जलवायु परिवर्तनः सबसे ज़्यादा असर ग़रीबों पर

इस बात से सभी सहमत हैं कि हमारे वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की वृद्धि ही जलवायु परिवर्तन की वजह है। इस नीले ग्रह (पृथ्वी) पर जीवन के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी यही है। यदि कोई संदेह रह गया है तो भारत में मानसून की आंख मिचौली और पूरी दुनिया में जलवायु का अनिश्चित व्यवहार इसके प्रमाण हैं। ऐसा माना गया है कि तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से भी पूरा पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाएगा। वहीं 19वीं सदी के आरंभ से अभी तक वैश्विक तापमान में 0.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पहले ही हो चुकी है। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) का मानना है कि 2050 तक वैश्विक तापमान में 0.5 से 2.5 डिग्री सेल्सियस के बीच वृद्धि होगी, जबकि 2100 तक यह अनुमानित वृद्धि 1.4 से 5.8 डिग्री सेल्सियस के बीच हो जाएगी। ऐसा कहा गया है कि हर साल लगभग 10 बिलियन मीट्रिक टन कार्बन हमारे वायुमंडल में छोड़ा जा रहा है। इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में लगभग 1.1 और 2.9 डिग्री सेल्सियस के बीच बढ़ोत्तरी होगी। आईपीसीसी का आकलन है कि 2100 तक समुद्र के जलस्तर में 23 इंच तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। माना जा रहा है कि समुद्र के जलस्तर में एक इंच की वृद्धि लगभग एक मिलियन लोगों के विस्थापन की वजह बन रही है। मानव जाति के सामने आने वाली तबाही को देखते हुए राहत और पुनर्वास कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने की ज़रूरत है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) का भी मानना है कि आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए शरणार्थी संबंधी मुद्दों को जल्द हल करने की ज़रूरत है।

हमें अनियमित मानसून की समस्याओं से निपटने के लिए अपनी सिंचाई क्षमता को भी सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। हालांकि खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से नदियों को जोड़ने की प्रस्तावित परियोजना को अभी काफी लंबा स़फर तय करना है, पर यह कम ख़र्चीली और वैज्ञानिक रूप से व्यवहारिक भी है। इसमें संबंधित अनुसंधान और विकास तथा कृषि सुविधाओं के विस्तार के लिए विचार पर ज़ोर देने की ज़रूरत है।

जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि पर का़फी नकारात्मक असर पड़ रहा है, जिससे पैदावार में कमी के कारण खाद्यान्न संकट की समस्या भी उत्पन्न हो रही है। नतीजतन, दुनिया के 6.75 बिलियन लोगों को खाद्य सुरक्षा की गंभीर समस्या से दो-चार होना पड़ सकता है। अनियमित वर्षा की वजह से हम पानी की कमी की समस्या से भी जूझ रहे हैं। बारिश का अधिकांश पानी यूं ही अधिक बहाव की वजह से बर्बाद हो जाता है और जंगलों की कमी की वजह से ज़मीन में पानी सोखने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे सूखे की समस्या झेलनी पड़ती है। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि से न स़िर्फ कृषि प्रभावित होगी, बल्कि मीठे पानी में समुद्र का खारा पानी मिलने से पानी की विकट समस्या उत्पन्न हो जाएगी। इसलिए जल प्रबंधन नीति की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। वाटरशेड विकास पर भी ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन का सबसे ज़्यादा प्रभाव ग़रीबों और समाज के सबसे निचले तबके पर पड़ेगा, क्योंकि इनके पास बहुत सीमित क्षमता, योग्यता और स्रोत हैं। इसलिए समाज के इन वर्गों के जीविकोपार्जन के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन की गंभीर समस्या में नगण्य योगदान के बावजूद सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वालों में यही लोग होंगे। बेहतर स्वच्छता और सा़फ-स़फाई, आधारभूत शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएं और सुरक्षित पेयजल जलवायु परिवर्तन की समस्याओं के साथ-साथ दूसरे अन्य महत्वपूर्ण लक्ष्यों में शामिल हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है। स्वस्थ और बेहतर शिक्षित मानव संसाधन ही आने वाली चुनौतियों का सामना कर सकता है। चतुर्दिक विकास ही इन सभी समस्याओं को जड़ से दूर करने का सबसे बेहतर उपाय है। मशहूर समाज विज्ञानी जॉन रॉल्स बिल्कुल सही कहते हैं कि न्याय का मतलब ही होता है, कल्याण के दायरे में सभी व्यक्तियों का शामिल होना। दुनिया की सभी सरकारों को यह तय करना चाहिए कि इन परिस्थितियों से निपटने के लिए एक आपदा प्रबंधन योजना बनाई जाए। इसमें ही सभी समस्याओं का सार निहित है। फिर भी हक़ीक़त यह है कि इनसे निपटने के लिए यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन में विकसित और विकासशील देशों के बीच कई दौर की बातचीत के बावजूद सभी देश किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाए हैं।

