जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित समझौते एवं सम्मेलन

8 Mar 2018
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जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन 7-18 दिसम्बर, 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य बाली कार्य योजना का क्रियान्वयन तथा क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के सम्बन्ध में निर्णय लेना था। यद्यपि सम्मेलन में बाली कार्य योजना तथा क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता के सम्बन्ध में कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं हो सका, तथापि इन विषयों पर चर्चा जारी रखने तथा कानकुन, मैक्सिको में दिसम्बर 2010 में आयोजित होने वाले सम्मेलन में ठोस निर्णय लेने की सम्भावना व्यक्त की गई।

जलवायु परिवर्तन वस्तुतः इस पृथ्वी पर मानव ही नहीं वरन समस्त जीवधारियों के लिये बहुत बड़ा खतरा है। धरती की धारक क्षमता में ह्रास के लिये यह उत्तरदायी है। प्राकृतिक सम्पदा विरल होती जा रही है। यहाँ तक कि पेयजल की आपूर्ति में भी कमी आ रही है। वस्तुतः जलवायु परिवर्तन का प्रभाव वातावरण के साथ-साथ अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। गर्मी एवं वायु प्रदूषण का प्रभाव हमारे जनजीवन पर पड़ा है।

जलवायु परिवर्तन से इस धरती को बचाने की पहल बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से प्रारम्भ हुई जब विश्व के अनेक जागरुक राष्ट्र एकजुट होकर इस दिशा में प्रयास करने को सहमत हुए। वर्ष 1972 में स्वीडन के शहर स्टाकहोम में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा विश्व का पहला अन्तरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें 119 देशों ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू.एन.ई.पी.) का प्रारम्भ ‘एक धरती’ के सिद्धान्त को लेकर किया और एक ‘पर्यावरण संरक्षण का मताधिकार पत्र’ विकसित किया जो ‘स्टाकहोम घोषणा’ के नाम से जाना जाता है। इस समय सम्पूर्ण विश्व में 5 जून को ‘विश्व पर्यावरण दिवस’ के रूप में मनाने की भी स्वीकृति हुई।

इसके पश्चात 5 दिसम्बर, 1980 को ‘संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा’ ने ‘पर्यावरण क्रियान्वयन परिषद’ का विशेष सम्मेलन केन्या की राजधानी नैरोबी में मई (10-18) 1982 में आयोजित किये जाने का निर्णय लिया। तदुपरान्त जून (3-14) 1992 में ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो में ‘पृथ्वी सम्मेलन’ का आयोजन हुआ जो एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ। इस पृथ्वी सम्मेलन में 172 राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने पृथ्वी के तापमान में वृद्धि एवं जैव-विविधता के संरक्षण आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार किया, जिसके फलस्वरूप ‘जलवायु परिवर्तन सहमति’ सम्भव हो पाई।

एजेंडा- 21, जैवमंडल के संरक्षण था आर्थिक समानता लाने के लिये सारे संसार के लिये विकास कार्य योजनाओं को प्रदर्शित करता है। जलवायु परिवर्तन सहमति में पृथ्वी का ताप बढ़ाने वाले गैसों के बढ़ते उत्सर्जन से जलवायु परितर्वन एवं समुद्रों के जलस्तर में वृद्धि के खतरों की ओर भी ध्यानाकर्षण किया गया तथा यह आग्रह किया गया कि विकसित देश इन गैसों के उत्सर्जन को वर्ष 2000 तक वर्ष 1990 के स्तर पर लाने का प्रयास करेंगे।

वर्ष 1997 में 5 जून को ‘द्वितीय पृथ्वी सम्मेलन’ का आयोजन डेनेवर में हुआ, जिसमें वर्ष 1992 में प्रथम ‘पृथ्वी सम्मेलन’ के दौरान लिये गए निर्णयों की समीक्षा की गई और यह पाया गया कि वांछित प्रगति नहीं हो पाई थी। इस सम्मेलन में विभिन्न राष्ट्रों में मतैक्य नहीं हो पाया। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के प्रस्ताव पर अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों ने अपनी सहमति नहीं दी। हाँ, अमेरिका ने यह आश्वासन दिया कि वर्ष 1997 में क्योटो सम्मेलन’ के पूर्व वह अपने प्रयासों एवं संकल्पों का प्रमाण अवश्य देगा।

प्रख्यात ‘क्योटो सम्मेलन’ का आयोजन जापान के क्योटो शहर में दिसम्बर, 1997 ‘भूमंडलीय तापन’ के सम्बन्ध में हुआ। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य वातावरण में हानिकारक गैसों की सान्द्रता की सीमा को नियंत्रित कर जलवायु परिवर्तन के खतरों को टालना था। 178 देशों ने जून, 2008 तक इस लक्ष्य के प्रथम चरण का आकलन 2010 में किया जाना सुनिश्चित किया। परन्तु मात्र 60 प्रतिशत विकसित देशों ने ही इस संधि के प्रति अपनी सहमति दी।

वर्ष 2007 में इंडोनेशिया के बाली द्वीप में जलवायु परिवर्तन एवं वैश्विक तापन के सम्बन्ध में एक सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 180 से अधिक देशों ने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने तथा क्योटो प्रोटोकॉल की समय रेखा समाप्ति के पहले एक नई सहमति (जिससे इन गैसों के उत्सर्जन पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाकर, पृथ्वी को विनाश से बचाया जा सके) तथा अन्य अनेक विषयों पर चर्चा की।

जुलाई, 2009 में इटली में आयोजित औद्योगिक देशों के समूह ‘जी-8’ के शिखर सम्मेलन में जी-8 एवं विकासशील देशों के समूह जी-5 जलवायु परिवर्तन पर सर्वसम्मति से दस्तावेज जारी करने पर सहमत हो गए परन्तु ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 2050 तक घटाकर आधा करने के लक्ष्यों को तय नहीं किया जा सका।

‘कार्बन उत्सर्जन’ कम करने हेतु जिन तकनीकों को प्रयोग किया जाता है, उन्हें ‘हरित तकनीक’ की संज्ञा दी गई है। इस प्रकार यदि देखा जाये तो अर्थव्यवस्था को हरा करने में भारी लागत आती है जो निश्चित रूप से विकासशील देशों पर अतिरिक्त बोझ होगा।

जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन 7-18 दिसम्बर, 2009 में कोपेनहेगन में आयोजित किया गया। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य बाली कार्य योजना का क्रियान्वयन तथा क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के सम्बन्ध में निर्णय लेना था। यद्यपि सम्मेलन में बाली कार्य योजना तथा क्योटो प्रोटोकॉल की दूसरी प्रतिबद्धता के सम्बन्ध में कोई महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं हो सका, तथापि इन विषयों पर चर्चा जारी रखने तथा कानकुन, मैक्सिको में दिसम्बर 2010 में आयोजित होने वाले सम्मेलन में ठोस निर्णय लेने की सम्भावना व्यक्त की गई।

इस सम्मेलन में कई प्रत्यक्षदर्शियों को यह आभास हुआ कि विकसित देश 2012 के बाद की अवधि में क्योटो प्रोटोकॉल की प्रतिबद्धता से भागना चाहते हैं। परन्तु विकासशील देशों के दबाव में वह ऐसा नहीं कर सके। अन्ततः इस विषय पर चर्चा जारी रखने का निर्णय लिया गया और यह उम्मीद बनी की कानकुन में आयोजित होने वाले सम्मेलन में कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम अवश्य निकलेंगे

यद्यपि कोपेनहेगन सम्मेलन अपने लक्ष्यों तक पहुँचने में सफल नहीं रहा, परन्तु ‘वैश्विक और राष्ट्रीय उत्सर्जन लक्ष्य यथाशीघ्र प्राप्त करने में सहयोग’ करने के सम्बन्ध में समझौता अवश्य हुआ। इस समझौते में विकासशील देशों की महत्त्वपूर्ण प्राथमिकताओं को अवश्य ध्यान में रखा गया है, जो सामाजिक और आर्थिक विकास तथा गरीबी उन्मूलन से जुड़ी हैं। विकासशील देशों के लिये यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।

 

सारिणी-10.1


जलवायु परिवर्तन के सन्दर्भ में कुछ अन्तरराष्ट्रीय प्रयास

1972

स्टॉकहोम सम्मेलन (यूनेप का गठन)

