'जलयुद्ध' की तरफ बढ़ता भारत

25 Jun 2019
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2020 तक देश में दस करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे होंगे।
2020 तक देश में दस करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे होंगे।

हाल की रिपोर्ट के अनुसार, 2020 तक देश में दस करोड़ लोग पानी की कमी से जूझ रहे होंगे। इनमें दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में रहने वाले लोग शामिल होंगे। बेंगलुरु में तो अभी भी अच्छा-खासा कमाने वाले लोग तक पानी के टैंकर वालों के सामने घुटने टेके नजर आते हैं। हाल ही में सूखे की समस्या पर नजर रखने वाली व्यवस्था ड्राॅट अर्ली वार्निंग सिस्टम के हवाले से खबर आई है कि भारत का 42 प्रतिशत हिस्सा असामान्य सूखे की चपेट में है। यह आंकड़ा पिछले साल के मुकाबले छह प्रतिशत ज्यादा है। वहीं, छह प्रतिशत से थोड़ा कम हिस्सा विशेष रूप से सूखाग्रस्त है। इस स्थिति से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान जेसे राज्य शामिल है।

धरती का कटोरा खाली हो रहा है। हम लगातार जमीन से पानी खींच रहे हैं और जमीन के अंदर पानी को रिचार्ज करने का कोई व्यवस्थित तरीका हमने नहीं अपनाया। रिपोर्ट है कि देश के कई महानगरों, दर्जनों शहरों और गांवों में पानी नहीं है न इंसान के लिए और न ही जानवरों के लिए। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट भारत के 21 शहरों में 2020-30 के दशक तक जमीन के अंदर पूरी तरह से जल के खत्म होने की चेतावनी देती नजर आती है। इन चेतावनियों को अगर अनसुना किया गया तो वही हाल होगा जो समुद्र किनारे बसे केपटाउन शहर का हुआ।

एक आदमी को वर्ष में औसतन 1,700 घन मीटर से भी अधिक जल की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति के लिए जल की उपलब्धता 1,000 घन मीटर से नीचे चली जाती है तो यह मान लिया जाता है कि वहां पानी का अभाव हो चला है। पानी के उपभोग का यही गणित जब 500 घनमीटर के नीचे चला जाता है तो उस क्षेत्र में जल अकाल जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं। पिछले दिनों राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में जब सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी तो वहां प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 400 घन मीटर से भी नीचे चली जाती है।

केपटाउन पिछले तीन साल से पानी की तंगी झेल रहा है। वहां हाईजीन के स्टैंडर्ड फाॅलो करने वाली काॅरपोरेट कंपनियों को डर्टी शर्ट अभियान चलाना पड़ा। भले ही केपटाउन का डे जीरो टल गया हो, लेकिन दुनिया अभी भी प्यासी है। अफ्रीका से पानी के लिए जूझते लोगों को विचलित करने वाली तस्वीरें सामने आती है। हालांकि अफ्रीका की बात तो अपनी जगह है, हमारे ही देश में हर रोज करोड़ों लोग पानी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव-देहात की बात छोड़ो, देश की चमक के नगीने माने-जाने वाले शहरों की रंगत भी बिना पानी के सूखे की कगार पर है।

देश में बढ़ते जल संकट की ओर इशारा करती यह एकमात्र रिपोर्ट नहीं है। बीते कुछ दिनों से ऐसी खबरें सामने आई हैं जो भारत में पानी के मुद्दे को लेकर गंभीर चिंता पैदा करती है। इन रिपोर्टों पर गौर करें तो यह साफ दिखता है कि देश बहुत तेजी के साथ भयावह जल संकट की ओर बढ़ रहा है। नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 2020 तक देश में दस करोड़ लोग पानी की समस्या का सामना कर रहे होंगे। इनमें दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों में रह रहे लोग काफी बड़ी संख्या में शामिल रहेंगे। इस त्रासदी के लक्षण वर्षों पहले दिखने लग गए थे और आज भी साफ-साफ दिख रहे हैं। भारत की सिलीकाॅन वैली के नाम से मशहूर बेंगलुरु में लाखों-करोड़ों रुपए कमाने वाले लोग पानी के टैंकर वालों के सामने घुटने टेकते हुए नजर आ रहे हैं। इस शहर में कितनी ही ऐसी कहानियां मिलेंगी जहां 6 अंकों की सैलरी पानी से हार गई हो ओर इसी वजह से कितने ही लोग इस शहर को छोड़कर चले गए। आने वाली त्रासदी का यह तो महज एक नमूना है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में हर वक्त 60 करोड़ लोग साफ और सुरक्षित पीने के पानी के लिए जूझ रहे होते हैं। इनमें कुछ के सामने कम संकट और कुछ के सामने बहुत ज्यादा। इस संकट का भयावह पहलू यह है कि करीब दो लाख लोग साफ और पर्याप्त पानी की उपलब्धता न होने की वजह से हर साल जान गंवा रहे हैं। वहीं देश की राजधानी दिल्ली की बात करें तो, जो यमुना नदी के किनारे बसी है और गंगा तक पसरी हुई है। पीने के पानी को लेकर यहां भी हालात खराब हो रहे हैं। भले ही दिल्ली और एसीआर में हालात केपटाउन या बेंगलुरु जैसे न हो, लेकिन सच ये भी है कि कमोबेश यही हाल देश के हर बड़े शहर का है। विशेषज्ञों के अनुसार, पानी की कमी से जुड़े साक्ष्य हैं कि देश में दो लाख लोगों की जान सिर्फ पानी की कमी के चलते हो जाती है। ये स्थितियां बताती हैं कि जल का प्राकृतिक चक्र टूट गया है और अब इससे आम जीवन भी प्रभावित होने लगा है।

