इस आने वाले अजूबे से विश्व में प्रत्येक देश और व्यक्ति केवल अपने संकीर्ण लाभ के लिए ऐसे पागलपन के साथ जूझेगा जिसमें कि अमीर एवं ताकतवर लाभ में रहेंगे एवं कमजोर व गरीबों को हाशिये पर धकेल दिया जाएगा। आवश्यक है कि जो लोग मानवाधिकारों के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं वे उन ताकतों के साथ मिलकर कार्य करें जो कि जलवायु परिवर्तन के लिए कार्यरत हैं, जिससे कि सर्वप्रथम सहयोग एवं एकता की पृष्ठभूमि तैयार हो सके और जलवायु संबंधित छीटाकशी बंद होकर इस संबंध में लागू जंगल के कानूनों को निरस्त किया जा सके।
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद द्वारा जेनेवा में संपन्न सम्मेलन में यह बात उभरकर आई है कि जलवायु परिवर्तन भी मानवाधिकार का एक मुद्दा है। बांग्लादेश की विदेश मंत्री डॉ. दीपू मोनी ने जलवायु से जुड़े विध्वंस से होने वाले विनाश को लोगों के भोजन, पानी, स्वास्थ्य एवं निवास के अधिकार पर खतरा बताया। फिलीपींस भी इतनी ही खतरनाक अवस्था में है। इसके जलवायु परिवर्तन आयुक्त मेरी लुसीली सेरिंग ने बताया कि किस तरह तूफानों एवं बाढ़ से पिछले वर्ष सैकड़ों व्यक्तियों की मृत्यु हुई और देश इन क्षतिग्रस्त क्षेत्रों एवं सम्पत्ति के पुनर्निर्माण पर 8 अरब डॉलर या तो खर्च करने पड़े या इनकी व्यवस्था करना पड़ी। दो दिवसीय बैठक पिछले सितम्बर में मानव अधिकार परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव के मद्देनजर आयोजित की गई थी, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया था कि किस तरह जलवायु परिवर्तन लोगों के लिए तत्काल खतरा उत्पन्न करता है और वे अपने मानवाधिकारों का पूरा लाभ नहीं उठा पाते हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि जलवायु के मुद्दों एवं मानवाधिकारों में किस प्रकार से अंर्तसंबंध बनाए जा सकते हैं।उद्घाटन सत्र के दौरान मैंने अपने उद्बोधन में इस मामले को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘जलवायु परिवर्तन एक जटिल एवं बहुपक्षीय संकट है, जिसमें पर्यावरण, विकास एवं समता तीनों ही शामिल हैं। अतएव इन्हें सम्मिलित रूप से देखना होगा। विकासशील देशों ने भी जलवायु के मामले को गंभीरता से लेना प्रारंभ कर दिया है। तात्कालिक आवश्यकता यह है कि जलवायु से जुड़े प्राकृतिक विध्वंस को आपस में जोड़ा जाए। मौसम के अतिरेक के कई स्वरूप जैसे भारी वर्षा, बाढ़, तूफान एवं झंझावत के मामलों की न केवल संख्या ही बढ़ी है बल्कि इनकी तीव्रता में भी वृद्धि हुई है, जिसके परिणामस्वरूप करोड़ों लोग प्रभावित हुए हैं एवं अरबों डॉलर की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचा है। पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण की ऐसी कोई अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली भी विकसित नहीं हुई है, जो कि इन मामलों में देशों की सहायता कर सके।