1987

मांट्रियल समझौता

1988

आईपीसीसी की स्थापना

1990

आईपीसीसी की पहली रिपोर्ट प्रकाशित हुई

1992

रियो-डि-जेनेरो में एजेंडा- 21 की घोषणा

1995

बर्लिन सम्मेलन

1996

जेनेवा सम्मेलन

1997

क्योटो समझौता

1998

क्योटो समझौता का पुनरावलोकन (ब्यूनस आयर्स में)

2002

जोहान्सबर्ग में पृथ्वी- 10 नामक सम्मेलन आयोजित किया गया। यूरोपीय संघ, जापान समेत कई देशों ने क्योटो समझौते की पुष्टि की, लेकिन अमेरिका एवं ऑस्ट्रेलिया इसमें शामिल नहीं हुए

2004

रूस भी क्योटो समझौते पर सहमत

2005

मांट्रियल वार्ता जारी

2006

नैरोबी सम्मेलन

2007

जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी की चौथी रिपोर्ट जारी

2007

बाली सम्मेलन

2008

बैंकॉक सम्मेलन

2009

कोपेनहेगन सम्मेलन

2010

कानकुन सम्मेलन

2011

डरबन सम्मेलन

2012

दोहा सम्मलेन

 

कोपेनहेगन समझौता


जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित क्योटो समझौता के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज की 15वीं बैठक डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में 7 से 18 दिसम्बर तक आयोजित की गई। यह समझौता, जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में सफल रहा या विफल, यह इस बात पर निर्भर है कि इसे किस रूप में देखा जाता है।

कोपेनहेगन घोषणापत्र पहली बार चीन, भारत और दूसरे विकासशील देशों को अमेरिका के साथ एकजुट करने में सफल रहा। यह इस समझौते की सबसे बड़ी सफलता है क्योंकि क्योटो समझौते में यह नहीं हो पाया था और अमेरिका ने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। कोपेनहेगन समझौते के अनुसार विकसित देश वर्ष 2020 तक प्रतिवर्ष 100 अरब डॉलर एकत्रित करने का प्रयास करेंगे जिससे विकासशील देशों को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती में मदद की जाएगी।

दिसम्बर, 2007 में बाली में कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के अधिवेशन के दौरान यह निष्कर्ष निकला था कि वर्ष 2012 के बाद भी क्योटो समझौते को आगे बढ़ाया जाएगा, पर कोपेनहेगन में इस पर सहमति नहीं हो पाई। कोपेनहेगन समझौते के मुख्य बिन्दु इस प्रकार से हैं:

1. जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने और पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में वर्ष 2050 तक तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से कम वृद्धि के लिये एक उद्देश्य पर अपनी क्षमता के अनुसार देशों की अलग-अलग जिम्मेदारी तय की गई।

2. ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करना, जिससे विश्व के औसत तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि न हो।

3. विकसित देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कितनी कटौती करेंगे और विकासशील देशों की इस दिशा में क्या पहल या योजना है- संयुक्त राष्ट्र को 31 जनवरी, 2010 के पहले सूचित करना।

4. गरीब देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने के लिये 2010 से 2012 के बीच 30 अरब डॉलर की धनराशि उपलब्ध कराई जाएगी, जबकि 2020 से यह राशि बढ़ाकर 100 अरब डॉलर सालाना की जाएगी।

5. संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में ‘कोपेनहेगन ग्रीन क्लाइमेट फंड’ बनाया जाएगा जो विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित परियोजना में मदद करेगा।

6. अन्तरराष्ट्रीय सहयोग से चलने वाले विकासशील देशों में ग्रीनहाउस गैसों की कटौती से सम्बन्धित परियोजनाओं की निगरानी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर की जाएगी।

7. विकासशील देशों में वनों के संरक्षण की योजनाओं को आर्थिक मदद के लिये कोष को त्वरित प्रभाव से स्थापित करने की योजना।

8. इस समझौते का आकलन 2015 में किया जाएगा और यह समझने का प्रयास किया जाएगा कि तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सिस तक रखा जाये या इससे 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जाये।

2008 में जलवायु परिवर्तन पर विकसित राष्ट्रों ने नेतृत्व प्रदान करते हुए 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, लेकिन उसे भी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने एक तरह से अनदेखा ही कर दिया था, गौर से देखा जाये, तो विकसित राष्ट्रों का मंतव्य 1990 के क्योटो प्रोटोकाल से अलग नहीं है, जिसमें कहा गया था कि 2020 तक विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कमी करेंगे, लेकिन अमेरिका और क्योटो प्रोटोकॉल के सबसे बड़े पैरोकार जापान ने गैस उत्सर्जन में कटौती करने का वायदा नहीं निभाया।

इस समझौते की पहल अमेरिका के नेतृत्व में चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, फ्रांस, जर्मनी और यूनाइटेड किंगडम द्वारा की गई जबकि वेनेजुएला, बोलिविया, इक्वाडोर और क्यूबा जैसे देश इसके विरोध में थे। वर्ष 1997 में जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित क्योटो समझौता किया गया था पर इससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती पर विशेष असर नहीं पड़ा और इंटरनेशनल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने प्रत्येक रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन की भयावह तस्वीर पेश की। वैसे भी क्योटो समझौते के अन्तर्गत कुछ विकसित देशों को ही ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने को कहा गया था और यह समझौता वर्ष 2012 में समाप्त होने वाला है। इसीलिये जलवायु परिवर्तन पर एक नए समझौते की आवश्यकता थी।

औद्योगिक युग के आरम्भ से अब तक विश्व के औसत तापमान में 0.76 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो चुकी है और इसका प्रभाव भी विश्व के कुछ हिस्सों में देखा जाने लगा है। कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसें वायुमंडल में दशकों तक सुरक्षित रहती हैं, और इसकी सान्द्रता वर्तमान में भी अत्यधिक है, इसलिये तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना एक बड़ी चुनौती होगी और अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि बिना किसी कानूनी प्रावधान के इस चुनौती का सामना करना असम्भव है।

क्योटो समझौते को अब तक 187 देशों ने स्वीकार किया है। विकसित देशों के कुल उत्सर्जन में से 35 प्रतिशत के लिये अमेरिका जिम्मेदार है और इसने अभी तक इस समझौते को स्वीकार नहीं किया है।

इसके बाद नवम्बर 1998 में ब्यूनस आयर्स में, नवम्बर 1999 में बॉन में, और हेग में 13 से 25 नवम्बर, 2000 को कांफ्रेंस ऑफ दॅ पार्टीज के अधिवेशन हुए। पर, इन अधिवेशनों की उपलब्धियाँ लगभग नगण्य रही हैं और इस विषय पर विकसित और विकासशील देशों के बीच खाई बढ़ती गई।

23 जुलाई, 2001 को जर्मनी की राजधानी बॉन में 180 देशों के प्रतिनिधियों ने एक सप्ताह के वाद-विवाद और विचार-विमर्श के बाद जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिये एक अन्तरराष्ट्रीय समझौते की तरफ एक कदम आगे बढ़ाया। इस एक सप्ताह के अधिवेशन के दौरान 1997 में आयोजित बहुचर्चित क्योटो सम्मेलन के समझौते के कार्यान्वयन के लिये व्यापक राजनैतिक आधार तैयार किया गया।

संयुक्त राष्ट्र के फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑफ क्लाइमेट चेंज के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर माइकल जमित कुट्जर के अनुसार, इस समझौते के बाद विकसित देशों की सरकारों और उद्योगों पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर शीघ्र नियंत्रण के लिये दबाव बनेगा। विकासशील देशों की सरकारों के लिये अगला कदम इसे कानूनी मान्यता देना है, जिससे 2020 तक इस समझौते को स्वीकार किया जा सके।

कॉप 6 (बॉन, 2001) और कॉप 7 (मोरक्को, 2001) में ‘कार्बन व्यापार’ पर विस्तृत चर्चा की गई। इसके बाद कॉप 8 (नई दिल्ली, 2002), कॉप 9 (मिलान, 2003) और कॉप 10 (ब्यूनस आयर्स, 2004) में कुछ विशेष नहीं हुआ। वर्ष 2005 से कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज के साथ ही मीटिंग आटॅफ पार्टीज टू द क्योटो प्रोटोकॉल (एमओपी) भी आयोजित की जाती है।