भारत सहित कई विकासशील देशों का मानना है कि इन समस्याओं के लिए विकसित देश ज़िम्मेदार हैं, इसलिए उन्हें सबसे अधिक ज़िम्मेदारी साझा करनी चाहिए। आज भी संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन चीन से चार गुना और भारत से 20 गुना ज़्यादा है। हालांकि 2006 में चीन ख़ुद कार्बनडाई ऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में अमेरिका को भी पीछे छोड़ चुका है। भारत ने विकसित देशों के सामने प्रस्ताव रखा है कि उन्हें अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.5 फीसदी (1960 में साउथ कमीशन द्वारा प्रस्तावित 0.7 फीसदी से भी कम) हिस्सा अनुकूलन कोष (जैसे ग्रीन मार्शल प्लान) में देना चाहिए, जिससे जलवायु परिवर्तन की समस्याओं से निपटा जा सके। ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए न स़िर्फ उपभोक्तावाद पर ध्यान देने की ज़रूरत है, बल्कि पूरी दुनिया में उत्पादन और खपत की बढ़ रही ज़रूरतों को भी नियंत्रित करने की आवश्यकता है। निजी वाहनों की तादाद कम करने के लिए ईंधन और गाड़ियों पर अधिक टैक्स लगाने की भी स़िफारिश की गई है। इसके अलावा हमें अपनी प्रकृति को नुक़सान से बचाने और उसे पुन: हरा-भरा बनाने के लिए भी कई अन्य क़दम उठाने की जरूरत है। इन सभी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बड़े पैमाने पर वनीकरण की आवश्यकता है।

यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज के तहत क्लीन डेवलपमेंट मेकनिज़्म (सीडीएम) और एमिशन ट्रेडिंग सिस्टम भी लागू करने की आवश्यकता है। सीडीएम का मतलब है कि धनी देशों की फर्मों एवं संस्थाओं को यह प्रस्तावित किया गया है कि कार्बन उत्सर्जन में कमी के लिए विकासशील देशों की परियोजनाओं को आर्थिक मदद दी जाए। एमिशन ट्रेडिंग से तात्पर्य है कि जो देश तयशुदा सीमा से अधिक उत्सर्जन करेंगे, वे कम कार्बन उत्सर्जन वाले देशों को वित्तीय सहायता देकर ऐसा कर सकते हैं। हमें अनियमित मानसून की समस्याओं से निपटने के लिए अपनी सिंचाई क्षमता को भी सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। हालांकि खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से नदियों को जोड़ने की प्रस्तावित परियोजना को अभी काफी लंबा स़फर तय करना है, पर यह कम ख़र्चीली और वैज्ञानिक रूप से व्यवहारिक भी है। इसमें संबंधित अनुसंधान और विकास तथा कृषि सुविधाओं के विस्तार के लिए विचार पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। पश्चिमी देशों से पूर्व के देशों को तकनीक का हस्तांतरण कई समस्याओं को हल कर सकता है। कोयले से गैस बनाने, कार्बन पर नियंत्रण रखने, कम कार्बन वाले ईंधन की खोज और ऊर्जा के स्रोतों के विकास से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटा जा सकता है। ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों की तलाश और उनका इस्तेमाल भी जरूरी है। इस दिशा में अनुसंधान और विकास के लिए व्यापक स्तर पर निवेश की ज़रूरत है।

(लेखक आईएएस अधिकारी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके अपने हैं और इनका सरकार के विचारों से कोई संबंध नहीं है)
 

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