विकासशील देशों के सामने इसे लेकर अनेक कठिनाइयां और भ्रम हैं। उन्हें बड़ी मात्रा में संसाधन जलवायु को अपनाने जिसमें विध्वंस से निपटने की तैयारी एवं प्रबंधन और व्यापक नुकसान से निपटने पर खर्च करने पड़ रहे हैं। उन्हें अपने नागरिकों के भोजन, पानी, स्वास्थ्य एवं विकास जैसे मानव अधिकार उपलब्ध करवाने हेतु सामाजिक एवं आर्थिक विकास की आवश्यकता भी है। उन्हें वैश्विक सहमतियों जैसे उत्सर्जन में कमी, वनों का संरक्षण, पुनःचक्रीय ऊर्जा के साथ ही साथ उद्योगों एवं यातायात में सुधार हेतु भी योगदान करना पड़ता है। इसे लेकर विकासशील देश पशोपेश में हैं, कि वे इन आवश्यकताओं एवं अनिवार्यताओं को संसाधनों की कमी के चलते कैसे पूरा कर पाएंगे। यदि निम्न उत्सर्जन वाली प्रणालियां सफलतापूर्वक अपनानी है तो इस हेतु सरकारी कोष में धन की कमी दिखाई पड़ती है वहीं निजी कंपनियां इन्हें अपनाने के लिए मदद चाहती हैं।
वर्ष 1850 से 2010 के मध्य करीब 1300 गीगा टन कार्बनडाई ऑक्साइड का वातावरण में उत्सर्जन हुआ। यदि हम वैश्विक तापमान में परिवर्तन को 2 डिग्री सेल्सियस तक कायम रखना चाहते हैं तो हमें उत्सर्जन 750 गीगा टन तक सीमित करना होगा अन्यथा जलवायु विध्वंस होने की पूरी संभावना है। चूंकि प्रतिवर्ष 40 गीगा टन के हिसाब से उत्सर्जन हो रहा है तो उत्सर्जन के वर्तमान स्तर एवं वृद्धि दर के हिसाब से अगले दो दशकों में वातावरण की कार्बन क्षमता भर जाएगी। इस गंभीर स्थिति में ‘जलवायु न्याय’ को एक सिद्धांत बनाते हुए मानवाधिकारों को मान्यता देने के लिए निम्न बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक है। पहला, ऐतिहासिक जिम्मेदारी विकसित राष्ट्रों की (चूंकि अधिकांश उत्सर्जन उन्हीं की वजह से हुआ है) उनकी अधिक आय और तकनीकी क्षमता को देखते हुए इस मामले में विकसित देशों को अगुवाई करना चाहिए। अतएव उन्हें ही समाधान के प्रयत्नों की पहल करते हुए विकासशील देशों को संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में किए गए वायदे के अनुसार वे वित्त एवं तकनीक उचित मात्रा में उपलब्ध कराए।

बाजार को स्वमेव समस्या के निराकरण की जिम्मेदारी नहीं सौंपी जा सकती। विकसित एवं विकासशील दोनों ही देशों को अपनी आर्थिक नीतियों, तकनीक एवं जीवनशैली में परिवर्तन लाना होगा। ये इन व्यापक परिवर्तनों के लिए वैश्विक स्तर पर समन्वय एवं सहयोग की आवश्यकता है, जो एकता, समानता, न्याय एवं मानव अधिकारों के प्रति सम्मान पर आधारित हों। यदि इस प्रकार की न्यायोचित कार्यवाही नहीं होती तो जलवायु में बहुत ही विनाशकारी परिवर्तन होगे जिसके परिणामस्वरूप जो आर्थिक एवं सामाजिक परिवर्तन होंगे वे अव्यवस्थित, अनियंत्रित एवं बजाए सहयोग के अलगाव पर आधारित होंगे। इस आने वाले अजूबे से विश्व में प्रत्येक देश और व्यक्ति केवल अपने संकीर्ण लाभ के लिए ऐसे पागलपन के साथ जूझेगा जिसमें कि अमीर एवं ताकतवर लाभ में रहेंगे एवं कमजोर व गरीबों को हाशिये पर धकेल दिया जाएगा। आवश्यक है कि जो लोग मानवाधिकारों के संरक्षण का कार्य कर रहे हैं वे उन ताकतों के साथ मिलकर कार्य करें जो कि जलवायु परिवर्तन के लिए कार्यरत हैं, जिससे कि सर्वप्रथम सहयोग एवं एकता की पृष्ठभूमि तैयार हो सके और जलवायु संबंधित छीटाकशी बंद होकर इस संबंध में लागू जंगल के कानूनों को निरस्त किया जा सके।