कॉप 11/एमओपी 1 (मांट्रियल, 2005) में पहली बार 2012 के बाद भी क्योटो समझौते को लागू रखने और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में अधिक कटौती करने पर चर्चा की गई। कॉप 12/एमओपी 2 (नैरोबी, 2006) में पहली बार ‘क्लाइमेट टूरिस्ट’ भी चर्चा का विषय रहा। कॉप 13/एमओपी 3 (बाली, 2007) में ‘बाली रोडमैप’ तैयार किया गया जिसे वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में स्वीकृति मिलनी थी। इस रोडमैप में कार्बन उत्सर्जन में और कटौती, वनों द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड में कमी लाने, विकसित देशों द्वारा कार्यान्वयन में सहयोग, अल्पविकसित देशों को इस कार्य के लिये मदद, प्रौद्योगिकी, आर्थिक सहयोग आदि को शामिल किया गया था। पोजनान, पोलैंड में कॉप 14/एमओपी4 (वर्ष 2008) अधिवेशन के दौरान देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के लिये मदद के तरीकों पर विस्तृत चर्चा की गई। इसके बाद कॉप 15/एमओपी 5 (वर्ष 2009) में कोपेनहेगन में आयोजित किया गया।

यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज


(यू एन एफ सी सी) एक अन्तरराष्ट्रीय समझौता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है। यह समझौता जून, 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के दौरान किया गया था और इसे हस्ताक्षर के लिये 9 मई, 1992 से रखा गया और दिसम्बर, 2009 तक कुल 192 देश इसे स्वीकार कर चुके हैं। वर्ष 1995 से यूएनएफसीसी की वार्षिक बैठक लगातार आयोजित की जा रही है। इसके तहत वर्ष 1997 में बहुचर्चित क्योटो समझौता हुआ और विकसित देशों (एनेक्स 1 में शामिल देश) द्वारा ग्रीन हाउस गैसों को नियंत्रित करने के लिये लक्ष्य बनाया गया। यूएनएफसीसी की वार्षिक बैठक को कान्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप) के नाम से जाना जाता है।

वर्ष 1979 में प्रथम विश्व जलवायु सम्मेलन के दौरान जलवायु परिवर्तन एक गम्भीर चर्चा का विषय रहा। 1988 में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की स्थापना हुई। और 1991 से फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज (एफसीसीसी) के तहत जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित अन्तरराष्ट्रीय समझौते के प्रयास आरम्भ किये गए। इसे जून 1992 में रियो डि जेनेरो में आयोजित यूनाइटेड नेशन्स कांफ्रेंस ऑन एनवायरन्मेंट एंड डेवलेपमेंट के दौरान मान्यता दी गई और 21 मई 1994 से लागू हुआ।

एफसीसीसी का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण में ग्रीन हाउस गैसों की सान्द्रता को स्थिर रखने के लिये एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाना है, जिससे जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिक-तंत्र प्रभावित न हो, कृषि उत्पादन को खतरा न हो और आर्थिक विकास सतत तरीके से चलता रहे। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये विकसित देशों से कहा गया कि वे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन वर्ष 2000 में 1999 के स्तर तक लाएँ। कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज टू द कन्वेंशन के प्रथम अधिवेशन (सी ओ पी-1) में यह स्वीकार किया गया कि उत्सर्जन में इतनी कटौती सम्भव नहीं है। और इनसे दीर्घकालीन उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हो सकती है।

1996 तक यह स्पष्ट हो गया कि अमेरिका और यूरोपीय समुदाय के देश 2000 तक 1990 के स्तर तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती नहीं कर पाएँगे। दिसम्बर 1997 में एफसीसीसी ने जापान के क्योटो शहर में ऐतिहासिक समझौते को स्वीकृत किया। इसमें 6 प्रमुख ग्रीन हाउस गैसों- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रो क्लारो फ्लोरो कार्बन, परफ्लोरो कार्बन और सल्फर हैक्साफ्लोराइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करना था।

क्योटो में विश्व के लगभग भी देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए और इसमें ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 1990 के स्तर से अमेरिका को 7 प्रतिशत, जापान को 6 प्रतिशत और यूरोपीय समुदाय के देशों को 8 प्रतिशत कटौती करने को कहा गया। अमेरिका ने इस स्तर तक पहुँचने के लिये 2008 से 2013 के बीच के पाँच वर्षों की समय सीमा को तय किया।

अमेरिका ने इस समझौते पर तब तक हस्ताक्षर करने से मना किया था जब तक सभी विकासशील और अल्पविकसित देश इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं करते। अमेरिका ने इस अधिवेशन में ‘कार्बन व्यापार’ के लिये भी पहल की इसके अन्तर्गत तय सीमा से कम उत्सर्जन वाले देश, अधिक उत्सर्जन वाले देशों से उत्सर्जन व्यापार परमिट खरीद सकते हैं।

कानकुन सम्मेलन


जलवायु वार्ताओं में दो शब्दों का प्रमुखता से इस्तेमाल होता रहा है। ये हैं- कटौती (मिटिगेशन) और अनुकूलन (एडैप्टेशन)। मिटिगेशन का सीधे तौर पर मतलब उन गैसों के उत्सर्जन में कटौती से रहा है, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है। एडैप्टेशन का मतलब धरती पर ऐसे उपाय करने से है, जिनसे जलवायु संकट के असर को कम किया जा सके। क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण को ताक पर रखने के साथ मिटिगेशन की बात एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दी गई है।

कानकुन में एडैप्टेशन के बारे में भी कोई खाका तैयार नहीं हो सका। इसके दो खास पहलू एजेंडे पर थे- हरित टेक्नोलॉजी मुहैया कराना और हरित कोष (ग्रीन फंड) का ढाँचा तैयार करना। स्मरण रहे, कोपेनहगन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गरीब और जलवायु परिवर्तन की वजह से खतरे में पड़ रहे देशों की मदद की खातिर 2020 तक के लिये सौ अरब डॉलर का हरित कोष तैयार करने की घोषणा की थी। लेकिन कानकुन में यह तय नहीं हो सका कि इसमें कौन देश कितने रकम और कब देगा और उस रकम से मदद देने का तरीका क्या होगा। कानकुन में सिर्फ एक बात यह उभर कर सामने आई कि यह मदद यूएनएफसीसीसी के जरिए ही दी जाएगी।

जहाँ तक हरित टेक्नोलॉजी का सवाल है, वह सीधे तौर पर बौद्धिक सम्पदा अधिकार व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। विकासशील देशों की माँग रही है कि धनी देश ऐसी टेक्नोलॉजी को पेटेंट से मुक्त करें, ताकि गरीब देश इन्हें अपनाकर अपने यहाँ ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटा सकें। लेकिन कानकुन घोषणापत्र में इस मुद्दे का कोई जिक्र नहीं हुआ।

इस नाकामी का नतीजा यह है कि इस सदी के अन्त तक धरती के तापमान को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से दो डिग्री से ज्यादा न बढ़ने देने का संकल्प खोखला नजर आता है। इसके परिणामों का आज बेहतर अनुमान है, लेकिन मुनाफे और उपभोग का स्वार्थ ऐसा है कि कल के लिये हल्की-सी भी कुर्बानी देने को धनी देश तैयार नहीं हैं।

कानकुन समझौता- एक नजर में क्या हुआ हासिल


1. सभी देश करेंगे उत्सर्जन में कटौती।
2. निर्वनीकरण रोकने के उपाय अपनाने वाले देशों को वित्तीय सहायता प्रदान करने पर रजामंदी।
3. विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये 30 बिलियन डॉलर की वित्तीय सहायता निकट भविष्य में तथा कालान्तर में 100 बिलियन डॉलर के वित्त पोषण का प्रावधान।
4. पर्यावरण रखरखाव के लिये मुख्यतः विकासशील देशों को नियंत्रण वाले संयुक्त राष्ट्र कोष की स्थापना।
5. कम कार्बन उत्सर्जन वाली तकनीक एवं प्रौद्योगिकी विकासशील एवं अविकसित देशों को उपलब्ध कराए जाने पर सहमति।
6. चीन एवं अमेरिका समेत सभी बड़े राष्ट्र अपने पर्यावरण रखरखाव सम्बन्धी प्रयासों के अन्तरराष्ट्रीय मूल्यांकन पर सहमत।
7. पाँच वर्ष के बाद समूची प्रक्रिया के वैज्ञानिक विश्लेषण का निर्णय।

क्या नहीं हुआ हासिल


8. विश्व व्यापी, सघन तथा कानूनी रूप से बाध्य उत्सर्जन कटौती सम्बन्धी समझौता।
9. और अधिक उत्सर्जन कटौती पर विचार विमर्श हेतु किसी कार्यनीति पर सहमति।
10. किसी भी नए विश्व व्यापी समझौते (पर्यावरण/जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी) की संवैधानिकता पर कोई निर्णय।

