जमीन ना बचाई तो पैरों तले से खिसक जाएगी

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पृथ्वी दिवस पर विशेष


खेती में अव्वल कहे जाने वाले हरियाणा में कोई 35 लाख हेक्टेयर खेती की ज़मीन है। राज्य का कृषि विभाग अब चिन्तित है कि यदि हालात ऐसे ही रहे तो जल्द ही हजारों हेक्टेयर खेती की ज़मीन बंजर हो जाएगी। पलवल जिले की 70 हजार हेक्टेयर भूमि में पोषक तत्व जिंक की कमी हो गई है। इसी तरह फ़रीदाबाद जिले में 46 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में, गुड़गाँव में 1 लाख 12 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में और मेवात जिले में 40 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में जिंक की कमी हो गई है।

यह सब अन्धाधुन्ध इस्तेमाल किए जा रहे केमिकल फर्टिलाइजर के उपयोग से हो रहा है। इसी तरह कई अन्य पोषक तत्व भी चुकते जा रहे हैं। कारण- बेतहाशा रसायनों व दवाइयों का इस्तेमाल। दादरी क्षेत्र के करीब पाँच हजार हेक्टेयर भूमि में धान की रोपाई की जा रही है। धान उत्पादन के लिये अधिक पानी की जरूरत होती है। इसलिये अधिकतर नहर के समीपवर्ती क्षेत्रों में किसानों ने नमी ज्यादा रहने के कारण धान रोपाई का कार्य शुरू किया। धीरे-धीरे धान का एरिया बढ़ता गया।

देखादेखी में 20-25 गाँवों में धान की फसल लगाई जाने लगी। लेकिन धीरे-धीरे यह जमीन दलदली होती गई और जलभराव की स्थिति पैदा होने लगी। जलभराव के कारण किसानों को अन्य फसलों जैसे ज्वार, कपास, बाजरा, सरसों, चना आदि का फायदा भी नहीं मिल पा रहा है और जमीन के बंजर होने का भी खतरा पैदा होने लगा।

छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में किसानों की अधिक-से-अधिक उत्पादन लेने की लालसा के चलते सबसे कीमती उपजाऊ जमीन अम्लीयता की भेंट चढ़ती जा रही है। कृषि विभाग के द्वारा कराए गए मिट्टी परीक्षण में यह चौंकाने वाला खुलासा हुआ है। जिले में एक हजार से ज्यादा किसानों की ज़मीन की अम्लीयता निर्धारित स्तर से कहीं ज्यादा बढ़ गई है। जल्द ही ध्यान नहीं दिया गया तो यह उपजाऊ जमीन बंजर में तब्दील हो जाएगी।

द्विफसलीय उत्पादन के लिये प्रतिवर्ष औसत रूप से सवा दो लाख एकड़ में सोयाबीन तथा पौने तीन लाख एकड़ में चने की फसल बोई जाती है। दोहरा फसल उत्पादन के नाम पर वर्षा ऋतु के समय सोयाबीन की बोनी बड़े पैमाने पर की जाती है। इसके बाद सोयाबीन की फसल काटकर किसान रबी फसल में चना, मसूर, करायत, धनिया आदि फसल ली जाती है। बेमेतरा कृषि विभाग के उपसंचालक जी.एस. ध्रुवे कहते हैं कि छह हजार किसानों ने मिट्टी परीक्षण कराया है, जिसमें से करीब एक हजार किसानों की जमीन में अम्लीयता पाई गई है।यह तो महज कुछ बानगी है, देश के हर जिले, हर गाँव में खेती वाली ज़मीन कुछ ऐसे ही कराह रही है। आज आधुनिकता और विकास के दौर में शस्य श्यामाला भूमि बंजर होती जा रही है। जब पृथ्वी पर जनसंख्या विस्फोट हो रहा है। लोगों के रहने, उनका पेट भरने के लिये खाद्य पदार्थ उगाने, विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट से जूझने के लिये हरियाली की जरूरत दिन-दुगना, रात चौगुना बढ़ रही है, वहीं धरती का मातृत्व गुण दिनों-दिन चुकता जा रहा है।

सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि मानव-सभ्यता के लिये यह संकट स्वयं मानव समाज द्वारा कथित प्रगति की दौड़ में उपजाया जा रहा है। जिस देश के अर्थतन्त्र का मूल आधार कृषि हो, वहाँ एक तिहाई भूमि का बंजर होना एक शोचनीय प्रश्न है। विदित हो देश में कुछ 32 करोड़ 90 लाख हेक्टेयर भूमि में से 12 करोड़ 95 लाख 70 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है।

