जमीन की राजनीति और संघर्ष की मशाल

आज देश में 3000 खदान परियोजनाएं हैं, 5000 से ज्यादा बांध हैं, शेरों को बचाने के नाम पर एक तरफ आदिवासियों को उजाड़ा जाता है तो दूसरी तरफ अपनी अय्याशियों के लिए नव पूंजीवादी पर्यटन के नाम पर संसाधनों पर कब्जा करते जा रहे हैं। हर साल औसतन 31 मामले ऐसे हो रहे हैं जहां जल, जंगल, जमीन और आजीविका की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे समाज पर सरकारी हिंसा होती है और 230 लोग मार दिए जाते हैं। जमीन का एक टुकड़ा मांगने वाले हर एक आदिवासी के जीवन से न्याय जैसा शब्द मिटा दिया जाता है। आंध्र प्रदेश में श्री काकुलम ताप विद्युत घर का और उड़ीसा में पास्को का विरोध, गोवा में खनन घोटाला, बेल्लारी में भूमिगत संसाधनों की लूट, उत्तर प्रदेश में चिल्कदांड का संघर्ष और सड़कों विद्युत संयंत्रों के नाम पर खेती की एक लाख एकड़ जमीन की लूट की खिलाफत, हिमाचल प्रदेश में हुल-1 जल विद्युत परियेाजना और लुहरी परियोजना, रेणुका बांध परियोजना का विरोध, पंजाब में कचरा आधारित प्रस्तावित बिजली घर का विरोध, राजस्थान में रावतभाटा में विकिरण रिसाव और बांसवाड़ा में सुपर क्रिस्तील विद्युत संयंत्र के लिए जमीन अधिग्रहण का विरोध.... देश में विकास के नाम पर जारी संसाधनों की विनाशकारी लूट के खिलाफ चल रहे संघर्षों की यह सूची बहुत लम्बी है। सरकार भले ही नासमझ बनती हो कि कोई विनाश नहीं हो रहा है, परंतु लोग बखूबी समझते हैं लूट की अर्थनीति को।

परतंत्रता, प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की विकास नीति, राजनीति और सत्ता, इन चारों के बीच सीधे और पारिवारिक संबंध है। देश में 5.37 करोड़ परिवार भूमिहीन हैं और 6.1 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास जमीन का इतना टुकड़ा भी नहीं है कि वे अपने लिए एक खुद का घर बना सकें। ऐसे लोग जहां भी रहते हैं उन्हें अतिक्रमणकारी कहा जाता है। अपने ही देश में इन लोगों को परायेपन का बार-बार एहसास करवाया जाता है। 1960 के दशक में देश में विनोबा भावे की कोशिशें और भूदान आंदोलन ने भूमि सुधार लाने वाली व्यवस्था की जरुरत को सामने रखा था। देश आजाद तो हो चुका था, अंग्रेज भी चले गए परंतु जमींदार और वर्गभेद तो वहीं का वहीं था। देश की 78 प्रतिशत आबादी के लिए आजादी का मतलब केवल अंग्रेजों के चले जाने से अलग नहीं था। जमींदारी, बंधुआ मजदूरी, संसाधनहीनता, कर्जदारी और शोषण से मुक्ति के बिना उनकी जिंदगी में 15 अगस्त कभी नहीं आ सकता था।

इसी दशक में सरकारों ने भी कहा था कि देश में भूमि सुधार नीति लाई जाएगी ताकि संसाधनों खास तौर पर जमीन का न्यायोचित वितरण हो क्योंकि इसके अभाव में देश की दो तिहाई आबादी बंधुआ मजदूरी, कर्ज और शोषण के चक्र के बाहर निकल ही नहीं सकती थी। वायदे किए गए, वायदे इतने कमजोर थे कि देश में कई कोशिशों के बाद भी 30 सालों में केवल 3 प्रतिशत जमीन का ही वितरण हो पाया जबकि कोरिया सरीखे देश में 2 वर्षों में 37 प्रतिशत जमीन का वितरण हो गया। अब यदि पिछले 22 वर्षों यानी उदारवादी आर्थिक नीतियों की काल को देखें तो पता चलता है कि जमीन बांटना किसी भी सरकार की मंशा हो ही नहीं सकती। इसी जमीन और अन्य संसाधनों की लूट पर तो देश की वृद्धिदर फल-फूल रही है। 20 साल पहले जिस डीएलएफ नाम की कंपनी को कोई जानता नहीं था वह कंपनी आज 3 लाख करोड़ की पूंजी की मालिक कैसे हो गई? कर्नाटक का एक समूह है - कर्थुरी समूह। इस समूह ने अफ्रीकी देशों में 3.50 लाख एकड़ जमीन हासिल की है, जिस पर वह फूलों का व्यापार करती है और स्थानीय अफ्रीकी उसके मजदूर बनकर काम करते हैं। जमीन जिंदगी ही नहीं सत्ता का चरित्र भी बदल सकती है। जिसके पास जमीन होगी वही स्वतंत्र होगा, उसके ही जीवन में सम्मान होगा और एक संभावना भी कि वह परिवार भूख और कुपोषण से नहीं मरेगा। आज 5.37 करोड़ लोग भूमिहीन हैं परंतु पिछले 20 वर्षों में 81 लाख हेक्टेयर जमीन औद्योगिकीकरण और देश के विकास के नाम पर 200 घरानों को दे दी गई। ये 200 घराने आज भारत की सत्ता और नीति बनाने वाली व्यवस्था को नियंत्रित करते हैं। बजट पेश करने से पहले देश के वित्तमंत्री किसानों से नहीं मिलते। वे मजदूरों से भी नहीं मिलते, परंतु औद्योगिक संगठनों के पास जाते हैं, उनकी बात सुनते हैं और पूरा किये जाने वाला वायदा करके भी आते हैं।