पश्चिमी देश खासकर अमेरिका अपने ऊपर कार्बन डाइऑक्साइड कम करने का बन्धन नहीं चाहता, यद्यपि क्योटो प्रोटोकॉल के तहत दुनिया के 40 देशों को 2008-12 की अवधि में ग्रीनहाउस गैस का स्तर कम कर 1990 के स्तर तक ले जाना है, हालांकि कानकुन में सम्पन्न हुए सम्मेलन मेें विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों के बीच विकसित राष्ट्रों द्वारा वर्ष 2020 तक 25 से 40 प्रतिशत तक उत्सर्जन कम करने का झिलमिल समझौता हुआ है, लेकिन गैस उत्सर्जित करने वाले सबसे बड़े देश अमेरिका ने वर्ष 2020 तक उत्सर्जन में 2005 के स्तर से केवल 17 फीसदी कमी करने का वायदा कर सम्मेलन के लक्ष्य को फीका कर दिया, चीन भी इस प्रकार के समझौते के प्रति उदासीन है, विकासशील देशों के आँसू पोंछने के लिये केवल 10 अरब डॉलर के हरित कोष की स्थापना की बात कही गई, जो गैस उत्सर्जन की कमी कर रहे देशों को तकनीक के साथ-साथ अन्य विकल्प भी सुझाएगा।

1997 में धनी देश उत्सर्जन में छोटी कटौती पर सहमत हो गए थे, लेकिन वे उस पर अमल नहीं कर सके, वर्ष 1990 से 2005 के बीच इन देशों का उत्सर्जन 11 प्रतिशत बढ़ा है, वहीं इसके लिये विकास मेें प्रयुक्त ईंधन की बढ़ोत्तरी 15 फीसदी तक हुई है, ऑस्ट्रेलिया का कार्ब उत्सर्जन 37 प्रतिशत बढ़ा और अमेरिका का 20 फीसदी। ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े उद्योगों का उत्सर्जन 24 प्रतिशत बढ़ा जबकि यातायात जनित उत्सर्जन 28 फीसदी।

गौरतलब है कि 2008 में जलवायु परिवर्तन पर विकसित राष्ट्रों ने नेतृत्व प्रदान करते हुए 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी करने का लक्ष्य निर्धारित किया था, लेकिन उसे भी तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने एक तरह से अनदेखा ही कर दिया था, गौर से देखा जाये, तो विकसित राष्ट्रों का मंतव्य 1990 के क्योटो प्रोटोकाल से अलग नहीं है, जिसमें कहा गया था कि 2020 तक विकसित राष्ट्र अपने कार्बन उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत की कमी करेंगे, लेकिन अमेरिका और क्योटो प्रोटोकॉल के सबसे बड़े पैरोकार जापान ने गैस उत्सर्जन में कटौती करने का वायदा नहीं निभाया।

आश्चर्य की बात है कि यूरोपीय देश उपदेश दे रहे हैं कि यदि भारत, चीन और ब्राजील गैसों के उत्जर्सन को नियंत्रित कर लें, तो वे अपना उत्सर्जन स्तर 2020 क 20 प्रतिशत और 2030 तक 30 प्रतिशत कम कर देंगे, भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन अभी मात्र 0.97 है, यह अमेरिका के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन का चार प्रतिशत, जर्मनी का आठ प्रतिशत इंग्लैंड का नौ प्रतिशत और जापान का 10 प्रतिशत है, ऐसे में विकसित देशों के उपदेश पर सिर्फ हँसा जा सकता है, भारत का यह तर्क उचित है कि विकासशील देश होने के नाते अभी उसे औद्योगिक विकास की आवश्यकता है।

कानकुन सम्मेलन में विकसित राष्ट्रों की मंशा कुछ और ही थी, दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक देशों के समूह जी-आठ की यह बैठक मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन के बहाने बहुत बड़े पूँजी निवेश से तैयार की गई मशीनरी को बेचने के लिये बाजार ढूँढने के लिये आयोजित थी। सर्वाधिक उत्सर्जन विकसित देश ही कर रहे हैं, अब विकासशील देशों की बारी आई। तो वे परेशान भी हुए और उन्हें एक नया बाजार भी दिखा। स्वच्छ तकनीक के नाम पर इन देशों ने नए-नए उपकरण, नई-नई मशीनें तैयार की हैं। लेकिन ये बिकें कैसे, इसके लिये रास्ता ढूँढा जा रहा था।

गैस प्रतिरोधी उपाय अपनाने का सबसे ज्यादा दबाव अमेरिका और चीन पर होना चाहिए लेकिन अमेरिका इस पर अड़ा रहा है कि चीन और भारत पर भी अंकुश लगाना चाहिए। उसका तर्क है कि दोनों विकासशील देश इन गैसों के उत्सर्जन में और आगे बढ़ेंगे, वे विकास की दौड़ में तेजी से अग्रसर हैं, ग्रीनहाउस उत्सर्जन की बड़ी मात्रा ऊर्जा निर्माण के लिये जलने वाले ईंधन के कारण है। इसके लिये औद्योगिक देश ही जिम्मेदार हैं, लेकिन उनके लिये उत्सर्जन में कमी करना मुश्किल है।

वर्ष 1997 में धनी देश उत्सर्जन में छोटी कटौती पर सहमत हो गए थे, लेकिन वे उस पर अमल नहीं कर सके, वर्ष 1990 से 2005 के बीच इन देशों का उत्सर्जन 11 प्रतिशत बढ़ा है, वहीं इसके लिये विकास मेें प्रयुक्त ईंधन की बढ़ोत्तरी 15 फीसदी तक हुई है, ऑस्ट्रेलिया का कार्ब उत्सर्जन 37 प्रतिशत बढ़ा और अमेरिका का 20 फीसदी। ऊर्जा क्षेत्र से जुड़े उद्योगों का उत्सर्जन 24 प्रतिशत बढ़ा जबकि यातायात जनित उत्सर्जन 28 फीसदी।

कानकुन सम्मेलन ने तीन अनुत्तरित सवाल अपने पीछे छोड़ दिये हैं। पहला तो यही कि विकासशील देशों में उत्सर्जन कम करने की निगरानी तभी सम्भव होगी, जब कटौती के लिये पश्चिमी देश पैसा देंगे। दूसरा यह है कि क्योटो प्रोटोकाल का भविष्य क्या होगा? इसे भविष्य का लेकर सर्वाधिक विवाद है। इसमें विकसित देशों से 2012 तक उत्सर्जन कम करने के लिये कहा गया था, समझौते में क्योटो प्रोटोकॉल 2012 के बाद बढ़ाने की बात नहीं थी।

तीसरा प्रश्न यह कि विकसित देशों के लिये लक्ष्य कैसे निर्धारित होंगे। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने के लिये विकसित देशों के लक्ष्य को लेकर अस्पष्टता है। समझौते का विरोध करने वाले एकमात्र देश बोलिविया ने भी अमीर देशों से 2017 तक उत्सर्जन को 1990 के स्तर से आधा करने की माँग की।

डरबन सम्मेलन


28 नवम्बर से 9 दिसम्बर, 2011 के दौरान डरबन में जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित सम्मेलन का आयोजन किया गया। इस सम्मेलन में भारत ने यह स्पष्ट कर दिया कि वर्तमान में भी भारत का उत्सर्जन बहुत कम है (1.7 मीट्रिक टन प्रति व्यक्ति)। अगर 8 से 9 प्रतिशत की दर से भी भारत विकास करे तो सन 2030 में उत्सर्जन केवल 3.7 मीट्रिक टन प्रतिव्यक्ति होगा, जो विकसित राष्ट्रों की वर्तमान दर से भी कई गुना कम होगा।

भारत ने यह मान लिया कि सन 2020 के बाद के लिये होने वाले समझौते में वह शामिल हो सकता है, अगर विकसित देश अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करें। उन्हें न्यूनीकरण के लिये वित्त प्रदान करना चाहिए। उनके पास जो बेहतर प्रौद्योगिकी है उनको विकासशील देशों को मुहैया कराना चाहिए, बौद्धिक सम्पदा अधिकार में ढील देनी चाहिए तथा विकासशील देशों के साथ व्यापार में वे जो एकतरफा रुकावटें लगाते हैं उनको समाप्त कर देना चाहिए।

