जलवायु परिवर्तन पर सोचिए

10 Apr 2010
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प्रकृति को कार्बन की विषाक्तकारी ताकत की जानकारी पहले ही हो जानी चाहिए थी : यह लाखों वर्षों से गोपनीय तरीके से धरती को विषाक्त करता रहा है। अब इसका उत्सर्जन उस प्राकृतिक निवास को अस्थिर करने लगा है, जिसमें हम सभी को रहना है। विवेकशील लोग कह सकते हैं कि यह उस तेजी से धरती को क्षति नहीं पहुंचा रहा, जितना कि बताया जा रहा है, लेकिन इस बारे में तो कोई मतभेद ही नहीं है कि यह पृथ्वी को नुकसान पहुंचा रहा है।

मुझे सबसे ज्यादा जो चीज परेशान कर रही है, वह यह है कि हमें वस्तुत: करना क्या चाहिए। जलवायु परिवर्तन पर कोपेनहेगन में हुई बैठक ने मेरी हिचक को बढ़ाया ही है। हालांकि वहां पश्चिम के प्रस्तावों का भारत ने जैसा विरोध किया, और नतीजतन जो अंतरराष्ट्रीय गतिरोध पैदा हुआ, उसने कुछ हद तक मुझे संतोष पहुंचाया। मुझे यह देखकर थोड़ी राहत मिली कि हम भारतीयों ने, जो आधुनिक विश्व के आर्थिक मंचों पर बिन बुलाए मेहमान हैं और काफी देर से पहुंचे हैं, बड़े देशों के आगे समर्पण नहीं किया। इसके बजाय चीन, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के साथ मिलकर हम अपने पैरों पर खड़े रहे और जोर देकर यह बात कही कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की जिम्मेदारी अमीर मुल्कों के साथ-साथ उन गरीब देशों पर समान रूप से नहीं डाली जा सकती, जो पश्चिमी देशों की ज्यादतियों से अब भी पूरी तरह नहीं उबर पाए हैं। उस विश्व मंच पर हम विकसित देशों को यह एहसास कराने में कामयाब हुए कि हमारे कारण नहीं, बल्कि उनके विलासितापूर्ण रहन-सहन की वजह से पृथ्वी का पर्यावरण बिगड़ा है।

इसके बावजूद संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। हम चाहे किसी भी देश में रहते हों और अमीर हों या गरीब, हम उस जलवायु परिवर्तन के खतरे का समाधान निकालने की स्थिति में नहीं पहुंच पाए हैं, जो हम सबके अस्तित्व के लिए खतरा है। यह ठीक है कि कोपेनहेगन में भारत ने पश्चिमी दुनिया का विरोध किया, जिससे विकसित देशों की योजना बिगड़ गई। वे एक ऐसा दिशा-निर्देश तैयार कर रहे थे, जिससे यथास्थिति बनी रहे। पर दिक्कत यह है कि पर्यावरण की बेहतरी का कोई खाका किसी के पास नहीं है। यह स्थिति केवल दुनिया के लिए नहीं, बल्कि भारत के हित में भी नहीं है।

जलवायु परिवर्तन का भारत जैसे देश में भीषण असर होगा, जहां आबादी का बड़ा हिस्सा खेती से जुड़ा और मौसम के मिजाज पर निर्भर है। पानी पहले से दुर्लभ हो चुका है और उसका वितरण भी ठीक नहीं है। हिमालय के ग्लेशियर पिघल ही रहे हैं। ऐसे में, खाद्यान्न उत्पादन सिमटने के साथ-साथ भविष्य में जंगल और पेड़-पौधे भी कम होंगे। समुद्र का जल-स्तर बढऩे के कारण समुद्रतटीय इलाके के लोग पहले ही प्रभावित हैं, भविष्य में भीषण स्थिति आने पर उन क्षेत्रों से भारी संख्या में विस्थापन होगा, जिससे पहले से ही भीड़ भरे हमारे शहरों-महानगरों पर बोझ और बढ़ेगा।