पिछले दशक में रोजगार की राजनीति चली थी, महात्मा गांधी के नाम पर इससे बड़ा भ्रष्टाचार हो ही नहीं सकता, जो व्यक्ति यह कहता रहा हो, कि गांव का मालिक गांव का व्यक्ति होगा, जमीन का मालिक समाज होगा, उस व्यक्ति के नाम पर महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना लाई गई, जो गांव के व्यक्ति, गांव और गांव से संसाधनों को एक साथ पूंजी-लोलुप वर्गों का गुलाम बनाती हो, जिसमें हर वक्त 50 करोड़ लोग याचक की मुद्रा में खड़े रहते हों, जिसमें जवाबदेहिता और पारदर्शिता एक मृगमरीचिका का अहसास देती हो, वह रोजगार कानून राजनीति का आधार बना। हम यह समझ ही नहीं पाए कि मजदूरी देकर आधिकारिक रूप से हमसे हमारे अधिकार छीन लिए जा रहे हैं। इस कानून में एक श्रम करने वाले व्यक्ति को अकुशल व्यक्ति माना गया, उसे जितनी कम हो सके उतनी मजदूरी, जिसे कानून न्यूनतम मजदूरी कहता है, का प्रावधान किया गया। इस कानून में कहा गया था कि लोग अपने गांव की विकास की योजनाएं खुद बनाएंगे और उन्हें व्यवस्था से जुड़ी हर जानकारी दी जाएगी, पर बाबूराज ने सुनियोजित तरीके से सरपंचों को भ्रष्ट और गैर जवाबदेह व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपने साथ कर लिया और गांव से चुना गया सरपंच ही भ्रष्टाचार के मामलों में नौकरशाही का हमराज हो गया।

यदि सामाजिक अंकेक्षण होगा तो न तो नौकरशाही को लाभ होगा और न ही सरपंच को, तो दोनों ने मिलकर सोशल ऑडिट का अंतिम संस्कार कर दिया और समाज को ही कानून - राष्ट्र विरोध बना दिया। बहुत जल्दी लोगों को यह बात पल्ले पड़ने लगी कि महात्मा गांधी रोजगार गारंटी योजना तो बहुत बड़ा धोखा है और अब लोग संसाधन आधारित आजीविका की मांग करने लगे हैं। वे अब जानते हैं कि जो मांग कर मिले वह हक नहीं है और यदि सरकार से मांग कर जो मिलेगा वह राज्य सत्ता की गुलामी से कम न होगा। आज देश में 3000 खदान परियोजनाएं हैं, 5000 से ज्यादा बांध हैं, शेरों को बचाने के नाम पर एक तरफ आदिवासियों को उजाड़ा जाता है तो दूसरी तरफ अपनी अय्याशियों के लिए नव पूंजीवादी पर्यटन के नाम पर संसाधनों पर कब्जा करते जा रहे हैं। हर साल औसतन 31 मामले ऐसे हो रहे हैं जहां जल, जंगल, जमीन और आजीविका की मांग को लेकर संघर्ष कर रहे समाज पर सरकारी हिंसा होती है और 230 लोग मार दिए जाते हैं। जमीन का एक टुकड़ा मांगने वाले हर एक आदिवासी के जीवन से न्याय जैसा शब्द मिटा दिया जाता है। उनके परिवारों की महिलाओं के गुप्तांगों में पत्थर घुसा दिए जाते हैं। उनके साथ बलात्कार होता है और किशोरों को गुमशुदा कर दिया जाता है। सरकार बस इतना मानती है कि जो भी उसकी जनविरोधी नीतियों के खिलाफ खड़ा होगा, उसे सम्मानजनक जीवन का अधिकार न मिलेगा। आज देश के कोने- कोने में जनसंघर्ष चल रहे हैं। आज लोग यह तो पूछते ही हैं कि विकल्प क्या हैं?

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