भारत द्वारा उठाए गए दो मुद्दों को डरबन में पर्याप्त स्थान मिला। वे थे साम्य या समदृष्टि तथा एकतरफा कार्बन कर। परन्तु बौद्धिक सम्पदा अधिकार तथा बेहतर प्रौद्योगिकी के मामलों में भारत को पीछे हटना पड़ा क्योंकि कई विकासशील देश भी इसके पक्ष में नहीं थे।

डरबन में कई बातें स्पष्ट हो गईं। एक तो यह कि इस असमान विश्व में कार्बन उत्सर्जन को कम करना आसान नहीं होगा। वैसे वहाँ साम्य का मुद्दा जो बीच में कमजोर पड़ गया था, फिर से उठा और यह आशा करना गलत नहीं होगा कि भविष्य में जो भी समझौता होगा उसमें यह मुद्दा शामिल होगा। जहाँ तक नए समझौते की बात है तो छोटे द्वीपीय देश तथा बहुत अधिक पिछड़े देश चाहते थे कि सन 2013 तक समझौता हो जाना चाहिए। उस समझौते का मुख्य लक्ष्य होगा अल्पीकरण अर्थात उत्सर्जन को कम करना।

यूरोपीय संघ तथा अमेरिका का विचार था कि नए समझौते को सन 2015 से सन 2020 तक स्थगित रखा जाये। अन्त में यह तय हुआ कि नई व्यवस्था सन 2015 तक तैयार होगी परन्तु वह लागू होगी सन् 2020 या उसके बाद से। इस प्रकार सभी देशों के पास कम-से-कम तीन वर्ष का समय होगा कि वह निर्णय ले सकें कि वह किस सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएगा 2020 से जब यह समझौता लागू होगा। नए समझौते में भागीदार बनने के लिये चीन ने पाँच शर्तें रखी थीं। उसमें एक शर्त यह भी थी कि क्योटो समझौते की अवधि बढ़ाई जाये। ऐसा ही हुआ। भारत तथा चीन ने अपनी वित्त सम्बन्धी माँग को भी काफी हद तक मनवाया।

डरबन में वित्तीय मामलों पर भी काफी चर्चा हुई। अन्त में ऐसा लगा कि विकासशील देशों की माँग अर्थात हरित जलवायु कोष (ग्रीन क्लाइमेट फंड) अब एक वास्तविकता का रूप लेगी। इस कोष का उद्देश्य है विकासशील देशों की आर्थिक सहायता, ताकि वे जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये तैयार कर सकें। कानकुन में यह तय पाया था कि एक अन्तवर्ती समिति का गठन होगा जो उस कोष को रूपरेखा तैयार करेगी। फिर चालीस देशों की समिति ने एक रूपरेखा प्रस्तुत की।

आम धारणा यह है कि वह रूपरेखा बिल्कुल आदर्श तो नहीं है परन्तु उसकी सहायता से कोष को आरम्भ किया जा सकता है। उस कोष में कुल एक सौ अरब अमेरिकी डॉलर जमा होने हैं। वैसे अभी तक जो कुछ जमा हुआ है वह बहुत कम है। परन्तु डरबन में जर्मनी तथा डेनमार्क ने वाद किया कि वह 550 लाख यूरो का योगदान देंगे जो सन 2012 से उपलब्ध होगा। वह भी एक कारण था जिसकी वजह से बहुत से विकासशील देशों ने यूरोपीय संघ के प्रस्तावों का समर्थन किया। वैसे उन देशों की माँग है कि जल्दी ही 30 अरब डॉलर की व्यवस्था हो तथा आगे चलकर पूरा 100 अरब डॉलर का कोष बनाया जाये।

उसी की उम्मीद में बहुत से छोटे तथा गरीब देशों ने भारत, ब्राजील तथा चीन को अलग-थलग कर दिया। कारण स्पष्ट है उस कोष का उपयोग होता है अनुकूलन तथा उत्सर्जन को घटाने के लिये खासकर उन जगहों या देशों में जो जलवायु में होने वाले परिवर्तन से अधिक प्रभावित होंगे। वह छोटे तथा कम विकसित एवं आसानी से क्षतिग्रस्त होने वाले देशों के लिये एक बहुत बड़ा मुद्दा रहा फिर इस पर बहस छिड़ी कि कोष का संचालन किस प्रकार होगा।

अन्त में यह तय हुआ कि वह कोष एक स्वायत्त संस्था के रूप में यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) के अधीन होगा। उस संस्था में आधे प्रतिनिधि विकसित देशों से तथा आधे विकासशील देशों से होंगे। अमेरिका चाहता था कि उस कोष को विश्व बैंक या ग्लोबल एनवायरन्मेंट फंड के अधीन रखा जाये। परन्तु वह हो नहीं सका।

डरबन में यह भी तय हो गया कि क्योटो समझौते को आगे जारी रखा जाएगा। 194 देशों ने इस पर सहमति जताई जो कि एक बड़ी उपलब्धि है। अन्यथा सन 2012 के बाद इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट रास्ता नहीं होता। अब 2017 तक के लिये वह समझौता लागू रहेगा और तब तक नया समझौता भी अपना रूप ले लेगा चाहे वह लागू 2020 से ही हो। वैसे कनाडा ने स्वयं को क्योटो समझौते से अलग कर लिया है। परन्तु इस कारण बहुत अधिक अन्तर पड़ने की सम्भावना कम है।

दोहा सम्मेलन


दोहा में हुई 18वीं बैठक काफी महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि दिसम्बर 2012 की समाप्ति के साथ ही क्योटो संधि भी समाप्त होने वाली थी। क्योटो संधि को वर्ष 1997 में स्वीकार किया गया था। वह अकेला ऐसा समझौता था जिसके अनुसार विकसित देशों को ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन में कमी करना था और जो बाध्यकारी था। इसके अतिरिक्त दोहा में हो रही बैठक पर इस बात की भी जिम्मेदारी थी कि लम्बे समय के लिये किस प्रकार वित्त की व्यवस्था की जाये ताकि विकासशील देशों को सहायता मिल सके और वे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से सुरक्षित रह सकें तथा उस कार्य में अपना योगदान दे सकें।

वर्ष 2020 के लिये लक्ष्य था 100 अरब डॉलर प्रतिवर्ष की व्यवस्था करना। इस समय उस लक्ष्य से हम बहुत दूर हैं। यही कारण था कि यू.एन.एफ.सी.सी. की प्रशासक सचिव क्रिस्टाना फिगुइरेस ने यह कहा कि हमारे पास अब समय कम था और हमें ठोस कदम उठाने के आवश्यकता थी। जहाँ तक वित्त तथा प्रौद्योगिकी का प्रश्न था तो विश्व स्तर पर वह सब कुछ उपलब्ध है जिससे पृथ्वी के औसत तापमान को 20 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ने नहीं दिया जाये।

इस पृष्ठभूमि में दोहा मेें 18वीं बैठक हो रही थी। जहाँ तक यू.एन.एफसी.सी. का प्रश्न है तो वह यह कि संधि के साथ 195 सदस्य हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि वह संधि विश्वव्यापी है। इसी संधि के कारण सन 1997 में क्योटो संधि पर सहमति हो सकी थी। क्योटो संधि को यू.एन.एफ.सी.सी. के 195 में से 193 सदस्यों का समर्थन हासिल है। उस संधि के अन्तर्गत 37 देश, जो उद्योग के क्षेत्र में बहुत विकसित हैं, पर उत्सर्जन को कम करने के लिये बाध्य हैं।

बाली में जो कार्यक्रम तैयार होना आरम्भ हुआ था उसका उद्देश्य था औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों के लिये उत्सर्जन में कमी की रूपरेखा तैयार करना जो क्योटो संधि के अन्तर्गत शामिल नहीं थे। उस श्रेणी में अमेरिका भी है। साथ ही विकासशील देश, जिन पर क्योटो संधि के अन्तर्गत कोई जिम्मेदारी नहीं थी, के लिये स्वेच्छा से उत्सर्जन में कमी की रूपरेखा बनाना। इसके अतिरिक्त जलवायु में परिवर्तन के कारण जिन देशों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। वे किस प्रकार उनके लिये तैयारी कर सकते हैं यह विषय भी उसी कार्य क्षेत्र में आता है।