भारत में बंजर भूमि के ठीक-ठीक आकलन के लिये अभी तक कोई विस्तृत सर्वेक्षण तो हुआ नहीं है, फिर भी केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्रालय का फौरी अनुमान है कि देश में सर्वाधिक बंजर जमीन मध्य प्रदेश में है, जो दो करोड़ एक लाख 42 हेक्टेयर है। उसके बाद राजस्थान का नम्बर आता है जहाँ एक करोड़ 99 लाख 34 हेक्टेयर, फिर महाराष्ट्र जहाँ एक करोड़ 44 लाख एक हजार हेक्टेयर बंजर जमीन है। आन्ध्र प्रदेश में एक करोड़ 14 लाख 16 हजार हेक्टेयर, कर्नाटक में 91 लाख 65 हजार, उत्तर प्रदेश में 80 लाख 61 हजार, गुजरात में 98 लाख 36 हजार, उड़ीसा में 63 लाख 84 हजार तथा बिहार में 54 लाख 58 हजार हेक्टेयर ज़मीन, अपने ज़मीन होने की विशिष्टता खो चुकी है। पश्चिम बंगाल में 25 लाख 36 हजार, हरियाणा में 24 लाख 78 हजार, असम में 17 लाख 30 हजार, हिमाचल प्रदेश में 19 लाख 78 हजार, जम्मू-कश्मीर में 15 लाख 65 हजार, केरल में 12 लाख 79 हजार हेक्टेयर जमीन, धरती पर भार बनी हुई है। पंजाब सरीखे कृषि प्रधान राज्य में 12 लाख 30 हजार हेक्टेयर, उत्तर-पूर्व के मणिपुर, मेघालय और नागालैंड में क्रमशः 14 लाख 38 हजार, 19 लाख 18 हजार और 13 लाख 86 हजार हेक्टेयर भूमि बंजर है। सर्वधिक बंजर भूमि वाले मध्य प्रदेश में भूमि के नष्ट होने की रफ्तार भी सर्वाधिक है। यहाँ गत दो दशकों में बीहड़ बंजर दुगने होकर 13 हजार हेक्टेयर हो गए हैं।

धरती पर जब पेड़-पौधों की पकड़ कमजोर होती है तब बरसात का पानी सीधा नंगी धरती पर पड़ता है और वहाँ की मिट्टी बहने लगती है। जमीन के समतल न होने के कारण पानी को जहाँ भी जगह मिलती है, मिट्टी काटते हुए वह बहता है। इस प्रक्रिया में नालियाँ बनती हैं और जो आगे चलकर गहरे होते हुए बीहड़ का रूप ले लेती है।

एक बार बीहड़ बन जाए तो हर बारिश में वो और गहरा होता चला जाता है। इस तरह के भूक्षरण से हर साल लगभग 4 लाख हेक्टेयर जमीन उजड़ रही है। इसका सर्वाधिक प्रभावित इलाका चम्बल, यमुना, साबरमती, माही और उनकी सहायक नदियों के किनारे के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान और गुजरात है। बीहड़ रोकने का काम जिस गति से चल रहा है उसके अनुसार बंजर खत्म होने में 200 वर्ष लगेंगे, तब तक ये बीहड़ ढ़ाई गुना अधिक हो चुके होंगे।

प्राकृतिक और मानव-जनित कारणों की संयुक्त लापरवाही के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर, जंगल सभी पर खतरा है। पेयजल संकट गहरा रहा है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिये कोई कार्यवाही नहीं किया जाना एक विडम्बना ही है। आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिये आमन्त्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है।

बीहड़ों के बाद, धरती के लिये सर्वाधिक जानलेवा, खनन-उद्योग रहा है। पिछले तीस वर्षों में खनिज-उत्पादन 50 गुना बढ़ा लेकिन यह लाखों हेक्टेयर जंगल और खेतों को वीरान बना गया है। नई खदान मिलने पर पहले वहाँ के जंगल साफ होते हैं। फिर खदान में कार्यरत श्रमिकों की दैनिक जलावन की जरूरत पूर्ति हेतु आस-पास की हरियाली होम होती है।

तदुपरान्त खुदाई की प्रक्रिया में जमीन पर गहरी-गहरी खदानें बनाई जाती हैं, जिनमें बारिश के दिनों में पानी भर जाता है। वहीं खदानों से निकली धूल-रेत और अयस्क मिश्रण दूर-दूर तक की जमीन की उर्वरा शक्ति हजम कर जाते हैं। खदानों के गैर नियोजित अन्धाधुन्ध उपायोग के कारण जमीन के क्षारीय होने की समस्या भी बढ़ी है। ऐसी जमीन पर कुछ भी उगाना नामुमकिन ही होता है।

हरित क्रान्ति के नाम पर जिन रासायनिक खादों द्वारा अधिक अनाज पैदा करने का नारा दिया जाता है, वे भी जमीन की कोख उजाड़ने की जिम्मेदार रही हैं। रासायनिक खादों के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से पहले कुछ साल तो दुगनी-तिगुनी पैदावार मिली, फिर उसके बाद भूमि बंजर हो रही है। यही नहीं जल समस्या के निराकरण के नाम पर मनमाने ढंग से रोपे जा रहे नलकूपों के कारण भी जमीन कटने-फटने की शिकायतें सामने आई हैं।