इस चक्र के बिगड़ने से धरती की गरमाहट भी लगातार बढ़ रही है। यह इसी का दुष्परिणाम है कि हिमालय पर भी ग्लेशियरों के पिघलने की खबरें तेजी के साथ आ रही हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जल संकट से उबरने के ऐतहासिक उपाय न करने के कारण ही जल के लिए युद्ध जैसी स्थिति पैदा हो गई है। सच्चाई यह है कि जल संकट की यह घटना प्राकृतिक आपदा की तुलना में सरकार द्वारा निर्मित मानवीय कुप्रबंधन और हमारे द्वारा जल की संस्कृति विकसित न करने का परिणाम अधिक है। पिछले पांच दशकों का इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार के जल संकटों से निबटने के लिए पिछली सरकारों ने राहत कार्यों के लिए तद्र्थवाद से प्रभावित होकर रोग पर सतही मरहम तो लगाया, परंतु जल संकट जैसी आपदा से निबटने के स्थायी समाधान ढूंढने के प्रयास नहीं किये गए।

पानी की उपलब्धता पिछले छह दशकों में घटकर 1,150 घनमीटर रह गई है।पानी की उपलब्धता पिछले छह दशकों में घटकर 1,150 घनमीटर रह गई है।

पानी से जुड़े अध्ययन बताते हैं कि एक आदमी को वर्ष में औसतन 1,700 घन मीटर से भी अधिक जल की आवश्यकता होती है। यदि व्यक्ति के लिए जल की उपलब्धता 1,000 घन मीटर से नीचे चली जाती है तो यह मान लिया जाता है कि वहां पानी का अभाव हो चला है। पानी के उपभोग का यही गणित जब 500 घनमीटर के नीचे चला जाता है तो उस क्षेत्र में जल अकाल जैसे लक्षण पैदा होने लगते हैं। पिछले दिनों राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और उत्तर प्रदेश में जब सूखे जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी तो वहां प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 400 घन मीटर से भी नीचे चली जाती है। आंकड़े बताते हैं कि 1951 में पेयजल की प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति उपलब्धता 5,177 घन मीटर थी, जो पिछले छह दशकों में घटकर 1,150 घनमीटर रह गई है।

आंकड़े यह भी बताते हैं कि यदि जल की उपलब्ध मात्रा घटने का यही हाल रहा तो आने वाले दशकों में देश के अधिकांश हिस्से सूखे की गिरफ्त में आ जाएंगे। सरकारें दावा कर रही हैं कि वे नदियों के प्रदूषण की समस्या को दूर करने के लिए हजारों करोड़ रूपए खर्च कर रही है, लेकिन हकीकत यह है कि तमाम कोशिशें के बावजूद भी अपेक्षित और जरूरी बदलाव नहीं हो पा रहा है। हाल ही में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कहा कि गंगा नदी का पानी सीधे पीने योग्य नहीं है, हालात नर्मदा के भी अच्छे नहीं है। मध्य प्रदेश और गुजरात के लोगों के लिए जीवनदायिनी यह नदी प्रदूषण के साथ अब अपने वजूद के संकट से गुुजर रही है। वहीं देश की बढ़ती जनसंख्या भी जल संकट के मुद्दे का अहम पहलू है जिस पर न के बराबर चर्चा होती है। इस हिसाब से गर्मी के साथ देश में प्यासे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। रिपोर्ट बताती है कि 2030 तक भारत डेढ़ अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाला देश बन जाएगा।

ऐसे में भूमिगत जल को बचाने के लिए जहां सरकारी नीति के जरिए वाॅटर वीक मनाने की जरूरत है, वहीं दूसरी ओर जल के उचित प्रबंधन करने की व्यावहारिक उपाय अपनाने की भारी जरूरत है। आज मानव के व्यवहार में जल संस्कृति को न केवल पुनर्जीवित करने और उसे समृद्ध बनाने की जरूरत है। सच यह है कि जल संरक्षण की जन चेतना के विस्तार के साथ-साथ इसके जरिये मानव जीवन में जल से जुड़ा अनुशासन आना भी बहुत ज्यादा जरूरी है। जल के बचाव और उसके रखरखाव के जरिये हम जल संस्कृति को विकसित करने और तभी उसकी सार्थकता को असल मायने में सिद्ध करने में कामयाब हो पाएंगे।

यही नहीं पानी को एक समस्या के रूप में मान्यता मिलनी चाहिए और इसके निराकरण को राष्ट्रीय एजेंडे में सर्वोच्च स्थान मिलना चाहिए। वैसे तो पानी के बारे में नीतियां, कानून और विनियमन बनाने का अधिकार राज्यों का है। फिर भी जल संबंधी सामान्य सिद्धांतों का व्यापक राष्ट्रीय जल संबंधी ढांचागत कानून तैयार करना समय की मांग है ताकि राज्यों में जल संचालन के लिए जरूरी कानून बनाने और स्थानीय जल स्थिति से निपटने के लिए निचले स्तर पर आवश्यक प्राधिकार सौंपे जा सकें। तेजी से बदल रहे हालात को देखते हुए नई जल नीति बनाई जानी चाहिए। इसमें हर जरूरत के लिए पर्याप्त जल की उपलब्धता और जल प्रदूषित करने वाले को कड़ी सजा को प्रावधान होना चाहिए। ऐसे प्रयासों के साथ ही धरती पर होने वाले जल-संकट का हल खोजा जा सकेगा

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