इन सभी प्रकार के पहल का उद्देश्य एक ही है कि वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को ऐसे स्तर पर रखा जाये जिससे जलवायु में होने वाले परिवर्तन को उस सीमा तक नहीं पहुँचने दिया जाये जहाँ वे खतरनाक हो सकें। विकसित तथा अमीर देशों की यह माँग रही है कि वे देश जो अर्थव्यवस्था के मामले में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं उनके लिये भी 2012 के बाद की अवधि के लिये उत्सर्जन की सीमा निर्धारित की जाये। उस सूची में भारत तथा चीन भी होंगे। यही कारण है कि भारत तथा चीन उस प्रस्ताव का विरोध करते रहे हैं, क्योंकि ऐसा होने से उनके विकास की प्रक्रिया प्रभावित होगी। यह मुद्दा काफी विवादास्पद बना हुआ है। यही कारण है कि अब तक इस मुद्दे पर किसी प्रकार का समझौता नहीं हो सका है।

पहले अमेरिका ने क्योटो संधि को मानने से मना किया था अब कनाडा भी इस संधि से बाहर हो गया है। रूस, जापान तथा न्यूजीलैंड ने अपने-अपने उत्सर्जन में कमी लाने से इनकार कर दिया है। इन देशों ने संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये। यूरोपीय संघ तथा आस्ट्रेलिया 2013 से 2020 के लिये उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को मान लिया है। परन्तु यूरोपीय संघ के साथ कुछ समस्याएँ हैं। परिणाम यह हुआ है कि वर्ष 2008 से 2012 के बीच क्योटो संधि केवल 5 प्रतिशत के बीच रही। परन्तु वह लक्ष्य भी हासिल नहीं हुआ।

दोहा में यह तो तय हो गया है कि क्योटो संधि वर्ष 2013 में जारी रहेगी अर्थात वर्ष 2012 के साथ समाप्त नहीं होगी। इसकी दूसरी अवधि 8 वर्ष की होगी। साथ ही उन राष्ट्रों ने जिन्होंने आगे उत्सर्जन को कम करने के लिये हामी भरी है, ने यह भी स्वीकार किया है कि वह अपने उत्सर्जन में होने वाली कमी के विषय में वर्ष 2014 तक पुनरावलोकन करेंगे ताकि वे अपने लक्ष्य को बढ़ा सकें। साथ ही क्योटो संधि से जुड़ी प्रक्रियाएँ जिनका सम्बन्ध बाजार से है वह भी 2013 में जारी रहेंगी। उनमें क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म (सी.डी.एम.), ज्वाइंट इम्पिलिमेंटेशन (जे.आई.) तथा इंटरनेशनल इमीशन ट्रेडिंग (आई.ई.टी.) आते हैं।

अब यह स्पष्ट हो गया है कि वर्ष 1997 में हुआ समझौता वर्ष 2020 तक जारी रहेगा। साथ ही इसका यह सकारात्मक पहलू भी है कि इसे मानने वाले देश वर्ष 1990 के स्तर को सामने रखते हुए उत्सर्जन में 18 प्रतिशत की कमी करेंगे। वर्ष 2020 के लिये यूरोपीय संघ ने 20 प्रतिशत की कमी का लक्ष्य रखा है।

अगर अमेरिका भी इस योजना में शामिल हो जाता है तो कमी 30 प्रतिशत हो सकती है। साथ ही यह भी तय पाया कि वर्ष 2015 तक एक व्यापक संधि तैयार होगी। उसके लिये एक समय-सारणी पर भी सहमति हुई। दोहा में एक और प्रगति हुई। वर्ष 2007 में बाली में जिस काम को शुरू किया गया था उसे अंजाम तक पहुँचाया गया कि अब उस उद्देश्य के बचे हुए कार्यक्रम को संयुक्त राष्ट्र संघ के जलवायु सम्बन्धित कार्यक्रम के अन्तर्गत आगे ले जाया जाएगा।

बाली में जो कार्यक्रम तैयार होना आरम्भ हुआ था उसका उद्देश्य था औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों के लिये उत्सर्जन में कमी की रूपरेखा तैयार करना जो क्योटो संधि के अन्तर्गत शामिल नहीं थे। उस श्रेणी में अमेरिका भी है। साथ ही विकासशील देश, जिन पर क्योटो संधि के अन्तर्गत कोई जिम्मेदारी नहीं थी, के लिये स्वेच्छा से उत्सर्जन में कमी की रूपरेखा बनाना। इसके अतिरिक्त जलवायु में परिवर्तन के कारण जिन देशों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेंगे। वे किस प्रकार उनके लिये तैयारी कर सकते हैं यह विषय भी उसी कार्य क्षेत्र में आता है। एक अन्य विषय जो ‘बाली संधि’ में आता था वह है विकासशील देशों के लिये वित्त की व्यवस्था, प्रौद्योगिकी की व्यवस्था तथा क्षमता में सुधार का मुद्दा। अब यह सब क्योटो संधि के साथ ही निपटाया जाएगा या संधि के अधीन तकनीकी समिति इन विषयों पर विचार करेगी।

दोहा में यह तय किया गया कि क्योटो संधि जारी रहेगी और साथ ही यह भी तय पाया कि वर्ष 2015 तक जलवायु परिवर्तन के विषय पर एक व्यापक संधि होगी। वह संधि वर्ष 2020 में लागू होगी और सभी देश उस संधि में शामिल होंगे। एक और यह बात तय पाई कि वर्ष 2020 के पहले समूचा विश्व अपने प्रयास को बढ़ाएगा ताकि पृथ्वी के औसत तापमान में होने वाली वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा के अन्दर रहे।

इस सम्बन्ध में यह फैसला भी लिया गया कि सभी देशों की सरकारें 1 मार्च, 2013 तक अपने सुझाव, आवश्यक सूचना, प्रस्ताव तथा इस दिशा में करने वाले पहल की जानकारी संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन सचिवालय को देंगी। सभी दस्तावेजों पर विचार करके सचिवालय मई 2015 से पहले एक मसौदा तैयार करेगा। उसी मसौदे के आधार पर वार्ता आरम्भ होगी।

वर्ष 2015 में उस संधि को अन्तिम रूप देने का प्रयास होगा। इसी बीच इस तथ्य का आकलन भी होगा कि जलवायु परिवर्तन का खतरा किस दिशा में बढ़ रहा है। अगर आवश्यकता होगी तो कार्ययोजना में तेजी लाई जाएगी। इस सम्बन्ध में उन देशों पर खास ध्यान जाएगा जिन पर अधिक प्रभाव पड़ सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण उन्हें बेहतर योजना बनाने में सहायता दी जाएगी ताकि वह आसानी से स्वयं को परिवर्तन के अनुकूल बना सकें।

चूँकि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव विकासशील देशों पर अधिक होगा, इसलिये दोहा में इस विषय पर भी चर्चा हुई कि किस प्रकार वैसे राष्ट्रों के लिये वित्त तथा प्रौद्योगिकी की व्यवस्था की जाये। ‘हरित जलवायु कोष’ के लिये कोरिया गणराज्य का चयन हुआ। वहीं से वित्त से सम्बन्धित स्थायी समिति भी काम करेगी। ऐसी आशा है कि वर्ष 2013 के मध्य से ‘हरित जलवायु कोष’ अपना काम शुरू कर देगी और वर्ष 2014 में वह सक्रिय हो जाएगी।

इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि कई ऐसे देश हैं जो बहुत कम विकसित हैं और उन पर समुद्र तल के ऊपर उठने के कारण काफी प्रभाव पड़ेगा। उनकी सहायता के लिये भी रास्ता निकाला गया है। इस प्रकार के देशों के लिये राष्ट्रीय स्तर पर अनुकूलन की योजना तैयार की जाएगी। उन्हें वित्त तथा दूसरी प्रकार की सहायता दी जाएगी। दोहा में एक और महत्त्वपूर्ण फैसला हुआ- देशों की क्षमता बढ़ाने के लिये एक नया कार्यक्रम आरम्भ किया जाएगा। जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी शिक्षा तथा प्रशिक्षण को होगा और आम लोगों में जागरुकता बनाने के लिये होगा। ताकि वे जलवायु परिवर्तन सम्बन्धित फैसलों में अपनी भागीदारी निभा सकें।

दोहा में कई अन्य फैसले भी हुए जो भविष्य के लिये काफी महत्त्वपूर्ण होंगे। उदाहरण के लिये यह तय पाया कि ऐसे रास्ते तय किये जाएँगे जिनसे वनों की कटाई का आकलन हो सकेगा। साथ ही वनों की कटाई को रोकने के प्रयास किये जाएँगे। क्योटो संधि के अधीन स्वच्छ विकास प्रक्रिया में कार्बन उत्सर्जन को रोकना तथा उसे जमा करने का भी प्रावधान है। दोहा में यह तय पाया कि इस मुद्दे पर भी विचार होगा कि किस प्रकार इस प्रक्रिया को कारगर बनाया जाये और उसे सही तरह से लागू किया जाए।