सार्वजनिक चरागाहों के सिमटने के बाद रहे बचे घास के मैदानों में बेतरतीब चराई के कारण भी जमीन के बड़े हिस्से के बंजर होने की घटनाएँ मध्य भारत में सामने आई हैं। सिंचाई के लिये बनाई गई कई नहरों और बाँधों के आस-पास जल रिसने से भी दल-दल बन रहे हैं।

ज़मीन को नष्ट करने में समाज का लगभग हर वर्ग और तबका लगा हुआ है, वहीं इसके सुधार का जिम्मा मात्र सरकारी कन्धों पर है। 1985 स्थापित राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड ने 20 सूत्रीय कार्यक्रम के 16वें सूत्र के तहत बंजर भूमि पर वनीकरण और वृक्षारोपण का कार्य शुरू किया था।

आँकड़ों के मुताबिक इस योजना के तहत एक करोड़ 17 लाख 15 हजार हेक्टेयर भूमि को हरा-भरा किया गया। लेकिन इन आँकड़ों का खोखलापन सेटेलाईट द्वारा खींचे गए चित्रों से उजागर हो चुका है। क्षारीय भूमि को हरा-भरा बनाने के लिये केन्द्रीय वानिकी अनुसंधान संस्थान, जोधपुर में कुछ सफल प्रयोग किए गए हैं। यहाँ आस्ट्रेलिया में पनपने वाली एक प्रजाति झाड़ी का प्रारूप तैयार किया गया है, जिसे गुजरात व पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तानी क्षारीय ज़मीन पर उगाया जा सकता है। ‘‘साल्ट-बुश’’ नामक इस झाड़ी को भेड़ बकरियाँ खा भी सकती हैं।

संस्थान में कुछ अन्य विदेशी पेड़ों के साथ-साथ देशी नीम, खेजड़ी, रोहिड़ा, बबूल आदि को रेतीले क्षेत्रों में उगाने के प्रयोग किए जा रहे हैं। कुछ सालों पहले बंजर भूमि विकास विभाग द्वारा बंजर भूमि विकास कार्य बल के गठन का भी प्रस्ताव था। कहा गया कि रेगिस्तानी, पर्वतीय, घाटियों, खानों आदि दुर्गम भूमि की गैर वनीय बंजर भूमि को स्थाई उपयोग के लायक बनाने के लिये यह कार्य-बल काम करेगा। लेकिन यह सब कागजों पर बंजर से अधिक साकार नहीं हो पाया।

शहर ग्रीन करोप्राकृतिक और मानव-जनित कारणों की संयुक्त लापरवाही के चलते आज खेती, पशुपालन, गोचर, जंगल सभी पर खतरा है। पेयजल संकट गहरा रहा है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकार के विभिन्न विभागों के कब्जे में पड़ी ढेर सारी अनुत्पादक भूमि के विकास के लिये कोई कार्यवाही नहीं किया जाना एक विडम्बना ही है। आज सरकार बड़े औद्योगिक घरानों को तो बंजर भूमि सुधार के लिये आमन्त्रित कर रही है, लेकिन इस कार्य में निजी छोटे काश्तकारों की भागीदारी के प्रति उदासीन है।

विदित हो हमारे देश में कोई तीन करोड़ 70 लाख हेक्टेयर बंजर भूमि ऐसी है, जो कृषि योग्य समतल है। अनुमान है कि प्रति हेक्टेयर 2500 रुपए खर्च कर इस जमीन पर सोना उगाया जा सकता है। यानि यदि 9250 करोड़ रुपए खर्च किए जाएँ तो यह ज़मीन खेती लायक की जा सकती है, जो हमारे देश की कुल कृषि भूमि का 26 प्रतिशत है।

सरकारी खर्चाें में बढ़ोत्तरी के मद्देनज़र जाहिर है कि इतनी राशि सरकारी तौर पर एकमुश्त मुहैया हो पाना नामुमकिन है। ऐसे में भूमिहीनों को इसका मालिकाना हक देकर उस ज़मीन को कृषि योग्य बनाना, देश के लिये क्रान्तिकारी कदम होगा। इससे कृषि उत्पाद बढ़ेगा, लोगों को रोज़गार मिलेगा और पर्यावरण रक्षा भी होगी।

यदि यह भी नहीं कर सकते तो खुले बाजार के स्पेशल इकोनॉमी जोन बनाने के लिये यदि ऐसी ही अनुपयोगी, अनुपजाऊ जमीनों को लिया जाए। इसके बहुआयामी लाभ होंगे - जमीन का क्षरण रुकेगा, हरी-भरी जमीन पर मँडरा रहे संकट के बादल छँटेंगे। चूँकि जहाँ बेकार बंजर भूमि अधिक है वहाँ गरीबी, बेरोजगारी भी है, नए कारखाने वगैरह लगने से उन इलाकों की आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी। बस करना यह होगा कि जो पैसा जमीन का मुआवजा बाँटने में खर्च करने की योजना है, उसे समतलीकरण, जल संसाधन जुटाने, सड़क-बिजली मुहैया करवाने जैसे कामों में खर्च करना होगा।

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