अमेरिका और यूरोप मानते हैं कि कोपेनहेगन में भारत की भूमिका बाधा डालने की रही है। भारत के इस रुख ने पश्चिम के कई देशों को चकित किया है, क्योंकि हम एक उभरती ताकत हैं। पश्चिम के नीति-निर्धारकों के जेहन में एक ही सवाल है : क्या भारत एक जिम्मेदार ताकत बन पाएगा? विकसित देशों का मंतव्य साफ समझ में आता है। दरअसल भारत जी-20 का सदस्य है और अंतरराष्ट्रीय जनमत में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। विकसित देश चाहते हैं कि ताकत बनने के साथ भारत वह जिम्मेदारी भी ले, जो उनके कंधों पर है।

हालांकि हमने ताकतवर देशों के समूह में शामिल होने का प्रस्ताव जिस तरह स्वीकारा, उसी खूबसूरती से उनकी कुटिल मंशा को भांपने में भी सफल हुए। दरअसल वे हमें जाल में फंसाना चाहते हैं, ताकि हमारी स्वतंत्र छवि नष्ट हो जाए। लेकिन हम ऐसे किसी जाल में फंसने को तैयार नहीं हैं, जिससे कि भविष्य का हमारा विकास रुक जाए। पर्यावरण पर अपने कठोर रवैये से भारत ने पश्चिमी दुनिया के सामने एक सवाल खड़ा किया है : शताब्दियों से अपने औद्योगिक विकास के जरिये उसने पर्यावरण का जो नुकसान किया है, क्या वह उसकी सामूहिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार है?

भारत आज विकसित देशों से मांग कर सकता है कि उनके ऊर्जा उपयोग के पिछले स्तर का पर्यावरण पर जो प्रभाव पड़ा, वे उसकी जिम्मेदारी लें। पर इसके साथ ही अब वर्तमान कदमों के आधार पर भावी परिणामों की जवाबदेही भी तय होगी। कोपेनहेगन में भारत के बराबरी के सिद्धांत के साथ ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और चीन जैसे अन्य देश मजबूती के साथ खड़े हुए। पर जब विश्व आबादी की विशाल पट्टी कहे कि हम अपनी प्रगति के मुताबिक अपनी कार्बन कटौती के उपाय खुद ही उठाएंगे, तो हम कितना कुछ खो देंगे? यह एक बेहद गंभीर मसले पर हलकी प्रतिक्रिया है।

अगले महीने समझौते की प्रक्रिया फिर शुरू होगी, जो इस वर्ष के अंत में मेक्सिको में एक सीमारेखा के साथ समाप्त होगी। अब, जब हम इस नए दौर में शामिल होने वाले हैं, तब इस समस्या के समाधान के विकल्प को लेकर बहस में शामिल हमारी राजनीतिक पार्टियों के दंभ ने मुझे हताश ही किया है। पिछले कुछ महीनों में देश में इस गंभीर मसले के सरलीकरण की प्रवृत्ति दिखी है, जिसने इसे संकुचित करके 'राष्ट्रवादी’ हितों के रक्षकों और पश्चिम के आगे बिछने को आतुर लोगों के बीच जंग में तबदील कर दिया है। इसीलिए जब प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्री ने इस विषय पर बहस की स्वयं इच्छा जताई, तो उनके राजनीतिक विरोधी पुरानी सीटी बजाने लगे। सीपीआई की राय में भारत का अपने रुख पर कि 'देश का जलवायु नीति पर अमेरिकी कतार में खड़ा होना और विकासशील देशों की एकता को तोडऩे की नीति’ पर पुनर्विचार करना होगा। भाजपा नेताओं का कहना है कि 'प्रति व्यक्ति सिद्धांत’ में कोई भी बदलाव गरीबों के साथ धोखा है।

बहरहाल, मेरी निगाह में यही वह मौका है, जब भारत भविष्य की जिम्मेदार शक्ति की भूमिका का प्रदर्शन कर सकता है। उसे पारंपरिक गांधीवादी प्रतिरोध की नीति पर चलने के बजाय कोपेनहेगन से भी अधिक कल्पनाशील बनना चाहिए। उदाहरण के लिए, हम अगले 25 वर्षों में कार्बन उत्सर्जन का वास्तविक लक्ष्य निर्धारित कर सकते हैं और हमें अपनी तरक्की को वैश्विक रूप से पारदर्शी इन सीमाओं के भीतर ही संचालित करना चाहिए।

(लेखक आइडिया ऑफ इंडिया नामक चर्चित पुस्तक के लेखक हैं)
 
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