इसी सम्बन्ध में यह तय पाया कि एक ऐसी रजिस्ट्री भी होगी जहाँ विकासशील देशों के ग्रीन हाउस गैस के विषय में खास प्रकार के प्रयास का पंजीकरण होगा। वह रजिस्ट्री परिवर्तनात्मक होगी और लचीली भी। वह रजिस्ट्री वेबसाइट के रूप में होगी ताकि जो देश वहाँ सूचना देना चाहें वह दे सकें। विकासशील देशों द्वारा उत्सर्जन में की गई कमी को दूसरे देश खरीद भी सकेंगे ताकि अपनी कमी को पूरा कर सकें।

दोहा में यह तय किया गया कि संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सचिवालय (यू.एन.क्लाइमेट चेंज सेक्रेटेरियट) क्लाइमेट ग्रुप नामक संस्था के साथ मिलकर विश्व स्तर पर यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि किस प्रकार कम कार्बन-उत्सर्जन और स्वच्छ क्रान्ति लाखों लोगों के जीवन को बदल रही है। ये दोनों मिलकर इस बात का प्रयत्न करेंगे कि अधिक-से-अधिक वचनबद्धता हासिल की जाये ताकि पूरा विश्व कम कार्बन-उत्सर्जन की ओर कदम बढ़ा सके।

इस उद्देश्य को पाने के अन्तरराष्ट्रीय अवसरों का उपयोग किया जाएगा। यू.एन. क्लाइमेट चेंज सेक्रेटेरियट ने रॉकफेलर फाउंडेशन के साथ भी एक कार्यक्रम शुरू किया है, जिसका उद्देश्य है महिलाओं को समर्थन देना ताकि वे जलवायु परिवर्तन से मुकाबला कर सकें। इस अभियान को ‘मोमेंटम फॉर चेंज - वूमेन फॉर रिजल्ट्स’ का नाम दिया गया है। यह अभियान समाज के अलग-अलग वर्ग को यह बताना चाहेगा कि किस प्रकार महिलाएँ खाद्य पदार्थ, जल तथा ऊर्जा अन्तरबन्धन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

दोहा बैठक में भारत की अपनी कुछ माँग थी। पहली माँग थी कि वर्तमान में जो 10 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का वित्तीय प्रावधान है उसे बढ़ाया जाये। दूसरी माँग थी कि स्वच्छ प्रौद्योगिकी का खुले रूप से आदान-प्रदान हो। उस क्षेत्र में कॉपीराइट के मुद्दे को समाप्त किया जाये। एक और माँग थी कि विमानन तथा समुद्रीय क्षेत्र में जो कार्बन टैक्स लगाने की बात है उसे समाप्त किया जाये। उसमें से कुछ को मान लिया गया और उन पर भविष्य में चर्चा जारी रहेगी। परन्तु भारत में कई प्रेक्षकों का मत यह भी था कि दोहा में जो कुछ हुआ वह केवल शब्दों का खेल था।

यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित समाधान खोजने के लिये महिलाओं को अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए। जब भी समाधान की बात हो उन्हें नेतृत्व दिया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में यह भी फैसला हुआ कि ‘मोमेंटम फॉर चेंज: वूमेन फॉर रिजल्ट’ का पहला प्रदर्श अगली बैठक अर्थात कॉप-19 के समय पोलैंड में अगले वर्ष दिखाया जाएगा। विश्व के अनेक भाग में खाद्य पदार्थ के उत्पादन में महिलाओं की भूमिका 80 प्रतिशत तक पाई गई है। अफ्रीका के विषय में इस तथ्य के पूरे सबूत मिले हैं।

एशिया में भी भारत सहित अधिकतर देशों में कृषि में, पशुपालन में, खाद्य सामग्री के भंडारण तथा संशोधन में महिलाओं की बड़ी भूमिका होती है। यही कारण है कि यह माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन से महिलाएँ अधिक प्रभावित होंगी, इसलिये उनके योगदान को भी अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए।

दोहा में एक और फैसला हुआ जिसके अनुसार संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम अर्थात यू.एन.ई.पी. के नेतृत्व में एक सहायता संघ का गठन होगा जो क्लाइमेट टेक्नोलॉजी सेंटर (सी.टी.सी.) को सम्भालेगा। यह व्यवस्था आरम्भ में पाँच वर्ष के लिये होगी। जहाँ तक सी.टी.सी. का प्रश्न है तो यह संस्था अपने सम्बद्ध अन्य संस्थाओं के साथ मिलकर यू.एन.एफ.सी.सी. के प्रौद्योगिकी से जुड़े कार्यक्रमों को लागू करने का काम करती है।

यह भी तय पाया गया कि यू.एन.आई.डी.ओ. (यूनाईटेड नेशंस इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन) तथा अन्य ग्यारह जानी-मानी तकनीकी संस्थाएँ मिल कर सी.टी.सी. तथा उनकी सम्बद्ध अन्य संस्थाओं की देख-रेख करेंगी। इस प्रकार स्वच्छ ऊर्जा से सम्बन्धित प्रौद्योगिकियों के विकासशील तथा प्रौद्योगिक रूप से पिछड़े देशों तक पहुँचने की सम्भावना बेहतर हो गई है।

चूँकि जलवायु परिवर्तन को रोकने में तथा ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने में वित्त तथा धन की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका स्पष्ट है और यह मुख्य कारण है कि गरीब देश इस प्रयास में पूरी तरह से शामिल नहीं हो पाये हैं, दोहा में वित्त के प्रावधान से सम्बन्धित एक महत्त्वपूर्ण समझौता किया गया। वर्ल्ड इकोनोमिक फोरम तथा संयुक्त राष्ट्र जलवायु सचिवालय ने मिलकर एक कार्यक्रम आरम्भ किया जिसका नाम है ‘मोमेंटम फॉर चेंज: इनोवेटिव फाइनेंसिंग फॉर क्लाइमेट- फ्रेंडली इनवेस्टमेंट’। जैसा कि नाम से स्पष्ट है यह एक अभिनव प्रयास होगा जिसमें सरकार तथा निजी क्षेत्र की वित्तीय संस्थाएँ मिलकर काम करेंगी। और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न समस्याओं के लिये अुकूलन तथा उनमें कमी के लिये की जा रही गतिविधियों के लिये वित्त प्रदान करेंगी। उद्देश्य होगा आर्थिक रूप से तथा पर्यावरण की दृष्टि से सतत विकास के लिये प्रयास करना ताकि विश्व स्तर पर इस ओर तेजी से कदम उठाया जा सके।

इस कार्यक्रम को 6 दिसम्बर 2012 के दिन औपचारिक रूप से आरम्भ किया गया था। अब यह आशा बँधी है कि अभी इस दिशा में निवेश में जो कमी है वह समाप्त हो जाएगी। इसके अतिरिक्त विकसित देशों ने अपनी उस वचनबद्धता को भी दोहराया कि वर्ष 2020 तक वह 100 अरब डॉलर तक की व्यवस्था करेंगे जिसका उपयोग विकासशील देशों को दिये जाने के लिये होगा ताकि वे जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित कार्यक्रमों को आगे चला सकें। दोहा में इस विषय पर भी मत बना कि जलवायु परिवर्तन के कारण जिन देशों, खासकर बहुत छोटे देशों में आर्थिक रूप से या रोजगार के रूप में नुकसान होगा, उनका आकलन किया जाएगा और उसकी भरपाई के लिये कदम उठाए जाएँगे।

दोहा बैठक में भारत की अपनी कुछ माँग थी। पहली माँग थी कि वर्तमान में जो 10 अरब डॉलर प्रतिवर्ष का वित्तीय प्रावधान है उसे बढ़ाया जाये। दूसरी माँग थी कि स्वच्छ प्रौद्योगिकी का खुले रूप से आदान-प्रदान हो। उस क्षेत्र में कॉपीराइट के मुद्दे को समाप्त किया जाये। एक और माँग थी कि विमानन तथा समुद्रीय क्षेत्र में जो कार्बन टैक्स लगाने की बात है उसे समाप्त किया जाये। उसमें से कुछ को मान लिया गया और उन पर भविष्य में चर्चा जारी रहेगी। परन्तु भारत में कई प्रेक्षकों का मत यह भी था कि दोहा में जो कुछ हुआ वह केवल शब्दों का खेल था।

