या निवास करती हैं, सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, सलवीन और मेकोंग जैसी शक्तिशाली नदियाँ यहाँ करोड़ों गरीब लोगों को आजीविका प्रदान कर उनका भरण-पोषण करती है। (4) यह क्षेत्र अधिकांश/पूर्णतः 8 विकासशील देशों (भारत, चीन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, बंग्लादेश और म्यांमार) से आच्छादित है।

.जहाँ जलवायु परिवर्तन कम करने/अनुकूलन और जैव विविधता के संरक्षण को स्थानीय लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास के साथ जोड़ने की आवश्यकता है। ताकि इसके वैश्विक लाभ के प्रवाह की पोषणीयता सुनिश्चित की जा सके। अर्थात विकसित देश पर्यावरण संरक्षण और स्थानीय लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये सामंजस्य पर प्रमुखता के साथ जोर देते हैं। जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की चिन्ताओं ने हिमालय के 8 विकासशील देशों के साथ-साथ विकसित और विकासशील देशों के बीच भी सहयोग को प्रोत्साहित किया है। हिमालय के वैश्विक महत्त्व को देखते हुए भारत में जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्यान्वयन नीति के हिस्से के रूप में राष्ट्रीय मिशन ‘हिमालय के पर्यावरण को बनाए रखना’ तय किया है। (www.envfor.nic.in., www.dst.gov.in)

समय के साथ यह भी स्वीकार किया गया कि ‘संपोषणीय विकास को प्राप्त करना’ एक आदर्श दृष्टिकोण है और समयबद्ध लक्ष्यों को साकार करने के सम्बन्ध में अभिव्यक्ति की आवश्यकता है। इस स्वीकार्यता के कारण आठवें सहस्राब्दि विकास लक्ष्य तैयार किए गए। संयुक्त राष्ट्र के 8वें उद्देश्य (वैश्विक साझेदारी को प्रोत्साहित करना) को छोड़कर प्रत्येक उद्देश्य के आगे निश्चित लक्ष्य तय किए गए हैं। पर्यावरण पोषणीयता ऐसा लक्ष्य है जो जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ अन्य पर्यावरणीय मुद्दों जैसे जैव विविधता, जल संसाधनों और मानव निवास को आच्छादित करता है। वर्ष 2000 से वर्ष 2015 तक विकास के सामाजिक आर्थिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई है। जैसे भूख, गरीबी, मृत्युदर में कमी और अनिवार्य विकास को प्रोत्साहन लेकिन पर्यावरणीय विकास के क्षेत्र में बहुत सीमित सफलता प्राप्त की जा सकी है। जलवायु परिवर्तन को कम करने और जैव विविधता संरक्षण की दिशा में किए गए प्रयासों को सीमित सफलता मिली है। (तालिका 1) जैव विविधता सभी पर्यावरणीय सेवाओं की आधारशिला है। (अर्थात प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव को पर्यावरण को लाभ पहुँचाने वाली अर्थात प्रावधान सेवाएँ, नियमन सेवाएँ, सहायक सेवाएँ और सांस्कृतिक सेवाएँ) और दोनों मिलकर जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ कई अन्य पर्यावरणीय या आर्थिक आघातों के प्रतिरोध की रीढ़ बनती हैं।

एमडीजी के 8 लक्ष्यों की उपलब्धियों को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 8 एमडीजी के पुनर्गठन और वर्ष 2015-2030 के लिये संपोषणीय विकास के 17 लक्ष्य (एमडीजी) निर्धारित किए हैं। (तालिका 3) पर्यावरणीय पोषणीयता को प्राप्त करने के लिये एमडीजी को पहले से अधिक केन्द्रित 9 एमडीजी के रूप में पुनः पदबद्ध किया गया जो पर्यावरणीय पोषणीयता के बढ़ते महत्त्व और पर्यावरणीय आर्थिक और सामाजिक समस्याओं के अन्तर्संबंध को रेखांकित करते हैं। जलवायु परिवर्तन के समाधान के प्रयास अब विविध पद्धतियों -उत्सर्जन में कमी, जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये गरीबों की क्षमता में वृद्धि और वातावरण की कार्बनडाईऑक्साइड को हटाकर इत्यादि के जरिए किए जाएँगे। देशों का अनिवार्य विकास, संपोषणीय विकास धारणा का एक और तत्व है जिसे एसडीजी की रूपरेखा में सुस्पष्ट लक्ष्य के रूप में पहचान मिली है।

.जलवायु परिवर्तन संपोषणीय विकास के विविध आयामों में से एक है। सभी की इच्छा है कि जलवायु परिवर्तन को कम करके संपोषणीय विकास को प्राप्त किया जाए लेकिन इसके लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये समाधान पर विचारों में भिन्नता है। इसके अलावा वैश्विक स्वीकार्य समाधान तैयार करने के लिये ज्ञान की कमी है और उनके कार्यान्वयन के लिये संसाधनों की भी कमी है। वैश्विक साझेदारी का लक्ष्य सभी को लाभ पहुँचाने के लिये सहयोग के अवसरों का लाभ उठाने के लिये जमीनी कार्य करना है। यूएन-आरईडीडी कार्यक्रम एक ऐसा कार्यक्रम है जो उनके वनों के संरक्षण और उच्च कार्बन भण्डार के जरिए भूमि उपयोग बदलकर विकासशील देशों के लोगों को आय के नए अवसर उपलब्ध कराता है। विकसित देश कार्बन के संरक्षण के लिये पैसा दे रहे हैं और विकासशील देशों के लोग इसे छिपा रहे हैं। चूँकि जलवायु परिवर्तन विकसित और विकासशील देशों दोनों को प्रभावित करेगा, इसलिए यह अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों का निर्णायक अंग बन गया है। पोषणकारी विकास का लक्ष्य इतना विशाल है और जलवायु परिवर्तन की समस्या इतनी जटिल है कि हमें बिना देरी किए, उपलब्ध सर्वोत्तम समाधानों को स्वीकार करना होगा। नए ज्ञान और अनुभव से उपयोग में लाए गए समाधान के परिणामों का निरीक्षण कर उसमें आगे सुधार करना होगा। समस्या के समाधान की एक लोचशील और अनुकूलनीय रणनीति अपनानी होगी।

लेखक जवाहरलाल नेहरू विद्यालय में प्राध्यापक तथा राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी, लीडरशिप इन इनवॉयरन्मेंट एंड डेवलपमेंट और राष्ट्रीय पारिस्थितिकी संस्थान आदि में फेलो हैं। पारिस्थिकी व सतत विकास उनकी पसंद के शोध विषय हैं। ईमेल : kgsaxena@mail.jnu.ac.in; kgsaxena@gmail.com

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