क्योटो के लिये संधि अवश्य हुई कि वह भविष्य में जारी रहेगी, परन्तु कमजोर तरीके से। अमेरिका ने उत्सर्जन में कमी के विषय में कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं दिया। जहाँ तक वित्त की व्याख्या का प्रश्न है तो पहले भी वादा होता रहा है परन्तु उन्हें पूरा नहीं किया गया था। एक उपलब्धि जो रही वह यह थी कि भविष्य में भी निष्पक्षता तथा अलग-अलग राष्ट्रों के लिये अलग-अलग जवाबदेही को जारी रखा जाएगा। अर्थात इक्विटी एंड कॉमन बट डिफरेेंशिएटेड रिस्पान्सबिलिटीज एंड रिस्पेक्टिव कैपेबिलिटीज के आधार पर काम होगा। यह मुद्दा भविष्य में काफी महत्त्वपूर्ण हो सकता है।

भारतीय सन्दर्भ में जलवायु परिवर्तन की समस्या का समाधान


विश्व के कई विकसित तथा विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन से उपजी समस्याओं का समाधान ढूँढा जा रहा है। लेकिन भारत केवल जलवायु ही नहीं, बल्कि कई अन्य कारणों से अपनी अलग विशेषता रखता है। अत्यन्त घनी आबादी वाला यह देश कृषि प्रधान है, जहाँ दो तिहाई से अधिक लोग गावों में निवास करते हैं तथा खेती पर निर्भर हैं।

इस सन्दर्भ में जलवायु परिवर्तन तथा भारत की वास्तविक समस्या का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आकलन सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक तथा हरित क्रान्ति के जनक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन ने किया है। उनके अनुसार गाँवों के देश भारत में किसी भी पर्यावरण सम्बन्धी समस्या का निदान ग्रामवासियों के सक्रिय सहयोग के बिना सम्भव नहीं है।

इस वर्ष मानसूनी वर्षा की असन्तुलित स्थिति तथा जलवायु परिवर्तन के संकट को डॉ. स्वामीनाथन ने परस्पर जोड़कर विश्लेषण किया है। इसके लिये विशाल भारत में दूर-दूर तक फैले गाँवों में बसने वाले ग्रामीणों को समुचित वैज्ञानिक जानकारी देनी होगी। उन्हें यह बताना होगा कि मानसूनी वर्षा की कमी से उत्पन्न समस्याओं से किस प्रकार निपटा जा सकता है। भारत में कृषि उत्पादन सम्बन्धी कई प्रभावी अनुसन्धान हो चुके हैं, जिसकी जानकारी से किसानों को कई प्रकार के संकटों से बचाया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन तथा मानसूनी वर्षा का असन्तुलन विषय पर राष्ट्रीय प्रसारण में डॉ. स्वामीनाथ ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक पंचायत में दो युवकों या युवतियों को जलवायु प्रबन्धक (क्लाइमेट मैनेजर) बनाए जिनका मुख्य काम अपने गाँव के लोगों को जलवायु तथा कृषि सम्बन्धी जानकारी प्रस्तुत करना हो। साथ ही यह सुझाव भी है कि कृषि महाविद्यालय तथा विद्यालयों के छात्रगण प्रत्येक साल महीने दो महीने के लिये गाँवों में किसानों से मिलकर उन्हें व्यावहारिक जानकारियाँ दें। तभी प्रयोगशाला से खेत तक का नारा सफल हो सकेगा।

जलवायु परिवर्तन की चुनौती तथा इसके प्रतिकूल प्रभावों के प्रति भारत में सजगता आई है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान, इस दिशा में कई पर्यावरणीय उपाय आरम्भ किये गए हैं जिनका लक्ष्य नदी जलधाराओं का संरक्षण, शहरी वायु गुणवत्ता में उपयुक्त सुधार, व्यापक वनीकरण और नवीकरण तथा ऊर्जा आधारित प्रौद्योगिकियों की स्थिति में वांछित सुधार करना है। भारत सरकार के पर्यावरण विभाग ने जलवायु परिवर्तन तथा इससे उत्पन्न अन्य प्रकार की समस्याओं के प्रति ध्यान देते हुए राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरों पर अनेक कार्यक्रम बनाए हैं।

भारत कृषि प्रधान देश है। जलवायु परिवर्तन का भयावह असर हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। वर्षा की पर्याप्त मात्रा न होने से इसका सीधा प्रभाव वायु तापमान पर पड़ता है। हमारे देश में प्राकृतिक संसाधनों विशेषकर वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं की विशाल धरोहर है तथा भारत का जैव-विविधता के क्षेत्र में पूरे विश्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस विविधता के संरक्षण हेतु हमें राष्ट्रीय स्तर पर जलवायु में हो रहे परिवर्तन के सम्बन्ध में अधिक-से-अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रयास करने होंगे।

भारत में जलवायु परिवर्तन के सम्भावित प्रतिकूल प्रभावों की जानकारी एवं अनुसन्धान हेतु 127 से अधिक संस्थाएँ एवं अनुसन्धान केन्द्र कार्य कर रहे हैं। अक्टूबर, 2009 में इन सभी संस्थानों को मिलाकर जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव के मूल्यांकन के लिये भारतीय नेटवर्क बनाया गया है। इसका नाम ‘इण्डियन नेटवर्क फॉर क्लाइमेट चेंज असेसमेंट (INCCA)’ दिया गया है। यह नेटवर्क जलवायु सम्बन्धित अनुसन्धान एवं अध्ययन के लिये मिलकर कार्य करेगा। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये भारत की प्रतिबद्धता का यह एक बेमिसाल उदाहरण है। इससे हमें जलवायु परिवर्तन के सम्बन्ध में जानकारी के लिये अन्य देशों पर आश्रित रहना नहीं पड़ेगा। इतना ही नहीं, भारत में जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण की दशा और दिशा तय करने में हमें काफी सहूलियत भी होगी

‘कार्बन-उत्सर्जन’ पर नियंत्रण पाने के लिये पुनरोपयोगी संसाधनों का उपयोग बढ़ाकर ही खतरे को कम किया जा सकता है। कुल मिलाकर आज के सन्दर्भ में यह आवश्यक है कि विश्व-मानव-समाज जलवायु परिवर्तन के खतरों से अनजान न बना रहे। समय रहते उठाया गया एक कदम, समय बीत जाने पर लगाई जाने वाली बेतहाशा दौड़ से कहीं ज्यादा समझदारी का काम है। समय अभी भी है।

 

सारिणी-10.2

एनेक्स के देश और उनका वर्ष 2012 तक ग्रीनहाउस गैसों में कटौती का लक्ष्य (वर्ष 1990 में होने वाले उत्सर्जन का प्रतिशत)

देश

2012 में 1990 के उत्सर्जन का प्रतिशत

ऑस्ट्रेलिया

108

आइसलैंड

110

न्यूजीलैंड, उक्रेन, रशियन फेडरेशन

100

नार्वे

99

बेलारूस, क्रोशिया

95

कनाडा, हंगरी, जापान, पोलैंड

94

अमेरिका

93

ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, बुल्गारिया, चेक रिपब्लिक, डेनमार्क, एस्टोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, आयरलैंड, इटली, लेटविया, लिचटेस्टीन, लिथुवानिया, लक्समबर्ग, मोनाको, नीदरलैंड्स, पुर्तगाल, रोमानिया, स्लोवाकिया, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, यूनाइटेड किंगडम

92

 

सन्दर्भ


1. पर्यावरण संरक्षण; प्रधान सम्पादक: डॉ. पुरुषोत्तम खन्ना; प्रकाशक: राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसन्धान संस्थान (नीरी) नागपुर, प्रथम संस्करण 1996
2. मौसम; लेखक: श्याम सुन्दर शर्मा, प्रकाशक: विज्ञान प्रसार नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2003
3. जलवायु परिवर्तन; लेखक: डॉ. शिवगोपाल मिश्र, प्रकाशक: नीलाभ प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण: 2013
4. वैश्विक तापन, लेखक: डॉ. दिनेश मणि, प्रकाशक: आईसेक्ट, भोपाल, प्रथम संस्करण: 2013
5. पर्यावरण पत्रिका, 2005
6. आविष्कार, अप्रैल, 2008
7. योजना, अप्रैल, 2010
8. पर्यावरण, जून, 2010
9. ड्रीम 2047, दिसम्बर, 2010
10. पर्यावरणविद, जनवरी, 2011
11. पर्यावरणविद, फरवरी, 2011
12. आविष्कार, मार्च, 2013


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